...लो फिर विस्‍फोट हो गया

उदय केसरी
...यदि दो-चार दिनों तक कोई और विस्फोट नहीं हुआ, तो 13 सितंबर को दिल्ली के करोलबाग, गफ्फार मार्केट, कनाट पैलेस व बाराखंभा रोड क्षेत्र में हुए बम विस्फोट और उससे हुई ताबाही को भी हम भूलने लगेंगे और भूलते-भूलते अचानक से फिर एक दिन किसी शहर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट की खबर सुनकर सहम जाएंगे।...
ये पंक्तियां 15 सितंबर को सीधीबात पर 'कायरों से डरकर हम भी हो गए कायर' शीर्षक अंतर्गत पोस्ट किये गए आलेख का अंश है। इस पोस्ट के दो दिन पहले (13 सितंबर) ही दिल्ली में श्रृंखलाबद्ध बम विस्‍फोट में 22 बेगुनाहों की जान गई और 100 लोग घायल हो गए थे...और अब फिर महज 13 दिनों बाद (27 सितंबर को ) दिल्ली के महारौली में एक और बम विस्‍फोट हो गया, जिसमें एक लड़के की मौत और दर्जनों घायल हो गए।...
वाकई में, छुपकर वार करने वाले चंद कायर आतंकियों की कायरता एक अरब से भी अधिक आबादी वाले भारत पर भारी पड़ रही है।...और हम कमजोर। सुरक्षा इंतजामात और इसके आकाओं का रवैया भी आम आदमी जैसा है, जो बड़े से बडे़ जख्म पर जरा-सा मरहम लगने भर से खुश हो जाता है। पांच आतंकियों को क्या पकड़ लिया...खुश हो गए...जैसे आतंक के पांव ही उखाड़ लिये...और चद्दर तान के सोने चल दिये...प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह करार की क्रेडिट लेने अमेरिका चल दिये, तो गृहमंत्री ने एक कैबिनेट मीटिंग करके सारी जिम्मेदारियां पूरी कर ली।...दिल्लीवासी समेत पूरे देश की जनता के लिए 13 सितंबर की तारीख बस 'जीके' के सवाल का उत्तर बन गई....वाह रे! बहादुर भारत और यहां की महासहनशील जनता।...रेल मंत्री लालू प्रसाद ठीक कहते हैं, देश का खुफिया तंत्र फेल हो चुका है। पर, क्या केवल देश की खुफिया व्यवस्था ही फेल हुई है, महज सत्ता की राजनीति के वास्ते आतंकियों और राष्ट्रीय हितों में फर्क नहीं कर पाने वाले राजनेताओं के बारे में क्या कहा जाए, जिनमें से कई सिमी पर प्रतिबंध हटाने की पैरवी में भी देश हित देखते हैं।...और जब विस्‍फोट में इसी सिमी के कायर पकड़े जाते हैं तो भी उनकी आंखें नहीं खुलती।...बल्कि ये जवाब में बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की पैरवी करते हैं। बीजेपी केवल नैतिकता के आधार पर कभी प्रधानमंत्री, तो कभी गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग करती है।...यदि बजरंग दल की सिमी से तुलना की जा रही है, तो इसके जवाब में बीजेपी क्यों नहीं अपने बजरंगियों की मदद से सिमी के आतंकियों को सबक सिखाने की कोशिश करती है। इसमें तो उससे ज्यादा राजनीतिक फायदा मिलता।...जितना किसी दंगे में उपद्रव मचाने के बाद, चर्चों पर हमले करने के बाद।...पर इतनी कुव्वत कहां, निहत्थों और निर्दोषों पर सितम ढाकर धर्म की रक्षा और हिन्दुत्व की स्थापना करने वाले नैतिक व व्यक्तिगत तौर पर काफी कमजोर और कायर होते हैं।
ऐसे में, कौन करेगा इन छुपे कायर आतंकियों से मुकाबला, उनका सफाया? भ्रष्ट राजनेताओं, नाकाम खुफिया एजेंसियों और अच्छी-बुरी समस्याओं से घिरे पुलिस प्रशासन के बीच आम आदमी की हिफाजत कौन करेगा? देश के युवाओं पर भी भरोसा कम हो चला है। देश की रक्षा, सुरक्षा व दुश्‍मनों से लड़ने वाली नौकरियों में जाने के प्रति युवाओं में रूझान पहले जैसा नहीं रहा है। सैन्य बलों में सालों से अफसरों की कमी है...युवाओं को आकर्षित करने के लिए सेना मार्केटिंग के फंडे इस्तेमाल करने पर मजबूर हो रही है...प्रख्यात क्रिकेटर कपिलदेव को ले. कर्नल का मानद पद देकर।...तो फिर क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि हमारा, इस हिन्दुस्तान का भगवान ही मालिक है?

क्या आप अरुंधती राय को जानते हैं?

उदय केसरी
क्या आप अरुंधती राय को जानते हैं? आपमें से कई लोग कम से कम इतना जरूर जानते होंगे कि वह भारत की प्रसिद्ध लेखिका व समाजसेविका हैं। पर क्या आप यह जानते हैं कि उन्हें खुद को भारतीय कहने में शर्म आती है। हैरानी हो रही है न, पर यह सच है। यही नहीं, वह भारतविरोधी मुहिम भी चला रखी है, जिसमें उनका साथ दे रहे हैं कई एनआरआई भारतीय। मुहिम रूपी इस राष्ट्रविरोधी दुष्साहस का मकसद है, भारत से कश्‍मीर को आजाद कराना। सोमवार (15 तारीख) को जब पूरा देश राजधानी दिल्‍ली में आतंकी बम विस्फोट की घटना से चिंतित था, तब श्रीनगर में आयोजित कश्‍मीरियों की एक रैली में अरुंधती राय बोल रही थी,‘'कश्‍मीर को भारत और भारत को कश्‍मीर से आजादी चाहिए। लोग कश्‍मीरियों की बात नहीं सुनना चाहते हैं।'
अपने देश की सहनशक्ति वाकई में असीम है कि एक तरफ, अपने ही देश के मतीभ्रष्ट नौजवानों का संगठन सिमी आईएसआई के इशारे पर देश में आतंकी वारदात को अंजाम दे रहा है और इंडियन मुजाहीद्दीन के नाम उसकी जिम्मेदारी भी ले रहा है। दूसरी तरफ, अल्पसंख्यक वोट बैंक बचाने लिए अपने ही देश के राजनेता सिमी के रहनुमा बने फिर रहे हैं। पुलिस की खुफिया शाखा और एसटीएफ के सूत्रों की मानें तो ऐसे आतंकियों को पनाह देने वालों में मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात व उत्तर प्रदेश के कई राजनेता और उद्योगपति शामिल हैं। राजनेताओं में कांग्रेस, भाजपा के अलावा कई क्षेत्रीय दलों के बड़े-छोटे पदाधिकारी भी शामिल हैं।
वाह! धन्य हैं भारतमाता और उसकी सहनशीलता, जिसकी कोख से पैदा लेकर, खून-पसीने से हासिल आजाद भारत में पल-बढ़कर कुछ लोग उसी मां की अस्मिता व अस्तित्व के खिलाफ वातावरण में जहर घोल रहे हैं। जिस अरुंधती राय व राजनेताओं पर भारत की जनता ने विश्‍वास किया और उन्‍हें देश और समाज के सेवक का दर्जा व सम्मान दिया, वे भारत की संप्रभुता और अखंडता के खिलाफ या कहें भारत के सिरमौर कश्‍मीर को देश के नक्‍शे से मिटाने की खुलेआम पैरवी करने लगे हैं। एहसानफरामौशी का आलम यह है कि अरुंधती राय की अगुवाई में अमेरिका और यूरोप के तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ब्रिगेड तैयार की गई है, जिसमें अधिकतर एनआरआई भारतीय शामिल हैं। इस ब्रिगेड ने कश्‍मीर के अलगाववादियों की कट्टरवादी दलीलों का समर्थन करते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत विरोधी एक याचिका दायर की है। याचिका में संयुक्त राष्ट्र को जम्मू-कश्‍मीर में मानवता पर संकट से निपटने के लिए हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई गई है। याचिका में कश्‍मीर में पिछले माह मुसलमानों पर हुए हमलों पर चिंता व्यक्त की गई, जबकि 1989-90 में चार लाख से अधिक कश्‍मीरी पंडितों को घर-बार छोड़कर कश्‍मीर से भागने पर विवश करने की घटना का जिक्र तक नहीं किया गया है। शायद, अरुंधती राय ब्रिगेड के मानवाधिकार के दायरे में कश्‍मीरी पंडितों के बेघर होने का दर्द नहीं आता। खैर, याचिका में यह भी कहा गया है कि जम्मू क्षेत्र में मुस्लिम धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत को तबाह किया जा रहा है। और यह भी कि 1989 से कश्‍मीर में सशस्त्र स्वतंत्रता आंदोलन चल रहे हैं, जिन्हें कुचलने के लिए भारत की कार्रवाइयों से मानवाधिकार हनन की गंभीर घटनाएं हो रही हैं।
कैसी विडंबना है, इतना गंभीर आरोप लगाने वाले तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता इसी भूमि की पैदाईश हैं। क्या कभी आपने सहज भाव से भारत के नक्‍शे की कल्पना कश्‍मीर को अलग करके की है? क्या हमारे ही पूर्वजों ने इस देश की संप्रभुता और आजादी की खातिर अनगिनत कुर्बानियां दी थीं और गुलाम भारत को अपने खून से सींच कर अहलेचमन बनाया था? कल तक तो पाकिस्तान के भेजे आतंकी हमारे देश की संप्रभुता पर हमला कर रहे थे, अब तो अपने ही घर के लोग और वह भी जाने-माने लोग, स्वार्थ में इस कदर वशीभूत हो चुके हैं कि अपनी ही मां से गद्दारी करते उनकी रूह तक नहीं कांप रही हैं...

