किस तरहां से दूं,नववर्ष की शुभकामनाएं

उम्मीदें तो हम कर ही सकते हैं कि आने वाला साल सबके लिए सुकूनभरा और प्रगति के पहिये पर सवार हो, पर बीते साल ने एक के बाद एक जो जख़्म दिये हैं, उसे अगले एक साल में भूलना मुश्किल होगा...पर क्या यह भी हम पूरे विश्‍वास से कह सकते हैं। हम भारत के लोगों की सहनशीलता जख्म सहते-सहते काफी मजबूत हो चुकी है। इसलिए यह कहना भी अप्रासंगिक हो सकता है कि नये वर्ष का जश्‍न न मनाया जाए।...

खैर, सीधीबात के लिए सक्रिय एडिटोरियल प्लस डेस्क के सभी पत्रकार साथियों के तरफ से मैं पत्रकार मीतेन्द्र नागेश ‘ पत्थर नीलगढ़ी’ की इस कविता के साथ आप तमाम ब्लॉगर बंधुओं, बुद्धिजीवियों व संवेदनशील पाठकों को अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं:

किस तरहां से दूं
नववर्ष की शुभकामनाएं।

जब मैं दे रहा होऊंगा,
नववर्ष की शुभकामनाएं
तो,

मेरी आंखों में तुम्हें चमक नहीं,
दिखेंगे खून के आंसू।

मेरे चहरे पर उत्साह नहीं,
दिखेगा तैरता हुआ खौफ।

मेरे होंठ संकोच से
कांप रहे होंगे।
मेरी जुबां लड़खड़ा रही होगी।

गर गले मिलने का साहस भी जुटा पाया
तो,

शायद खुद को तुममें
छुपाने का प्रयास ही होगा
क्योंकि अभी-अभी

देखा है मैंने निदोर्षों का लहू
जमीं पर गिरता हुआ।

मैंने सुनी हैं चीखें,
मौत से जूझती हुई।

मैंने देखा हैं जिंदे जिस्मों को
गोश्‍त बनते हुए।

फिर भी एक परंपरा को निभाते हुए
बस इतना कहूंगा,

गर वाकई कल से
एक नया वक्त शुरू हो
तो, खुदा बस इतना कर दे

इस देश के युवाओं में जोश भर दे,
इस देश के नेताओं में होश भर दे।

जनता को जागरूक और,
देश तोड़ने वालों के मन में
एकता भर दे।
- पत्थर नीलगढ़ी

उस्तादों के उस्ताद मिर्ज़ा ग़ालिब

हम एकेश्‍वरवादी हैं। हमारा धर्म रूढ़ियों का त्याग है। सांप्रदायिकता का लुप्त हो जाना ही सत्य धर्म का प्रकट होना है।
उदय केसरी
आज से दो सौ ग्यारह साल पहले आगरा की धरती पर जन्म लिया था उस शख्स ने। उस जैसा आज तक कोई दूसरा नहीं हुआ और आगे शायद ही हो। वह बचपन से ही कोई आमशख्स नहीं था। उसे तो जैसे खुदा ने बड़ी तबीयत से गढ़ा, इस जहां के लिए। उसके हृदय में दुनिया के तमाम कवि हृदयों की गहराइयों को समेटकर एक साथ डाल दिया। उसके मस्तिष्क में जीवनदर्शन की अंतिम ज्योति भी प्रज्जवलित कर दी। पर शायद खुदा उस शख्स को गढ़ने के दौरान कवि हृदय की असीम गहराई और मानव जीवन दर्शन के अनंत ज्ञानलोक में खो गये, तभी तो वे उस नायाब शख्स की तकदीर पर विशेष ध्यान नहीं दे सके। उस शख्स के जीवनकाल की भौतिक समृद्धि और पारिवारिक सुख से नजरें चूक गईं। फिर भी, जो दिया दिल खोलकर दिया, जैसा आज तक किसी को नहीं मिला। तभी, उस शख्स के अक्स को मिटा, छिपा पाने में वक्त की परतें सौकड़ों साल बाद भी नाकाम हैं। उस शख्स की जुबां से निकले शेर के एक-एक शब्द की गहराइयों में उतरना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है। जाहिर है हम बात कर रहे हैं, उसी अज़ीम शख्स की, जिसका पूरा नाम मिर्ज़ा असदउल्लाह खां और जिसे सारा ज़माना मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानता है।

चौड़ा-चकला हाड़, लंबा कद, सुडौल इकहरा जिस्म, भरे-भरे हाथ-पैर, सुर्ख चेहरा, खड़े नाक-नक्‍श, चौड़ी पेशानी, घनी लंबी पलकें, बड़ी-बड़ी बादामी आंखें और सुर्ख गोरे रंग वाले मिर्ज़ा ग़ालिब का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक था। ऐबक तुर्क वंश के इस शख्स का मिजाज ईरानी, धार्मिक विश्‍वास अरबी, शिक्षा-दीक्षा फारसी, भाषा उर्दू और संस्कार हिन्दुस्तानी था। दस-ग्यारह साल की उम्र में मकतब (पाठशाला) में पढ़ाई के दौरान ही ग़ालिब की जुबां से एक से बढ़कर एक शेर निकलने लगे थे। शेर सुनकर लोग अक्सर उसकी अवस्था और शेर के ऊंचे दर्जे से भौचक्के रह जाते थे। इस शख्स ने पच्चीस पार करने से पूर्व ही उच्चकोटि के क़सीदे और ग़ज़लें कह डाली थीं। तीस-बत्तीस के होते-होते ग़ालिब ने अपनी शेरो-शायरी की जादूगरी से कलकत्ते से दिल्ली तक हलचल-सी मचा दी थी। उस ज़माने में दिल्ली में खासा शायराना माहौल हुआ करता था। दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफ़र खुद शायर थे। आए दिन शेरो-शायरी की महफिलें जमती थीं। इन महफिलों में ग़ालिब ने अपने कलाम पढ़कर न जाने कितने ही मुशायरे लूट लिये। इस शख्स के शेर तो खासमखास होते ही थे, अंदाज-ए-बयां भी अलहदा था। जिस पर सुनने वाले लुट-लुट जाते थे। उस्तादों के उस्ताद ग़ालिब कभी किसी उस्ताद शायर के शार्गिद नहीं बने, उन्हें तो जैसे कवित्वमय इस सुंदर दुनिया की रचना करने वाले सबसे बड़े उस्ताद ने ऊपर से ही सब कुछ सिखाकर धरती पर भेजा था। इतना कि वे शायरी जगत के समकालीन बड़े-बड़े उस्तादों के शेरों की नुक्ताचीनी भी कर दिया करते थे।

जैसा कि हर उस शख्स का मिजाज कुछ खास होता है, जो आम से हटकर और आसाधारण प्रतिभा का धनी होता है, ग़ालिब का मिजाज भी बेशक अलहदा था। दृढ़ स्वाभिमानी, जो निश्‍चय कर लिया, वह ब्रहमलकीर, जो कह दिया, उससे डिगना नामुमकिन। लेकिन उनकी भौतिक तकदीर सजाने में जैसे खुदा से चूक हो गई हो, उनका जीवन इस धरती पर भौतिक सुख के लिए सदा तरसता रहा। बावजूद इसके कभी उन्‍होंने अपने मिजाज या कहें दृढ़ स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। उस अजीम शख्स के जीवन में धन की तंगी तो रही ही, पारिवारिक सुख भी बहुत कम ही मिला। आगरा में 28 दिसंबर 1797 में उनके जन्म लेने के कुछेक साल बाद ही पिता और चाचाजी चल बसे। बचपन में ही वे अनाथ सरीखे हो गए। लालन-पालन ननिहाल (आगरा) में हुआ। जब उन्होंने होश संभाला आर्थिक तंगहाली को अपने साथ पाया और यह ताजिंदगी उनके साथ रही। लेकिन इससे उस शख्स ने कभी हार नहीं मानी। उनकी जीवनशैली कोई आम नहीं, रईसों की थी। कर्ज में डूबकर भी, अपने रईसी शौक से कभी उन्होंने तौबा नहीं की। करेला, इमली के फूल, चने की दाल, अंगूर, आम, कबाब, शराब, मधुरराग और सुंदर मुखड़े सदा उन्हें आकर्षित करते रहे। तभी तो ग़ालिब ने अपने एक शेर में कहा-

कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हां
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन

एक बार कर्ज के पहाड़ ने ग़ालिब को अपने घर में बंद रहने तक को मजबूर कर दिया, जब एक दीवानी मुकदमे में उनके खिलाफ पांच हजार रुपये की डिग्री हो गई। क्‍योंकि उस जमाने में कर्जदार व्यक्ति यदि प्रतिष्ठित होता, तो उसे घर के अंदर से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था। ऐसी दुर्दशा में भी मिर्जा साहब अपने शतरंज और चौसर खेलने के शौक को पूरा करते थे। दिल्ली के चांदनी चौक के कुछ लौहरी मित्र के बीच जुआं चला करता था, जो ग़ालिब के घर पर ही जुआं खेलने पहुंच जाते थे। बादशाह घराने के कई लोग, धनवान जौहरी से लेकर शराब विक्रेताओं तक और दिल्ली के पंडितों, विद्वानों से लेकर अंग्रेज अधिकारियों तक अनेक लोग उस शख्स की बेमिसाल शायरी के कद्रदान थे और जो इनके खास मित्र भी हुआ करते थे। बीस-पच्चीस साल की उम्र होने से पहले जवानी में ग़ालिब नृत्य, संगीत, शराब, सुंदरता व जुएं की रंगीन दुनिया से खासा मोहित रहे। मगर इसके बाद इन सब से बहुत हद तक उनका मोहभंग हो गया। यह वक्त जैसे मिर्जा ग़ालिब के जीवन का अहम मोड़ था। वह जीवन दर्शन की दिशा में चल पड़े। उनकी शायरी में सूफियों जैसे स्वतंत्र व धर्मनिरपेक्ष विचार व्यक्त होने लगे। इस दौर में उन्होंने एक शेर लिखा-

हम मुवाहिद हैं, हमारा केश है तर्के-रसुम
मिल्लतें जब मिट गई, अजज़ाए-ईमां हो गई।

मतलब यह कि, हम एकेश्‍वरवादी हैं। हमारा धर्म रूढ़ियों का त्याग है। सांप्रदायिकता का लुप्त हो जाना ही सत्य धर्म का प्रकट होना है।

ग़ालिब से पहले उर्दू शायरी में गुलो-बुलबुल, हुस्नो-इश्‍क आदि के रंग कुछ ज्यादा ही हुआ करते थे। यह ग़ालिब को पसंद न था। इसे वे ग़जल की तंग गली कहते थे, जिससे वे अपने शेरों के साथ गुजर नहीं सकते थे। इसलिए उन्होंने ऐसी शायरी करने वाले उस्तादों को अपने शेरों में खूब लताड़ा। इस कारण इन उस्तादों द्वारा उनका मजाक उड़ाया जाता था, जिसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। दिलचस्‍प तो यह कि ग़ालिब के शेरों की आलोचना उनसे खिसियाये या घबराये उस्तादों ने जितनी नहीं की, उतनी उन्होंने स्वयं की। यह अजीब ही था कि ग़ालिब अपनी शायरी के कठोर आलोचक भी थे। तभी तो उन्होंने, जब दीवान-ए-ग़ालिब संकलन तैयार करना शुरु किया, तो बचपन से लेकर जिंदगी के अंतिम दौर तक लिखे असंख्य शेरों में से दो हज़ार शेरों को बड़ी बेदर्दी से निरस्त कर दिया। इस कारण ग़ालिब का यह महान संकलन छोटा तो है, लेकिन इसमें जो शेर हैं, वह उर्दू शायरी के सर्वश्रेष्ठ मूल्यों से सिंचित ही नहीं, जीवन दर्शन और आध्यात्मिक आनंद की असीम गहराइयों वाले हैं, जिसमें डूबना आज भी उतना आनंदप्रद है, जितना इसके रचयिता के जमाने में।

‘कश्‍मीरियों पर जुल्‍म का परिणाम मुंबई पर हमला’

उदय केसरी
उसे भारतीय पुलिस व फौज पर विश्‍वास नहीं. उसे खुद के भारतीय होने पर शर्म आती है. वह इंडियन मुजाहिदीन को भारतीय मीडिया व पुलिस का मनगढंत संगठन मानती है. बाटला हाउस एनकांउटर को वह फर्जी समझती है और इसमें शहीद हुए वरिष्‍ठ पुलिस अधिकारी एमसी शर्मा की मौत को साजिश मानती है. यही नहीं, वह मुंबई पर आतंकी हमले का जिम्‍मेदार खुद भारत को मानती है. वह मानती है कि मुंबई पर हमला कश्‍मीरियों पर भारतीय जुल्‍म व शोषण का परिणाम है. वह मुंबई आतंकी हमले को गुजरात दंगा, बाबरी ढांचा विध्‍वंस से भी जोड़कर देखती है.

जाहिर है कि यह दुषित और देशद्रोही राय रखने वाली महिला अरूंधती राय ही है. जिसका जन्‍म तो भारत में हुआ, पर विचार से वह भारतीय बिल्‍कुल नहीं है. वैसे सीधीबात पर मैंने एक पूर्व आलेख क्‍या आप अरूंधती राय को जानते हैं में इस महिला के भारत के प्रति असल चरित्र का उल्‍लेख किया था. लेकिन इस तथाकथित बौद्धिक महिला ने एक बार फिर भारत के खिलाफ विश्‍व समुदाय के बीच अपनी उलटी राय दी है, जिसमें उसने मुंबई हमले जैसे हृदयविदारक आतंकी वारदात के लिए खुद भारत को ही जिम्‍मेदार ठहराया है. यह बेहद निंदापूर्ण और विश्‍व में भारत की छवि को बिगाड़ने जैसी है. यह महिला एनआईआई है और न्‍यूयार्क में पिछले दिनों मुंबई पर आतंकी हमले को लेकर हुई एशियाई सोसाइटी की परिचर्चा में उसने इस वारदात को गुजरात दंगा, विवादित बाबरी ढांचा विध्‍वंस व कश्‍मीर विवाद का नतीजा करार दिया. हालांकि अरूंध‍ती के इस विचार पर परिचर्चा में शामिल प्रख्‍यात लेखक मीरा कामदार, सुकेतु मेहता समेत सलमान रश्‍दी ने कड़ी आलोचना की, लेकिन अरूंध‍ती के नापाक विचारों का भारत में भी व्‍यापक विरोध होना चाहिए, ताकि इस महिला को राष्‍ट्रीयता के प्रति नैतिकता का सबक सिखाया जा सके.

इससे पहले इस महिला ने सीएनएन-आईबीएन चैनल को दिये एक साक्षात्‍कार में बाटला हाउस एनकांउटर में शहीद हुए वरिष्‍ठ पुलिस अधिकारी एमसी शर्मा की शहादत पर भी सवाल खड़ा किया. उसने कहा कि यह एनकांउटर फर्जी था और इसमें एक साजिश के तहत श्री शर्मा को मारा गया. उसने मांग की कि सुप्रीम कोर्ट के जज के नेतृत्‍व में इसकी निष्‍पक्ष जांच होनी चाहिए, क्‍योंकि उसे भारतीय पुलिस व फौज के चरित्र पर भरोसा नहीं है. वह यह कहती है कि इंडियन मुजाहीदीन नामक आतंकी संगठन भी पुलिस व मीडिया की मिली भगत से गढ़ा गया एक संगठन हो सकता है और इसके हार्ड कोर आतंकी के नाम पर मारे गए लोग बेगुनाह लोग हो सकते हैं.

इस प्रख्‍यात महिला ने एक साक्षात्‍कार में यह पूछे जाने पर कि मुंबई पर आतंकी हमले के लिए क्‍या पाकिस्‍तान जिम्‍मेदार है, कहा कि वह अभी ऐसा नहीं मानती. उलटे उसने इस हमले पर यह सीख दे डाली कि भारत इस हमले को आईने के सामने रखकर देखे.

नापाक सवाल : क्‍या सबूत है कि पाक के ही हमलावर थे?

