क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? यह सवाल उठाया है एक प्रतिष्ठित विचारक श्री गिरिराज किशोर ने। यह वाकई में विचारणीय है। 19 नवंबर को सीधीबात पर प्रकाशित आलेख शांतिप्रिय हिन्दू भाई भगवा आतंकवाद से सावधान पर आई प्रतिक्रियाओं को पढ़कर कम से कम ऐसा ही लगता है। इस आलेख के पक्ष में एक-दो प्रतिक्रियाओं को छोड़ दें तो, ज्यादातर में भगवा आतंकवाद के प्रति आंखें मूंद कर अपना पक्ष रखा गया तथा लेखक के प्रति रोष प्रकट किया गया है। यह वाकई में निष्पक्ष भारतीय बौद्ध्किता के लिए चिंता का विषय है। इस चिंता पर श्री गिरिराज किशोर के विचार और सवाल हमें सचेत करते हैं...इसे आप भी पढ़ें....
भारत जैसे धर्मपरायण देश में हिंदू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई, सबके पास धर्म का ऐसा आधार है कि अपनी-अपनी हर समस्या का समाधान वे उसमें तलाश कर लेते हैं। टीवी देखना एक धर्म में कुफ्र है, दूसरे में मुखौटा लगाकर नाचना धर्म विरुद्ध है, तीसरे में धर्म बदलने की आजादी पाप है। क्या हम धर्म को सवोर्परि मानते हैं? उसमें क्या श्रेष्ठ है और क्या नहीं, इस विषय पर विद्वत् जन सामूहिक विचार करना नहीं चाहते या ऐसा करने से डरते हैं? क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? अगर ऐसा हुआ तो देश मुश्किल में पड़ जाएगा। यहां इतने धर्म हैं, तो आखिर कितनों की तानाशाही बर्दाश्त करनी होगी? धर्म तानाशाह नहीं होता। कर्मकांड तानाशाही करता है। उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रेटेशन में तानाशाही का अंदाज होता है। यह उचित यह अनुचित, यह पाप यह पुण्य। वेदों को कितने लोग जानते हैं? कुरान पाक के कितने आलिम फाजिल हैं? यह एक दूसरी तरह की अनभिज्ञता है जो धर्म का गुलाम बनाती है। जो हम समझते नहीं और उस पर विश्वास करते हैं तो यह दूसरा गुलामी का दरवाजा है। गुरुओं से कौन पूछे कि आपने यह कैसे फतवा दिया। 'ऊपर' वाला तो डंडा चलाएगा नहीं, बाकी सब उसका डंडा संभाले हैं। लेकिन लगता है कि उनका आपस में कुछ अनुबंध है। शंकराचार्य बनने के बारे में वे मनमानी कर सकते हैं। शहर काजी के बारे में उनकी राय मुख्तलिफ हो जाती है और अपने आपको लोग काजी घोषित करने में कुछ भी गलत नहीं समझते। ये बातें इसलिए जेहन में आती हैं कि आम आदमी अपनी आदमियत साबित करना चाहे तो उसे इन्हीं मुल्ला मौलवियों और पंडितों के पास जाना पड़ेगा। लगता है कि धर्म ज्यादा ताकतवर हुए हैं। 15 नवंबर को एक निजी चैनल पर वाराणसी के धर्मगुरुओं की सभा के महामंत्री बता रहे थे कि स्वामी दयानंद पांडे उर्फ अमृतानंद को उस सभा ने शंकराचार्य नहीं बनाया। उनमें एक दो लोगों ने जबर्दस्ती पीठ भी बना दी और उन्हें शंकराचार्य भी घोषित कर दिया। यही कहानी ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में घटित हुई थी। यह क्या है? आधिकारिक प्रवर समिति दयानंद जी को शंकराचार्य मानती नहीं, राजनीति मानती है। उसकी सुविधा और नीति को वे सूट करते हैं। इतने साधु अनाचार में पकड़े जाते हैं लेकिन उनके बारे में बात करना राजनीति के लिए लाभकारी नहीं। दयानंद और प्रज्ञा साध्वी, यहां तक कि कर्नल पुरोहित उनके उद्देश्य की सिद्धि में फिट बैठ रहे हैं। हिंदूवादी