आतंक का यह चेहरा आईएसआई का है....

आतंकवाद से पीड़ित भारत के दर्द की वजह केवल दहशतगर्द आतंकी ही नहीं हैं, सफेदपोशों का एक ऐसा वर्ग भी है, जिनमें कुछ तो खुद को सेकुलर कहते हैं, तो कुछ वादों की बातें करते हैं, उस पर कभी अमल नहीं। ऐसे सफेदपोश उस कानून का विरोध करते हैं, जिनसे आतंकियों को सजा मिल सकती है।...और फिर भी यदि कोई आतंकी पकड़ा जाता है, तो ऐसे सफेदपोशों को उनके बचाव में खड़े होने में शर्म तक नहीं आती। विश्‍वास नहीं होता, तो गौरतलब है कि अहमदाबाद बम धमाकों के मामले में जब अबू बशीर को पकड़ा गया, तो उसके घर मातमपुर्सी के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के ऐसे सफेदपोशों की होड़ लग गई थी। और संभवतः ऐसे ही सेकुलरवादियों के दबाव में आतंकवाद निरोधी कानून पोटा को निरस्त कर दिया गया। नतीजतन, देश में 2005 से अब तक 17 बड़ी आतंकी घटनाओं में 500 सौ के करीब बेगुनाहों की मौत हो चुकी है। पर हैरानी की बात यह कि अब तक किसी आतंकी को सजा नहीं दी जा सकी। और तो और, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद राष्ट्रीय संप्रभुता के सबसे बड़े मंदिर संसद पर हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू को अब तक फांसी नहीं दी गई। इसके ठीक उलट अमेरिका की नाक पेंटागन बिल्डिंग पर आतंकी हमले का बदला अमेरिका ने कैसे लिया, यह सारी दुनिया जानती है...यही नहीं, उस हमले के सात साल गुजरने के बाद भी बदला लेने का सिलसिला जारी है। अमेरिकी फौज अफगानिस्तान और पाक के कबायली इलाकों में खोज-खोजकर आतंकियों को मार रहे है। इसके साथ ही अमेरिका में 9/11 की घटना के बाद सुरक्षा के ऐसे कड़े इंतजाम किये गए कि अब तक दूसरी किसी घटना को अंजाम देने का साहस आतंकी नहीं जुटा पाए हैं। वहीं भारत में आतंकवादियों की ऐसी पैठ की स्थिति में तथाकथित सेकुलरवादियों द्वारा यह सवाल उठाया जा रहा है कि इंडियन मुजाहिद्दीन के पीछे कहीं हिन्दू आतंकी तो नहीं? नवभारत टाइम्स में प्रकाशित एक रपट में श्री अरूण दीक्षित ने इसका जवाब देने की भरसक कोशिश की है;
दरअसल, भारत के 5 प्रमुख शहरों में हुए बम विस्फोटों के पीछे जिस 'इंडियन मुजाहिदीन' का नाम आ रहा है, वह तो सिर्फ मुखौटा है, इस खेल के असली खिलाड़ी तो और ही हैं। ये खुद को पीछे रखकर सिमी और इंडियन मुजाहिदीन के कंधे पर बंदूक रखकर काम कर रहे हैं। उनकी कमान पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथ में है। विश्वस्त सूत्रों की मानें तो भारत में आतंक फैलाने की योजना बहुत व्यापक और सुनियोजित है। अभी इसका पहला चरण ही पूरा हुआ है। दो चरण और बाकी हैं। प्रमुख शहरों से शुरू हुआ दहशत का खूनी खेल छोटे शहरों तक जाएगा। इन शहरों की सूची भी तैयार है। सूत्रों के मुताबिक भारत में इस समय जो आतंकी गतिविधियां चल रही हैं उनका ब्लू प्रिंट सवा 3 साल पहले नेपाल में बनाया गया था। तभी 'इंडियन मुजाहिदीन' को जन्म दिया गया था। ताकि भारत में भारतीय नाम से आतंक फैलाकर दुनिया को यह बताया जा सके कि यह उसकी आंतरिक समस्या है। उल्लेखनीय है कि भारत में हो रही आतंकी घटनाओं के पीछे पाक समर्थित आतंकी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद व अन्य की भूमिका सामने आने के बाद भारत सरकार ने दुनिया के प्रमुख देशों खासतौर पर अमेरिका से यह अनुरोध किया था कि वह इन संगठनों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों की सूची में शामिल करे और पाकिस्तान पर दबाव बनाए कि वह आतंकियों की मदद न करे। यह बात करीब 4 साल पुरानी है। सूत्रों के मुताबिक भारत के बढ़ते दबाव को देखते हुए आईएसआई ने एक नई रणनीति बनाई। इसके तहत 13 जुलाई 2005 को नेपाल में काठमांडू के पास एक कस्बे में एक बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में जैश और लश्कर के दो-दो प्रतिनिधियों के अलावा सिमी और दाऊद इब्राहिम का एक प्रतिनिधि भी शामिल हुआ। दाऊद का प्रतिनिधि काठमांडू का ही रहने वाला था। वह वहां होटल चलाता है। साथ ही उसका हैंडीक्राफ्ट का भी कारोबार है। सिमी का प्रतिनिधि उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ का रहने वाला एक शख्स था। इस बैठक के लिए आईएसआई ने 2 लेफ्टिनेंट जनरलों को खासतौर पर पाकिस्तान से नेपाल भेजा था। नेपाल स्थित पाक दूतावास में फर्स्ट सेक्रेटरी ताहिर शाह ने बैठक की व्यवस्था की थी। वह खुद भी बैठक में मौजूद रहा था। इस बैठक में ही यह तय किया गया था कि चूंकि लश्कर और जैश के कारण पाक पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बन रहा है, इसलिए एक ऐसा संगठन खड़ा किया जाए जिसका नाम भारतीय हो और भारत के ही लोग उसे चला रहे हों। उसी की आड़ में सारी गतिविधियां चलाई जाएं। उसके लिए हर तरह का बंदोबस्त लश्कर व जैश करेंगे और आईएसआई संरक्षण देते हुए उस पर नजर रखेगी। उसी बैठक में सिमी का पहला और आखिरी अक्षर काटकर 'इंडियन मुजाहिदीन' (आईएम) नाम दिया गया था। सूत्रों का यह भी कहना है कि इस बैठक की रिपोर्ट काठमांडू में तैनात भारतीय एजेंसी 'रॉ' के एक जूनियर अफसर ने तभी अपने अफसरों को सौंपी थी, लेकिन उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया था। हैदराबाद, मुंबई, जयपुर, बेंगलुरु, अहमदाबाद और दिल्ली में हुए बम विस्फोटों में लगातार इंडियन मुजाहिदीन और सिमी का नाम आने के बाद भारतीय खुफिया एजेंसियों ने 'इंडियन मुजाहिदीन' की असलियत खोजना शुरू किया। खुफिया सूत्रों के मुताबिक इन शहरों में जिस ढंग से विस्फोट किए गए और जिस तरह की सामग्री का इस्तेमाल किया गया, उससे साफ था कि यह काम किसी पेशेवर और शातिर संगठन का है। सिमी उसका मोहरा है और 'इंडियन मुजाहिदीन' कागजी नाम। असली खेल कोई और खेल रहा है। एक वरिष्ठ खुफिया अफसर के मुताबिक सिमी के नेता और कार्यकर्ता धर्म को लेकर काफी कट्टर हैं और बदले की भावना उनमें भरी हुई है, लेकिन तकनीकी रूप से वे इतने सक्षम नहीं कि इस स्तर की विस्फोटक व अन्य सामग्री जुटा सकें। पुलिस की गिरफ्त में चल रहे सिमी के प्रमुख कट्टरवादी नेताओं ने पूछताछ के दौरान जो जानकारियां दी हैं, उनसे भी यही जाहिर होता है कि उनके अंदर कुछ भी करने का जज्बा तो है, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर बम बनाना व उन्हें सुनियोजित ढंग से लगाना अकेले उनके बूते की बात नहीं है। फिलहाल खुफिया और जांच एजेंसियां इंडियन मुजाहिदीन और सिमी के असली नियंत्रकों तक पहुंचने की कोशिश में लगी हैं। जांच के दौरान यह बात जरूर सामने आई कि पहले दौर के विस्फोटों का जिम्मा अब्दुल सुभान उर्फ तौकीर पर ही था। दूसरे दौर के विस्फोटों की जिम्मेदारी डी कंपनी को दी गई है। इसी दौर के लिए 12 शहरों की सूची है और तीसरे दौर में 24 शहरों को निशाना बनाया जाना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दूसरा दौर शुरू होने से पहले सुरक्षा एजेंसियां असली सूत्रधारों तक पहुंच जाएंगी। साथ ही 'आतंक' का चेहरा भी उजागर हो पाएगा। साभार: navabharattimes.indiatimes.com