उदय केसरी
छुट्टी के बाद लौटा हूं। पर मन में अब भी हैरानी है-आखिर कब भारत के सब्र का बांध टूटेगा? पाकिस्‍तान के राष्‍ट्रपति आसिफ अली जरदारी के बेशर्म बयान और झूठी कार्रवाई तो सोची-समझी रणनीति के तहत है। कम से कम इस बेशर्मी में पाकिस्‍तानी फितरत के प्रति जरदारी की असीम आस्‍था तो झलकती है, लेकिन अपने देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और परोक्ष पीएम सोनिया गांधी तो बस बयान से भारतीय स्‍वाभिमान की तुष्टि करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। ये झूठी कार्रवाई भी नहीं कर पाये हैं। अव्‍वल यह है कि लापरवाह सुरक्षा व्‍यवस्‍था के कारण मुंबई हमले में आतं‍कवादियों की गोली का निशाना बने जांबाज पुलिस अफसर हेमंत करकरे की शहादत पर सियासत होने लगी है। अल्‍पसंख्‍यक मामलों के केंद्रीय मंत्री एआर अंतुले के ‘अतुले’ बयान पर लोकसभा में हंगामा बरपा है। विपक्ष अंतुले के इस्‍तीफे की मांग कर रहा है। लेकिन आश्‍चर्य यह कि राष्‍ट्रीय संप्रभुता पर आतंक के आघात के दाग को धोने की मांग पर लोकसभा में कोई हंगामा नहीं हो रहा। दूसरी तरफ जरदारी विश्‍व समुदाय के बीच पाकिस्‍तान को पाक-साफ साबित करने में लगा है। भले, इसके लिए उसे एक दिन में दस बार झूठे बयान ही क्‍यों न देने पड़े। मसलन, बीबीसी को दिये एक साक्षात्‍कार में जरदारी ने मुंबई पर आतंकी हमले पर उलटे भारत से ही पूछा-क्‍या सबूत है कि पाक के ही हमलावर थे। जबकि इससे पहले इसी जरदारी ने माना था कि मुंबई में कहर ढाने वाले पाकिस्तान में सरकार इतर संगठनों के हो सकते हैं।

खैर छोडि़ये, जब सात साल पहले भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद भवन पर आतंकी हमले के दोषी मोहम्मद अफजल को सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा सुनाई जाने के बाद भी अब तक सजा नहीं दी जा सकी है और वह तिहाड़ जेल में हमारे देश की रोटियां तोड़ रहा है, तो मुंबई हमले के दोषियों को सजा देने में देश के सत्‍तासीनों से तत्‍परता की उम्‍मीद कैसे की जा सकती है...और ऐसे हालात में भी हमारे देश के नये गृहमंत्री पी। चिदंबरम को अब भी जैसे अपनी पुरानी कुर्सी से मोह बाकी है, तभी तो वे प्रधानमंत्री के तरफ से पुराना होम लोन सस्ता करने के बयान दे रहे हैं...जब देश ही असुरक्षित हो तो होम लोन सत्‍ता करने से क्‍या होगा गृहमंत्री जी....लेकिन यह तो जनता का सवाल है, जिसका जवाब देने की जिम्‍मेदारी से आज के राजनेता मुक्‍त हैं. दरअसल, चिदंबरम जी को कुछ ही महीनों बाद के आम चुनाव की चिंता अधिक है, जिसके लिए सत्‍ता की अंतिम घड़ी में लोकलुभावन घोषणाएं करने की राजनीतिक परंपरा बहुत पुरानी है. पेट्रोल-डीजल के मूल्‍य में अधूरी कमी को भी इस नजर से देखा जा सकता है...और हो सकता है कि आम चुनाव की घड़ी और करीब आई तो पेट्रोल-डीजल के भाव और कम हो सकते हैं...तब तक तो जनता के दिल-दिमाग पर लगे ताजा आतंक के जख्‍म भी समय के मरहम से भर चुके होंगे...

बहरहाल, देश के राजनेताओं की महज सत्‍तालोलुप राजनीति और नैतिक‍हीनता के बीच आप तमाम सुधी पाठकों के सामने पाक राष्‍ट्रपति का यह नापाक सवाल- क्‍या सबूत है कि पाक के ही हमलावर थे? छोड़ रहा हूं। उम्‍मीद है आप सब भारत की तरफ से इस सवाल का माकूल जवाब देंगे।

बुज़दिलों को सौंप बैठे, क्‍या हम अपना वतन...

एडिटोरियल प्‍लस डेस्‍क
मुंबई पर सबसे बड़े आतंकी हमले के ठीक बाद राजनेता फिर सत्‍ता की राजनीति में डूब चुके हैं और देश पर लगे हमले के जख्‍मों को लगभग भुला दिया गया है...आखिर राजनीतिक सत्‍ता चीज ही ऐसी बन चुकी है कि उसके आगे राष्‍ट्रीय संवेदना और जनता के जख्‍म की क्‍या औकात...नजर डालिये इन राजनीतिक घटनाक्रमों पर-
पहला- विलास राव देशमुख के इस्‍तीफे के बाद से दो दिनों तक नये मुख्‍यमंत्री के नाम को लेकर दिल्‍ली से मुंबई तक राजनीति गरम रही। बड़ी मुश्किल से अशोक चाव्‍हाण के नाम पर कांग्रेस आलाकमान की सहमति मिली, तो इस पद की दौड़ में पसीना बहा रहे नारायण राणे फट पड़े. कांग्रेस आला कमान और सोनिया गांधी के खिलाफ राजनीतिक जंग का ऐलान कर दिया. नतीजतन, राणे को पार्टी से निलं‍बित कर दिया गया. इसके बाद भी राणे की तल्‍ख बयानबाजी जारी है...

दूसरा- आठ दिसंबर विधान सभा चुनाओं के परिणाम पर दिल्‍ली, राजस्‍थान, मध्‍यप्रदेश व छत्‍तीसगढ़ के कांग्रेस व भाजपा के नेताओं की गिद्ध दृष्टि, जीत की खुशी और हार के गम में डूबे राजनेता व उनके कार्यकर्ता। दूसरी तरफ, इन दोनों पार्टियों के आलाकमान इन राज्‍यों में अपनी सरकार बनाने के विचार-विमर्श में लीन...

बहरहाल, भारतीय राजनेताओं को मुंबई हमले से क्‍या लेना-देना...अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडलिजा राइस ने तो पाक पर दबाव बना ही दिया है और पाक राष्‍ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने कह ही दिया है कि प्रमाण मिलते ही पाक में आतंकियों के खिलाफ सख्‍त कार्रवाई की जाएगी...बस ले लिया गया मुंबई हमले का बदला...अब इस राजनीतिक मौसम में राजनेताओं से इससे अधिक क्‍या उम्‍मीद की जा सकती है...भले जनता चिल्‍लाती रहे...तो क्‍या...जनता वोट भी तो उन्‍हें ही देती है...

खैर, सीधीबात के उदय केसरी फिर एक हफ्ते की छुट्टी पर जा रहे हैं। आज एडिटोरियल प्‍लस डेस्‍क आपके सामने मीतेंद्र नागेश की एक कविता पेश कर रहा है...उम्‍मीद है, सीधीबात के सभी सुधी पाठकों को पसंद आयेगी...
खौफ भरते, शोर करते बम धमाके रात-दिन,
सुनते-सहते सन्‍न हुए सब, पर नेताओं के कान शुन (शून्‍य)।

पकड़ के जनता गिरेबां, पूछती है बात एक,
बुज़दिलों को सौंप बैठे, क्‍या हम अपना वतन।

लोक जागेगा अगर, तो ही जगेगा लोकतंत्र,
हर हाथ उठाले मशालें, बुद्धिजीवी, आमजन।
आतंकी बेखौफ हैं, अधिनायक शांत चित,
देश की यह दुर्दशा, होती नहीं अब सहन।

काश! देश की बागडोर किसी युवा के हाथ में होती...

राष्‍ट्रीयता के प्रति वाम दलों की भूमिका ऐसी है, मानों उनकी दृष्टि में आतंकियों का जेहाद भारतीय पूंजीवाद के खिलाफ एक वर्ग संघर्ष हो !
उदय केसरी
सीधीबात पर दिल्ली बम धमाके (13 सितंबर) के एक दिन पहले ही ‘...तो भारत क्यों नहीं पीओके में घुसकर मार सकता’ आलेख के जरिये यह आवाज बुलंद की गई कि आतंकी दहशतगर्दों से भारत और भारतवासियों की रक्षा करना है, तो अमेरिका की तरह भारत को भी तत्काल सख्त जवाबी कदम उठाना होगा।...इसके दूसरे ही दिन देश की राजधानी में आतंकियों ने सीरियल बम बलास्ट कर दिया, जिसमें 22 बेगुनाहों की मौत हुई और सौ से अधिक लोग जख्मी हो गए। इस घटना के 13 दिन बाद एक बार फिर दिल्ली के महरौली में विस्फोट हुआ।...यही नहीं फिर 30 अक्टूबर को आतंकी बम बलास्ट से असम दहल उठा। इसमें 13 धमाकें, 70 निर्दोषों की मौत और 470 से अधिक लोग घायल हो गए।...और अब फिर 26 नवंबर को मुंबई पर हमला।...क्या भारत के संयम की कोई हद है या नहीं?...और यदि है, तो भारत के खिलाफ आतंकियों ने सारी हदें पार नहीं कर ली हैं?...यदि हां, तो केंद्र सरकार अब तक सोच-विचार में ही क्यों डूबी हुई है?

मुंबई हमले के बाद से सीधीबात पर दो आलेखों में फिर से पीओके पर हमले की आवाज बुलंद की गई, जिसमें आपमें से कई ब्‍लॉगर पाठकों की आवाज भी शामिल है। यही नहीं, अब तो पूरा संवेदनशील भारत बदले की आग में जल रहा है। हर दिन आतंकी हमलों पर जनता नेताओं को कोस रही है। इसके बावजूद केंद्र सरकार सख्त फैसला लेने में देर कर रही है।...जबकि अब तो अमेरिका भी यह कह रहा है कि भारत को आतंक के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करने का पूरा हक है।...ऐसे में, देश के बुजुर्ग नेताओं से बड़ी खीज उत्पन्न होती है...और दिल टीस से भर उठता है-कि काश! अपने देश की बागडोर भी किसी युवा के हाथ में होती...तो आतंकियों के हौसले इतने बुलंद न होते कि वे हमें बता-बता कर हमारी धरती पर तबाही मचाते...और हमारे देश के नेता कभी बयान देकर, कभी खेद जताकर, तो कभी इस्तीफा देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते।

यह स्थिति तब है, जब 26 नवंबर के आतंकी हमले ने मुंबई ही नहीं, पूरे देश की संवेदनशील व प्रभावित जनता को झकझोर कर रख दिया है। यहां संवेदनशील से मेरा अर्थ उनसे है जिनके लिए देश के प्रति वफादारी सर्वोच्‍च है, दूसरा शब्द प्रभावित यानी आतंक की आग में मारे गए बेगुनाहों के परिजन। इसके बाद देश में जो लोग बचते हैं, वे हैं नेता (अपवाद हो सकते हैं), अपराधी, भ्रष्ट नौकरशाह यानी बेईमान, जिनके लिए सत्ता, पार्टी व पैसा सर्वोच्च है।...इन्हें मुंबई हमले ने झकझोरा नहीं, बल्कि संवेदनशील व प्रभावित जनता के बीच रहना दूभर कर दिया है। तभी तो वे पागल कुत्तों की तरह कुछ भी भौंकने लगे हैं। हालांकि इसका तत्काल खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। फिर भी वे इससे बाज नहीं आ रहे, क्योंकि उन्हें असल संवेदना का मतलब ही नहीं मालूम। न्यूज चैनलों पर ऐसे नेताओं को ‘बयान बहादुर’, ‘बेशर्म बयान’, तो ‘क्योंकि इन्हें शर्म नहीं आती’ आदि कई अलंकारों से विभूषित किया गया, पर इससे उनकी संवेदना व नैतिकता यदि जागती तो देश में कभी ऐसी नौबत ही न आती।

खैर, मैं वामपंथी व साम्यवादी दलों के राजनीतिक वर्ग की देश की राष्‍ट्रीयता के प्रति भूमिका पर कुछ सीधीबात करना चाहता हूं। यह वर्ग ऐसा है, जो मजदूरों, किसानों व गरीबों के हक और बुनियादी परिवर्तन के लिए क्रांति की बात करता है। कार्ल मार्क्‍स के समाजवाद या साम्यवाद का सपना देखने की वकालत करता है। इनकी बातों के पीछे दर्शनों की भरमार होती है। लेकिन आप कहेंगे कि राष्ट्रीयता, राष्ट्रधर्म, देशभक्ति, भारतमाता, तो ऐसी बातें इन्हें जज्बाती और बेतुकी लगती है। ये धर्म को नहीं मानते। पूंजीवाद को अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते हैं। पूजा-पाठ करने वाले इनकी नजर में मूर्ख व अंधविश्‍वासी हैं। यहीं नहीं, देश की आजादी की लड़ाई में इनका कोई सरोकार नहीं था, ये अपने वाद के तहत परिवर्तन का रट लगाते हुए स्‍वाधीनता संग्राम से तटस्थ रहे। देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले असंख्य शहीदों के प्रति इनके मन में बस औपचारिक सम्मान है।
यह आलेख पढ़ने वाले वामपंथी दलों के समर्थक जरूर यह कहेंगे कि मेरी बातें आरोप है, जिसका कोई सबूत नहीं। या फिर मुझे दक्षिणपंथी घोषित कर देंगे। मुझे इससे कोई मतलब नहीं...और उन्हें सबूत देने से कोई फायदा भी नहीं। जिनके वाद से पैदा हुआ नक्‍सलवाद अपने ही देश में या कहें घर में निहत्‍थों, मजलूमों, किसानों व गरीबों की हत्‍या कर सामानांतर सरकार चलाने का दंभ भरता है। ऐसे वादियों से भी देश के संवदेनशील लोगों को सतर्क रहना चाहिए। खैर, अभी तो आतंकी संकट से निपटने के लिए जरूरी राष्ट्रीयता में वाम दलों की भूमिका की बात कर रहे हैं, तो याद करें कि क्या पिछले अनेक बम धमाकों के बाद वाम दलों की कोई भी ऐसी प्रतिक्रिया आई, जो देश की सुरक्षा व्यवस्था की बेहतरी या निकंमेपन के विरोध में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने वाली हो। या फिर, आतंक की समस्या से निपटने के लिए संघर्ष करने का जनता को भरोसा देती हो।...जहां तक मुझे याद है, नहीं। राष्‍ट्रीयता के मुद्दे से इतर थोड़ा नजर डालें, तो केंद्र सरकार पर पिछले दिनों करार के मुद्दे पर तो वाम दलों ने सरकार तक को हिला कर रख दिया। अब जब देश के खिलाफ आतंकियों ने सारी हदें पार कर दी है, तब देखिए, इन वाम दलों की भूमिका- मुंबई हमले में शहीद मेजर संदीप के घर से निकाले जाने पर केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन ने कहा- ‘शहीद का घर नहीं होता, तो कुत्ता भी नहीं जाता।’ जब इस बयान पर देश भर में बवाल मचा तो माकपा नेता प्रकाश कारत ने इस पर औपचारिक खेद व्यक्त कर दिया। सीपीआई नेता एबी वर्धन ने कहा- शब्द गलत हो सकते हैं, पर अच्युतानंदन ने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे तूल दिया जाए। इसके बाद भी जब इस बयान पर बवाल नहीं थमा, तो दो दिन बाद अपनी कुर्सी के मोह से बाध्‍य होकर अच्युतानंदन को भी अपने बयान पर खेद प्रकट करना पड़ा। अब देखिए जरा, इस वाकये के दौरान दिल्ली में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई सर्वदलीय बैठक में जब आतंक के खिलाफ संघीय जांच एजेंसी बनाने का प्रस्ताव लाया गया, तो केवल वाम दलों को ही एतराज हुआ।

जब पूरा देश आतंक से सुरक्षा, आतंकियों से बदला लेने और देश की संप्रभुता पर लगे दाग को मिटाने की सोच रहा है, तब वाम दलों के पास आतंकियों के विरुद्ध भारत सरकार की कार्रवाई के खिलाफ भी सोचने का वक्त है। तब तो कोई आश्‍चर्य नहीं, वाम दलों की दृष्टि में आतंकियों का जेहाद भारतीय पूंजीवाद के खिलाफ एक वर्ग संघर्ष जैसा हो, जिसका पक्ष लेना उनका परम कर्तव्य है। (इस मुद्दे पर बाकी बातें मैं बाद में करूंगा, धन्यवाद।)

मुंबई में पाक आतंकी, तो सीमा पर पाक सेना की गोलीबारी

पीएम साहब खुद को ‘सिंह इज द किंग’ साबित करें, शीघ्र पीओके पर हमले का आदेश दें
उदय केसरी
सीधीबात पर प्रकाशित आलेख ‘पीएम साहब सेना को पीओके पर हमले का आदेश दें’ पर मिली टिप्पणियों में वैसे तो अधिकत्तर में मेरी मांग व राय का समर्थन किया गया, पर दो-एक टिप्पणी ऐसी भी मिलीं, जिनमें मेरी मांग व राय को बेवकूफी भरी बात व बचकानी बात कहा गया। मैं पहले तो इस आलेख को पढ़ने व इस पर टिप्पणी करने वाले सभी (पक्ष-विपक्ष दोनों) ब्लॉगर पाठकों को धन्यवाद देता हूं। चूंकि सभी को अपनी राय रखने की स्वतंत्रता है, भले कोई उससे सहमत हो या असहमत। फिर भी, मैं इस मुद्दे पर बुद्धिजीवी ब्‍लॉगर व पाठक भाइयों, खासकर असहमत भाइयों से कुछ और सीधीबात करना चाहता हूं। वह यह कि...