संगठन कह रहे हैं कि सरकार सेना और साधुओं को अपमानित कर रही है। अपने हित में अपमानित होने वालों का उन्होंने एक युग्म बना लिया। मजे की बात है कि इस युग्म में एक स्वामी, एक अदद साध्वी और फिलहाल एक कर्नल है। तोगडि़या आदि फतवा दे रहे हैं कि पूरा साधु समाज और पूरी सेना अपमानित हो गई, जबकि इन पर क्रिमिनल चार्जेज लगे हैं। साबित होना बाकी है। हो सकता है वे बेगुनाह हों, लेकिन जांच तो हो जाने दीजिए, फिर कहिए। गेरुआ वस्त्र धारण करने से कोई व्यक्ति जुर्म से निरापद नहीं हो जाता, न वर्दी पहन लेने से। देश के सामाजिक ढांचे में इधर मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। एक क्रांतिकारी परिवर्तन तो मंडल कमिशन के लागू होने से हुआ है। दूसरा आरक्षण से, जिसने समाज का परंपरागत ढांचा बदल दिया। जिनकी पहचान नहीं थी उन्हें पहचान मिल गई। नतीजतन पहले जातिगत राजनीतिक पार्टियां बनीं। जातिगत वर्चस्व की जोर-आजमाइश सबसे अधिक राजनीति में हुई। फिर माया-मिश्रा समीकरण ने सत्ता के लिए सोशल एंजीनियरिंग के फंडे द्वारा अन्य जातियों को ताश के पत्तों की तरह बांटना शुरू किया। इस प्रक्रिया ने सवर्ण को राजनीतिक खानाबदोश की स्थिति में ला दिया। जो वर्ग सदियों शासक और नियामक रहा हो, वह कुछ कहे या न कहे लेकिन आहत तो होगा। मुसलमानों ने देश पर कई सौ साल राज किया था, जब अंग्रेज आए तो उनके मन में अपनी प्रजागत स्थिति से सालों तक असंतोष रहा। 1857 में उनके बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के पीछे एक यह भी कारण था। देशभक्ति की बात रही होगी या नहीं, पर अंग्रेजों के प्रति उनका आक्रोश था, वे उन्हें तख्त से तख्ते पर ले आए थे। सवर्ण भी सदियों की उस पीड़ा को कैसे भूल जाएंगे। हालांकि उनके द्वारा कथित निमन् जातियों पर किए गए अत्याचारों का उनके पास कोई रेकॉर्ड नहीं है, लेकिन अपने वर्चस्व के जाने का उनमें मलाल जरूर है। उसका प्रतिकार वे राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखकर करना चाहते हैं। उसके लिए धर्म और संतों का वर्चस्व बनाए रखने का तरीका ही शायद उनके पास है। पहले हिंसा फुटकर स्तर पर होती थी। जैसे उड़ीसा में नन के साथ सामूहिक बलात्कार और उसे जलाना, विदेशी फादर और उसके बच्चों की जलाकर हत्या करना। उस वक्त भी हिंदूवादी वर्ग ने हत्यारों का बचाव किया था। लेकिन जैसे समाचार आ रहे हैं और यदि वे सही हैं, तो लगता है कि तालिबान और पड़ोसी देश के आतंकवादियों की तरह अपने देश में भी संगठित आतंकवाद की संभावना की तलाश शुरू हो गई है। क्या इससे धर्म की श्रेष्ठता या सवर्ण-वर्चस्व स्थापित होगा? हिंदू धर्म के देवी-देवता भले ही विभिन्न आयुधों से संपन्न नजर आते हों, पर बेकसूरों के लिए नहीं। इसका उदाहरण है कि तुलसी ने मानस में शंबूक प्रकरण को नहीं रखा। वह जानते थे यह प्रकरण समाज के हित में नहीं है। हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था के कारण बहुत जहर फैला है, अगर धर्मगत संगठित हिंसा का आरंभ हो गया और सारे धर्म इस रास्ते पर उतर आए तो न धर्म बचेंगे न धर्म मानने वाले। जो साध्वी या साधु या राजीतिज्ञ ऐसा सोचते हैं, वे कभी न समाप्त होने वाले सिविल वार को निमंत्रण दे रहे हैं। ऐसे लोगों का मन परिवर्तन करने की आवश्यकता है। साधु संत उनका मन परिवर्तन करके उन्हें शांति के गोल में ला सकते हैं। राजनेता तो इधर भी आग सेकेंगे उधर भी। संतों, ये देश बेगाना नहीं।
