कहानियां

कहानीः उदय केसरी
" माहौल "
अमन आज की सुबह जागा तो जरुर पर विस्तर से उठा नहीं और न ही अपना दफ्तर गया, बस बीती रात के एक स्वप्न में वह घंटों बाद भी खोया रहा।
अमन भारती राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नई दिल्ली में कार्यरत एक अधिकारी है। वह अधिकारी जरूर है पर उसके दिलोदिमाग में मानवीयता का बेहद गहरा प्रभाव है। वह सांप्रदायिकता, जातीय भेदभाव व रूढ़िवादिता से बरबस ही दुखी हो जाता है। वह यह देखकर विचलित हो जाता है कि जिन लोगों की प्राकृतिक काया तक में ऊपरवाले ने भी कोई मूल फर्क नहीं किया, वे खुद आपस में इतने अलग अलग क्यों होते चले गए ?
अमन कल दफ्तर में एक फाइल पढ़ने के बाद से ही खुद को विचलित महसूस कर रहा था। फाइल राजस्थान से आई थी और उसमें वहां के गांव वीरपुरा की एक मामले का विवरण था। मामला था कि वहां एक वृद्ध महमूद अली को भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला। भीड़ का आरोप था कि वह अपने साथ एक गाय ले जा रहा था, जिसे वह कसाई को बेचने वाला था। भीड़ में शामिल लोग कथित तौर पर गौसेवा को धर्म मानने वाले थे, इसलिए उन लोगों ने महमूद के इस अपुष्ट दुस्साहस का दंड उसे सड़क पर बेरहमी से पीट कर दिया। वृद्ध यह दंड सह न सका, उसने सड़क पर ही दम तोड़ दिया। लेकिन जब इसकी खबर वृद्ध के घरवालों को लगी, वे दौड़े भागे घटना स्थल पर पहुंचे। वे उस वृद्ध की लाश को देख बिलख उठे। उस वृद्ध का बेटा करीम तो दहाड़मार कर रोने लगा। वह रोते रोते अपने अब्बू की लाश से कहता जा रहा था - " अब्बू... मैं आपको दो दिनों से रोक रहा था... अभी माहौल खराब चल रहा है, मत ले जाओ इस बीमार गाय को इलाज कराने... मत जाओ... जाओ... पर आपने मेरी नहीं मानी... मेरी गैरहाजिरी में घर से उस गाय को लेकर निकल गए... ओ अल्ला... वही हुआ, जिसका मुझे शक था... या अल्लाह, ये कैसा माहौल है ?.... " वहां सड़क पर खड़े दूसरे लोग उस वृद्ध के बेटे के विलास को सुनकर समझ तो गए कि सच क्या था और क्या समझके गौसेवा दल की भीड़ ने उस वृद्ध की जान ले ली। लेकिन किसी को इस सच से जैसे फर्क नहीं पड़ा, वे सब तमाशबीन बने रहे और फिर चले गए।
राजस्थान का यह मामला अमन को हिला कर रख दिया। वह दफ्तर में ही इसके अवसाद में ऐसा डूबा जा रहा था कि कैबिन में आकर चपरासी ने दोपहर की चाय कब रख गया, उसे पता भी नहीं चला। चाय दोपहर से शाम तक वैसी ही पड़ी रही। ... शाम में दफ्तर को बंद करने का समय हो गया। एक एक करके अन्य अधिकारी व कर्मचारी दफ्तर से चले गए। चपरासी अधिकारियों के कैबिन बंद करते हुए जब अमन के कैबिन में घुसा, तो उसने अपने अमन सर को अब भी किसी सोच में बेसुध बैठा हुआ पाया। सब जा चुके थे तो अब उससे रहा नहीं गया। उसने आवाज दी - " सर जी... सरजी... सभी बाबू निकल गए हैं...!!! " तब जाकर कहीं जाकर अमन अपने अवसाद से बाहर आया- " हां - हां... निकल रहे हैं। " यह कहकर अपना बैग समेटने लगा। तभी उसने केबिन से निकलते हुए चपरासी से अचानक पूछ बैठा- " दशरथ, एक गाय की जान क्या इंसानों की जान से भी बड़ी होती है ? दशरथ एक अधेड़ उम्र का बहुत ही धार्मिक आस्था रखने वाला व्यक्ति था। वह रोज पूजापाठ करके तिलक लगाकर ही दफ्तर आता। उसे हिन्दू धर्म ग्रंथों को पढ़ने में भी रुचि थी, सो कई बार वह बातों बातों में धर्म - अधर्म के फर्क को धार्मिक कथाओं व प्रसंगों के माध्यम से समझाने की कोशिश करता सुनाई देता था। शायद इसीलिए अमन ने यह सवाल उससे पूछा था। लेकिन दशरथ इस सवाल से अचरज में था कि खुद इतने पढ़े लिखे अधिकारी हैं अमन सर और मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहे हैं। दशरथ को चुपचाप सोचता देख अमन ने टोका - " क्या हुआ दशरथ, कोई जवाब नहीं सूझ रहा क्या ?" " ओ नहीं सर... इसमें जवाब क्या देना... इंसान की जान से बढ़कर आखिर किसी की जान क्यों होगी...।"