जिस समय (बुधवार रात से शुक्रवार रात तक) मुंबई में आतंकियों का कोहराम मचा था और उनकी अंधाधुंध गोलियों और हैंडग्रेनेडों से मुंबई लहूलुहान हो रहा था, उसी दौरान पाकिस्तानी सैनिक कश्‍मीर में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास भारतीय चैकियों पर गोलीबारी कर रहे थे। चार साल पहले पाकिस्तान व भारत के बीच सीमा पर संघर्ष विराम का समझौता हुआ था। बावजूद इसके पाकिस्तानी सेना लगातार इस समझौते का उल्लंघन कर रही है। गुरुवार की रात करीब 9.00 बजे पुंछ ज़िले में नियंत्रण रेखा के पास तारकुंडी पट्टी पर की गई पाकिस्तानी गोलीबारी पिछले 24 घंटे में दूसरी दफा थी। जबकि इससे पहले बुधवार (मुंबई पर आतंकी हमले का दिन) को पाकिस्तानी सैनिकों ने जम्मू ज़िले में नियंत्रण रेखा के पास खौर सीमा पर भारतीय चौकी पर गोलियां चलाईं। यानी महज 24 घंटों में पाकिस्तानी सेना जब दो-दो बार अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष विराम समझौते की धज्जियां उड़ा सकती है, तो उनके लिए ऐसे समझौते कितने मायने रखते हैं, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। फिर भी यह उल्लेखनीय है कि पाकिस्तानी सेना ने इस साल जनवरी से अब तक 38 बार संघर्ष विराम समझौते का उल्लंघन किया है, जिनमें दर्जनों भारतीय जवान शहीद हो चुके हैं। इसके अलावा पिछले नौ महीनों में एलओसी पार से घुसपैठ की 132 से ज्यादा कोशिशें की गई, जिनमें 80 पाक उग्रवादी मारे गए।

यह तो सेना व पाक आतंकियों के स्तर पर पाकिस्तान के रवैये की बात हुई, अब जरा राजनायिक स्तर पर पाक के रवैये देखिए, जब मुंबई पर आतंकी हमला हुआ, तब पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी चार दिनों के भारतीय दौरे पर थे। और मुंबई की घटना के बाद जब आतंकियों के पाकिस्तानी होने के प्रमाण सामने आने लगे और भारत के प्रधानमंत्री व विदेशमंत्री ने भी जब अपने बयानों में इसकी चर्चा कर दी, तो पाकिस्तानी विदेशमंत्री ने अपनी प्रतिक्रिया में प्रेसवालों से कहा- ‘यकीन जानिए, मेरे पास भारत की ओर से ऐसा एक भी सबूत पेश नहीं किया गया है।’ जबकि, इस दौरान भारतीय न्यूज चैनल ही नहीं, दुनिया भर के मीडिया वाले आतंकी हथियारों, हथगोलों पर पाकिस्तानी कारखानों के छपे नाम समेत अन्य कई सबूत दिखाते-बताते रहे। क्या जनाब कुरैशी इस वाक्ये के दौरान टीवी नहीं देख रहे होंगे। लेकिन, इसके बाद भी उनका बेशर्म बयान था कि ‘भारत को बयान देने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इससे दोनों देशों के रिश्‍तों में दोबारा खटास आ सकती है। भारत को ऐसे मौकों पर संयम बरतना चाहिए।’ क्या बात है! नौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली। अपने गिरेबां में झांकने के बजाय जनाब कुरैशी भारत को संयम बरतने की सलाह देने लगे और भारत दौरा बीच में छोड़ पाक वापस लौट गए।

उधर, पकिस्तान एक तरफ आतंकवाद से लड़ाई में भारत का सहयोग करने के धकोसले बयान दे रहा है, दूसरी तरफ जब भारत ने मुंबई हमले की जांच में सहयोग के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से आईएसआई प्रमुख जनरल शुजा पाशा को दिल्ली भेजने की बात की, तो वे इससे मुकर गए। पाकिस्तान के दोहरे चरित्र की एक नहीं, हजारों कहानियां हैं। इसलिए बयानों से, बातचीत से या समझौतों से पाकजनित व प्रोत्साहित आतंकवाद का सफाया नहीं किया जा सकता। इसके लिए बिना देर किये भारत को पीओके में स्थित आतंकियों के अड्डों पर हमला बोल देना चाहिए।

बड़ी देर से जागी पाटिल साहब की नैतिकता
देश के गृहमंत्री शिवराज पाटिल को दिल्ली हमले के वक्त ही इस्तीफा दे देना चाहिए था, जब वे अपने कपड़े बदलने में व्यस्त थे।...शुक्र है देर से सही, देश की सुरक्षा के प्रति उनकी नैतिकता जागी कि अब वे गृहमंत्री के योग्य नहीं हैं। वैसे, उनकी कुर्सी पर जिन्हें बिठाया गया यानी पी. चिदम्बरम, वे इस लहूलुहान कुर्सी से लहू के दाग कैसे धोते हैं, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

बहरहाल, गृहमंत्री पाटिल के इस्तीफे के बावजूद, मुंबई जैसे अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले के विरुद्ध प्रधानमंत्री से देश को इस बात की अपेक्षा अधिक है कि वे खुद को ‘सिंह इज द किंग’ साबित करें और जल्द से जल्द पीओके पर सेना को हमले का आदेश दें।...यकीन मानिए तब पूरा देश हो या न हो, देश के 70 फीसदी युवा ‘किंग’ के फैसले के साथ होंगे...और तभी हम तोड़ पायेंगे भारत के दुश्‍मन आतंकियों की कमर...

पीएम साहब सेना को पीओके पर हमले का आदेश दें

अब किस आतंकी हमले का इंतजार है?
उदय केसरी
अब बहुत हो गया...केवल यह कहकर कि अब और बर्दाश्‍त नहीं किया जाएगा या अब आर-पार की लड़ाई होकर रहेगी आदि-आदि शासकीय जुमलों से काम नहीं चलेगा। इन जुमलों के अंदर के भीरूपन को अब आम भारतीय ही नहीं, विदेशी आतंकवादी भी समझने लगे हैं। प्रधानमंत्री साहब अब कुछ कहने के बजाय तत्काल कुछ करने की जरूरत है। तत्काल जरूरत है कि भारतीय सेना को यह आदेश दिया जाए कि वह बिना देर किये पाकिस्तान अधिकृत कश्‍मीर (पीओके) पर हमला बोल दें। (जो असल में हमारी ही जमीन है) जहां भारत के अमन के दुश्‍मन हजारों आतंकवादी सालों से अड्डा जमाकर हमारे खिलाफ खुद को तैयार कर रहे हैं। वहीं से मुंबई पर हमले के लिए खूंखार आतंकी भेजे गए। विश्‍व के दूसरे सबसे बड़े लोकतंत्र की शान को तहस-नहस करने में इन आतंकियों ने अब कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है।...

...तो आखिर कब तक भारत आतंकियों के हमलों को अपनी बदनसीबी मानकर भूलता रहेगा...संसद पर हमला, देश की राजधानी पर बार-बार हमला, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर एक से अधिक बार हमला, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, असम पर हमले...अब किस आतंकी हमले का इंतजार है भारत को जवाब देने के लिए...जबकि ये तो हाल के हमले हैं। इन दहशतगर्दों ने भारत के सिरमौर कश्‍मीर पर तो सालों आतंक के गोले बरसाये हैं।

यदि भारतीय सरकार को हमले से देश की प्रगति और विश्‍व समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा पर बुरा असर पड़ने की आशंका है, तो दुनिया का सबसे बड़े व्यावसायिक देश अमेरिका से भारत को थोड़ी सीख लेनी चाहिए, जहां 9/11 के बाद ताबड़तोड़ आतंक विरोधी अमेरिकी कार्रवाई से न उस देश की प्रगति रूकी और न ही उसकी प्रतिष्ठा पर कोई असर पड़ा है, बल्कि उस घटना के सात साल बाद भी कोई भी आतंकी संगठन अमेरिका के खिलाफ दोबारा किसी कार्रवाई की हिम्मत नहीं जुटा पाया। यही नहीं, सात सालों बाद भी अमेरिका का आतंकवाद विरोधी अभियान अब भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान के उत्तरी कबायली इलाकों में जारी है। इससे आतंकवादियों के बीच अमेरिकी खौफ का अंदाजा लगाया जा सकता है।...तो फिर भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता ?...यदि भारत आतंक विरोधी अमेरिकी हमलों के खिलाफ है, तो फिर भारत को अमेरिका से किसी भी तरह की दोस्ती (परमाणु करार भी) नहीं करनी चाहिए।

दरअसल, ऐसी कोई समस्या नहीं है। समस्या यहां की सत्ता चलाने वाले नेताओं की सोच में है, जो देश और अपने निजी घर को एक नजर से कभी देख नहीं पाते। जब उनके घरों में आतंकी घुसकर तबाही मचाने लगे तभी उन्हें देश के किसी हिस्से में आतंकियों से होने वाली तबाही का दर्द महसूस होगा। यदि ऐसा नहीं होता...तो अपने देश को 1999 में कंधार विमान अपहरण जैसा शर्मनाक मामला नहीं देखना पड़ता। नवभारत टाइम्स डॉट कॉम पर प्रकाशित एक आलेख में श्री प्रदीप कुमार की पंक्तियां यहां उल्लेखनीय है कि भारत के दुश्‍मनों को यकीन हो चुका है कि भारत की राज्यसत्ता में उन्हें तबाह कर डालने का संकल्प नहीं है। गहन प्लानिंग, स्थानीय समर्थन और सटीक भौगोलिक जानकारी के बगैर 26 नवंबर जैसे हमले नहीं हो सकते। स्थानीय और राष्ट्रीय खुफिया तंत्र को इस सबकी भनक तक नहीं लगी। सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी स्पष्ट है। लेकिन क्‍या इसके लिए केवल वही जिम्मेदार हैं? इस प्रश्न का उत्तर बहुत ईमानदारी से तलाश नहीं किया गया, तो आतंकवादियों का काम लगातार आसान होता रहेगा। हर हादसे के बाद खुफिया एजेंसियों पर उंगली उठाने, प्रशासन को निकम्मा साबित करने और बलि के बकरों की तलाश करते रहने से बीमारी लाइलाज बनी रहेगी। पिछले करीब दो महीने से मुंबई पुलिस वह काम ठीक तरह से नहीं कर रही थी, जो उसे अच्छी तरह केंद्रित होकर करना चाहिए। मराठी-गैर मराठी विवाद की आग भड़काई गई। मालेगांव विस्फोट में एटीएस की कार्रवाई पर राजनीति होने लगी। एटीएस का काम जिनके प्रतिकूल जा रहा था, वे उसकी नीयत पर सरेआम शक करने लगे। उसी एटीएस पर, जिसका चीफ हेमंत करकरे 26 नवंबर को आतंकवादियों से लड़ने के लिए बेधड़क दौड़ पड़ा और बहादुरी के साथ आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो गया।

कहने का आशय है कि भारत में राष्ट्रहित से उपर पार्टी और राजनीतिक हित हो चुके हैं। इसलिए सिमी को साथ देने या भगवा आतंकवाद को बढ़ावा देने में जब देश के राजनेताओं को शर्म नहीं आती है, तो विदेशी आतंकियों के हमले से क्या उनका दिल दहलेगा?

बहरहाल, देश के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह से मेरा आग्रह है कि अब कुछ ही महीने में लोकसभा चुनाव होना है, जिसके बाद पता नहीं आप दोबारा प्रधानमंत्री बने या न बने...इसलिए सत्‍ता के इस आखिर घड़ी में देश के दुश्‍मनों के खिलाफ पीओके पर हमले का फैसला करके आप कम से कम एक ऐसा काम करते जाएं, जिससे भारत को भी अपनी ताकत दिखाने का मौका मिले और उसे कमजोर समझने वाले मुट्ठी भर आतंकियों को जीवनभर के लिए सबक सिखाया जा सके...कि भारत को केवल मरना या बचाव करना ही नहीं, घुसकर मारना भी आता है...ताकि आतंक में मरे सौकड़ों निर्दोषों की आत्मा को शांति मिले और तमाम भारतीयों का सीना गर्व से चैड़ा हो जाए...

आतंकी साये में दहशतजदां हिन्‍दुस्‍तान...

उदय केसरी
हर रोज की तरह बुधवार की रात लगभग नौ-सवा नौ बजे ‘एडिटोरियल प्लस’ से घर के लिए निकला। घर पहुंचते ही आदतन लाइट जलाने के साथ ही टीवी का बटन भी हम दबा देते हैं...स्टार न्यूज पर मोटे अक्षरों में मुंबई में अज्ञात लोगों द्वारा फायरिंग की खबर आ रही थी...सिरफिरों की हरकत मान उस पर खास ध्यान नहीं दिया...न्यूज चैनल वाले भी शुरू में यही बोल रहे थे...पर यह क्या, कुछ ही पलों बाद जैसे ही आईबीएन-7 का बटन दबाया...तो यह खबर...कुछ बड़ी दिखने लगी...इस खबर में आईबीएन-7 के पास सबसे अधिक तस्वीरें व लाइव पीटीसी थे...सो नजर हैरत के साथ टीवी पर चिपक गई...हर पल खबर बड़ी होती जा रही थी...सिरफिरों की करामात आतंकी वारदात में और फायरिंग बम धमाकों में बदलने लगे...एक साथ मुंबई के कई जगहों से फायरिंग, बम धमाके और इससे हुई तबाही की खबरें आने लगीं...जैसे मुंबई को उठाकर आतंकियों ने बारूद के किसी ढेर पर रख दिया हो और किसी को पता तक नहीं चला...ऐसे भयावह हालात में दाद तो इस न्यूज चैनल के रिपोर्टरों व कैमरामैन की हिम्मत को देनी चाहिए, जिनकी आंखों से पूरे देश के ज्यादातर लोग पहली बार ऐसे दृश्‍य देख पाये होंगे...ये दृश्‍य विचलित करने वाले थे, पर मेरे विचार से अपने देश के लोगों को इसे दिखाना जरूरी है। इसकी जरूरत क्यों है? इसका जवाब मैं बाद में दूंगा।...ताज होटल में घुसे आतंकियों ने जब ग्रेनेड फेंका और उसकी आवाज टीवी के जरिये सुनी, तो स्तब्ध रह गया...ताज होटल के गुंबद से धुआं उठने लगा।...इसी बीच आईबीएन7 के एक रिपोर्टर के साथ कुछ मिनटों पहले हुआ एक वाक्या, जिसमें उसका सामना अचानक एक भागते हुए आतंकी से हो गया। आतंकी ने अपने अत्याधुनिक हथियार (संभवतः एके-47) की नाली उसके सिर पर टिका दी।...ईश्‍वर का शुक्र था कि प्रेस वाला बताने पर आतंकी एक झटके से उसे छोड़ भाग निकला। सोचिए! कैसा दहशत भरा वह पल होगा उस रिपोर्टर के लिए...लेकिन फिर भी वह रिपोर्टर, अपने काम पर लगा रहा।...दूसरे और भी रिपोर्टर घटनास्थलों के पास से पल-पल की खबरें व दृश्‍य बता व दिखा रहे थे...खबरें बोलते-बोलते रिपोर्टरों की सांसें फूल रही थीं...युद्ध स्थल से रिपोर्टिंग करना जितना खतरनाक होता है, उससे कम खतरनाक नहीं था इस बहुकोणीय आतंकी कार्रवाई की लाइव रिपोर्टिंग करना।...रात 10 से कब 12 बज गया पता भी नहीं चला...मुंबई की बेचारगी पर मन दुख से जब भर उठा, तो करीब 2 बजे टीवी बंद कर दिया...गुरुवार की सुबह उठते ही दूध लेने डेयरी की दुकान पहुंचा...वहां पड़े अखबार ‘पत्रिका’ पर नजर पड़ी... ‘मुंबई में आतंकी हमला, 78 मरे’, 200 से अधिक घायल, एटीएस प्रमुख सहित 9 पुलिसकर्मी शहीद...।

गुरुवार को भोपाल में 13वीं विधानसभा चुनाव के लिए मतदान था...यानी छुट्टी का दिन। मगर, मुंबईवासियों के लिए मातम मनाने का दिन...पुलिस व सेना के जवानों के लिए आतंकियों को खोजने, मारने और उनसे बदला लेने का दिन...और अवसरवादी नेताओं के लिए बयानबाजी करने का दिन... इस आतंकी हमले में आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे, अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अशोक काम्टे और वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक विजय सालस्कर, जिन्होंने 100 से अधिक अपराधियों को विभिन्न मुठभेड़ों में मार गिराया था, ताज महल और ट्राइडेंट होटल में आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो गये।
वहीं इसमें सौ से अधिक लोगों की जानें गईं और 200 से अधिक लोग जख्मी हो गए। गुरुवार शाम तक आ रही खबरों के मुताबिक कई लोग अब भी होटल में फंसे हुए हैं और आतंकियों से पुलिस की मुठभेड़ जारी है।...