वोट के तराजू पर तुली देश की सुरक्षा

देश की सुरक्षा की जिम्‍मेदारी के सबसे शीर्ष पायदान पर बैठे नीति-नियंताओं के लिए राष्‍ट्रीय सुरक्षा की महत्‍ता अब सत्‍ता की राजनीति से उपर नहीं रह गई है. तभी, केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल को दिल्‍ली धमाके के दौरान कपड़े बदलने का वक्‍त मिल जाता है, तो गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी को यह खुलासा करने की सुध आ जाती है कि उन्‍होंने प्रधानमंत्री को धमाके की आशंका से पहले ही आगाह कर दिया था, वहीं प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने फिर रहे भाजपा नेता लालकृष्‍ण आडवाणी गृह मंत्री शिवराज पाटिल को हटाने की मांग करने लगते हैं, और अव्‍वल तो यह कि रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव अपनी ही सरकार में आईबी व्‍यवस्‍था को फेल बताने लगते हैं...किसी ने यह नहीं कहा कि देश की सुरक्षा के लिए और क्‍या जरूरी उपाय किया जाए और इसके लिए वे तत्‍काल क्‍या ठोस कदम उठाने जा रहे हैं, जो आतंकियों में खलबली मचा दे और उनके नापाक मंसूबों को पस्‍त कर दे. लेकिन अपने देश में शायद यह तबतक संभव नहीं लगता, जबतक देश की सुरक्षा के शीर्ष पर बैठे राजनेताओं व नौकरशाहों की राष्‍ट्रीय नैतिकता सत्‍तालोलुपता के गंदे दायर से बाहर नहीं हो जाती...इसी सच का खुलासा करती है महानगर टाइम्‍स वेब पोर्टल पर प्रकाशित यह रिपोर्ट.
केंद्रीय गृह मंत्रालय की सुस्त चाल और हर निर्णय को लागू करने के पहले ‘वोट के तराजू’ पर तौलने की पार्टियों की नीति के चलते देश की खुफिया व्यवस्था को समृद्ध करने की एक महती योजना ने अस्तित्व में आने से पहले ही दम तोड़ दिया।
11 सितम्बर 2001 को जब अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमला हुआ था, तो आनन-फानन में भारत सरकार द्वारा बुलायी गयी सुरक्षा मामलों की कैबिनेट ने देश के खुफिया तंत्र को धारदार बनाने के लिए ‘मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स’ के गठन का निर्णय लिया था। ‘इंटेलीजेंस ब्यूरो’ के अधीन बनायी जाने वाली इस टास्क फोर्स में रा, मिलट्रिी इंटेलीजेंस और राज्यों की खुफिया इकाईयों के प्रतिनिधित्व की रूपरेखा बनायी गयी थी। सात साल बाद भी केंद्र सरकार की यह योजना अस्तित्व में क्यों नहीं आ पायी, इसका जवाब गृह मंत्रालय के पास नहीं है। शायद यह बात कहने-सुनने की नहीं है कि सरकार बदलती है तो प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं।
लेकिन ‘मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स’ के गठन का निर्णय जब राजग के कार्यकाल में लिया गया था, तो उसके बाद इसे अस्तित्व में लाने के लिए राजग के पास ही ढाई साल का वक्त था। उस समयावधि में तो यह अस्तित्व में नहीं ही आया, सरकार बदल गयी तो वैसे भी इसे ठंडे बस्ते में जाना था। यूपीए सरकार ने भी देश और देश की जनता की सुरक्षा के लिए इस महती योजना पर गौर नहीं किया। सरकार की प्राथमिकता में यह नहीं था। जाहिरा तौर पर कैबिनेट का यह फैसला गृह मंत्रालय के किसी कोने में फेंक दिया गया। शायद इस फोर्स का गठन हो गया होता तो हमारी खुफिया व्यवस्था इतनी लाचार नहीं होती।
एक के बाद एक धमाके नहीं होते और न जाने कितने मासूमों की जान यूं ही नहीं चली जाती। वर्ष 1999 में जब करिगल में तकरीबन सौ से अधिक पाक गुरिल्ला घुसपैठियों ने अपने पक्के बंकर बना लिये थे, तब भी हमारी खुफिया एजेंसियों और खासकर मिलट्रिी इंटेलीजेंस को इसकी भनक नहीं लग पायी थी। इस घुसपैठ की प्रथम सूचना बकरवालों (चरवाहों) ने सेना को दी थी। करगिल युद्ध के बाद तत्कालीन राजग सरकार ने उस वक्त देश के खुफिया तंत्र को कारगर बनाने की जरूरत पर बल दिया था। गृह मंत्रालय ने एक ‘इंटेलीजेंस कोआर्डिनेशन ग्रुप’ और एक ‘ज्वाइंट मिलीटरी इटेलीजेंस एजेंसी’ के गठन की योजना बनायी थी। यघपि बाद में ‘ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी’ का गठन किया जरूर लेकिन यह भी एक तरह से ‘सफेद हाथी’ ही साबित हुआ। इस कमेटी में केंद्र के सभी खुफिया तंत्र का प्रतिनिधित्व रखा गया है। बेहतर समन्वयन और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में यह कमेटी भी महज खानापूर्ति करने का एक जरिया ही रह गयी है। भारत में जो खुफिया तंत्र का ढांचा है वह बिखरा हुआ है। इसलिए अमरीका की जांच एवं खुफिया एजेंसियों की तर्ज पर यहां भी एक संघीय एजेंसी की जरूरत महसूस की जा रही है। राज्य की खुफिया इकाईयों का केंद्रीय खुफिया तंत्र से कोई वास्ता ही नहीं है। सूचनाओं का आदान-प्रदान तक नहीं होता। साभार: महानगर टाईम्स डॉट नेट

कायरों से डरकर क्‍या हम भी हो गए कायर?