चपरासी दशरथ का जवाब सुन अमन ने उससे फिर कुछ नहीं कहा और अपनी सरकारी गाड़ी से क्वार्टर के लिए निकल गया। ड्राइवर गाड़ी चला रहा था और पिछली सीट चुपचाप बैठा अमन चपरासी की बात व राजस्थान की उस घटना में फिर खो गया। तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी। किसी अनजान नंबर से कॉल था- " हैलो... हैलो... नो...नो ... इट्स रांग नंबर...!" रांग नंबर का कॉल काटते हुए अमन ने देखा मोबाइल में फेसबुक एप्प के कई नोटिफिकेशन पड़े हैं। उसने कुछ नोटिफिकेशन को तो बिना देखे पढ़े ही स्वाइप करके हटा दिया, पर इसी क्रम में एक नोटिफिकेशन को भूलवश हटाने की बजाय क्लिक कर दिया। फेसबुक खुल गया और सामने फ्रेंडलिस्ट के एक अपरिचित मित्र का पोस्ट था। पोस्ट में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का एक विचार क्वोट करके लिखा हुआ था - ( " मैं खुद गाय को पूजता हूं यानी मान देता हूं। गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करनेवाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है इसे मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे। लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूं, वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं। जैसे गाय उपयोगी है वैसे ही मनुष्य भी, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू, उपयोगी हैं। तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूंगा ? क्या मैं उसे मारुंगा ? ऐसा करने से मैं मुसलमान और गाय दोनों का दुश्मन हो जाऊंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक ही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती है तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक कानून है, मैं तो मानता हूं।") - पोस्ट के अंत में लिखा था- (हिंद स्वराज, पेज नंबर 32 से 34, प्रकाशक-नवजीवन ट्रस्ट)
अमन को यह पोस्ट पढ़कर मानों थोड़ा सुकून मिला हो, उसने पोस्ट को दिल से लाइक किया। लेकिन तभी उसके दिमाग में फिर एक सवाल खड़ा हो गया- " गांधी जी के यह विचार तो दशकों पुराना है। हिन्द स्वराज पुस्तक की रचना तो बापू ने 1909 में की थी। तो एक सौ दस सालों बाद भी हमारे देश में लोगों की सोच में अबतक कोई परिवर्तन नहीं आया ? मानों पलभर के सुकून के बाद फिर उलझ गया था अमन। तभी उसे अपने ड्राइवर की आवाज सुनाई दी- " सर, क्वार्टर आ गया है।" ड्राइवर की यह बात सुनकर अमन एकबारगी मानों झेप सा गया - कि मैं आज कुछ ज्यादा ही अपने ख्यालों में उलझ गया हूं। कि पहले चपरासी और अब ड्राइवर को मुझे टोकना पड़ रहा है। वह तेजी से गाड़ी से उतरकर क्वार्टर के अंदर चला गया।

अमन ने क्वार्टर में आने पर हाथमुंह धोकर टीवी के सामने जा बैठा, ताकि दिमाग में चल रही बातों व उलझनों से खुद थोड़ा बाहर निकाला जा सके। इसीलिए उसने बाकी दिनों की तरह टीवी पर न्यूज चैनल न लगाकर मनोरंजन चैनल लगा दिया। दो एक घंटे टीवी देखने के बाद उसने टीवी देखते हुए ही डीनर किया। और कुछ देर बाद वह सोने के लिए अपने बेडरूम में चला गया। अमन को कुछ पल में ही नींद आ गई... लेकिन यह क्या !!! स्वप्न में भी वह फिर से अपने उन्हीं सवालों और उलझनों के बीच खुद को घिरा पाया। वह विचलित सा आकाश में खुद को उड़ता हुआ देख रहा है। उड़ते उड़ते वह एक ऐसे स्थान पर पहुंचता है, जहां का नजारा बेहद मनमोहक, सात्विक और आध्यात्मिक है। तभी वहां उसे कहीं से एक आवाज सुनाई देती है- " अमन, तुम क्यों इतने विचलित हो पुत्र ?" वह बड़े आश्चर्य चकित भाव से इधर उधर देखने लगा कि आखिर यह आवाज किसकी है ? पर उसे कोई भी ऐसा शख्स दिख नहीं रहा, जिसकी इतनी आत्मीय आवाज उसे सुनाई दी थी। वह कह उठा- " आप कौन हैं ? आप मुझे दिखाई क्यों नहीं देते ?" इतने में अमन के सामने एक अद्भुत प्रकाशपुंज प्रकट होता है। तब भी वह कुछ समझ नहीं पाता। वह फिर पूछता है- " आप कौन हैं ? आप मुझे दिखाई क्यों नहीं देते ?" तब वही आत्मीय आवाज पुनः सुनाई देती है -" पुत्र, मैं परमात्मा हूं... तुम किसे खोज रहे हो ?"
अमन हैरान होकर फिर पूछता है - " परमात्मा!!!, पर आप मुझे किसी रूप में दिखाई क्यों नहीं देते ? " 
" पुत्र, मैं तो निराकार हूं, मेरे रूप तो तुम स्वयं हो।"
अमन यह सुनकर काफी अधीर होकर फिर पूछता है - " तो फिर धरती पर भगवान के इतने रूप कैसे हैं ? कोई अपने भगवान को अल्लाह कहता है, तो कोई राम, कोई कृष्ण, कोई जीसस क्राइस्ट... ऐसा क्यों ?