हाल के महीनों में देश की राजधानी, आर्थिक राजधानी समेत प्रमुख शहरों में एक के बाद एक बड़े आतंकी वारदातों से ऐसा नहीं लगता, कि भारत में भी कट्टरपंथी इस्लामिक देशों की सी हालत पैदा हो रही है...मुंबई की यह वारदात इराक, अफगानिस्तान और इजरायल आदि देशों में आये दिन होने वाली वारदातों जैसी है। कहा जा रहा है कि इस हमले में विदेशी या कहें पाकिस्तानी आतंकियों का हाथ है। इससे पहले, खबर यह भी निकली कि डेक्कन मुजाहिदीन ने एटीएस को ईमेल भेज कर इसकी जिम्मेदारी ली है। डेक्कन मुजाहिदीन क्या इंडियन मुजाहिदीन का सिक्वल है? दिल्ली समेत देश के कई शहरों को हाईअलर्ट कर दिया गया है।

लेकिन, इस मातम की घड़ी में एक बार फिर देश के सामने यह सवाल नहीं खड़ा हो जाता है- क्या भारत की सुरक्षा-व्यवस्था फेल हो चुकी है? यदि हां, तो हमें आतंकियों की हुकूमत में दहशत की जिन्दगी जीने के लिए अभी से ही खुद को तैयार करना शुरू कर देना चाहिए। या फिर अपने देश के निकम्मे व बुजदिल शासक राजनेताओं को घर बिठाकर युवाओं को आगे आने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।...नहीं तो...हिन्दुस्तान को इराक, अफगानिस्तान, इजरायल बनने से वर्तमान शासक व राजनेता रोक नहीं पायेंगे।

म.प्र. में भाजपा को 79 व कांग्रेस को 70 सीटें !

चुनावी आंकलनः मध्यप्रदेश, राजस्थान व दिल्ली में किसी को बहुमत मिलने के आसार नहीं
मध्यप्रदेश, राजस्थान व दिल्ली में मतदान की घड़ी करीब है। इसलिए प्रायः की तरह राजनीति में रूचि रखने वाले इन राज्यों के पाठकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, ब्लॉगरों समेत ठंड में भी पसीना बहा रहे विभिन्न पार्टियों के नेताओं व कार्यकर्ताओं में मतगणना पूर्व यह जिज्ञासा काफी तीव्र होगी कि जनता का फैसला क्या होगा? किसे मिलेगा सत्ता का ताज और कौन होगा बेताज? एडिटोरियल प्लस डेस्क, भोपाल द्वारा इस जिज्ञासा पर ठोस विश्‍लेषण के लिए अपनी संपर्क सूची के वरिष्ठ राजनीतिक विश्‍लेषकों, लेखकों व पत्रकारों से विश्‍लेण मंगवाये गये। प्राप्त विश्‍लेषणों में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्‍लेषक श्री विनोद तिवारी के शोधपरख विश्‍लेषण को सीधीबात पर प्रकाशित किया जा रहा है। इस विश्‍लेषण में मध्यप्रदेश के चुनावी नतीजों पर खासकर बात की गई है, जबकि राजस्थान व दिल्ली के नतीजों पर अनुभवी विचार व्यक्त किये गए हैं। श्री तिवारी ने मध्यप्रदेश के लगभग 200 से अधिक पत्रकारों और सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बातचीत के आधार पर विस्तार से नतीजों का आंकलन किया है। इस चुनावी आंकलन में कितना दम है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के एक सर्वे और इसी राज्य के खुफिया तंत्रों के आंकलन से प्राप्त नतीजे भी श्री तिवारी के चुनावी आंकलन के लगभग आसपास हैं।

पहले : मध्यप्रदेश के चुनावी हालात
जनता को शिवराज पर तो भरोसा, पर शिवगणों पर नहीं
लोकतंत्र के यज्ञ में आहुति देने का समय नजदीक (27 नवंबर) है। लेकिन परिणाम को लेकर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में संशय की स्थिति बनी हुई है। ऊपरी तौर पर भले ही कुछ भी दावें किये जा रहे हों, लेकिन जमीनी हकीकत से सब वाकिफ हैं। भाजपा की बात हम करें, तो उनके सभी बड़े महारथी कड़कती ठंड में भी माथे से पसीना पोछने को मजबूर हैं। दरअसल, प्रदेश की जनता को शिवराज पर तो भरोसा है, लेकिन जिनको शिव का गण यानी विधायक चुना जाना है, उनसे न सिर्फ जनता नाराज है, बल्कि उसकी नजर में ये गण विश्‍वासघाती भी हैं। यही वजह है कि अंकों का गणित सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के गणितज्ञों को उलझन में डाले हुए है। यहां सभी शिवगण अब मोदी स्टाइल में शिवराज के भरोसे हैं। वहीं शिवराज भी ‘मैं हूं न’ का भरोसा दिलाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। भाजपा के लिए भले यह अच्छी बात हो सकती है कि शिवराज को सुनने लोग आ रहे हैं, लेकिन उमा भारती की सभाओं की भीड़ कम नहीं है। यह भाजपा को सरकार बनाने में सबसे बड़े रोड़े के रूप में दिख रही है। उमा की बगावत या यूं कहें कि घर से निकालने के बाद इस साध्वी राजनेता ने भाजपा को पूरी तरह उखाड़ फेंकने की कसम खाई है। और जैसा कि जंग में सब जायज होता है, उमा भारती ने भी बिना किसी परहेज के न सिर्फ जातिवाद, बल्कि समाजवादी पार्टी के कर्ताधर्ता अमर सिंह के मार्फत कांग्रेस से भी गुप्त समझौते में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उमा भारती के बारे में इस बात का जिक्र इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि साध्वी के पास उड़न खटोले में घूमने और चुनाव में खर्च करने के लिए करोड़ों रुपये आखिर कहां से आये? यह सिर्फ हमारा ही जिक्र नहीं है, राजनीतिक गलियारों में यह बात आमतौर पर सवाल खड़ी कर रही है। भाजपा के लिए बागियों की बात अब पुरानी होती जा रही है, क्योंकि वह जिसे बागी मान रही है, दरअसल वे भाजश के उम्मीदवार हैं। और जब कोई नेता पार्टी बदल लेता है, तो वह बागी नहीं रह जाता।
एक अंधा एक कोढ़ी की तर्ज पर कांग्रेस
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बात करें तो, वह ‘राम मिलाये जोड़ी, एक अंधा-एक कोढ़ी’ की तर्ज पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। बचपन के एक लंगड़े व दूसरा अंधे दोस्तों की एक कहानी मुझे याद है, जिसमें लंगड़ा राह दिखाता और अंधा आगे चलता। समझना सहज है कि कांगेस में कौन लंगडा है और कौन अंधा। हम यहां बसपा का जिक्र करना नहीं भूलेंगे, जो बहुजन हिताय के नारे से सर्वजन हिताय के नारे में तब्दिल हो गई। उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के विज्ञापनों में एक लाइन खासतौर पर डाली जाती है-सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय-इसका मतलब साफ है कि जिस मनुवादी व्यवस्था के नाम पर बसपा के संस्थापक काशीराम आगे बढ़े थे, उसे न सिर्फ मायावती ने ध्वस्त कर दिया, बल्कि सर्वणों को दुत्कारने और उन्हें अपमानित करने के राजनीतिक पाप को धोने के लिए माया ने मनुवादियों से गलबहियां कर ली। ब्राह्मणों और दलितों में गठजोड़ फार्मूला से ही माया को उत्तर प्रदेश में सत्ता मिली। उसी फार्मूले को वह अब मध्यप्रदेश में सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचने के लिए लागू कर रही हैं। वहीं, समाजवादी पार्टी को मध्यप्रदेश में अब फिर से नयी जमीन तलाशने की जरूरत है।
कोई भी दल अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नहीं
दलवार संभावित सीटें : भाजपा-79, कांग्रेस-70, बसपा-9, भाजश-7, सपा-2, गोंगपा-2, जदयू-1 व अन्य-12। शेष 57 सीटों पर बहुकोणीय मुकाबला। कुल सीट सं. 230
खैर, मध्यप्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर हमने, जो आंकलन किया है, वह चैंकाने वाला है। हमारे आंकलन के मुताबिक कोई भी राजनीतिक दल अभी की स्थिति में सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत जुटाने में सफल नहीं होगा। क्षेत्रवार विश्‍लेषण के अनुसार भाजपा को 79, कांग्रेस को 70, बसपा को 9, भाजश को 7, सपा को 2, गोंगपा को 2 तो जदयू को 1 और अन्य को 12 सीटें मिलती दिख रही हैं। शेष 57 सीटें ऐसी हैं, जिनपर त्रिकोणी, बहुकोणी और सीधा मुकाबला है। और ये 57 सीटें ही किसी भी राजनीतिक पार्टी के भविष्य का फैसला करेंगी।
शिवराज, उमा, कमलनाथ, सुरेश पचैरी, दिग्विजय आदि के प्रभाव-अप्रभाव
मोटे तौर पर जहां बुंदेलखंड भाजश प्रमुख उमा भारती के प्रभाव में है, वहीं ग्वालियर-चंबल क्षेत्र को ग्वालियर राजघराना अपने कब्जे में करता हुआ नजर आ रहा है। बुंदेलखंड में पिछली बार जहां 24 सीटें भाजपा और 2 सीटें कांग्रेस के पास थीं, उनमें इस बार 10-12 सीटें ही भाजपा की झोली में आ सकती हैं। भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि दो विपरीत दिशाओं के आदिवासी जिले मंडला और झाबुआ में भाजपा की पकड़ बेहद मजबूत है। हालांकि, कांग्रेस के भविष्य राहुल गांधी झाबुआ में सभा कर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने में लगे हैं। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में भाजपा 34 में से 22 सीटों पर फिलहाल काबिज है, पर यह संख्या इस बार घटकर 15-16 होने के आसार हैं। विंध्य क्षेत्र में मिश्रित जनादेश सभी पार्टियों के गणित को बिगाड़ रहा है, वहीं महाकौशल में कमलनाथ की आन पर बन आई है। कमलनाथ महाकौशल में बहुमत की उम्मीद में मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोये हुए हैं, जिसकी झलक उनके भाषणों में साफ है। मालवा क्षेत्र में भाजपा अभी भी मजबूत स्थिति में दिख रही है, लेकिन नर्मदा के दोनों किनारों की जनता भाजपा से दूर होती नजर आ रही है। खरगौन में चुनाव हारने के बाद से भाजपा के संघी नेता कृष्णमुरारी मोघे की रूचि अब निमाड़ में नहीं है। उनके निष्क्रिय होने से कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष यादव का हौसला बुलंद है। एक खास सीट झाबुआ का जिक्र करना जरूरी है, जहां राहुल गांधी के पसंदीदा उम्मीदवार जेबियर मेंड़ा चुनाव लड़ रहे हैं। यदि मेंड़ा चुनाव हारते हैं, तो केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भुरिया की राजनीति को पलीता लग सकता है। सुरेश पचैरी कहने को तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में उनकी स्थिति यह कह सकने की नहीं कि वे किस कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, क्योंकि प्रदेश में दिग्विजय कांग्रेस, कमलनाथ कांग्रेस, सुभाष कांग्रेस, अर्जुन कांग्रेस और ज्‍योतिरादित्‍य कांग्रेस का वर्चस्व है। ऐसे में, श्री पचैरी की स्थिति समझना सहज है।
अब जरा 2003 के नतीजों पर एक नजर
भाजपा-173 सीट , कांग्रेस-38 सीट, शेष-19 सीट अन्य दलों को। कुल सीट-230

अब राजस्थान के चुनावी हालात
जातिगत जुगाड़ से सत्ता जीतने की कोशिश
राजघरानों के लिए मशहूर राजस्थान की चुनावी जंग इस बार पिछड़ों और दलितों के इर्द-गिर्द घूम रही है। राजपूताना विरासत के राजाओं के वंशजों की प्रभावशून्यता जहां राजनीतिक पार्टियों के पोस्टरों पर दिख रही है। वहीं जातिगत समीकरणों में नये क्षत्रपों के दम पर लोकतंत्र के अश्‍वमेध को जीतने की जुगाड़ लगाई है। जुगाड़ शब्द का नाता राजस्थान से बहुत पुराना है। वैज्ञानिक प्रो. यशपाल के शब्दों में जुगाड़ राजस्थान के ग्रामीण परिवहन की रीढ़ है। (राजस्थान में सामान्य लकड़ी की पहियेदार ट्राली में कोई भी डीजल इंजन रखकर गाड़ी बना ली जाती है और परिवहन विभाग में उसका कोई रजिस्ट्रेशन भी नहीं होता और वहां के ग्रामीण जीवन में यह बहुत ही लोकप्रिय है) इसी जुगाड़ की तरह जातीय समीकरण राजस्थान की राजनीतिक सड़कों पर बगैर रजिस्ट्रेशन के दौड़ लगा रहे हैं।
बागियों को मना पाई तो लंगड़ी सरकार बना सकती है भाजपा
चुनाव की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए जातियों के बड़े नेताओं ने रातोंरात गद्दी संभालने की कवायद में जातिभेद के संघर्ष शुरू किये। इसमें आधा सैकड़ा निरीह जानें बेवजह बलि चढ़ गईं और कर्नल बैसला नेता बन गए। भौतिक विज्ञान के आकर्षण और प्रतिकर्षण के सिद्धांत का असर राजस्थान में भी हुआ और सरकार के खिलाफ शुरू हुआ यह संघर्ष मीणा और गुर्जरों के बीच की लड़ाई बनकर रह गया। जिस राजस्थान को महाराणा प्रताप, राणा संगा जैसे वीर जवानों और हल्दी घाटी की लड़ाई के लिए जाना जाता है, वहां तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ पूरा करने के लिए जिस तरह मीणा और गुर्जरों में संघर्ष करवाया गया, वह शर्मनाक है। अब वही लोग राजस्थान के कर्णधार बनने के लिए चुनावी समर में हैं। हम ऊपर आपको बता ही चुके हैं कि राजस्थान पूरी तरह से बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह जातीयता में उलझ चुका है। मीणा नेता कीरोड़ीलाल का मुख्यमंत्री वसुंधरा से झगड़ा और उसके बाद उनकी बगावत भाजपा के लिए 13 फीसदी मीणा वोटरों में सेंध लगाने के लिए काफी है। वहीं 6.5 फीसदी गुर्जरों से उम्मीद लगाये बैठी भाजपा को शायद यह नहीं मालूम कि कर्नल बैसला से पहले कांगेस के सचिन पायलट गुर्जरों के बड़े नेता हैं। ऐसे में, भाजपा की स्थिति दो पाटों के बीच फंसने जैसी है, जहां से बचना मुश्किल ही होता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के लिए यह सबकुछ आसान है, क्योंकि पांच साल पहले अशोक गहलोत के सत्ता से जाने के बाद कांगेस का संगठन आजतक बिखरा ही हुआ है। ऐसी स्थिति में भगवान भरोसे सरकार बनने का सपना या कहें भाजपा सरकार के इंकम्बैंसी फैक्टर के भरोसे मुख्यमंत्री की गद्दी की आशा बंधी हुई है। भाजपा के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि यदि मतदान से पहले वह बागियों को मना पाई तो लंगड़ी टांग से सरकार बना सकती है।
अंततः संक्षेप में दिल्ली के चुनावी हालात
किसी को बहुमत की गारंटी नहीं
दिल्ली की सरकार पर सिलिंग लगी हुई है। वर्तमान मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता शीला दीक्षित सिलिंग से मुक्त होने की कोशिश में दिन-रात एक कर रही हैं, लेकिन भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा और इसबार उन्हें मायावती के हाथी से पंजे को कुचलने का भी डर बहुत ज्यादा सता रहा है। 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा के चुनाव में कोई भी दल दावे से यह नहीं कह सकता कि हम 30 सीटें हासिल कर पायेंगे। विश्‍वस्तरीय आर्थिक मंदी में जिस तरह शेयर ब्रोकरों ने चुप्पी साध ली है, वही हाल दिल्ली के मतदाताओं का भी है। वैसे भी चुप्पी बड़ी ताकत होती है।...और जब चुनाव हो, तो मतदाता की यह चुप्पी महाशक्ति बन जाती है। फिर महाशक्ति जिसके साथ होगी, जीत तो उसी की होगी। कहने का मतलब यह है कि दिल्ली के जो हालात हैं, उनमें बड़ी पार्टी के रूप में भाजपा के आने की संभावना तो दिख रही है, लेकिन बहुमत की गारंटी नहीं है। तब राजनीति के कारपेट पर सरकार बनाने के लिए किसी छोटे दल का पैबंद लगाना जरूरी होगा।

क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है?