उदय केसरी
शुक्रवार (12 सितंबर) को मैंने आतंकवाद विरोधी अमेरिकी दादागिरी के बहाने भारतीय बचावगिरी या कहें, कमजोरी की बात की थी।...और इस क्रम में भारत में बता-बताकर आतंकियों द्वारा किये जा रहे विस्फोट का जिक्र भी किया था...अब इसे संयोग कहें या दुरसंयोग कि इस आलेख ‘तो भारत क्यों नहीं पीओके में घुसकर मार सकता’ के सीधीबात पर प्रकाशित होने के दूसरे ही दिन आतंकियों ने एक बार फिर बताकर देश की राजधानी पर हमला बोल दिया, जिसमें श्रृंखलाबद्ध पांच बम धमाकों में 24 निर्दोषों की मौत और 100 से ज्यादा लोग घायल हो गए। यह घटना भी पिछले दिनों जयपुर, बंगलुरू व अहमदाबाद में हुई विस्फोट की घटनाओं जैसी ही है और इसकी जिम्मेदारी लेने वाला आतंकी संगठन भी वही इंडियन मुजाहिद्दीन है। समानताएं केवल घटना की प्रकृति में ही नहीं, इन घटनाओं के बाद देश के राजनीतिकों और नौकरशाहों व सुरक्षा एंजेंसियों की प्रतिक्रियाओं में भी है।...और यही नहीं समानता जनता की प्रतिक्रिया स्वरूप संवेदना में भी है...यानी यदि दो-चार दिनों तक कोई और विस्फोट नहीं हुआ, तो 13 सितंबर को दिल्ली के करोलबाग, गफ्फार मार्केट, कनाट पैलेस व बाराखंभा रोड क्षेत्र में हुए बम विस्फोट और उससे हुई ताबाही को भी हम भूलने लगेंगे और भूलते-भूलते अचानक से फिर एक दिन किसी शहर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट की खबर सुनकर सहम जाएंगे।...
आखिर कब तक?
आखिर हम ऐसे क्यों हो गए हैं?....आखिर हम किसी बीमारी के स्थायी इलाज के बजाए उस पर केवल मरहम-पट्टी से क्यों संतुष्ट हो जाते हैं? क्या हमारी ताकत जाती रही है? या हमारे लिए देश व देश के दुश्‍मनों के बीच कोई तीसरा मसला सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो गया है? या फिर कहें कि हम पूरी तरह से संवेदनहीन हो चुके हैं, बस इतनी संवेदना बाकी है कि अपनी चमड़ी पर जब चोट लगती है, तभी सच्चे दर्द का एहसास होता है।
इंडिया टीवी ने तो हद कर दी
पहले, मैं दिल्ली बम विस्फोट के बाद दूसरे दिन-रात तक एक न्यूज चैनल इंडिया टीवी की करतूतों की बात करना चाहूंगा, जो पत्रकारिता के नाम पर आतंक का हॉरर फिल्मी शो पेश करता रहा।...और जिस तरह हॉरर फिल्मों की सफलता तीन घंटे दर्शकों के बीच पैदा होने वाले दहशत भरे रोमांच पर निर्भर करती है। उसी तरह, इंडिया टीवी, आतंकी बम विस्फोट की कहानी को हॉरर फिल्मी शो बनाकर पेश कर रहा था, लेकिन इंडिया टीवी वालों को शायद पत्रकारिता के माध्यम से बनने वाली कहानी और फिल्मी कहानी में कोई अंतर नहीं समझ में आता। यदि आता, तो वह विस्फोट से पूरे देश में बने भय के वातावरण को घटाने के बजाए आतंकी मंसूबे पर ही जुगलबंदी करते हुए अगले धमाके की भविष्यवाणी चींख-चींखकर नहीं करता।...क्या पत्रकारिता है! घर में जब किसी के मरने का मातम मनाया जा रहा है, तब घर का ही एक तथाकथित जिम्मेदार शख्स डुगडुगी लेकर बाहर घर के अगले सदस्य के मरने की तारीख सुना रहा है। आपने भी इंडिया टीवी पर सुनी होगी इस तरह की डरावनी चींखें- 26 अक्टूबर, टारगेट मुंबई, मिशन मुंबई, धमाके के पैटर्न में छुपी है अगली तारीख, तय हो गई आतंक की तारीख, हम जिम्मेदार चैनल वाले हैं, मुंबईवासियों को डराना नहीं चाहते पर विस्फोटों का पैटर्न यही कहता है।...हमारे खुलासे के बाद आतंकियों में मच जाएगी खलबली...आदि-आदि अब जरा उस पैटर्न पर गौर करें जिसमें कहा गया कि-जयपुर, अहमदाबाद फिर दिल्ली में डेढ़-डेढ़ महीने के अंतर में क्रमश: 13 मई, 26 जुलाई, फिर 13 सितंबर को धमाके हुए, इसलिए अब अगली तारीख 26 अक्टूबर होगी। पहली बात, इंडिया टीवी के लोगों का सामान्य गणित भी काफी कमजोर है। इन तीनों तारीखों में अंतर लगभग सवा दो महीने व पौने दो महीने का है। तो फिर किस गणित के आधार पर वे धमाके की अगली 26 अक्टूबर बता रहे हैं...दूसरी बात, बेसिरपैर का यह पैटर्न भिड़ाने के चक्कर में इंडिया टीवी ने बंगलुरू बम विस्फोट (25 जुलाई) को इस क्रम में क्यों नहीं रखा। इसलिए कि, गणित कुछ ज्यादा उलझ जाता। तीसरी बात, इंडियन मुजाहिद्दीन के खास ई-मेल यदि केवल इंडिया टीवी को ही मिलते हैं और वह आतंकियों की तरह ही भय फैलाने के लिए हर हथकंडे अपनाती है, तो क्यों नहीं इस चैनल को प्रतिबंधित कर दिया जाए?
पाक मस्जिदों में कैसे सुन रहे हैं हम नापाक तकरीर
देश की पाक मस्जिदों में इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंक गुरु मुसल्लम ईमान वाले हमारे मुसलमान भाइयों को यह कैसी शिक्षा दे रहे हैं-जी न्यूज पर दिल्ली धमाके के दूसरे दिन ‘द इनसाइड स्टोरी’ कार्यक्रम में आतंक गुरु के तकरीर का ऑडियो सुनाया गया। इसकी कुछ लाइनें- अकबर जाहिल था, उसने इस्लाम को कमजोर किया, औरंगजेब के आने से इस्लाम को फायदा हुआ, अकबर ने इस्लाम को जड़ से उखाड़ने की कोशिश की, आज औरंगजेब का जितना एहसान हिन्दुस्तान पर शायद ही किसी का होगा आदि-आदि. इस ऑडियो में कही गई एक फीसदी बातें भी यदि सही हैं, तो हमारे देश के मुसलमान भाइयों को ऐसे आतंक गुरू से यही कहना चाहिए कि इतिहास तो हमारे बाप-दादे बताते ही रहे हैं, लेकिन तुम पहले इसका जवाब दो कि जयपुर, बंगलुरू, अहमदाबाद के बाद अब रमजान के इस पाक महीने में दिल्ली बम विस्फोट में मारे गए मुस्लिम भारतवासियों का क्या कसूर था? कुरान के किस पन्ने में इस्‍लाम के नाम पर निर्दोषों का खून बहाने की इजाजत दी गई है? इस्लाम यदि पाकिस्तान में मजबूत है, तो अमन, चैन व विकास में भारत से पीछे क्यों है? भारत में क्या कभी सैनिकों ने राजनीतिक सत्ता अपने कब्जे में ली या लेने की कोशिश तक की?.... इन सवालों के सही जवाब ऐसे दहशतगर्द आतंकी गुरु कभी नहीं दे सकते...क्योंकि अमन का सबक उन्होंने कभी पढ़ा ही नहीं। और रही बात नफरत की, तो ऐसे दहशतगर्दों को यह मालूम होना चाहिए कि हिन्दुस्तान में केवल मुसलमान भाई ही नहीं, हिन्दू, सिख, ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध, आर्य, द्रविड़ समुदाय के लोग भी एक साथ रहते हैं, इन सबों के मिलने से ही पूरे हिन्दुस्तान की सही संरचना बनती है। यहां किसी भी जाति धर्म के लोगों को आजादी खैरात में नहीं दी जाती, जन्मजात मिलती है। इसलिए, इस पाक मुल्क में आतंक का जहर घोलने की कोशिश कभी सफल नहीं होगी। न ही कभी इन दहशतगर्दों से भारतवासी डरेंगे, क्योंकि छिपकर निहत्थे व निर्दोषों पर वार करने वालों को हमारे देश में कायर व कमजोर कहा जाता है। यदि इन कायरों में दम है तो सामने से वार करें, फिर देखना सीना तानने वालों की पहली लाइन में भारत के मुसलमान भाइयों की संख्या किसी से कम नहीं होगी।...बस एक बार जागने की देर है।

हिन्दी नहीं आने की सजा देशनिकाला क्यों न हो?