" पुत्र ये सभी भी मेरे ही रूप हैं।"
अमन की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी, उसने फिर पूछा - " हे परमात्मा, तो फिर इन्हें मानने और पूजने वालों के बीच इतना बैरभाव, नफरत और वैमनष्यता कैसे कहां से पनप गए ? "
" पुत्र, यह बहुत दुखद पहलू है। इससे कई बार मैं भी आहत और निराश हो जाता हूं कि मैंने तो मनुष्य को बनाते समय कोई भेद भाव नहीं किया और न ही कोई अंतर किया तो ये आपस में इतने भेदभाव से क्यों भर गए।"
परमात्मा के इस उत्तर के साथ ही अमन का यह स्वप्न टूट जाता है और उसके कानों में क्वार्टर के रसोईए की आवाज पड़ती है, जिससे उसकी नींद भी टूट जाती है- "सरजी... सरजी... उठ गए क्या... चाय लाया हूं...।"
----समाप्त----

कहानीः उदय केसरी
                                                       श्वेतचर्मरोगिणी
नूतन दीदी ने ही पहली बार उसे संस्कार से मिलवाया था। उस वक्त वह कंप्यूटर सेंटर की लैब में था। कमरे में थोड़ी कम रोशनी थी। एकाएक वह दीदी के साथ आयी। आते ही दीदी चहकते हुए बोली, हैलो संस्कार! देखो आज मैं तुम्हें अपनी बेस्ट फ्रेंड से मिलवाती हूं। वह तभी पीछे मुड़ कर देखा- नूतन दीदी से लगभग आधे से कम उम्र की यानी लगभग अपने हमउम्र एक लड़की चुपचाप खड़ी थी। साधारण नाक-नक्ष, ब्वाॅय कट बाल, लंबी स्कर्ट के ऊपर शर्ट पहनी हुई, न बहुत आधुनिक, न ही बहुत साधारण। संस्कार ने उसे एक झलक देखते ही होठों पर हल्की सी मुस्कान के साथ अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया था, हैलो! आइम संस्कार।
    हाय! आइम संध्या। वह भी कुछ संस्कार के ही अंदाज में प्रतिअभिवादन की। संस्कार को संध्या से हाथ मिला कर अप्रतीम सी ख़ुशी हुई। दीदी पीएचडी कर रही थीं। वह अपने शोध पुस्तक का मुद्रण इसी कंप्यूटर सेंटर से करवा रही थीं। इस सिलसिले में पिछले एक माह से उनका प्रायः आना-जाना लगा रहता था। दीदी सरल और मिलनसार स्वभाव की थीं। एक रोज कंप्यूटर पर संस्कार द्वारा बनाये गये एक डिजाइन से वह बेहद अचंभित हुईं और तभी से उनसे हेल-मेल, जान-पहचान बढ़ गई थी।
    संस्कार को लैब में कंप्यूटर वर्क के दौरान इन दिनों प्रायः यह आस रहती- शायद, आज दीदी फिर अपनी बेस्ट फ्रेंड के साथ आयेगी। मगर ऐसा नहीं होता। एक दिन दीदी से वह पूछ ही बैठा, ‘दीदी आपकी बेस्ट फ्रेंड उस दिन के बाद से फिर कभी नहीं आयी?’ यह सुन, वह आश्चर्य  भाव से मुस्कुराते हुए उल्टा ही पूछ बैठीं, ‘क्या बात है! पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं, तुम मुझसे बातें तो करते हो पर बातों में तुम्हारा इशारा कहीं और होता है। संध्या यहां आखिर क्यों आयेगी? वो तो मैं यूंही उस दिन ले आयी थी उसे।’ दीदी की बात सुनकर संस्कार कुछ देर के लिए शरमा सा गया था और दीदी से नजरें नहीं मिला पा रहा था वह। दीदी भी कोई इतनी भोली नहीं थी कि संस्कार के इन हरकतों को समझ नहीं सकतीं। इसलिए वह बाद में बात को आगे बढ़ाते हुए बोलीं,‘ जानते हो संस्कार, कल हुआ यूं कि.....कि, संध्या कि तो पूछो मत, तेरे ही बारे में बातें कर रही थी और वह तेरे बारे में एक साथ इतने सवाल पूछने लगी कि मैं तंग आ गयी। अरे भाई, मैं भी आखिर तुम्हारे बारे में जितना जानती हूं, वही न बताउंगी। लेकिन वह थी कि पूछे जा रही थी- वह किस तरह का लड़का है? कहां रहता है? कहां तक पढ़ाई की है या अभी और क्या कर रहा है? आदि-आदि ढेरों सवाल।’
    संस्कार को यह सब सुनकर तो जैसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।
    ‘अब छोड़िये भी दीदी, आप तो अब मुझे बना रही हैं।’ न चाहते हुए भी संस्कार यह कह उठा था। जबकि उसका मन दीदी की बातें सुनकर फुूले नहीं समा रहा था। दरअसल, दीदी की बेस्ट फ्रेंड उनके साथ ही एक गल्र्स लाॅज में रहती थी। इसलिए यदि दीदी बना भी रही थी, तो भी संस्कार कोे यह सब सच ही नहीं, सच से सौ कदम आगे लग रहा था।
    दीदी के शोध पत्र मुद्रण का काम अब लगभग पूरा हो चुका था। वह एक दिन कह रही थी, कि वह यह काम पूरा होते ही अपने घर चली जायेगी। संभवतः उनकी शादी की बातें चल रही थी। एक दिन दीदी बड़ी भावुक होकर बोलीं, ‘संस्कार अब एक-दो दिनों बाद मैं अपने घर चली जाऊंगी और फिर पता नहीं कब मुलाकात हो या हो भी नहीं। इसलिए जाने से पहले मैं अपने दोस्तों को एक पार्टी देना चाहती हूं, जिसमें तुम्हें भी रहना है।’
दीदी की यह बात सुनकर संस्कार प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा था, ‘वाह! दीदी यू आर ग्रेट। मैं तो इस पार्टी में स्योर रहूंगा। पर दीदी इसमें और कौन-कौन होगा? और यह पार्टी कहां दी जायेगी?
तभी दीदी हंसते हुए बोल पड़ी थी, ‘अरे, मैं समझ रही हूं। तुम यह क्यों पूछ रहे हो....बच्चू फिक्र मत करो संध्या भी इसमें शामिल रहेगी और इस पार्टी से पूर्व हम लोग फिल्म देखने जायेंगे।’
फिल्म! फिल्म जाने की बात सुनते ही जैसे संस्कार के ऊपर खुशियों का एक और लबादा आ गिरा। वह तपाक से पूछा, ‘कब जाना है दीदी?’