क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? यह सवाल उठाया है एक प्रतिष्ठित विचारक श्री गिरिराज किशोर ने। यह वाकई में विचारणीय है। 19 नवंबर को सीधीबात पर प्रकाशित आलेख शांतिप्रिय हिन्‍दू भाई भगवा आतंकवाद से सावधान पर आई प्रतिक्रियाओं को पढ़कर कम से कम ऐसा ही लगता है। इस आलेख के पक्ष में एक-दो प्रतिक्रियाओं को छोड़ दें तो, ज्‍यादातर में भगवा आतंकवाद के प्रति आंखें मूंद कर अपना पक्ष रखा गया तथा लेखक के प्रति रोष प्रकट किया गया है। यह वाकई में निष्‍पक्ष भारतीय बौद्ध्‍किता के लिए चिंता का विषय है। इस चिंता पर श्री गिरिराज किशोर के विचार और सवाल हमें सचेत करते हैं...इसे आप भी पढ़ें....
भारत जैसे धर्मपरायण देश में हिंदू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई, सबके पास धर्म का ऐसा आधार है कि अपनी-अपनी हर समस्या का समाधान वे उसमें तलाश कर लेते हैं। टीवी देखना एक धर्म में कुफ्र है, दूसरे में मुखौटा लगाकर नाचना धर्म विरुद्ध है, तीसरे में धर्म बदलने की आजादी पाप है। क्या हम धर्म को सवोर्परि मानते हैं? उसमें क्या श्रेष्ठ है और क्या नहीं, इस विषय पर विद्वत् जन सामूहिक विचार करना नहीं चाहते या ऐसा करने से डरते हैं? क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? अगर ऐसा हुआ तो देश मुश्किल में पड़ जाएगा। यहां इतने धर्म हैं, तो आखिर कितनों की तानाशाही बर्दाश्त करनी होगी? धर्म तानाशाह नहीं होता। कर्मकांड तानाशाही करता है। उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रेटेशन में तानाशाही का अंदाज होता है। यह उचित यह अनुचित, यह पाप यह पुण्य। वेदों को कितने लोग जानते हैं? कुरान पाक के कितने आलिम फाजिल हैं? यह एक दूसरी तरह की अनभिज्ञता है जो धर्म का गुलाम बनाती है। जो हम समझते नहीं और उस पर विश्वास करते हैं तो यह दूसरा गुलामी का दरवाजा है। गुरुओं से कौन पूछे कि आपने यह कैसे फतवा दिया। 'ऊपर' वाला तो डंडा चलाएगा नहीं, बाकी सब उसका डंडा संभाले हैं। लेकिन लगता है कि उनका आपस में कुछ अनुबंध है। शंकराचार्य बनने के बारे में वे मनमानी कर सकते हैं। शहर काजी के बारे में उनकी राय मुख्तलिफ हो जाती है और अपने आपको लोग काजी घोषित करने में कुछ भी गलत नहीं समझते। ये बातें इसलिए जेहन में आती हैं कि आम आदमी अपनी आदमियत साबित करना चाहे तो उसे इन्हीं मुल्ला मौलवियों और पंडितों के पास जाना पड़ेगा। लगता है कि धर्म ज्यादा ताकतवर हुए हैं। 15 नवंबर को एक निजी चैनल पर वाराणसी के धर्मगुरुओं की सभा के महामंत्री बता रहे थे कि स्वामी दयानंद पांडे उर्फ अमृतानंद को उस सभा ने शंकराचार्य नहीं बनाया। उनमें एक दो लोगों ने जबर्दस्ती पीठ भी बना दी और उन्हें शंकराचार्य भी घोषित कर दिया। यही कहानी ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में घटित हुई थी। यह क्या है? आधिकारिक प्रवर समिति दयानंद जी को शंकराचार्य मानती नहीं, राजनीति मानती है। उसकी सुविधा और नीति को वे सूट करते हैं। इतने साधु अनाचार में पकड़े जाते हैं लेकिन उनके बारे में बात करना राजनीति के लिए लाभकारी नहीं। दयानंद और प्रज्ञा साध्वी, यहां तक कि कर्नल पुरोहित उनके उद्देश्य की सिद्धि में फिट बैठ रहे हैं। हिंदूवादी संगठन कह रहे हैं कि सरकार सेना और साधुओं को अपमानित कर रही है। अपने हित में अपमानित होने वालों का उन्होंने एक युग्म बना लिया। मजे की बात है कि इस युग्म में एक स्वामी, एक अदद साध्वी और फिलहाल एक कर्नल है। तोगडि़या आदि फतवा दे रहे हैं कि पूरा साधु समाज और पूरी सेना अपमानित हो गई, जबकि इन पर क्रिमिनल चार्जेज लगे हैं। साबित होना बाकी है। हो सकता है वे बेगुनाह हों, लेकिन जांच तो हो जाने दीजिए, फिर कहिए। गेरुआ वस्त्र धारण करने से कोई व्यक्ति जुर्म से निरापद नहीं हो जाता, न वर्दी पहन लेने से। देश के सामाजिक ढांचे में इधर मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। एक क्रांतिकारी परिवर्तन तो मंडल कमिशन के लागू होने से हुआ है। दूसरा आरक्षण से, जिसने समाज का परंपरागत ढांचा बदल दिया। जिनकी पहचान नहीं थी उन्हें पहचान मिल गई। नतीजतन पहले जातिगत राजनीतिक पार्टियां बनीं। जातिगत वर्चस्व की जोर-आजमाइश सबसे अधिक राजनीति में हुई। फिर माया-मिश्रा समीकरण ने सत्ता के लिए सोशल एंजीनियरिंग के फंडे द्वारा अन्य जातियों को ताश के पत्तों की तरह बांटना शुरू किया। इस प्रक्रिया ने सवर्ण को राजनीतिक खानाबदोश की स्थिति में ला दिया। जो वर्ग सदियों शासक और नियामक रहा हो, वह कुछ कहे या न कहे लेकिन आहत तो होगा। मुसलमानों ने देश पर कई सौ साल राज किया था, जब अंग्रेज आए तो उनके मन में अपनी प्रजागत स्थिति से सालों तक असंतोष रहा। 1857 में उनके बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के पीछे एक यह भी कारण था। देशभक्ति की बात रही होगी या नहीं, पर अंग्रेजों के प्रति उनका आक्रोश था, वे उन्हें तख्त से तख्ते पर ले आए थे। सवर्ण भी सदियों की उस पीड़ा को कैसे भूल जाएंगे। हालांकि उनके द्वारा कथित निमन् जातियों पर किए गए अत्याचारों का उनके पास कोई रेकॉर्ड नहीं है, लेकिन अपने वर्चस्व के जाने का उनमें मलाल जरूर है। उसका प्रतिकार वे राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखकर करना चाहते हैं। उसके लिए धर्म और संतों का वर्चस्व बनाए रखने का तरीका ही शायद उनके पास है। पहले हिंसा फुटकर स्तर पर होती थी। जैसे उड़ीसा में नन के साथ सामूहिक बलात्कार और उसे जलाना, विदेशी फादर और उसके बच्चों की जलाकर हत्या करना। उस वक्त भी हिंदूवादी वर्ग ने हत्यारों का बचाव किया था। लेकिन जैसे समाचार आ रहे हैं और यदि वे सही हैं, तो लगता है कि तालिबान और पड़ोसी देश के आतंकवादियों की तरह अपने देश में भी संगठित आतंकवाद की संभावना की तलाश शुरू हो गई है। क्या इससे धर्म की श्रेष्ठता या सवर्ण-वर्चस्व स्थापित होगा? हिंदू धर्म के देवी-देवता भले ही विभिन्न आयुधों से संपन्न नजर आते हों, पर बेकसूरों के लिए नहीं। इसका उदाहरण है कि तुलसी ने मानस में शंबूक प्रकरण को नहीं रखा। वह जानते थे यह प्रकरण समाज के हित में नहीं है। हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था के कारण बहुत जहर फैला है, अगर धर्मगत संगठित हिंसा का आरंभ हो गया और सारे धर्म इस रास्ते पर उतर आए तो न धर्म बचेंगे न धर्म मानने वाले। जो साध्वी या साधु या राजीतिज्ञ ऐसा सोचते हैं, वे कभी न समाप्त होने वाले सिविल वार को निमंत्रण दे रहे हैं। ऐसे लोगों का मन परिवर्तन करने की आवश्यकता है। साधु संत उनका मन परिवर्तन करके उन्हें शांति के गोल में ला सकते हैं। राजनेता तो इधर भी आग सेकेंगे उधर भी। संतों, ये देश बेगाना नहीं।
साभार: नवभारत टाइम्‍स डॉट कॉम

शांतिप्रिय हिन्‍दू भाई भगवा आतंकवाद से सावधान

उदय केसरी
भगवा आतंकवाद पर मैं पहली बार कुछ लिख रहा हूं। पिछले कई दिनों से टीवी व अखबारों में भगवा आतंकवाद के चेहरे के रूप में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, ले. कर्नल श्रीकांत पुरोहित और स्वामी अमृतानंद देव उर्फ सुधाकर द्विवेदी उर्फ दयानंद पांडेय को गिरफ्तार किया गया है। इन पर मालेगांव बम धमाके के अलावा समझौता एक्सप्रेस धमाके में भी शामिल होने या उनमें मास्टरमाइंड की भूमिका होने के आरोप लगाये जा रहे हैं।

ये आरोप किसी मुस्लिम संगठन या भाजपा या भगवा विरोधी राजनीतिक दल या नेता ने नहीं लगाये हैं, बल्कि जांच-पड़ताल के आधार पर देश के आतंकवाद निरोधक दस्ता (एटीएस) द्वारा लगाये जा रहे हैं। एटीएस की जांच में पिछले कुछ दिनों से लगातार नये-नये राजफाश के दावे किये जा रहे हैं। इस खोज में एक तरफ एटीएस के धुरंधर अफसरों की टीम सक्रिय है, तो दूसरी तरफ मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के धुरंधर पत्रकार लगे हुए हैं। इसलिए भगवा आतंकवाद का राजफाश करने की एटीएस व मीडिया में होड़ सी मची है। मीडिया कभी एटीएस की वाहवाही करता है, तो कभी उसे झूठा करार देता है। वहीं, एटीएस भी अपनी किसी गलती को मानने के बजाय शातिर नेताओं की तरह अपने बयान से पलटने में भी देरी नहीं करती। खैर, इस जांच-पड़ताल व खोज की होड़ में सच क्या है और गलत क्या है, इसका औपचारिक फैसला तो न्यायालय करेगा।

लेकिन, फिलहाल अनौपचारिक सच या आमजन में भगवा आतंकवाद को लेकर उठते सवालों व उनमें बनती-बिगड़ती धारणा ज्यादा विचारणीय है। जिस तरह मुस्लिम समुदाय के बीच आतंकवाद का बीजारोपण करने वाले कुछ विध्वंसक प्रवृत्‍ति के लोगों ने धर्म के नाम पर जेहाद का हथकंडा अपनाया और आतंकवाद का इस कदर विस्तार किया कि पूरी दुनिया में आतंकवाद मुस्लिम समुदाय का पर्याय सा बन गया । यही नहीं, जिन देशों में आतंकी वारदातों को अंजाम दिया गया, वहां तो हर मुस्लिम को उस देश के लोग शक की नजर से देखने लगे हैं। लंदन और अमेरिका इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है। इसी तरह अब कुछ विध्वंसक प्रवृत्‍ति के लोगों द्वारा हिन्‍दू समुदाय के बीच भगवा आतंकवाद का विस्‍तार करने की कोशिश की जा रही है।

भगवा आतंकवाद, हालांकि फिलहाल आमजन के लिए नया व चैंकाने वाला है, पर इसकी जड़ों को बहुत पहले से विध्वंसक तत्‍वों व संगठनों द्वारा खाद-पानी दिया जाता रहा है। धर्मपरिवर्तन, सांस्कृतिक संक्रमण, हिन्दू राष्ट्र, मंदिर-मस्जिद, बहुसंख्यकवाद आदि के नाम पर कारसेवा तो दंगा-फसाद चलाया जाता रहा है। पर, बम विस्फोट और तथाकथित इस्लामी आतंकवाद के नक्‍शे-कदम पर भगवा आतंकवाद का विस्तार किया जाना वाकई में देश व दुनिया के उदार व शांतिप्रिय हिन्दुओं के लिए चैंकाने वाला है। और यदि यह कहें कि हिन्दुत्व के नाम पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से राजनीति करने वाले संगठनों से दूर भारत समेत दुनिया के अधिकतर हिन्दू भगवा आतंकवाद के पक्षधर नहीं हो सकते, तो शायद गलत नहीं होगा। क्योंकि हिन्दू धर्म में कट्टरता व हिंसा का कोई स्थान नहीं। यहां तो उदारता व सहिष्णुता सर्वोच्च है।

लेकिन जैसे मुस्लिम समुदाय में अन्य धर्मों के खिलाफ नफरत के बीज बोये गए, उसी तरह हिन्दू समुदाय के बीच दूसरे धर्मों के खिलाफ नफरत भरना आसान नहीं है। वजह एक नहीं अनेक हैं। अन्यथा कम से कम भारत के तमाम हिन्दू आरएसएस, विश्‍व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि के सदस्य होते। 1925 में गठित आरएसएस की उम्र 83 साल हो चुकी है, पर अब तक इसके सक्रिय सदस्यों की संख्या लगभग 45 लाख है, जबकि देश की पूरी आबादी में 80.5 फीसदी यानी करीब 85 करोड़ लोग हिन्दू हैं। और फिर आरएसएस, जो कट्टर हिन्दूवादियों का सबसे बड़ा संगठन है, के सक्रिय कार्यकर्ताओं की संख्या जितनी ही संख्या बाकी कट्टर हिन्दूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं की भी मान लें, तो भी आठ दशक से अधिक के कालखंड में ये हिन्दूवादी संगठन अपने ही धर्मभाइयों को प्रभावित कर पाने में क्यों सफल नहीं हुए हैं? जवाब साफ है, हिन्दू संस्कार वृहद मानसिकता का निर्माण करता है, न कि संकीर्ण व विध्वंसक। मुस्लिम समुदाय में भी निर्दोषों के खून बहाने और अमानवीय व्यवहार की मनाही है, पर धर्म के प्रति आस्था में नियमों व मौलानाओं के हुक्मों की सख्ती उदारता को बहुत करीब आने नहीं देती। फिर, अशिक्षा, खान-पान व गरीबी के कारण वे हमेशा नफरत के सौदागरों के लिए नरम चारा होते हैं। तभी तो, वे रुपये के वास्ते आत्मघाती बम बनने तक के लिए तैयार हो जाते हैं।

फिर भी, भगवा आतंकवाद के जहर का पता चलना चिंता का विषय है। हिन्दू आबादी के उदार व शांतिप्रिय संस्कार के भरोसे ही हम इससे बेपरवाह नहीं हो सकते। देश व दुनिया के हिन्‍दुओं को ही ऐसे आतंकी तत्वों के खिलाफ धर्म की मर्यादा के खातिर विरोध का स्वर बुलंद करना चाहिए, जो हिन्दुत्व के नाम पर असल हिदुत्व की हत्या करने की कोशिश कर रहे हैं।

महाराष्ट्र ‘देश’ का ‘देशद्रोही’ और इंडिया का ‘दोस्ताना’

उदय केसरी
रिलीज से पहले दो फिल्में इन दिनों काफी चर्चा में हैं-पहली ‘देशद्रोही’, दूसरी ‘दोस्ताना’। चर्चा में क्यों है? संभवतः आप सब जानते होंगे। फिर भी, मैं अपनी तरह से स्पष्ट कर देता हूं। ‘देशद्रोही’ में महाराष्ट्र के खिलाफ और भारत के पक्ष में आवाज बुलंद की गई है। वहीं ‘दोस्ताना’ में एडवांस इंडिया (गे-कल्चर) के पक्ष में कहानी गढ़ी गई है।...