मीतेन्‍द्र नागेश
‘आई डोंट नो हिन्दी’...मैं हलका-फूलका हिन्दी बोल पाता हूं (मैं हल्की-फुल्की हिन्दी बोल पाता हूं)...हिन्दी में कौन सुनता है...हिन्दी मीडियम से कैरियर नहीं बनता...आदि-आदि जुमले आज अंग्रेजीदां लोगों के लिए फैशन हो गया है। क्या आप भी ऐसे जुमले वाले हैं, या फिर कथाकथित हाईप्रोफइल लोगों के बीच आपको भी हिन्दी बोलने में शर्म आती है। यदि हां, तो क्यों न आपको इस देश से बाहर कर दिया जाये? क्यों न आपकी नागरिकता समाप्त कर दी जाये? और क्यों न आपको देशद्रोही करार दिया जाये? क्या आपको मालूम है, हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है और राष्ट्र का दायरा कश्‍मीर से कन्याकुमारी और राजस्थान से असम तक है। और आपको यह भी मालूम होना चाहिए कि अपने देश के तमाम प्रांतों या कहें ‘यहां हर मोहल्ले की अपनी विशेष बोली है, तो फिर ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दुस्तां हमारा’ का क्या मतलब है? आपको अगर ये सवाल सोचने पर मजबूर नहीं करते, तो निश्चित ही आप संवेदनहीनता के चरम पर पहुंच चुके हैं। फिर आपसे राष्ट्रीयता की उम्मीद करना बेमानी है।
कल (14 सितंबर) हिन्दी दिवस है। आप भी ऐसे किसी आयोजन का हिस्सा बनने की तैयारी में होंगे, जिसमें हिन्दी का गुणगान किया जायेगा, वक्ता हिन्दी और हिन्दी दिवस की महत्ता पर प्रकाश डालेंगे, हिन्दी दिवस क्यों मनाये...कैसे मनाये...क्या संकल्प लें...आदि बाते होंगी। आखिर हिन्दी दिवस मनाने की जरूरत क्या है? क्यों इतना तरस खाते हैं हम हिन्दी पर? क्या हिन्दी इतनी कमजोर भाषा है? आखिर इस तरह मंच से हिन्दी...हिन्दी करके जताया क्या जाता है? यही कि आज ‘बेचारी’ हिन्दी कमजोर हो गई, थोड़ा तो तरस खाओ।’ सच कहें, तो हिन्दी के नाम पर खासतौर पर इस एक दिन और पूरे एक सप्ताह में जो कुछ भी होता है, उसमें हिन्दी का मजाक बनाकर रख दिया जाता है। हर कोई हिन्दी की बेचारगी का रोना रोता नजर आता है, अगर खुद हिन्दी यह सब देख और सुन पाती तो आत्म हत्या कर लेती। बात सीधी सी है, जब दिल में हिन्दुस्तानी होने का सच्चा जज्बा ही नहीं हो, तो ऐसे लोगों से हिन्दी के प्रति आदर का निवेदन करना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही है न।
आप कहेंगे हम उत्तर भारत वाले तो हिन्दी बोलते ही हैं। पर आज के दौर में उत्तर भारत में कितने ऐसे लोग हैं, जिसे अंग्रेजी के आगे हिन्दी बोलने पर गर्व की अनुभूति होती है? आप कहेंगे पूरे राष्ट्र को हिन्दी बोलने के लिए आप कैसे राजी कर सकते हैं, तो आप क्या बता सकते हैं इसकी जगह अंग्रेजी सीखने की सलाह आपको किसने दी। दक्षिण भारत में भाषा की गंदी राजनीति करने वाले हिन्दी की तुलना कुत्ते से करते हैं। विश्‍वास नहीं होता, तो इस भाषण पर गौर करें, जिसे 1962 में तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री अन्नादुर्रई ने संसद में दिया था-‘तमिलनाडु के लोगों को बाकी सारी दुनिया से बात करने के लिए अंग्रेजी और भारतीयों से बात करने के लिए हिन्दी क्यों पढ़नी पड़ेगी। क्या बड़े कुत्ते के लिए बड़ा दरवाजा बनाना पड़ेगा और छोटे कुत्ते के लिए छोटा दरवाजा। छोटे कुत्ते को भी बड़े कुत्ते का दरवाजा इस्तेमाल करना चाहिए। ऐसी ही, भाषा की गंदी राजनीति पंजाब, फिर महाराष्ट्र में भी की जाती रही है। राज ठाकरे सरीखे भाषा की राजनीति से राष्ट्रीयता को नापाक बनाने वाले नेताओं के कारण ही हिन्दी की यह दुर्गति हुई कि हम भारत के लोग, जिसकी दुनिया भर में पहचान हिन्दी से हैं, वे अपने देश में ही हिन्दी से घृणा करने लगे हैं। विविध भाषाओं का ज्ञान होना अच्छी बात है, इसी सिलसिले में हम फ्रेंच, जर्मन आदि सीखते हैं, वैसे ही अंग्रेजी का सीखना भी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अपनी हिन्दी को हम भूल कर विदेशी भाषा अंग्रेजी ही सीखे और बोले, तो फिर आप अपनी राष्ट्रीय मर्यादा को भी भूल सकते हैं, भूल सकते हैं अपने देश के संविधान को, इसकी आन-बान और शान को। और फिर यदि यह स्वाभाविक है, तो क्या अंग्रेज दो सौ साल भारत में राज करके लौटने के बाद ब्रिटेन में अंग्रेजी भूलकर हिन्दी बोलने लगे? तो फिर हम क्यों?
हर हिन्दुस्तानी के लिए हिन्दी अनिवार्य होनी चाहिए। अगर आप हिन्दी नहीं जानते, तो आपकी राष्ट्रीयता अधूरी है। आप अहिन्दी भाषी होकर अगर अंग्रेजी सीख सकते हैं, तो हिन्दी से कैसी दुश्‍मनी? भाषा के नाम पर देश में जिस तरह की गंदी राजनीति होती आई है और चल रही है, उससे देश छोटे-छोटे भाषायी मोहल्लों में बंटता नजर आ रहा है। इस तरह हम देश की अखंडता का दावा नहीं कर सकते और अगर करते हैं, तो हम साफ झूठ बोलते हैं कि अनेकता में एकता, भारत की सबसे बड़ी विशेषता है।

तो भारत क्‍यों नहीं, पीओके में घुसकर मार सकता?