‘अब डेट तो अभी फिक्स करना बाकी है। सोनाली को आने दो तब यह भी तय कर लिया जायेगा।’
सेनाली कंप्यूटर सेंटर में काॅन्सेलर थी और दीदी का उससे भी काफी लगाव हो गया था। सोनाली के आते ही बहुत देर तक चर्चा करने के बाद शुक्रवार का दिन फिक्स हो गया। दीदी ने टिकट कटवाने की जिम्मेवारी संस्कार को सौंप दी। निश्चय हुआ कि सभी पहले कंप्यूटर सेंटर में आकर जमा होंगे। तब फिर यहां से साथ में सिनेमा हाॅल के लिए निकलेंगे।
संस्कार तो इतना खुश  था कि बस उसे शुक्रवार आने का इंतजार था, जो दो दिन बाद आ भी गया। वह बड़े ही सज-धजकर उस दिन घर से निकला था। कंप्यूटर सेंटर में सबसे पहले पहुंच कर बड़ी बेसब्री से सब का इंतजार कर रहा था वह। तभी सोनाली पहुंची थी, प्रायः की तरह अपने ड्यूटी टाइम पर। संस्कार को देखते ही वह बोली, क्या अक्षत, दीदी नहीं आई?.... अरे, मैं उसी दिन कह रही थी, दीदी केवल बड़ी-बड़ी प्लानिंग बता रही हैं। कुछ होगा नहीं। देखना वो नहीं आयेंगी।
संस्कार का दिल सोनाली की बात मानने को तैयार न था। इस पर से उसने कहा, ‘अभी टाइम है। दीदी को दूर से आना पड़ता है, इसलिए देर हो रही है। आ जायेंगी।’
मगर समय बीतता गया और दीदी नहीं आयीं। अंत में जब मन उदासी के बादलों से घिर गया, तब संस्कार को लौट जाना ही बेहतर लगा। रास्ते में उसे अब भी लग रहा था कि दीदी जरूर आयंेगी। हो सकता है, रास्ते में मिल जाये. वह रास्ते में बड़े ध्यान से लोगों को देखते हुए जा रहा था। पर दीदी कहीं नहीं दिखीं। दिल में दीदी से कहीं अधिक संध्या के संग फिल्म देखने की आतुरता थी, जो बार-बार संस्कार को बेचैन कर रही थी। इसी बेचैनी ने उसे एक सुझाव दिया- क्यों न, दीदी का लाॅज जाकर ही पता किया जाये। बस दिल के इस सुझाव को वह मान कर चल पड़ा था, लाॅज की ओर। वहां पहुंच कर वह पता किया तो लाॅज में दीदी नहीं थी। मगर उसके साथ रहनेवाली संध्या वहीं थी, जो काॅल बेल बजाते ही बाहर निकली। संस्कार को सामने देख हल्की सी मुस्कान संध्या के होठों पर तैर गयी थी।
‘हैलो! उसे देखकर संस्कार के मन में एक अजीबोगरीब संकोच की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। उसने प्रतिउत्तर में हैलो कहने के तुरंत बाद ही पूछा,‘दीदी है क्या?
नहीं, दीदी तो अपने घर गयी हैं। कुछ काम था, क्या?’ यह सुनते ही संस्कार का मन और भी भरी हो गया था। इसके बाद साहस जुटा कर बस इतना ही पूछ सका था वह, ‘दीदी आपको आज के बारे में कुछ बतायी थी क्या?
    क्या! संध्या संजीदा होते हुए बोली थी।
‘मुझे तो कुछ भी नहीं बतायीं। पर बात क्या थी? कुछ बताइये तो, वह जोर देकर पूछी थी।’
    संस्कार समझ गया कि दीदी ने उसे धोखा दिया। संध्या को भी कुछ नहीं मालूम। इसलिए उसे अब कुछ बताने से और बेवकूफी होगी। उसने संध्या को उत्तर में बस इतना कहकर, ‘कोई बात नहीं थी। बस यूंही....’ और वहां से चल पड़ा था वह।
    संध्या चाहकर भी उसे पीछे से पुकार कर रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। लेकिन उसे अब कुछ-कुछ समझ में आ रहा था, कि दीदी सुबह-सुबह अचानक घर जाते वक्त कौन सी बात बताने के लिए उसे जगा रही थी। लेकिन वह नींद की मारी जाग नहीं पाई और दीदी को जाना पड़ा। दीदी के पिता जी को अचानक हार्ट अटैक आया था। स्थिति काफी गंभीर थी। इसलिए दीदी भागती हुई घर के लिए निकल पड़ी थी। शायद वह संस्कार के लाॅज आने की बात बताना चाहती थी, जो वह जागकर सुन ही नहीं पाई।
इधर, संस्कार उदास मन लिये घर के लिए लौट रहा था कि इसी दौरान अचानक संस्कार के दिमाग में एक बात हथौड़े की तरह चोट मारी। उसका दिमाग फिल्म-विल्म जाने की बातें सोचना छोड़, संध्या के चेहरे के दो-तीन हिस्सों पर जा टिका था।
    ‘सफेद दाग!....उस दिन लैब में तो ये दाग नहीं दिखे थे....उसके गालों के किनारों में होठों पर तो सफेद दाग हैं, जो आज सूर्य की रोशनी में साफ दिख रहे थे... क्या उसे श्वेतचर्म रोग है?....क्या वह श्वेतचर्मरोगिणी है? हैरानी पर हैरानी। संस्कार की आशाओं पर जैसे तुषारापात होने लगा। क्या सोचा था उसने?...कितने सपने बुन डाले थे उसने?.....सब बेकार हो गये। उसने किसी को पसंद भी किया तो उसे जिसके चेहरे पर श्वेतचर्म रोग के निशान हैं....चेहरे पर यदि इतने हैं तो शरीर के अन्य हिस्सों में तो ये निशान और भी होंगे......