वैसे, फिल्मी कहाहियों की दृष्टि से इन दोनों फिल्मों की कथावस्तु में नया कुछ भी नहीं है। क्रांतिवीर, तिरंगा आदि कई फिल्में देशभक्ति पर बनीं, वहीं गे-कल्चर (समलैंगिकता) पर फायर जैसी फिल्म भी पहले ही आ चुकी है।...इन दोनों फिल्मों में ‘दोस्ताना’ के रिलीज होने में किसी विरोध का संकट नहीं है और वह 14 नवंबर को शान से मुंबई व महाराष्ट्र के अलावा भारतभर में रिलीज होने जा रही है। उधर, ‘देशद्रोही’ को भारत के फिल्म सेंसर बोर्ड से तो रिलीज की अनुमति मिल गई है, मगर महाराष्ट्र ‘देश’ के एकछत्र राजा राज ठाकरे की अनुमति का इंतजार है, इसलिए इस फिल्म के रिलीज की तारीख शायद अभी पक्की नहीं हो पा रही है। अब मैं यहां भारत और महाराष्ट्र के बीच भेद और विवाद के जनक राज ठाकरे की राजनीति की चर्चा नहीं करना चाहता। इस पर पिछले कई हफ्तों से लिखा-कहा जा चुका है, पर किसी के कान जूं तक नहीं रेंगी, न देशमुख सरकार के और न ही मनमोहन सरकार के। अलबत्ता, नीतीश सरकार ने अपनी पार्टी के पांच सांसदों (जिनका कार्यकाल अब कुछ महीनों का ही बचा था) की बलि देकर अपना क्रोध शांत कर लिया।

खैर, मेरा सवाल यह है कि महाराष्ट्र ‘देश’ के राजा बाबू को ‘देशद्रोही’ के कथावस्तु व संवादों पर आपत्ति है...चलो मान लिया...सच सुनने व समझने की शक्ति ऐसे विध्वंसक तत्‍वों में नहीं होती। लेकिन वे खुद को हिन्दुत्व के भी तो पैरोकार बताते हैं, तो क्या उन्हें समलैंगिकता पर आधारित ‘दोस्ताना’ के कथावस्तु व संवादों तथा देहदिखाऊ दृष्यों पर आपत्ति नहीं है? क्या इससे उनके हिन्दुत्व की भावना को कोई चोट नहीं लगती?

राज ठाकरे के अब तक के दंगे-फसाद और बयानों से आपको इतना तो समझ में आ गया होगा कि वह मराठियों के हित के नाम पर मुंबई में ही दंगा-फसाद, आगजनी और आतंक फैला रहे हैं। इसके कारण वहां बसे बिहार व यूपी वाले तो आक्रांत हो रहे हैं...पर क्या मराठियों का दैनिक जीवन दूभर नहीं हो रहा है? दंगा-फसाद से क्या उनका दैनिक कामकाज प्रभावित नहीं हो रहा? बेशक हो रहा है। और यदि मैं मुंबई के अपने कुछ मराठी साथियों के विचारों को दोहराऊं, तो राज ठाकरे जिन मराठियों की बात करते हैं, वे निकम्मे हैं। उन्हें नौकरी मिल भी जाए, तो भी वे काम नहीं करेंगे। यह तो राज ठाकरे की भ्रष्ट व भय की राजनीति है, नहीं तो ऐसा नहीं कि मुंबई में मेहनतकश मराठी मानुष बिहारियों व अन्य बाहरियों के मुकाबले बेकार बैठे हैं।

बहरहाल, मैं भारत, महाराष्ट्र और इंडिया के दर्शकों के लिए रिलीज होने को तैयार ‘देशद्रोही’ और ‘दोस्ताना’ की बात कर रहा था। ये फिल्में आज न कल रिलीज तो होगी ही, पर इसके पहले छोटी बजट और नये व छोटे कलाकारों को लेकर बनी ‘देशद्रोही’ को बिना खर्च के इतनी पब्लिसिटी मिल गई है, जितनी करोड़ों खर्च करके भी नहीं मिलती।...

मेरे देश में तरह-तरह के बम

दीपावली से पहले के धमाकों के जख्मों को देश अभी इस दीपावली की परंपरागत खुशी के मरहम से भर भी नहीं पाया था कि इसके तीसरे ही दिन असम दहल उठा। 13 धमाके, 70 से अधिक मौतें व 470 से अधिक जख्मी लोग। मैं छुट्टी में अपने घर पर था। इसलिए, तब सीधीबात के जरिये अपनी संवेदना नहीं प्रकट कर सका। पर सच मानिए, अपने देश की दशा पर दुःख बहुत हुआ। आज ही लौटा हूं, भोपाल। मेरे साथी मीतेन्‍द्र नागेश ने देश की दशा पर कुछ अलग ही तरह से विचार व्यक्त किया है, जो वाकई में हमें सोचने पर मजबूर करता है।......

एक बंटवारा आज़ादी के समय हुआ था। विभाजन का दंश क्या होता है? यह कम से कम वे लोग तो नहीं बता सकते, जो भौतिकरूप से इससे दूर रहे हों या कहें विभाजन से सीधेतौर पर प्रभावित न हुए हो। इस दर्द को तो भलीभांति वही जानते हैं, जिनके सीने पर सरहद की लकीर खींच दी गई। घर छूटा, अपने छूटे और जन्मभूमि पराई हो गई। अखण्ड भारत खंडित हो गया। हालांकि बाद में सरदार पटेल जैसे नेताओं ने अनेक देशी रियासतों को समेटकर एक नया भारत बनाया। जिसे पूरी तरह अखंड तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसके करीब तो है ही।
लेकिन उस बंटवारे को बीते अभी महज साठ साल ही हुए हैं कि अब भारत फिर से बंटवारे की दहलीज पर खड़ा दिखने लगा है। ये बंटवारे कई तरह के हैं। हम धर्मों में बंट रहे हैं। हम जातियों में बंट रहे हैं। हम क्षेत्रों में बंट रहे हैं। और इस तरह हम बंटवारे की घटिया राजनीति के शिकार होते जा रहे हैं। क्या हम आज यह कहने की स्थिति में हैं कि ‘हम सब एक हैं, हमारा भारत एक है।’ क्या यह वाक्य केवल एक नारा बनकर नहीं रह गया है?

मेरे देश में मिलेंगे तरह-तरह के बम
दाढ़ी वाले बम, चोटी वाले बम।
कार वाले बम, हार वाले बम।
मानव बम, मुर्दा बम।

मेरे देश में मिलेंगे कई भाषा, धर्म व क्षेत्र के बम
मराठी बनाम हिन्दी, हिन्दू बनाम मुस्लिम/ईसाई बम, तो
जेहादी बनाम काफिर, पाक बनाम भारत बम

मेरे देश में मिलेंगे कई वाहनों में बम
ट्रेन में, बस में, मोटरसाइकिल में तो,
साइकिल में, यहां तक कचरे के डब्बों में।

इन बमों को तो पहचान लेते हैं हम पर,
उनका क्या, जो दिलों में बारूद और
तन पर ओढ़े रहते हैं झूठा अमन

कैसा हो गया! अपना यह चमन
कैसा हो गया! अपना यह वतन

इस दीपावली जरा सोचिए

सीधीबात के आप सभी सुधी पाठकों तथा ब्लॉगर समुदाय के तमाम लेखकों, पत्रकारों, पत्रकारिता के विद्यार्थियों व बुद्धिजीवियों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।

आज से मैं कुछ दिनों की छुट्टी पर जा रहा हूं, अपने घर, बरही(हजारीबाग), झारखंड। जाने से पहले मैं कुछ सवाल करना चाहता हूं, जिनपर आप और हम दीपावली के अवकाश में तमाम निजी सुख-स्वार्थ को परे रखकर इत्मिनान से विचार करें:-
  • यह कि, इस बार की दीपावली हम क्यों मनाने जा रहे हैं?
    कहते हैं दीपावली अंधकार पर प्रकाश की जीत का पर्व है...क्या हमने अंधकार मिटाने या उसे कम करने में कोई भूमिका अदा की है?
  • फिर आप या हरेक भारतवासी किसे अंधकार मानते हंै?....पर पहले हमें खुद से यह सवाल करना, हालांकि शर्मनाक, पर लाजिमी है कि हम अपने देश से कितना प्यार करते हैं?
  • यह भी कि अपनी मां और भारतमां में कितना फर्क महसूस करते है? क्या खुद को हम भारतमां के सच्चे सपूत मान पाते हैं?
  • देश की अखंडता और सांप्रदायिक सद्भावना से हम व्यक्तिगत तौर पर कितने सहमत हैं?
  • हमारी युवा सोच में ऐशो-आराम की नौकरी व जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण कोई लक्ष्य है?
  • देश के नेताओं को सत्ता की कुर्सी से अधिक प्यारा क्या है? जिन्हें हम वोट देते हंै या वोट न देकर मौन समर्थन करते हैं।
  • धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर आतंक, दंगा, नफरत व विवाद में आप किसी स्तर पर शामिल नहीं, तो इनका विरोध कैसे करते हैं?
  • अंत में, हम कैसे देशद्रोही नहीं है? और कैसे इस देश के जिम्मेदार नागरिक हैं?
    जरा सोचिए!
आपका,
उदय केसरी

अब बेखौफ क्षेत्रीय आतंकवाद और आतंकी-राज

उदय केसरी
भारत और भारतवासी आतंकियों से बुरी तरह से घिर चुके हैं। ऐसा लगता है जीना है तो सुकून को भूल जाओ...बाकी सभी वादों को छोड़कर आतंकवाद की शरण ले लो। वर्तमान भारत, एक तरफ अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के बारंबार धमाकों से, तो दूसरी तरफ धार्मिक आतंकवाद के दंगों से, तो तीसरी तरफ क्षेत्रीय आतंकवाद की गैरमराठी के खिलाफ दादागिरी, तो चैथी तरफ जातीय आतंकवाद की हिंसा से आक्रांत हैं...बच के कहां जाओगे आप?...क्योंकि असल में केंद्र समेत कोई भी सरकार जनता की नहीं, सत्ता की है। पुलिस फोर्स भी जनता की नहीं, नेताओं व सत्तासीनों की सुरक्षा के लिए है। खुफिया विभाग फेल है, यह विदित ही है और अब ऐसे में न्यायालय की क्या विसात, किसी को भी कोई भी उपाधि दे या चेतावनी देते रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता...चाहे, वह सरकार हो या नेता हो या अफसर।

सीधीबात पर सुकून या कहें भ्रम में चार दिनों तक देश की दशा पर चिंतन लिखने से बचा, सोचा...अगली बार किसी और विषय पर विचार करेंगे, जो मन को तसल्ली दे कि समस्याएं हैं, तो उसका हल भी करने वाले हैं...लेकिन कहते हैं कि आंखें मूंद लेने से आप हकीकत को झुठला नहीं सकते...और फिर, यदि मनोरंजन के लिए ही सीधीबात करनी हो, तो कम से कम देश के पाठकों के बीच अवसर की किल्लत कभी नहीं होती। क्योंकि हम हर मुश्किल में चमड़ी मोटी कर जीने के आदि हो चुके हैं...तभी तो एक नहीं, चारों तरफ से जब देश आतंकियों के निशाने पर है, तब भी हम बड़े मजे से क्रिकेट देखने, तो दीवाली की शॉपिंग करने में, जेट समेत अन्य एयरलाइंस के आर्थिक संकट से उत्पन्न हजार-दो हजार कर्मचारियों की नौकरी बचाने में, चंद्रयान प्रक्षेपण की करीब आती घड़ी पर खुशियां मनाने में और सबसे अधिक चुनावी राजनीति की गोटियां सेट करने-करवाने आदि में मस्त हैं।

रविवार को एक क्षेत्रीय आतंकवादी संगठन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के आतंकियों ने गैरमराठी छात्रों पर हमला बोल दिया। वे केंद्रीय रेल विभाग की प्रतियोगिता परीक्षा देने मुंबई गए थे। इस घटना के दृश्‍य आप सबों ने टीवी पर जरूर देखे होंगे...शर्मनाक घटना थी...आप भी सहमत होंगे...पर इसके बाद राज ठाकरे की गिरफ्तारी से पहले व बाद के राजनीतिक बयानों को जरा देखिए...यह भी आपको कम शर्मनाक नहीं लगेंगे...
मुझे गिरफ्तार करो, महाराष्ट्र जल उठेगा-राज ठाकरे,
एमएनएस ने नहीं हमने पीटा उत्तर भारतीयों को-शिवसेना,
सरकार अहिंसा की भाषा नहीं समझती-राज ठाकरे,
‘भैया जी’ लोगों से मराठी में बात करो -राज ठाकरे
राज की गिरफ्तारी महाराष्ट्र के लिए शर्म की बात-मनसे....

इस शर्मनाक घटना के दो दिनों बाद पुलिस राज ठाकरे की गिरफ्तारी करने की शक्ति जुटा पाई...वह शायद इसलिए कि देश में चुनावी मौसम शुरू हो गया है...इसलिए बढ़े राजनीतिक दबाव के कारण। लेकिन क्या गिरफ्तारी के बाद राज ठाकरे के उस बयान को गिदड़भभकी साबित करने में महाराष्ट्र पुलिस व सरकार सक्षम है कि ‘मुझे गिरफ्तार करो, महाराष्ट्र जल उठेगा’....शायद नहीं, क्योंकि गिरफ्तारी के दिन आ रही खबर की हेडिंग यही कहती है- राज ठाकरे की गिरफ्तारी के खिलाफ मचा महाबवाल....कितनी बेबस है हमारे देश की कानून-व्यवस्था! या फिर गैरजिम्मेदार, भ्रष्ट, अनैतिक हैं इसके संचालक। इसका फैसला करने की जिम्मेदारी जनता की होती है, पर वह कभी नहीं करती...क्यों? इसका जवाब तो पहले दिया जा चुका है-सितम के कोड़े खा-खाकर चमड़ी मोटी हो गई, अब कोई खास असर नहीं होता...

लघुकथा

सीधीबात पर पहली बार जलते सामयिक राष्‍ट्रीय मुद्दों, घटनाओं, भ्रष्‍टाचार, मीडिया की कारस्‍तानियों पर सतत बहस को एक लघुविराम दिया जा रहा है. हमारे कुछ पाठक मित्रों ने सुझाव दिया कि सीधीबात पर मन को सुकून देने वाली सामग्री भी प्रकाशित होनी चाहिए, सो, एडिटोरियल प्‍लस डेस्‍क द्वारा आज बहस व आलेख की जगह हमारे युवा पत्रकार मित्र मीतेन्‍द्र नागेश की यह कहानी प्रकाशित की जा रही है....हम आप पाठकों व लेखकों से भी आग्रह करेंगे कि आप भी हमें अपनी कोई साहित्यिक रचना भेजें, जिसे हम ऐसे ही बहसों के तनाव के बीच सुकून के लिए उसे प्रकाशित कर सके...प्रस्‍तुत है सीधीबात पर पहली कहानी: लघुकथा