उदय केसरी
^पाकिस्तान में घुसकर मारो^ यह आदेश है अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश का। बुश ने तालिबानी व अलकायदा के आतंकियों के खिलाफ अफगानिस्तान में तैनात अपनी सेना के कमांडरों को पहली बार यह अधिकार दिया है कि पाक के उत्तरी कबायली इलाके में गढ़ बना रखे आतंकियों को मारने के लिए किसी की इजाजत की जरूरत नहीं।...यहां तक कि अमेरिकी अधिकारियों ने इस आदेश के बाद कहा है कि अमेरिकी सेना अब पाक की धरती पर कार्रवाई करेगी और पाक को सिर्फ इसकी सूचना देगी, इजाजत नहीं मांगेगी। इस आदेश से पाक के होश उड़ गए हैं....
वाह! क्या अमेरिकी दादागिरी है।...अफसोस ऐसी दादागिरी भारत नहीं कर सकता। क्या कभी भारतीय फौज बिना किसी इजाजत के पाक अधिकृत कश्‍मीर (पीओके) में घुसकर भारत में खून की नदियां बहाने वाले आतंकियों को खदेड़ कर मार सकती है, बिल्कुल नहीं...हम तो शांतिप्रिय देश हैं...हम हमला नहीं करते...केवल बचाव करते हैं। भले ही कोई हमारी ही जमीन हथिया ले...वहां आतंकी गढ़ बना ले...और वहां से हमारे ही खिलाफ आतंकी कार्रवाइयों को अंजाम दे।...और फिर अमेरिका जैसी दादागिरी करने से कहीं पाक से रिश्‍ता खराब हो गया तो रहा-सहा कश्‍मीर न हाथ से निकल जाए।...लेकिन अमेरिका को ऐसी कोई परवाह करने की जरूरत नहीं, क्योंकि वह विश्‍व का सबसे धनी व ताकतवर देश है, इसलिए वह सात समंदर पार से आकर भी अपने दुश्‍मनों से खोज-खोज के बदला ले सकता है...पर हम यानी भारत शायद गरीब और कम ताकतवर देश हैं, हम अपने सीने पर लोटते सांपों को भी कुचल नहीं सकते हैं...इतनी हिम्मत तो केवल अमेरिकी राष्ट्रपति ही कर सकता है...
आजकल मोहल्ले के दादाओं से दोस्ती करके चलने में ही भोले-भाले लोगों की भलाई समझी जाती है...भारत भी विश्‍व के मोहल्ले में भोला-भाला इंसान है, जिसे अमेरिका जैसे दादा से दोस्ती करके ही चलना पड़ेगा...सो वह पुरानी सारे घात भूल कर परमाणु करार के जरीये दोस्ती करने के लिए आतुर है...लेकिन जिस आतंकवाद से भारत अमेरिका से सालों पहले से जूझता रहा है, उसका एहसास अमेरिका को तब हुआ, जब गोली उसकी चमड़ी पर लगी, यानी 11 सितंबर 2001 को जब अमेरिका की नाक पेंटागन बिल्डिंग को अलकायदा के आतंकियों ने नेस्तनाबूद कर दिया। इससे बौखलाए अमेरिका ने बिना किसी की इजाजत के अफगानिस्तान पर कब्जा जमा रखे तालिबानियों पर हमला बोल दिया। लेकिन वह अब तक अपने सबसे बड़े दुश्‍मन ओसाम बिन लादेन को नहीं मार पाया है। इसलिए अफगानिस्तान में तालिबानियों को सत्ताच्यूत कर अपने पसंद की सरकार बना लेने के बाद भी चुप नहीं बैठा है। अफगानिस्तान में अपनी फौज को तैनात कर अलकायदा आतंकियों के विरुद्ध अभियान जारी रखे हुए है। और अब जब अमेरिकी खुफिया तंत्रों द्वारा यह पता चला कि अलकायदा और ऐसे आतंकी संगठन पाकिस्तान के उत्तरी कबायली इलाकों में स्थित अड्डों में अमेरिका के खिलाफ 9/11 जैसे हमले की साजिश रच रहे हैं, तब फिर अमेरिका बौखला गया है।...लेकिन इससे पहले चींख-चींखकर भारत अमेरिका को बताता रहा कि पाकिस्तान आतंकियों को अपनी धरती पर पनाह ही नहीं दे रहा, पैसे और हथियार से मदद भी कर रहा है, पर अमेरिका के कान में जूं तक नहीं रेंगा।...आखिर हमारे यानी भारत के दर्द की औकात ही क्या है कि जिसका फौरन बदला लिया जाए...इसलिए तो करगिल, संसद पर हमले जैसे पाकिस्तानी दुष्साहस के बाद भी भारत बस बचाव की मुद्रा में रहा। और आतंकी बड़े आराम से एलओसी में खा-पीकर, आतंकी प्रशिक्षण प्राप्त कर मुसटंडे बनते रहे और अब हमारे देश में बता-बताकर एक नहीं, बारंबार बम विस्फोट कर रहे हैं...क्या वाकई में हम कमजोर हो गए हैं या भारत की विदेश नीति में कोई भीरूपन है, जिसके कारण हमारे देश की सेना को केवल और केवल हमले का बहादुरी से जवाब देने का ही आदेश है। अमेरिका की तरह अमन के दुश्‍मनों को खोजकर मारने का नहीं, तो फिर क्योंकर हम विदेश नीति और इसके नियंताओं का विरोध न करें, जिसके कारण हमें अपने घर के अंदर ही विदेशी आतंकियों से लड़ना पड़ रहा है।...फिर भी हमारे देश की सरकार बौखला नहीं रही, ज्यादातर समय सत्ता की गंदी राजनीति में व्यस्त रहती है...और आतंकी धमाकों के बाद भी राहत और सुरक्षा के नाम पर केवल राजनीतिक रोटियां सेंकी जाती है। राष्ट्रीय सम्‍प्रभुता को चुनौती दे रहे पाकिस्तानी आतंकियों से निपटने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जाती। पता नहीं क्या हो गया हमारे देश को...जिसका इतिहास दुश्‍मनों के छक्के छुड़ा देने की दास्तानों से अटा पड़ा है।