    उसका दिल-दिमाग अचानक संध्या की ओर से उसी तरह से विकर्षित होने लगा, जैसे फूलते हुए गुब्बारे से अचानक हवा निकलने के लिए छोड़ देने पर वह फुर्र से दूर भागने लगता है। उस दिन रातभर अपने अरमानों के महल को उस श्वेतचर्म रोग के कारण ढहते देखा था उसने।
    एक बार तो उसे संध्या पर दया आने लगी थी-आखिर इस रोग में उस मासूम सी लड़की का क्या दोष है? ऊपर वाला इतना निष्ठुर कैसे हो सकते हंै? उसके जिस्म पर श्वेत दाग देकर तो ईष्वर ने जैसे सदा के लिए उसपर ओले बरसा दिये...
    धीरे-धीरे संस्कार खुद से ही सवाल-जवाब करने लगा था-और फिर...फिर...मैं भी तो कम खुदगर्ज नहीं हूं.... मैंने भी तो उसके चेहरे पर श्वेत दाग क्या देख लिये...मुंह ही फेर लिया?....आखिर मैं उससे कैसे नहीं मुंह फेरूं ? समाज में ऐसे रोग के प्रति व्याप्त विद्रूप धारणा को वह कैसे तोड़ सकता है?....समाज में तो इस रोग को पूर्वजन्म के पाप की संज्ञा दी जाती है...फिर मैं कैसे उस पापभोगनी को अपना बना सकता हूं?
    दया, करुणा और सामाजिक प्रतिबद्धता, संस्कार के अंतस में रह-रहकर एक के बाद एक सवाल पूछ रही थीं। पर उनके तर्कसंगत और संवेदनशील उत्तर नहीं थे उसके पास। संध्या के प्रति विकर्षण के बादल अब उस पर पूरी तरह से छा चुके थे। अब उसमें उस लड़की के प्रति कोई लालसा शेष नहीं बची थी।
    लेकिन उसके दिल किसी कोने में बार-बार एक टीस जरूर उठने लगी थी। वह टीस उसे अविस्मरणीय अपराधबोध से व्याकुल कर देती थी। तब वह चिल्ला उठता था- आखिर क्यों हम इतने मजबूर हैं? सामाजिक मानसिकता इतनी विद्रूप क्यों हो गयी है?..... आखिर क्यों?
कितने ही अर्से बीत गये। संस्कार को अब संध्या की सूरत भी याद नहीं रही। पर आज भी उसके दिल में वह टीस कहीं शेष है, जो अकेलेपन में बरबस ही उसे और उसकी सोच को धिक्कारने लगता है।
समाप्त
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मेरी पहली कहानीः उदय केसरी
हरियाणा साहित्य अकादमी की साहित्यिक पत्रिका ’हरिगन्धा’ के मार्च-अप्रैल, 2001 अंक में प्रकाशित ।
घुन   
   
    मेरे पत्रकार मित्रों की मंडली उठ चुकी थी। अव वहां सिर्फ मैं और वरिष्ठ पत्रकार दानिश जी चाय की दुकान पर बचे थे। सच बात तो यह है कि दानिश जी के सहयोग से ही मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में आया। इसीलिए उन्हें मैं अपना गुरु मानता हूं।
    अभी मैं मित्रों से बातचीत की सोच में ही उलझा था कि मुझे टोकते हुए बोले थे दानिश जी, ’कमाल है प्रकाश, किस सोच में डूब गए।’
    उनके टोकने पर मैं थोड़ा हड़बड़ा सा गया, फिर तुरंत ही खुद सहज करते हुए बोला, ’नहीं-नहीं, कुछ नहीं सर....बस यूं ही।’
    ’यूं ही क्या?’ इधर कई दिनों से देख रहा हूं कि जब भी हम मिलते हैं तुम खोये-खोये से रहते हो। अरे, भाई अगर यही हाल रहा तो कुछ ही दिनों में मुझ जैसे बूढ़े दिखने लगोगे। मित्रों की भीड़ में भी तुम से चुप कैसे बैठा जाता है? खैर छोड़ो, कोई परेशानी हो तो बताओ मुझे।
’नहीं-नहीं सर, वैसी तो कोई बात नहीं।’
’अरे है कैसे नहीं। मैं समझता नहीं कि जब अन्य पत्रकारों के बीच तुम बैठते हो तो उनकी वरिष्ठता तुम्हें नजरअंदाज सी करने लगती है, इसीलिए तुम थोड़े काॅम्पलैक्सी भी होते जा रहे हो। लेकिन इसमें काॅम्पलैक्सी होने की तो कोई बात नहीं। देखो, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं और यह भी जानता हूं कि तुममें प्रतिभा की कतई कमी नहीं है। जिस प्रकार तुम काम कर रहे हो, मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन तुम पत्रकारिता के क्षेत्र में शोहरत की बुलंदियों को छूते नजर आओगे। अच्छा तुम बैठो, अब मैं चलता हूं।’ बोलकर वे एक ओर बढ़ गए।
    वैसे दानिश जी ने कुछ गलत नहीं समझा था, मगर मेरी जो तत्काल की चिंता थी, वह यह कि मुझे तुरंत समाचार संकलन के लिए शहर के एक किनारे बसी झुग्गी-झोपड़ी वाली हरिजन बस्ती की ओर जाना चाहिए। मेरी चिंता का विषय वहां घटी घटना ही था।
    दरअसल मुझे पता चला था कि कुछ गुंडों ने वहां के गरीबों पर पिछली रात कहर बरपाया था और उनकी झोपड़ियों से सामान बाहर फेंक दिए थे। उन्हें वे बस्ती खाली करने को भी कह गए थे।
    खैर, चाय की दुकान से उठकर मैं उस बस्ती की ओर निकल पड़ा। मैं जब वहां पहुंचा तो बस्ती का दृश्य  बड़ा ही मर्मस्पर्शी था। मैं विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से सुबकते और अपने इधर-उधर फेंके सामान को एक जगह समेटते हुए कुछ लोगों से बातचीत करने लगा। बातचीत के दौरान ही एकाएक एक औरत, जिसके वस्त्र फटे हुए थे, शेरनी की भांति चीखते हुए मेरी ओर लपकी और करीब आकर मुझे गाली देती हुई बोली, ’..........! लोकतंत्र के चैथे स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार!..........! प्ुलिस और नेताओं की तरह इनको भी बेईमानी की घुन लग गई है। आ गए........! डन लोगन की चम्मचागिरी और पुलिस से सांठ-गांठ करके हमारी बोटी-बोटी नोच खाने!’