मैं लघुकथा और उपन्यास में कभी अंतर समझ ही नहीं पाया था। उपेन्द्र दा के लाख समझाने पर भी मेरी बुद्धि में कुछ न बैठता। उपेन्द्र दा को गुस्सा तो बहुत कम आता था, मगर कभी-कभी वे खीज जाया करते- 'तू तो पूरा गधा है, तेरे भेजे में कुछ नहीं आएगा।' फिर थोड़ा शांत होकर कहते-'जिंदगी तुझे लघुकथा और उपन्यास में अंतर समझा देगी।'
सही कहा था उन्होंने...। उनकी जिदंगी ने मुझे इस अंतर को समझा दिया।
'देख गधे एक लघुकथा लिखी है'- फिर खुद उसको अभिनय के साथ पढ़कर सुनाते। कहानी सुनाने का अंदाज भी गजब का था। उनके शब्द आंखों के सामने चित्र खींचते चलते और सुनने वाला पात्रों में जीने लगता।
हंसमुख स्वभाव के उपेन्द्र दा हमेशा हंसी मजाक करते थे, लेकिन उनके चेहरे पर हमेशा सजी रहने वाली हंसी जाने कहां खो गई...।
'देखना लोग मुझे सदियों तक याद करेंगे'- एक बार बड़े चहककर मुझसे कहा था उन्होंने। इस एक वाक्य में ही उनका सपना, महत्वाकांक्षा और जीवनलक्ष्य समाया हुआ था। सच, लोग उन्हें सदियों तक याद रखते, मगर...। ऊंची परवाज की ख्वाहिश रखने वालों के लिए आसमान छोटा पड़ ही जाता है। यही तो हुआ था उपेन्द्र दा के साथ। अपनी परवाज के लिए असीमित विस्तार की तलाश उन्हें शहर ले आई। यूं तो गांव में उनकी साख कम न थी। बच्चों-बच्चों की जुबान पर उनके लिखे गीत होते, तो युवाओं में उनके नाटकों के संवाद। बुजुर्गो में कहानियों की चर्चाएं भी कम न थी। जाने कौन उनके दिमाग में यह बात बैठा गया था कि उनकी जगह यहां नहीं है। उन्हें तो ऐसे शहर में होना चाहिए, जहां साहित्य का माहौल हो, जहां अन्य रचनाकारों के साथ उठना-बैठना हों, चर्चाएं हों, जहां मंच भी मिले और मान-सम्मान भी। इस छोटे से गांव के अनपढ़ लोगों की वाहवाही से क्या मिलता है, गांव के बाहर कौन जानता है आपको...बस उपेन्द्र दा शहर चले गए।
शहर से पहली बार लौटने के बाद उपेन्द्र दा के चेहरे की रंगत ही कुछ और थी। वे काफी खुश नजर आए थे। लेकिन उस दिन के बाद जब भी उनसे मुलाकात हुई, वह कभी खुश नहीं दिखे। उपेन्द्र दा की खासियत कहिए या कमजोरी, उनके दिल के भाव कभी छिपते नहीं थे। चेहरा सब कुछ बयान कर देता था. हमेशा वह मुझे उदास से लगे। उदासी ने उस हंसमुख चेहरे का भूगोल ही बदल डाला।
'वहां बड़े-बड़े लिखाड़ हैं, मैं तो कुछ भी नहीं।‘
'आप भी कुछ कम नहीं दादा'- मैंने उनका हौसला बढ़ाना चाहा था।
'वे देश के नामी-गिरामी पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं।'
'फिर तो आप भी नामी-गिरामी हो जाएंगे, हमे भूलेंगे तो नहीं न दादा'
'फिर गधे जैसी बात करने लगा, तू कभी सुधरेगा नहीं'
और हम दोनों जोरदार ठहाका लगाकर हंस दिए। आज भी गूंजता है वह ठहाका और...।
और फिर मुझे वो दिन भी याद है, जब उपेन्द्र दा की बातों में न तो उत्साह था और न आवाजद् में खनक। बड़ी उदासी में उन्होंने मुझसे कहा था-
'दोस्त, मैं जब भी कहानी लिखने बैठता हूं, वह लघुकथा बनकर रह जाती है।'
'क्या दादा आप फिर लघुकथा लेकर बैठ गए, फिर आप उपन्यास की चर्चा करने लगेंगे'- मैंने चुटकी लेना चाहा, लेकिन दादा का गंभीर चेहरा देख मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। मैंने उनकी बातों को पूरी गंभीरता से सुना।
'लघुकथा भी अद्भुत विधा है, मगर उपन्यास की बात ही कुछ और है...,' और उस दिन जीवन के कई रंग देखे मैंने दादा की आंखों से। वे काफी त्रस्त थे, उनकी बातों से लगता जैसे वह अपने अस्तित्व को तलाशने की को‍शिश कर रहे हों। जैसे एक नदी, जो अपना रास्ता खुद बनाती आई हो, समुन्दर के अथाह जल में असहज महसूस कर रही थी।
'दादा लघुकथा भी तो कितनों को प्रेरणा दे जाती है, दिल में उतर जाती है।'- मैंने उनसे कहा था।
'पर, लघुकथाओं को कौन याद रखता है’
उनके इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था। मेरी जुबान जम गई।
मैं उन्हें जितना समझ पाया अगर वही सच हो, तो-‘वे अपनी जिन्दगी को उपन्यास की तरह विस्तार देना चाहते थे, जिसका एक-एक शब्द लोगों के दिल से गुजरे. जिसे लोग सदियों तक भूल न पाए, मगर..., मगर उनकी जिंदगी एक लघुकथा बनकर रह गई। आज समझ पाया मैं लघुकथा और उपन्यास में अंतर।
मैं नहीं जानता दादा आज कहां हैं. लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि उनका कहीं कोई जिक्र नहीं, न कहानी में, न उपन्यास में। पता नहीं दुनिया के किस अंधेरे कोने में होंगे दादा?
मीतेन्‍द्र नागेश, भोपाल
meetendra.nagesh@gmail.com

कुछ अनाम टिप्‍पणीकारों के नाम टिप्‍पणी

उदय केसरी
पहली बार मैं सीधीबात पर प्रकाशित किसी आलेख की टिप्‍पणियों के जवाब में अपनी टिप्‍पणी लिख रहा हूं। हालांकि मैं टिप्‍पणी-प्रतिटिप्‍पणी के नाम पर अभिव्‍यक्ति की मर्यादा को ताक पर रखकर बहस करने के खिलाफ हूं, जिसमें कई ब्‍लॉगरों का एक तपका शामिल है। उनके लिए भले ही एक-दूसरे के पोस्‍ट या कथित विचारों पर निजता की हदें पार कर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करना बौद्धि‍क बहस हो, पर मैं इसे कलालीगप मानता हूं, जिसके मैं सख्त खिलाफ हूं...

मेरी यह टिप्‍पणी सीधीबात पर 14 अक्‍टूबर को प्रकाशित आलेख ‘खुद अपने घर जला रहे हैं ईसाई’ ...बेशर्मी की हद तो देखिए पर कुल छह टिप्‍पणियों के लेखकों को खासकर संबोधित है. इन टिप्‍प‍णीकारों में केवल एक का नाम (मनीष सिन्‍हा, दिल्‍ली) पता चल पाया. शेष की गुमनाम टिप्‍पणी मिली है, जिन्‍हें मैंने बिना किसी संशोधन के प्रकाशित कर दिया. बस केवल एक टिप्‍पणी में मैंने अपने ब्‍लॉग की मर्यादा को ध्‍यान में रखते हुए एक शब्‍द मिटाया, जो गाली था.

पहले, मैं इन सभी अनाम/सुनाम टिप्‍पणीकारों को धन्‍यवाद देता हूं कि आपने छुपकर ही सही सीधीबात पर प्रकाशित आलेख पढ़ा और अपने ‘बौद्धिक’ विचारों को व्‍यक्‍त भी किया. मगर मुझे आपकी टिप्‍पणियों को पढ़कर दुख नहीं हुआ, बल्कि आश्‍चर्य हुआ कि अपना नाम तक जाहिर करने की हिम्‍मत न रखने वाले ‘अपने हिन्‍दुत्‍व’ की रक्षा कैसे कर पायेंगे?

हां, सबसे ज्‍यादा दुख तो इस बात का हुआ कि उस आलेख के असल मर्म पर अपनी संवेदना व्‍यक्‍त करने वाली एक भी टिप्‍पणी किसी ने नहीं की. यदि किसी ने की होती, तो शायद मैं यह प्रतिटिप्‍पणी कतई नहीं लिखता.

तकलीफ यह सोचकर भी हुई कि क्‍या बजरंग दल, विश्‍व हिन्‍दू परिषद् आदि नफरत के सौदागर संगठनों द्वारा देश भर में फैलाया जा रहा भ्रम इस हद तक विस्‍तृत हो चला है कि लोग धार्मिक सहिष्‍णुता के मायने भूल गए हैं...कि वे भूल गए हैं कि भारत की आबोहवा में असल ताजिगी मंदिर की घंटी, मस्जिद की अजान, चर्च के घंटे और गुरूद्वारे की गुरूवाणी की आवाजों से ही है...कि देश की अस्मिता पर कोई दुश्‍मन देश जब कभी करगिल के रास्‍ते कुदृष्टि डालता है, तो क्‍या हिन्‍दू, मुसलमान, क्‍या ईसाई, पूरे हिन्‍दुस्‍तान का खून एक साथ खौलता है...कि भूल गए हैं गुलाम से आजाद भारत तक के सफर में जर, जमीन, जवानी व बुढ़ापा तक न्‍यौच्‍छावर करने वाले भारत के उन सभी जाति-धर्म व भाषा-बोली वाले असंख्‍य अमरशहीदों को, जिन्‍होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कुर्बानियां दीं, लेकिन क्‍या उन्‍होंने अंग्रेजों के धर्म ईसाईयत का कभी विरोध किया?...नहीं न...भारत के मूल चरित्र में कभी धार्मिक कट्टरता को बल नहीं दिया गया और न ही इसे सियासत का हथियार बनाने वाले शासकों को तहेदिल से कभी स्‍वीकार किया गया.

दरअसल धर्म किसी मानव का निजी, नैतिक व आध्‍यात्मिक संस्‍कार है, वैसे ही जैसे उसका रूप-रंग, भेष-भूसा, भाषा-बोली, जिस पर कोई प्रतिबंध लगाना, उसकी हत्‍या के बराबर है...क्‍या आपको कोई अपनी पसंद से कंघी करने से रोके, तो आप बर्दास्‍त करेंगे?....नहीं न तो, क्‍यों मानव की प्रकृति प्रदत्‍त धार्मिक आजादी की धज्जियां उड़ाई जा रही है, यदि किसी धर्म के अनुआई की बातों से प्रभावित होकर कोई अपना धर्म परिवर्तन करता है, तो इसमें बुरा क्‍या है? और यदि आप इसे घोर अपराध मानते हैं, तो पहले देश भर में सक्रिय सैकड़ों धर्मगुरूओं के अगल-अलग संगठनों व उनके अलग-अलग धर्म संस्‍कारों के प्रचार-प्रसार को रोका जाए। क्‍यों वे अपने-अपने तरीके से धर्म पुराणों की व्‍याख्‍या कर रहे हैं? क्‍यों वे केवल अपने-अपने ईष्‍ट देवों का अनुआई बनने का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं? क्‍या उनका करोड़ों का धर्म-उपदेश का कारोबार असल में धर्मसंगत है?

....और फिर भी यदि आपकी आंखें नहीं खुलती, तो पहले भगवान बुद्ध, महाराजा अशोक, साईं बाबा, कबीरदास, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर आदि कई ऐसे नाम हैं, जिन्‍होंने अपने जन्‍म से प्राप्‍त धर्मों का पालन न कर अपनी मर्जी से अलग धर्मों को अपनाया. उन महापुरूषों के विचारों को जबाव देने जितनी बौद्धिकता प्राप्‍त करने में अपनी ताकत व ऊर्जा का इस्‍तेमाल कीजिए...सच मानिए, फिर आपके विचार, लोगों में दंगा-फसाद करके समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लोग खुद ब खुद आपके मत को अपना धर्म बना लेंगे...और आपकी पूजा करेंगे.

चुनावों से आपको क्‍या...तो भूखो मरो!

उदय केसरी
चुनावी मौसम की घोषणा हो चुकी है...अभी पांच राज्‍यों में, फिर पूरे देश में चुनावी मौसम आयेगा. पर आप तो किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता, या नेता तो नहीं, इसलिए आपको इससे क्‍या...हां, आप अगामी महीने में अपनी यात्रा या मनबहलाव कार्यक्रमों की तैयारियों को सुनिश्चित कर लें और यदि ऐसी कोई व्‍यस्‍तता नहीं हो, तो फिर कोई परेशानी नहीं...बस चुनावी दंगल का टीवी दर्शन कीजिए...फिर मतदान के दिन तो चद्दर तान कर सोना है ही...अरे, वोट तो गांव-देहात के निरक्षर व भोले-भाले लोग देते हैं और वह भी अलग-अलग पार्टी के विभिन्‍न आश्‍वासनों जैसे दारू-चखने की फुल व्‍यवस्‍था, लोन दिलाने में मदद, किसी आपराधिक मामले से निकलवाने अ‍ादि हर संभव-असंभव काम करवाने के नाम पर. आप इंटरनेट व टीवी वाले लोगों के लिए मतदान व चुनाव कोई मायने थोड़े रखता है...आप जैसे पढ़े-लिखों का मतलब तो चुनाव बाद आने वाले परिणामों से होता है...जीतने वाला पुराना ही आदमी है कि नहीं...कहीं कोई नया जीत गया तो फिर से सेटिंग जमानी पड़ेगी, नहीं तो धंधे व नौकरी की आफत समझो...आजकल टाटा टी वाले एक बेवकूफी भरा टीवी विज्ञापन करवा रहे है...ग्‍लास में चाय लेकर घुमते फिर रहे है और लोगों से पूछते हैं-आप सो क्‍यों रहे हैं...क्‍या बेहूदा सवाल है...चलते-फिरते लोगों को सोया कह रहे हैं...अंधे हैं क्‍या टाटा टी वाले...और जब एक महिला अपनी आंखें फाड़कर दिखाती है, तो कहते हैं, मतदान के दिन क्‍या अपना वोट डालने के लिए जागते हैं?..अरे मेरे एक वोट डालने या न डालने से क्‍या देश की सूरत बदल जाएगी...आजकल विज्ञापन के कुछ भी तरीके अपना रहे हैं ये समान बेचने वाले....
चुनावी मौसम और मतदान के बारे में उपर्युक्‍त बातें क्‍या आपकी सहज धारणा को अभिव्‍यक्‍त नहीं करती? यदि नहीं, तो देश की राजनीति इतनी गंदी क्‍यों हो चुकी है? इसकी सफाई की जिम्‍मेदारी और अधिकार आखिर किसके पास है? आप कहेंगे यह केवल कहने भर में अच्‍छा लगता है...व्‍यवहारिकता कुछ और है...नेताओं को खुद गंदगी साफ करनी होगी...पर क्‍या यह वर्तमान व भविष्‍य में किसी भी दृष्टि से संभव लगता है? नहीं न...तो क्‍या हमें जागना चाहिए? चलिए आपको अपने देश का एक ताजा सूरतेहाल बताते हैं, फिर अपने जागने पर विचार कीजिएगा....
बेचारा भारत !
भूख और कुपोषण के लिहाज से भारत की स्थिति ‘चिंताजनक’ है. भारत में 20 करोड़ से अधिक लोग ऐसी हालत में जी रहे हैं कि उन्हें सुबह उठ कर पता नहीं होता कि दिन में खाना मिल पाएगा या नहीं. भारत अब भी कुपोषण को दूर करने में कामयाब नही हुआ है. अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के 2008 ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार इस मोर्चे पर भारत की हालत अफ्रीका महाद्वीप के सहारा क्षेत्र के करीब 25 देशों से भी बदतर है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स के साथ पहली बार इंडिया हंगर इंडेक्स भी जारी किया गया है. इससे पता चलता है कि भारत का कोई भी राज्य ‘कम भूख’ या ‘मध्यम दर्जे की भूख’ वाली स्थिति से जुड़ी श्रेणियों में नहीं है. यानी इनकी स्थिति इससे भी नीचे है.
सबसे भूखा मध्‍यप्रदेश
देश में भूख के मोर्चे पर मध्यप्रदेश की सबसे बुरी गत है. इससे थोड़ी अच्छी स्थिति झारखंड और बिहार की है. इंडिया हंगर इंडेक्स में पंजाब और केरल की स्थिति सबसे अच्छी रही. इस इंडेक्स में तीन अहम पैमानों पर देशों की स्थिति तय की गई। ये तीन मानक थे- बाल कुपोषण की स्थिति, बाल मृत्यु दर और पर्याप्त कैलोरी वाले भोजन से वंचित लोगों का अनुपात. भारतीय राज्यों को जब 2008 ग्लोबल हंगर इंडेक्स में विभिन्न देशों के मुकाबले तौला गया, तो मध्यप्रदेश की जगह इथियोपिया और चाड के बीच में रही. इस इंडेक्स में सबसे अच्छी स्थिति में रहे राज्य पंजाब का स्थान गैबॉन, होंडुरास और वियतनाम के बाद आया. दरअसल इस खराब स्थिति की वजह भारत में कुपोषण के शिकार बच्चों और पर्याप्त कैलोरी वाले भोजन से वंचित लोगों की बड़ी तादाद है. भारत में बाल मृत्यु दर अफ्रीका के उप सहारा क्षेत्र के अधिकतर देशों से अधिक है.
सावधान हो जायें
आप यदि अब भी देश के सफेदपोश कर्णधारों के चुनाव में जागरूक भूमिका निभाने पर गंभीरता और निष्‍पक्षता से विचार नहीं करते हैं, तो मेरे ख्‍याल से आपको इस देश में रहने का कोई हक नहीं है और दुश्‍मन घुसपैठियों की तरह रहते भी हैं, तो कुछ ही सालों में आपकी भी तबाही निश्चित है...तब आपको किसी से शिकायत करने का भी हक नहीं होगा और यदि भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था की आड़ में आपको यह हक मिलता भी है, तो सुनवाई सिफर होगी यह तय मान लीजिए...