साभार: नवभारत टाइम्स डॉट कॉम
भारत जैसे धर्मपरायण देश में हिंदू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई, सबके पास धर्म का ऐसा आधार है कि अपनी-अपनी हर समस्या का समाधान वे उसमें तलाश कर लेते हैं। टीवी देखना एक धर्म में कुफ्र है, दूसरे में मुखौटा लगाकर नाचना धर्म विरुद्ध है, तीसरे में धर्म बदलने की आजादी पाप है। क्या हम धर्म को सवोर्परि मानते हैं? उसमें क्या श्रेष्ठ है और क्या नहीं, इस विषय पर विद्वत् जन सामूहिक विचार करना नहीं चाहते या ऐसा करने से डरते हैं? क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? अगर ऐसा हुआ तो देश मुश्किल में पड़ जाएगा। यहां इतने धर्म हैं, तो आखिर कितनों की तानाशाही बर्दाश्त करनी होगी? धर्म तानाशाह नहीं होता। कर्मकांड तानाशाही करता है। उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रेटेशन में तानाशाही का अंदाज होता है। यह उचित यह अनुचित, यह पाप यह पुण्य। वेदों को कितने लोग जानते हैं? कुरान पाक के कितने आलिम फाजिल हैं? यह एक दूसरी तरह की अनभिज्ञता है जो धर्म का गुलाम बनाती है। जो हम समझते नहीं और उस पर विश्वास करते हैं तो यह दूसरा गुलामी का दरवाजा है। गुरुओं से कौन पूछे कि आपने यह कैसे फतवा दिया। 'ऊपर' वाला तो डंडा चलाएगा नहीं, बाकी सब उसका डंडा संभाले हैं। लेकिन लगता है कि उनका आपस में कुछ अनुबंध है। शंकराचार्य बनने के बारे में वे मनमानी कर सकते हैं। शहर काजी के बारे में उनकी राय मुख्तलिफ हो जाती है और अपने आपको लोग काजी घोषित करने में कुछ भी गलत नहीं समझते। ये बातें इसलिए जेहन में आती हैं कि आम आदमी अपनी आदमियत साबित करना चाहे तो उसे इन्हीं मुल्ला मौलवियों और पंडितों के पास जाना पड़ेगा। लगता है कि धर्म ज्यादा ताकतवर हुए हैं। 15 नवंबर को एक निजी चैनल पर वाराणसी के धर्मगुरुओं की सभा के महामंत्री बता रहे थे कि स्वामी दयानंद पांडे उर्फ अमृतानंद को उस सभा ने शंकराचार्य नहीं बनाया। उनमें एक दो लोगों ने जबर्दस्ती पीठ भी बना दी और उन्हें शंकराचार्य भी घोषित कर दिया। यही कहानी ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में घटित हुई थी। यह क्या है? आधिकारिक प्रवर समिति दयानंद जी को शंकराचार्य मानती नहीं, राजनीति मानती है। उसकी सुविधा और नीति को वे सूट करते हैं। इतने साधु अनाचार में पकड़े जाते हैं लेकिन उनके बारे में बात करना राजनीति के लिए लाभकारी नहीं। दयानंद और प्रज्ञा साध्वी, यहां तक कि कर्नल पुरोहित उनके उद्देश्य की सिद्धि में फिट बैठ रहे हैं। हिंदूवादी संगठन कह रहे हैं कि सरकार सेना और साधुओं को अपमानित कर रही है। अपने हित में अपमानित होने वालों का उन्होंने एक युग्म बना लिया। मजे की बात है कि इस युग्म में एक स्वामी, एक अदद साध्वी और फिलहाल एक कर्नल है। तोगडि़या आदि फतवा दे रहे हैं कि पूरा साधु समाज और पूरी सेना अपमानित हो गई, जबकि इन पर क्रिमिनल चार्जेज लगे हैं। साबित होना बाकी है। हो सकता है वे बेगुनाह हों, लेकिन जांच तो हो