    ’.........! क्ल के अखबार में उन नेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों को मोटी-मोटी लाइनों में लिखना, जिन्होंने हमें तबाह-बर्बाद करवाया है।’ और वह बिलख-बिलखकर रोने लगी.....
    मैं हाथ में डायरी और कलम लिए मूर्तवत् उस औरत के दिल की भड़ास को सुनता रहा था। कुछ क्षणोपरांत एक दो नेता किस्म के लोग मेरे पास आए और मुझे बहलाते-फुसलाते हुए कहने लगे, ’अरे, जाने दीजिए साली का दिमाग खराब हो गया है। और हो भी क्यों नहीं गुंडों ने रात उसकी झोपड़ी को उजाड़ा ही, साथ ही जाते-जाते उसे बे-आबरू भी करते गए। वैसे थी तो वह जवान और काॅलेज में पढ़ने वाली, मगर बस्ती के लोगों को गुंडों के विरुद्ध भड़काया करती थी। ऐसे में गुंडे भला उसे क्योंकर छोड़ते। बताइए तो भला यह सब करने की क्या जरूरत थी उसे? अब कर ही लिया है तो भुगते।’ मैं विस्मय भरा अपना चेहरा लिए उन नेताओं की बातों को सुनता हुआ उनके साथ बस्ती से बाहर चला गया। लेकिन अब तक मेरे कानों में उस औरत की एक-एक बात गूंज रही थी।
    मेरे साथ आ रहे नेताओं ने अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के दौरान मुझे अपने-अपने नाम लिखवा दिए और निवेदन पूर्वक बोले कि हमारा भी नाम इस समाचार के साथ दे दीजिएगा।
    उनके स्वार्थ को तो मैं बस्ती के पास ही समझ गया था, लेकिन फिर भी उनसे पीछा छुड़ाने के लिए डायरी में उनका नाम नोट कर लिया। वे नेता बस्ती के बाहर नाम लिखवाने के बाद मुझसे अलग हो गए। इसके बाद फिर उस औरत की चीखें मेरे कानों में गूंजने लगीं। अब मुझसे रहा नहीं गया। मैं फिर बस्ती की ओर चल पड़ा।
    बस्ती पहुंचकर मैंने देखा कि एक परिवार का प्रधान अपना सारा सामान समेट कर कहीं जाने के लिए तैयार था और लगता था कि अब कुछ पलों के बाद वह निकलेगा।
    मैं उसके पास गया और अपने डायरी-पेन को पाॅकेट में ही रहने दिया। मैं उससे एक आम आदमी की तरह मिला और पूछा, ’भाई! टाप लोग कहां जा रहे हैं?’ उसने मेरी ओर देखकर कहा, ’कहीं भी इस शहर से दूर हम अपनी झोपड़ी बनाकर गुजर-बसर कर लेंगे। इस बस्ती में रहकर जालिम गुंडों के अत्याचारों को कब तक सहते रहेंगे।’
    तभी मैं पूछ बैठा, ’इससे पहले भी क्या इन्होंने आप लोगों पर अत्याचार किए हैं? ’ उसके चेहरे पर अब डर और निराशा के भाव उभर आए थे। उसने कहा, ’आज कोई नई बात नहीं है। पहले कई दफा गुंडों ने हम पर अत्याचार किए, हमारी बहू-बेटियों की इज्जत से खेला है।’
    मेरे मुंह से अचानक ही निकल पड़ा-’मैंने तो पहली बार इस बस्ती के बारे में ऐसा सुना है।’
    तभी उसने कहा, ’सुनेंगे क्या, साले सभी चोरों और अत्याचारियों के साथ हो गए हैं।’ मैंने फिर पूछा, ’आपके कहने का मतलब है.....।’ तभी बीच में ही उसने जबाब दिया, ’इतना भी नहीं समझे.........! पेपर वाले यहां आकर पहले कई दफा हमारी बस्ती पर गुंडों के कारनामों को हमसे पूछ-पूछ कर चले गए, लेकिन पेपर में कभी हमारी सही बातें नहीं आईं, केवल राजनीतिक स्वार्थ वाले आश्वासन ही मोटी लाइनों में छपे, पेपर वाले भी उन गुंडों के सरगना के हाथों बिक चुके हैं, तो हमारी बातों को क्या लिखेंगे।’
    मुझे उस व्यक्ति से बात करके लगा कि वह कुछ पढ़ा-लिखा है। मैं उससे फिर पूछा, ’कौन लोग ऐसा करवाते हैं?’ उसने कहा, ’और कौन कराएगा, वही जो पिछली कई दफा से करवाता आ रहा है, वही इस बार भी करवाया है।’ मैंने पूछा, ’वे ऐसा क्यों करते हैं?’ उसने कहा, ’इस शहर के गुंडों का राजा और राजनीति में प्रसिद्ध इज्जतदार नेता भाई कुलदीप ‘शमन’ इस बस्ती की जमीन पर अपना बहुत बड़ा होटल और दारू की भट्टी बनाना चाहता है। उसी के इस नापाक इरादे की सजा आज तक हम भुगतते आ रहे हैं।’
    भाई कुलदीप ’शमन’ का नाम सुनकर मुझे लगा कि समाज में घूमने वाले बहुरूपिये को पहचानना बड़ा मुश्किल है। समाज के ये सफेद चोले वालों के गिरेबान के अंदर केवल कालिख ही जीम हुई है क्या?