‘खुद अपने घर जला रहे हैं ईसाई’ ...बेशर्मी की हद तो देखिए

उड़ीसा में हिंसा हदों को पार कर गई है। अब हिंसा करने वाले धर्म ही नहीं, इंसानियत को भी शर्मसार करने पर लगे हैं। कर्नाटक और उड़ीसा में जिस तरह की अराजकता फैली हुई है, उसे देखते हुए क्या बजरंग दल पर बैन लगा देना चाहिए? इस सवाल पर देश में सौहार्दपसंद लोगों को विचार करना लाजिमी हो चुका है। वैसे भी, जब सिमी प्रतिबंधित है तो बजरंग दल को किस अच्‍छे कर्म के लिए छुट्टा छोड़ दिया जाए....आखिर, इन्‍हें कैसे पता चल पायेगा कि नफरत, दहशत व दादागिरी से समुदाय का विकास नहीं, विनाश होता है और जिसकी आग से खुद दहशतर्ग भी नहीं बच पाता। पेश है यह कटाक्ष जो धर्म को दहशतगर्दी का पर्याय बनाने की कोशिश करती ताकतों को आईना दिखाता है।

' उड़ीसा में ईसाई लोग अच्छा मुआवजा लेने के लिए खुद अपने घर जला रहे हैं। ईसाई समुदायों में आपसी होड़ हैं। वे एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं और एक दूसरे को मार रहे हैं।' -विश्व हिंदू परिषद के एक नेता मोहन जोशी

तो देश के संभ्रांत नागरिकों! आप समझें! हमारा या हमारे संघ परिवार का उड़ीसा में ईसाइयों के घर जलाने, उनकी हत्या करने, उनकी औरतों से बदसलूकी करने या किसी भी नन के साथ बलात्कार करने में कोई हाथ नहीं है। कोई हिंदू ऐसा कर ही नहीं सकता। करना तो करना, ऐसा सोचना भी पाप है। हिंदू से ज्यादा सहिष्णु कौम दुनिया में कहीं हो ही नहीं सकती। आप समझने की कोशिश कीजिए बंधु। हिंदू धर्म तो उदार धर्म है। यहां हूण आए, शक आए, यहूदी आए, ईसाई आए, मुसलमान आए, पारसी आए, बहाई आए और यहीं के होकर रह गए। हमारी संस्कृति तो सर्वधर्म समभाव की संस्कृति है। संवाद और असहमति को आदर देने की संस्कृति।

एक हिंदू में दया और करुणा कूट-कूट कर भरी है। वह कभी हमलावर नहीं हुआ। तुर्कों-मुगलों ने तलवार की नोक पर हिंदुओं को मुसलमान बनाया। उनके मंदिर लूटे। जजिया (कर) लगाया। हिंदुओं ने सब चुपचाप सह लिया। लालच देकर मिशनरियों ने उन्हें ईसाई बनाया मगर अंतत: हिंदू जाति का बाल भी बांका नहीं हुआ। आज भी इस देश के 80 प्रतिशत लोग हिंदू हैं क्योंकि उनमें सहने और समाहित करने की क्षमता है। वे हिंसा तो कर ही नहीं सकते। ।

कितना मासूम तर्क है। तो क्या ईसाई लोग बावले हो गए हैं? खुद अपने घर जला रहे हैं। एक-दूसरे को मार रहे हैं। काट रहे हैं। खुद बलात्कार करवा रहे हैं। ठीक है, मान लिया भाई जी। ऐसा ही हो रहा होगा। ईसाइयों के घर हिंदू लोग नहीं जला रहे होंगे। माचिस की तीलियों के तन-बदन में अचानक खारिश उठ खड़ी हुई होगी। वे आपस में रगड़ खाती और एक-दूसरे को खुजाती मकानों की ओर दौड़ रही होंगी। तीलियां तो राष्ट्रवादी होती हैं। वे मित्रों और शत्रुओं में भेद कर सकती हैं। अपनों और परायों में। वे ही उनके घरों को जलाकर राख कर रही होंगी। मान लिया भाईजी। कोई हिंदू तो ऐसा काम कर ही नहीं सकता।

अच्छा तो फिर यह बताइए कि उड़ीसा में आपके अपने परिवार की एक मिलीजुली सरकार है। कंधमाल में इतनी आग लगी हुई है कि उसकी लपटें दिल्ली तक दिखाई दे रही हैं। निर्दोष ईसाइयों की चीखों से अखबार भरे हुए हैं और आपकी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही है। अब जिम्मेदारी तो आपके परिवार को लेनी ही होगी। पर आपको तो कोई पछतावा तक नहीं है। हिंसा की निंदा करते आपकी जुबान ऐंठ जाती है।

बंधु! आपको देश के भूगोल की कोई जानकारी है कि नहीं? बस चबड़-चबड़ किए जा रहे हो। उड़ीसा देखा है? कंधमाल गए हो कभी? यहां ए।सी. कमरे में बैठकर हमें भाषण पिला रहे हो। कंधमाल उड़ीसा का एक आदिवासी जिला है, वनों और जंगलों के बीच, सड़कें बेहद खराब हैं। आबादी गांवों में छितरी हुई है। पुलिस वहां मुख्य सड़कों तक तो पहुंच सकती है। जंगलों से घिरी बस्तियों में नहीं। इन पूरी बस्तियों तक कांग्रेसी सरकारों ने न तो स्कूल पहुंचाए हैं और न अस्पताल। पूरे जिले में कंध लोग और पण लोग जहां-तहां छितरे हुए हैं। दोनों आदिवासी हैं। ये ही आपस में लड़ रहे हैं। आपसी ईर्ष्या और द्वेष। अब पुलिस कहां तक जाए? ईसाई मिशनरियां पणों के बीच काम करती हैं और उन्हें लालच देकर ईसाई बनाती हैं।
बंधु! आप नहीं जानते पूरे उड़ीसा में मुश्किल से दो प्रतिशत भी ईसाई नहीं हैं, जबकि कंधमाल जिले की पूरी आबादी का एक चौथाई हिस्सा ईसाई है। किसी को है चिंता कि उड़ीसा में दलित पण लोगों को जबर्दस्ती ईसाई बनाया जाता है? कंध और पण समुदायों का जटिल सामाजिक इतिहास रहा है। उसे आप समझते भी हैं? बस उठाई जबान तालू से लगा दी। उनके लिए किसी ने कुछ नहीं किया। संघ परिवार ने तन-मन-धन लगाया है, इसलिए कंध हिंदू बचे हैं। पणों को ईसाई बनाया जाता रहा है- जबरन या प्रलोभन देकर। इससे तनाव पैदा होता है। अब सरकार कहां-कहां जाए? कैसे जाए?

राज्य सरकार सी।आर.पी.एफ भेजने की मांग करती रही और उसे हस्बेमामूल लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा। मगर हमारे बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के लिए झट केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक बुला ली गई। अब हिम्मत है तो लगाओ प्रतिबंध। पिया है माँ का दूध तो आओ आगे। और किसी समुदाय पर बस नहीं चलता पर हम पर प्रतिबंध की बात की जाती है। हम तो कहते हैं कि यह शौक भी पूरा करके देख लो। कोई हिंदू होने का गर्व ही नहीं। अपनी सनातन संस्कृति को लेकर कोई स्वाभिमान ही नहीं। कैसी हीन ग्रंथि पैदा हो गई है इस देश में?

आप तो बेकार ही इतना गरम हो रहे हैं भाईजी। देश की चिंता छोडि़ए। सिर्फ इतना बता दीजिए कि उड़ीसा में हिंदू राष्ट्रवादी गुटों के डर से जो लोग राहत शिविरों में जाकर रहने लगे हैं या जान बचाने के लिए जंगलों में जा छिपे हैं, उन्हें वापस लौटने दिया जाएगा या नहीं। सुनने में आ रहा है कि आपके लोग कह रहे हैं कि पहले धर्म बदल कर वापस हिंदू बनो, तभी तुम वापस अपने घरों में लौट सकोगे। अखबारों में छप रहा है कि इन ईसाइयों से कहा जा रहा है कि आओ अपना सिर मुंडवाओ, गोमूत्र पियो, आगे बढ़कर चर्च पर पत्थर फेंको और वापस हिंदू हो जाओ, तभी हम तुम्हें तुम्हारे घर वापस जाने देंगे। जबकि ये आदिवासी ईसाई पूछ रहे हैं : घर? क्या हमारा घर बचा रह गया है। फिर भी खुलेआम यह धमकी कि रहना है तो सिर्फ हिंदू बनकर रह सकते हो।

झूठ! एकदम सफेद झूठ है बंधु! कोई हिंदू ऐसा कह ही नहीं सकता। आप खुद हिंदू हैं। आप कहेंगे ऐसा? यह सब साजिश है। अखबार और टेलिविजन झूठ बोल रहे हैं और झूठ दिखा रहे हैं। मैंने कहा है न कोई हिंदू तो ऐसा कह ही नहीं सकता और जो कहता है, वह असली हिंदू नहीं। छोटा-मोटा दंगा फसाद तो देश में चलता ही रहता है। आप क्यों हैरान-परेशान हो रहे हैं। कब तक रहेंगे शिविरों में ये लोग। अपने आप लौट आएंगे एक न एक दिन।

यानी सरकार मिट्टी की माधो बनी रहेगी? कुछ नहीं करेगी? इस देश में कोई कानून है कि नहीं। नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है कि नहीं। उनको तो जीने के अधिकार तक से महरूम कर दिया जा रहा है। फरमाया गया है कि आप से आप हालात बदलेंगे। लेकिन भाईजी! पादरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों को कुछ साल पहले जिंदा जला दिए जाने और उनकी पत्नी द्वारा हत्यारों को क्षमादान देने के बाद भी हालात तो नहीं बदले। सिर्फ ईसाई ही क्यों मारे जा रहे हैं और कब तक यह सब चलेगा।

अरे! क्या ग्राहम स्टेन्स- ग्राहम स्टेन्स लगा रखा है आपने। स्वामी लक्ष्मणानन्द जैसे संत पुरुष का नाम आपकी जुबान तक पर नहीं आता। उनका खून, खून नहीं है? उन्हें तो भाईजी माओवादियों ने मारा था। उन्होंने दावा भी किया है। बदला ईसाइयों से क्यों लिया जा रहा है। गरीब और अल्पसंख्यकों से।

बंधु! आपसे संवाद नहीं हो सकता। आप कुतर्क करते हो। आप समझते हैं कि कंध आदिवासी अमीर हैं। आपमें भारतीय संस्कृति को समझने की जरा भी सलाहियत नहीं। आपका दृष्टिकोण तक वैज्ञानिक नहीं। हर क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी ही। सृष्टि का यही नियम है। फिर मैं और आप थोड़े ही लड़ रहे है। वहां स्थानीय लोग लड़ रहे हैं। लड़-मरकर बैठ जाएंगे। आप मुझे जवाब दीजिए कि इस मुल्क में एक हिंदू संत को मारा जाए और लोगों का खून न खौले। समझ लें कंधमाल में जो कुछ हो रहा है, अपने आप हो रहा है। चीजें अपने आप शुरू हुई हैं, अपने आप खत्म हो जाएंगी। जहां तक हम लोगों का दृष्टिकोण है, हम तो अपनी संस्कृति को बचाने में लगे हुए हैं।

अच्छा, तो यह भारतीय संस्कृति की शुद्धि के लिए हवन हो रहा है। मैं भी कितना संज्ञाहीन हो चुका हूं। मुझे न तो बहते लाल रक्त की सुगंध महसूस हो रही है और न मानवीय चीखों के मंत्र सुनाई पड़ रहे हैं। मेरा तो कुछ नहीं हो सकता भाईजी! बिल्कुल होपलैस केस है मेरा। साभार: नवभारत टाईम्स डॉट कॉम

राष्ट्रधर्म के लिए जेहाद की जरूरत

आतंक के आगे बेबस भारत : जरा सोचिए!
उदय केसरी
क्या आपको मालूम है, दुनिया में आतंक के आगे इराक के बाद सबसे अधिक बेबस कौन है?....बेशक, भारत। जी हां, पिछले दो दशकों से अधिक समय से भारत चुपचाप आतंकी हमले झेल रहा है। यही नहीं, एक रिपोर्ट की मानें तो 2004 से 2007 तक उत्तर, दक्षिण व मध्य अमेरिका, यूरोप एवं यूरेसिया में आतंक की जद चढ़े कुल 3,280 बेगुनाहों से भी ज्यादा 3,674 लोग अकेले भारत में मारे गए। इस दौरान भारत में आतंकियों ने 3032 बार हमले किये। अब यदि इसमें 2008 में एक के बाद एक हुए और हो रहे आतंकी हमलों में मरने वाले बेगुनाहों की संख्या भी जोड़ दी जाए, तो यह आंकड़ा चार हजार के पार हो जाएगा।
आतंक के शिकार बेगुनाहों की लाशों की यह संख्या और भारत की बेबसी की यह झलक मैं कोई सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए नहीं बता रहा हूं, जिससे देश के युवा किसी रोजगार प्रतियोगिता परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सके। बल्कि देश के युवाओं को सूचित करना चाहता हूं, जिन्‍होंने बेरोजगारी या कहें मनचाही नौकरी के आगे देश की सुरक्षा, अस्मिता और अभिमान को ताक पर रख दिया है। यह भी बताना है कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी संगठन अल-कायदा अब घोषित तौर पर भारत का दुश्‍मन है। हूजी, इंडियन मुजाहिद्दीन, लशकर-ए-तैयब्बा आदि तो हैं ही। अल-कायदा का प्रवक्ता व मीडिया सलाहकार ऐडम याहिये गैडन ने एक वीडियो टेप जारी कर जो कहा है, उसमें कश्‍मीर में इस्लाम के लिए लड़ रहे आतंकियों को मदद करने की बात भी की है। यानी भारत से अपनी दुश्‍मनी की घोषणा कर दी है।
ऐडम याहिये गैडन के बारे में थोड़ा और जान लें कि यह कौन है? यह मूलतः ईसाई व अंग्रेजी भाषी अमेरिकन है। उसने 1995 में 17 साल की उम्र में धर्मपरिवर्तन कर इस्लाम धर्म कबूला और 2003 में अल-कायदा में शामिल हो गया। फिलहाल, वह अल-कायदा का वरिष्ठ अंग्रेजी प्रवक्ता, धर्म प्रचारक व मीडिया सलाहकार के रूप में कार्यरत है। वह पिछले कई सालों से अल-कायदा के वीडियो टेपों में दिखता रहा है। 9/11 की आतंकी घटना के बाद अमेरिकी सुरक्षा एंजेंसियां पागल कुत्ते की तरह उसकी खोज में लगी हैं, पर अबतक उसका कोई सुराग नहीं लग सका है।
अब एक और आतंकी के बारे बताना चाहता हूं, जिसे जान कर आश्‍चर्य तो नहीं, पर दुख जरूर होगा। अल-कायदा के इस आतंकी का नाम है-धीरेन बरोत। यह मूलतः भारतीय है, जिसका जन्म बड़ौदा के एक हिन्दू परिवार में हुआ। इसके कई उपनाम है जैसे-अबू मूसा अल हिन्दी, बिलाल, अबू ईसा अल हिन्दी, ईसा अल ब्रितानी आदि। बरोत को ब्रिटेन में कई आतंकी गतिविधियों से जुडे़ आरोपों के तहत 3 अगस्त 2004 में गिरफ्तार किया गया और उसे 2006 में उम्रकैद की सजा सुना दी गई। बरोत ने 20 साल की उम्र में इस्लाम धर्म कबूला। उसने 1995 में पाकिस्तान जाकर कश्‍मीर में भारतीय सेना के खिलाफ आतंकी प्रशिक्षण प्राप्त किया। यही नहीं, 1999 में ईसा अल हिन्दी के नाम से ‘द आर्मी आफ मदीना इन कश्‍मीर’ नामक एक किताब भी लिखी। इसके बाद वह 2000 तक अल कायदा के एजेंट के रूप में काम करता रहा।
ऐडम याहिये गैडन और धीरेन बरोत के बारे में बताने की वजह यह है कि यह दोनों मूलतः मुस्लिम नहीं हैं। एक ईसाई, तो दूसरा हिन्दू है। मगर दोनों अल-कायदा के हार्डकोर आतंकी हैं। एक सवाल जो भारत में कई बार सांप्रदायिक सदभावना दूषित करने की कोशिश करता है, उसका जवाब यह है कि आतंकी केवल मुस्लिम ही हो यह जरूरी नहीं। वह किसी भी धर्म का हो सकता है। आतंकी तो इस्लाम को बेच कर दहशत का करोबार कर रहे हैं, असल में उनका कोई धर्म नहीं।
पर सवाल यह नहीं है। सबसे बड़ा सवाल भारत की बेबसी का है, जिसके लिए जिम्मेदार लोगों को स्वार्थ की निद्रा से कौन जगाएगा? कब हम अपने राष्ट्रधर्म के लिए जेहाद करने को तैयार होंगे? भारत को संप्रदाय के विविध धर्मों की बेड़ियों में जकड़ने की कोशिश खतनाक है, ऐसे दमघोंटू माहौल में बहुरंग भारत की आत्मा एक पल के लिए भी सांस नहीं ले सकती है।.....जरा सोचिए!