हम हिंदुस्तान वाले हैं, हिन्दी में बोलेंगे

उदय केसरी
पूरी दुनिया में जिस हिन्दी फिल्मों के लिए मुंबई प्रसिद्ध है, उसी हिन्दी के लिखने और बोलने पर बावेला मचाया जा रहा है। इस बावेले के शिकार सबसे पहले गैर मुंबईवासी या कह लें उत्तरप्रदेश व बिहार के लोग हुए, फिर मुंबई के ऐसे दुकानदार व व्यापारी हुए, जिनकी दुकानों के साइन बोर्ड हिन्दी में लिखे हुए थे, फिर अब बावेला में बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के परिवार को घसीटा जा रहा है। हाल के दिनों में यह सब घटनाएं सुर्खियां बनती रही हैं और इन सब घटनाओं के सूत्रधार हैं महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के प्रमुख राज ठाकरे, जबकि इसके महासूत्रधार हैं शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे। उन्हें मराठी भाषा से अगाध प्रेम है। गैर-मराठी भाषी लोग, खासकर यूपी-बिहार वाले नापसंद हैं। यदि इनकी मर्जी चले तो मराठी भाषा नहीं जानने या बोलने वालों को फांसी पर लटका दें।
आगे कुछ कहने से पहले बाल ठाकरे के संबंध में कुछ तथ्यों पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा, जैसे-मुंबई में शिव सेना का मुखपत्र सामना मराठी के अलावा हिन्दी में भी निकलता है। बाल ठाकरे ने अपने कैरियर की शुरुआत मुंबई में एक अंग्रेजी अखबार फ्रीप्रेस जर्नल में एक कार्टूनिस्ट के रूप में की। वे गैर-मराठियों में यूपी-बिहार के लोगों को ही नहीं, मुस्लिमों और बंगालियों के भी खिलाफ शुरू से मुखर रहे हैं। यहीं नहीं, 70 के दशक में उन्होंने ‘महाराष्ट्र केवल मराठियों के लिए’ आंदोलन चलाया और दक्षिण भारतीय लोगों को भी मुंबई छोड़ने की खुली धमकी दी। 6 मार्च 2008 को ठाकरे ने अपने मुखपत्र सामना में एक संपादकीय लिखी, जिसका शीर्षक था-एक बिहारी सौ बीमारी। 29 जनवरी 2007 में इंडियन एक्सप्रेस को दिये एक साक्षात्कार में बाल ठाकरे ने हिटलर की प्रशंसा करते हुए कहा था- Hitler did very cruel and ugly things. But he was an artist, I love him.
अब कुछ तथ्य बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे के बारे में- राज ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत शिव सेना से की, लेकिन बाल ठाकरे (चाचा) के पुत्र उद्धव ठाकरे द्वारा शिव सेना से साइडलाइन लगाये जाने के बाद उन्होंने नई पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। राज ठाकरे बाहरी, खासकर उत्तर भारतीयों के खिलाफ जमकर हिंसक राजनीति करते रहे हैं। यहां तक कि बिहार व उत्तर प्रदेश के लोगों की आस्था से जुड़ी छठ पूजा पर टिप्पणी करते हुए इसे ‘नाटक’ करार दिया।
अब सवाल है कि क्या मुंबई की प्रसिद्धि और विकास केवल मराठियों की देन है? मराठी क्या केवल मराठी हैं, भारतवासी नहीं? बिहार और उत्तर प्रदेश किसी दूसरे देश का नाम है? भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है, तो क्या महाराष्ट्र राष्ट्र से बाहर है? इन सवालों के सही जवाब भारत के पांचवीं पास ही नहीं, फेल बच्चे को भी मालूम होगा। तो क्या मराठी बनाम हिन्दी के सूत्रधार व महासूत्रधार को इसके जवाब नहीं मालूम? यदि मालूम है, तो क्या यह क्षेत्र, भाषा व धर्म के नाम की जा रही महज कपट राजनीति नहीं? इस सवाल का जवाब आपको संभवतः स्वतः मिल गया होगा। ऐसी कपट राजनीति के बीच बाहरी होने के नाम पर पहले अमिताभ बच्चन के घर पर पत्थर फेंकवाया जाता है, फिर उनसे मराठी व मुंबई प्रेम प्रदर्शित करने की अपेक्षा की जाती है। तो क्या एमएनएस की स्थापना (9 मार्च 2006) के बाद अमिताभ बच्चन ने अपना घर मुंबई में बनवाया। और फिर यह बताने की जरूरत है कि कोई अपना घर कहां बनाता है। पर लगता है कि बाला साहब व राज ठाकरे को भावनाओं की भाषा समझ में नहीं आती है। यदि समझ में आती तो हिटलर उनके लिए हीरो नहीं होता। अब ऐसी दूषित अपेक्षाओं से चिढ़ी जया बच्चन अपने दिल की भड़ास कब तक दबाती, सो बोल दी, हम यूपी वाले हैं हिन्दी में बोलेंगे। लेकिन यह बोलते हुए जया बच्चन यह भूल गई कि वह एक जानी-मानी अभिनेत्री और महानायक अमिताभ की पत्नी होने के नाते देश की एक सम्मानित हस्ती हैं। इसलिए उन्हें भी वही राह नहीं पकड़नी चाहिए, जिस राह पर राज ठाकरे चल रहे हैं। यदि वह यह कहतीं कि हम हिन्‍दुस्तान वाले हैं, हिन्दी में बोलेंगे तो जरूर पूरा हिन्दुस्तान उन पर गर्व करता। ऐसी ही गलती बॉलीवुड के बादशाह शाहरूख खान ने भी की कि हम दिल्ली वाले हैं। यह वाकई चिंता का विषय है कि राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर की हस्तियां ऐसी गलती करके क्षेत्र, भाषा व धर्म की भ्रष्ट राजनीति करने वालों को बावेला मचाने के मौके दे रही हैं। जिसका दुष्परिणाम उन्हें तो कम साधारण आदमी को कहीं अधिक भुगतना पड़ता है।

मजाक है क्या पृथ्वी का अंत!!!

उदय केसरी
अपने देश में मीडिया ज्यादातर न्यूज चैनलों ने पत्रकारिता के मूल्यों से पूरी तरह से तौबा कर ली है, यह बात नई नहीं रही, लेकिन इसकी जगह टीआरपी पत्रकारिता की होड़ में न्यूज चैनल किस कदर गैर-जिम्मेदार हो गए हैं, इसका अंदाजा कल रात (7 सितंबर) इंडिया टीवी को देखकर लगा, जिसने टीआरपी की दौड़ में पिछले दिनों लंबी छलांग लगायी है। खबर: बुधवार (10 सितंबर) को ब्रह्मांड का अंत!...पाताल से निकलेगा दानव, बस कुछ दिन और...महाविनाश की घड़ी करीब...महाप्रलय में खत्म हो जाएगी पूरी दुनिया आदि-आदि...आपने भी यह खबर देखी होगी। सनसनी के पर्यायवाची और भी कई शब्द व पंक्तियों से भरी यह खबर न्यूज चैनल की महज टीआरपी पत्रकारिता को बेनकाब करने के लिए पर्याप्त है।
अब बात इस खबर के सच की, तो इस संदर्भ में मुझे याद है 1999 का वह वाक्‍या, जब दिल्ली से एक नई साप्ताहिक पत्रिका निकलनी शुरू हुई थी-महालक्ष्मी सम्राट। तब दिल्ली से ही प्रकाशित दिल्ली प्रकाशन की पत्रिका सरस सलिल, मामूली दाम और मसालेदार कहानियों व तस्वीरों के कारण हिन्दी प्रदेशों में काफी लोकप्रिय हो रही थी। इसी तर्ज पर महालक्ष्मी सम्राट पत्रिका निकाली गई, जिसके सामने सरस सलिल चुनौती के रूप में थी। शायद, इसी चुनौती का सामना करने के लिए महालक्ष्मी सम्राट ने सनसनी को अपना हथियार बनाया और उसके हाथ लगी एक आल टाइम हिट स्टोरी ‘महाप्रलय’। इस पत्रिका के अनुसार नात्रेदमश की भविष्यवाणी के मुताबिक 1999 के खत्म होते ही महाप्रलय आयेगा, जो पूरी पृथ्वी को तहस-नहस कर देगा...इस महातबाही में कोई भी नहीं बचेगा...आदि-आदि बातें...आप सोच सकते हैं कि ऐसी पत्रिका ज्यादातर साधारण पाठक पढ़ते हैं। उन पर ऐसी कहानी का क्या असर हुआ होगा...मैं तो अपने इलाके की बात कहूंगा, जो देखा है... लोग 31 दिसंबर 1999 को नये साल के आगमन की खुशी में बाहर जाकर पिकनिक मनाने के कार्यक्रम नहीं बना पा रहे थे। उस दिन बाहर का काम छोड़ ज्यादातर लोग घर के आसपास ही सहमे हुए थे...पूरा दिन निकल गया...कोई महाप्रलय नहीं...उस पत्रिका की भविष्यवाणी झूठी और बकवास साबित हुई। फिर बाद में उस पत्रिका से लोगों का विश्‍वास उठने लगा और मुझे जहां तक याद है कि कुछ ही महीने में उस इलाके में महालक्ष्मी सम्राट का बिकना लगभग बंद हो गया।
इस वाक्या की तरह ही एक बार फिर अब इंडिया टीवी सरीखे न्यूज चैनलों पर टीआरपी की कमाई करने के लिए ‘महाप्रलय’ की कहानी को सनसनी बनाकर पेश किया जा रहा है, जो पूरी तरह से अविश्‍सनीय है। इस बार महाप्रलय की वजह पिछले 14 सालों से जिनेवा स्थित परमाणु शोध प्रयोगशाला सर्न में धरती के 100 मीटर अंदर किये जा रहे एक वैज्ञानिक महाप्रयोग को बताया जा रहा है, जिसमें दुनिया के 40 देशों के नौ हजार से अधिक वैज्ञानिक लगे हैं और वे ब्रह्मांड की रचना की गुत्थी समझने के उद्देश्‍य से यह महाप्रयोग कर रहे हैं। गौतरलब है कि इस महाप्रयोग के सफल होने पर मानव के सामने सदियों से रहस्य बनी ब्रह्मांड की कई घटनाओं पर से परदा उठ सकता है और हम उनके वैज्ञानिक कारण को साफ तौर पर जान पायेंगे। इस महाप्रयोग के सफल होने से अनेक ऐसे फायदे भी होंगे, जिसकी अभी मात्र हम कल्पना करते हैं। इसी महाप्रयोग के आलोचकों द्वारा अपवाह उड़ाई गई है कि महाप्रयोग के संचालित होने से ब्‍लैक होल बन सकते हैं और पृथ्‍वी पर भूकंप आ सकता है। इंडिया टीवी सरीखे न्यूज चैनलों के लिए इससे अच्छा मौका क्या हो सकता था। सो, ऐसे न्‍यूज चैनलों ने चींख-चींखकर महाप्रलय की मनगढंत आशंकाओं की कहानी सुनानी शुरू कर दी। हालांकि टीआरपी की प्रतिद्वंद्विता में ही सही, इस खबर के बाद जी न्यूज ने महाप्रयोग के दूसरे पक्ष यानी साकारात्मक पक्ष पर आधारित कहानी भी पेश की, जिसमें दो जाने-माने वैज्ञानिकों से जिनेवा के महाप्रयोग के विभिन्न पहलुओं पर विस्‍तृत चर्चा की गई, जिसमें उन दोनों वैज्ञानिकों ने ऐसी आशंका को वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर सिरे से नकार दिया। उन्होंने कहा कि महाप्रलय की बात हास्यास्पद है। भारत के जाने-माने वैज्ञानिक व शिक्षाविद् प्रो. यशपाल ने भी महाप्रलय की आशंका को कोरी कल्‍पना कहा है।
अब यदि जी न्‍यूज पर आये दो वैज्ञानिकों और प्रो. यशपाल की बातें को झूठ भी मान लें, तो भी क्‍या यह सहज रूप से माना जा सकता है‍ कि सभी चालीस देशों के वैज्ञानिक, जो इस महाप्रयोग में दिन-रात लगे हैं, वे जानबूझकर महाप्रलय को दावत दे रहे हैं, क्‍या उन्‍हें खुद से, अपने देश से, समाज से, परिवार से और इस पृथ्‍वी से मोह नहीं। केवल महाप्रयोग की आलोचना करने वाले मुट्ठी भर औने-पौने लोग ही चतुर और भविष्यदृष्टा हैं, जिन्‍हें सच मान लिया जाए। यदि नहीं तो इंडिया टीवी सरीखे न्यूज चैनलों को इस खबर के केवल नकारात्‍मक व बेबुनियाद पक्ष को सनसनी बनाकर दर्शकों से खेलने का हक किसने दे दिया है।