    फिर मुझे अपने आप पर ताज्जुब होने लगा। एक समय मैंने अपने एक समाचार में भाई कुलदीप ’शमन’ को समाजसेवक और सच्चे नेता के रूप में प्रस्तुत किया था। मैंने उस हैवान को इंसान समझा था, छीह......।
    बस्ती से वह आदमी अब हमसे विदा लेकर अपने परिवार के साथ किसी अनजान मंजिल की ओर जाने लगा और मैं उसे अवाक् सा खड़ा देखता रहा।
    मैंने अब मन-ही-मन कुछ निष्चय किया और चल पड़ा सीधे अपने डेरे। डेरा पहुंचकर मैंने तुरंत कागज-कलम निकाला और बैठ गया सामाचार लिखने। इस दौरान मुझे यह भी ख्याल नहीं रहा कि अभी दोपहर के दो बज गए हैं और अब मुझे खाना खाने होटल जाना है।
    मैंने समाचार में भाई कुलदीप ’शमन’ के काले चेहरे का पर्दाफाश  करते हुए हरिजन बस्ती में गत रात हुए गुंडों के आतंक के पीछे कुलदीप ’शमन’ के हाथ होने की बातों को बड़ी प्रमुखता देते हुए लिखा। मैंने अपने समाचार का हैड लाइन लिखा-’कुलदीप ’शमन’ के इशारे पर बस्ती में ढाए गए कहर’।
    समाचार को फिर जल्द ही टाईप करके मैं प्रेस की ओर लंबे कदमों से बढ़ चला। प्रेस पहुंचकर संपादकीय कक्ष में उपसंपादक मिश्रा जी बैठे थे। मैंने उन्हें यह समाचार देते हुए कहा, ’सर! इसे मुख्य पृष्ठ पर जगह देने का प्रयास करेंगे।’
    समाचार लेते हुए मिश्रा जी ने कहा, ’ओके, आई विल ट्राई’ और तभी उन्होंने समाचार खोलकर जैसे ही उसका हैड लाइन पढ़ा कि हैरानी से कह उठे, ’ये तुम क्या लिखे हो, अक्ल तो ठिकाने है, तुम्हारा.......?’
    यह कह कर उन्होंने समाचार को विचाराधीन फाइल में रख दिया। मैं आश्चर्यपूर्वक मिश्रा जी के इस सवाल को सुनता रह गया और कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन मुझे उनके इस व्यवहार से बड़ा दुःख हुआ। प्रेस आते वक्त मैं तो रास्ते में सोचता आ रहा था कि मिश्रा जी मेरे इस समाचार को पढ़कर अत्यंत प्रसन्न होंगे। लेकिन प्रेस में मेरे साथ ठीक उलटा हुआ।
    थोड़ी देर खड़ा रहने के बाद मैंने बड़ी विनम्रता से पुनः मिश्रा जी से कहा, ’सर! यह समाचार बिल्कुल सत्य है और मैंने सत्य को ही लिखा है।’
    तब वे थोड़ा ठंडा होकर होकर बोले, ’ओके, जो है उसे मैं समाचार संपादक जी को दिखा दूंगा, उसके बाद यदि वे आदेश  देंगे तो मैं इसे छपने के लिए भेज दूंगा। अच्छा अब तुम जाओ।’
    तब मुझे थोड़ी सी तसल्ली हुई और मैं प्रेस से निकलकर अपने डेरे पर चला आया। शाम हो चुकी थी। आज मुझे इस शहर में अजीब सा लग रहा था। मेरी भूख भी जैसे छू-मंतर हो गई थी। फिर भी मैंने सोचा चलकर सीधे रात का भोजन कर लेते हैं और फिर आकर सो जाएगे। मैं होटल में खाना खाकर लौटने के बाद अपने डेरे में निढाल सा बैड पर लेट गया। काफी देर आंखें बंद करने के बाद भी मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं फिर एक किताब पढ़ने में लगा, मगर किताब पढ़ने में मन नहीं लग रहा था और रह-रहकर मुझे कभी उस बस्ती की औरत की बातें, तो कभी बस्ती छोड़कर जा रहे उस व्यक्ति की बातें और कभी उपसंपादक मिश्रा जी की बातें याद आ रही थीं।
    मैं अपने आपको बड़ा उलझा हुआ महसूस कर रहा था, तभी मेरे कमरे के दरवाजे को किसी ने खटखटाया। मैंने अलसाई आवाज में पूछा, ’कौन है?’ उधर से आवाज आई, ’प्रकाश  जी मैं हूं मकान मालिक का नौकर बीरू।’   
    मैं समझ गया कि प्रेस से फोन आया होगा। मैंने मकान मालिक का ही फोन नंबर अपने प्रेस में लिख रखा था, कभी-कभार वहीं से फोन आ जाया करता था। मकान मालिक सबसे निचले तल पर रहते थे। मैं नीचे गया तो मकान मालिक ने कहा, ’तुम्हारा कहीं से फोन आया है, कहता है, बहुत जरूरी बात करनी है।’
    मैंने सोचा रात के आठ बजे प्रेस के अलावा कौन मुझे फोन कर सकता है? तब नीचे रखे हुए फोन रिसीवर को मैंने उठाकर कान पर लगाया और ज्योंहि हैलो कहा कि उधर से एक व्यक्ति की आवाज आई, ’नमस्कार, पत्रकार साहब। मैं भाई कुलदीप, कहिए क्या हाल है। कभी इस नाचीज को भी सेवा करने का मौका दीजिए।’
    उसकी बातें मुझे अजीब सी लग रही थी। न जान, न पहचान, न कभी मैंने उसे अपना फोन नंबर ही दिया तो फिर इसने मेरे पास फोन कैसे किया? और फोन पर इस प्रकार की बातें मुझ से क्यों कर रहा है?