जाने दीजिए, फिर कहिए। गेरुआ वस्त्र धारण करने से कोई व्यक्ति जुर्म से निरापद नहीं हो जाता, न वर्दी पहन लेने से। देश के सामाजिक ढांचे में इधर मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। एक क्रांतिकारी परिवर्तन तो मंडल कमिशन के लागू होने से हुआ है। दूसरा आरक्षण से, जिसने समाज का परंपरागत ढांचा बदल दिया। जिनकी पहचान नहीं थी उन्हें पहचान मिल गई। नतीजतन पहले जातिगत राजनीतिक पार्टियां बनीं। जातिगत वर्चस्व की जोर-आजमाइश सबसे अधिक राजनीति में हुई। फिर माया-मिश्रा समीकरण ने सत्ता के लिए सोशल एंजीनियरिंग के फंडे द्वारा अन्य जातियों को ताश के पत्तों की तरह बांटना शुरू किया। इस प्रक्रिया ने सवर्ण को राजनीतिक खानाबदोश की स्थिति में ला दिया। जो वर्ग सदियों शासक और नियामक रहा हो, वह कुछ कहे या न कहे लेकिन आहत तो होगा। मुसलमानों ने देश पर कई सौ साल राज किया था, जब अंग्रेज आए तो उनके मन में अपनी प्रजागत स्थिति से सालों तक असंतोष रहा। 1857 में उनके बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के पीछे एक यह भी कारण था। देशभक्ति की बात रही होगी या नहीं, पर अंग्रेजों के प्रति उनका आक्रोश था, वे उन्हें तख्त से तख्ते पर ले आए थे। सवर्ण भी सदियों की उस पीड़ा को कैसे भूल जाएंगे। हालांकि उनके द्वारा कथित निमन् जातियों पर किए गए अत्याचारों का उनके पास कोई रेकॉर्ड नहीं है, लेकिन अपने वर्चस्व के जाने का उनमें मलाल जरूर है। उसका प्रतिकार वे राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखकर करना चाहते हैं। उसके लिए धर्म और संतों का वर्चस्व बनाए रखने का तरीका ही शायद उनके पास है। पहले हिंसा फुटकर स्तर पर होती थी। जैसे उड़ीसा में नन के साथ सामूहिक बलात्कार और उसे जलाना, विदेशी फादर और उसके बच्चों की जलाकर हत्या करना। उस वक्त भी हिंदूवादी वर्ग ने हत्यारों का बचाव किया था। लेकिन जैसे समाचार आ रहे हैं और यदि वे सही हैं, तो लगता है कि तालिबान और पड़ोसी देश के आतंकवादियों की तरह अपने देश में भी संगठित आतंकवाद की संभावना की तलाश शुरू हो गई है। क्या इससे धर्म की श्रेष्ठता या सवर्ण-वर्चस्व स्थापित होगा? हिंदू धर्म के देवी-देवता भले ही विभिन्न आयुधों से संपन्न नजर आते हों, पर बेकसूरों के लिए नहीं। इसका उदाहरण है कि तुलसी ने मानस में शंबूक प्रकरण को नहीं रखा। वह जानते थे यह प्रकरण समाज के हित में नहीं है। हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था के कारण बहुत जहर फैला है, अगर धर्मगत संगठित हिंसा का आरंभ हो गया और सारे धर्म इस रास्ते पर उतर आए तो न धर्म बचेंगे न धर्म मानने वाले। जो साध्वी या साधु या राजीतिज्ञ ऐसा सोचते हैं, वे कभी न समाप्त होने वाले सिविल वार को निमंत्रण दे रहे हैं। ऐसे लोगों का मन परिवर्तन करने की आवश्यकता है। साधु संत उनका मन परिवर्तन करके उन्हें शांति के गोल में ला सकते हैं। राजनेता तो इधर भी आग सेकेंगे उधर भी। संतों, ये देश बेगाना नहीं।
साभार: नवभारत टाइम्स डॉट कॉम
'भोला' शब्द 'बेवकूफ' या 'मूर्ख' का सम्मानजनक पर्याय है.
ReplyDeleteयह दीपक के बुझने के पहले की लौ है। अन्तिम बार जल रही है।
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