    मैंने कुछ संभलकर जवाब में कहा, ’आप किस सेवा की बाता कर रहे हैं, लगता है आपको कोई गलतफहमी हुई है।’ लेकिन मेरी बात खत्म होते ही पुनः मेरे कानों में आवाज गूंजी, ’मुझे कोई गलतफहमी नहीं हुई है, प्रकाश साहब! गलतफहमी तो लगता है आपको हो रही है....मैं तो समझा था कि इतने से आप सब समझ जाएंगे, पर अब तो लगता है आपको सीधे-सीधे लफ्जों में ही समझाना होगा। आपने आज अपने प्रेस में जो समाचार छपने के लिए दिया है, उसके विषय में कृपया आप कल समाचार न छपने पर संपादक से कुछ भी पूछने का कष्ट करें....और हां, आइंदा आप अपनी कलम सोच-समझकर चलाएं। इसके लिए आपको कल आपके ही निवास पर दस हजार रुपए पहुंच जाएंगे। आशा है आपको मेरी बात समझ में आ गई होगी.....गुड नाइट....।’ फोन कट गया।
    मैं फोन का रिसीवर रखकर चलने लगा तो पीछे से मकान मालिक ने पूछा, ’कौन था?’ तो मैंने बात बदलते हुए कहा, ’पता नहीं कौन था। मुझे प्रकाश जी-प्रकाश जी कह कर अपनी कुछ व्यक्तिगत बातें कर रहा था। मैं उसका नाम भी नहीं पूछ पाया था कि तभी फोन कट गया।’ ’लगता है कोई रांग नंबर होगा’-मकान मालिक ने बात खत्म करते हुए कहा।
    मैं ऊपर अपने कमरे में आ गया। अब मेरी नींद जैसे सदा के लिए उड़ गई थी। कानों में अभी केवल कुलदीप ’शमन’ की बातें ही गूंज रही थीं। बहुत रात तक मैं इन सब बातों में उलझा रहा, लेकिन बाद में मुझे समझ में आने लगा था कि कल मेरा समाचार अखबार में नहीं छपेगा, क्योंकि प्रेस वाले भी कुलदीप ’शमन’ के हाथों बिके हुए हैं और उन्होंने ही मेरा फोन नंबर उसे दिया है।
    अब मुझे आगे क्या करना चाहिए? इस पर कल दानिश सर से बात करके उचित सलाह लूंगा, यह सोचकर मैं सो गया था।
    मैं सुबह देर तक सोया रहा। जब मेरी नींद टूटी तो मैं अपने आप पर अफसोस करते हुए बुदबुदाया, ’आज कितनी देर हो गई....’ इसके बाद मैं शीघ्रता से नहा-धोकर तैयार हुआ। होटल जाकर रोज दिन की तरह नाश्ता किया और चल पड़ा अपने गुरुदेव दानिश जी के घर।
    मैंने दरवाजा खटखटाया, दरवाजा खुला तो सामने दानिश सर खड़े थे। उन्होंने ही दरवाजा खोला था। मैंने उन्हें प्रमाण किया तो वे मेरी पीठ थपथपाते हुए मुझे अंदर कमरे में ले गए।
    कुर्सी पर बैठते ही सर ने पूछा, ’कैसे आना हुआ?’ ’बस यूंही आपसे मिलने का दिल किया तो चला आया।’ मैंने कहा।
’चलो ठीक ही किया आज मैं भी खाली ही हूं।’ सर ने आराम जताते हुए कहा। फिर कुछ देर इधर-उधर की बातों के बाद मैं धीरे-धीरे परसों रात हरिजन बस्ती की घटना पर आने लगा।
तभी सर ने पूछा, ’अरे! हां, प्रकाश  आज के अखबार में तुम्हारा हरिजन बस्ती से संबंधित कोई समाचार नहीं है, तुम समाचार संकलन के लिए बस्ती नहीं गए थे क्या?’
यह सुनकर मैं निराश हो गया और तब मैंने विस्तारपूर्वक परसो रात से लेकर कल रात तक की सारी कहानी सर को कह सुनाई।
मेरी बातों को सुनकर सर एकदम गंभीर हो गए। तभी कुछ क्षणों के बाद आंसू से डबडबाई उनकी आंखों पर मेरी नजर गई, तो मेरा कलेजा कांप उठा। उन्होंने रुंधे हुए स्वर में बस इतना ही कहा, ’अब लोकतंत्र के चैथे स्तंभ में भी घुन लग गई। न जाने अब इस देश का क्या होगा?’
इतना बोलकर वे टकटकी साधे छत की ओर देखने लगे। अजीव शून्यता सी उभर आई थी उनकी आंखों में।
मैं उन्हें देखता रहा, पर पुनः उनसे कुछ कह पाने का साहस नहीं जुटा पाया। मुझे लग रहा था कि अगर यही हाल रहा तो एक दिन मेरी सोच को भी घुन चट कर जाएगी।
----समाप्त-----



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