मूर्ख भारत या धूर्त अमेरिका?

उदय केसरी
पुराने जमाने में सूदखोर साहूकार निर्धन ग्रामीण की ज़मीन हथियाने के लिए पहले उसे कम ब्याज पर बिन मांगे ऋण देता, उसका हाल-समाचार लेता, उसकी घर की समस्याओं में बढ़-चढ़कर मदद करता और फिर जब उस ग्रामीण पर ऋण और सूदखोर के अहसान का बोझ बहुत अधिक बढ़ जाते, तब वह अपने असल मक़सद की दिशा में चाल चलता कि ऋण का बोझ हल्का करने के लिए अपनी ज़मीन गिरवी रख दो...अहसानों व ऋण तले दबा गरीब ग्रामीण इसके लिए बाध्य हो जाता, जिसके लिए उसकी ज़मीन जीवनाधार है...पर उसे क्या मालूम सूदखोर के सारे अहसान बदनीयत थे और वह इसी वक्त की फिराक में यह सारा फ़रेबजाल बुन रहा था। ज़मीन गिरवी रखते ही सूदखोर दबंग हो जाता और निरक्षर, भोला-भाला ग्रामीण बेसहाय। और इस तरह ग्रामीण की ज़मीन सूदखोर हड़प लेता...यहां तक कि कई बार सूदखोर द्वारा हड़पी ज़मीन पर उसके वास्तविक मालिक को ही मजबूरन मजदूरी करनी पड़ती थी।
यदि इस प्रसंग पर हम आज के वैश्विक जमाने में गौर करें तो भाव एक जैसा ही प्रतीत होगा बस, अब पात्र व दौर का फर्क पायेंगे। अमेरिका को यदि विश्‍व का सबसे चतुर, चालाक बनिया या साहूकार माना जाता है, तो यह कोई मजाक नहीं है। अमेरिका के कृत्य ऐसे ही हैं, जो कभी तालिबानियों को अपने फायदे के लिए आतंक का रास्ता सुझाता है और काम निकल जाने या उसका बुरा परिणाम (9/11 के रूप में) खुद पर पड़ते ही आतंक को वैश्विक समस्या घोषित करने में एक पल भी देर नहीं करता। यहां तक कि बिना किसी की सहमति के अफगानिस्तान पर हमला बोल देता है।...ऐसा ही सद्दाम हुसैन के साथ किया। यही नहीं भारत-रूस दोस्ती पर अमेरिका की तल्खी भी जगजाहिर है और इसके नतीजे भी भारत को झेलने पड़े हैं। लेकिन इन सबके बावजूद जब से ग्लोबलाइजेशन की फील गुड संस्कृति की हवा चली है, तब से कौन बदनियत या धूर्त है और कौन भोला-भाला या मूर्ख, समझना मुश्किल हो गया है, क्योंकि इन सब सवालों पर सब्जबाग दिखाने वाली विश्‍व कल्याण की कोरी कल्पना हावी है।
ऐसे हालात में, अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु ऊर्जा करार कितना सही है? यह सवाल तो करार की प्रक्रिया शुरू होने के समय से ही प्रासंगिक है और इसी सवाल पर लंबे समय तक रार के बाद यूपीए सरकार के प्रमुख सहयोगी वाम दलों ने अपना समर्थन वापस ले लिया, जिसके परिणामस्‍वरूप केंद्र की राजनीति में ऐसी गंदी राजनीति बजबजाई कि उसकी दुर्गंध न केवल पूरे देश में फैली, बल्कि इसने संसद की मर्यादा को तार-तार करके रख दिया. केंद्र सरकार ने अविश्‍वास प्रस्‍ताव पर मतदान की प्रक्रिया में किस तरह से जीत हासिल की, उसे इतनी जल्‍दी भुलाया नहीं जा सकता. उस पर से विडंबना यह कि यह सडांध उस करार के नाम पर फैलाई गई, जिसके बारे में किसी को कोई सही जानकारी नहीं थी. न इसका विरोध करने वालों को और न ही इसके पक्षधरों को. वाम दलों का चरम विरोध भी ज्‍यादातर अमेरिका अथवा पूंजीवाद विरोधी जन्‍मजात घुट्टी का नतीजा था. वहीं इसके घोर पक्षधर केंद्र सरकार के प्रधानमंत्री या सोनिया मेमसाहब के मोहरे मनमोहन सिंह को भी अमेरिका के चतुरनार राष्‍ट्रपति जॉर्ज डब्‍ल्‍यू बुश ने गुमराह कर रखा था कि करार के बाद भी भारत के परमाणु प‍रीक्षण कार्यक्रम पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जबकि सच्‍चाई इसके उलट है, जिसका खुलासा 4-5 सितंबर को वियेना में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की बैठक के ठीक पहले अमेरिका के ही प्रमुख अखबार वाशिंगटन पोस्‍ट में किया गया है. दरअसल, करार संबंधी 26 पेज का दस्तावेज विदेश मामलों संबंधी कांग्रेस की स्थायी समिति के अध्यक्ष व करार विरोधी हावर्ड बरमैन ने सार्वजनिक किया है। इसमें करार को लेकर पूछे गए 45 सवालों पर जॉर्ज बुश प्रशासन के जवाब शामिल हैं। ये सवाल बरमैन के पूर्ववर्ती दिवंगत टॉम लैंटोस ने अक्टूबर में पूछे थे और बुश प्रशासन ने 16 जनवरी को इसका जवाब दिया था। तब भारत में करार को लेकर राजनीतिक विवाद के चलते अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने समिति से आग्रह किया था कि वे इसे सार्वजनिक न करें।
अब यह खुलासा करार के अंधे पक्षधरों के लिए शर्म से डूब मरने वाला है. लेकिन शर्म हो तब तो कोई असर पड़े, बजाए इसके, केंद्र के विदेश मंत्री ने चुप्‍पी साध ली है, वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह दुविधा में पड़ गए हैं और वाम दलों के लिए तो यह बिल्‍ली के भाग्‍य से छींका टूटने जैसा है.

बाढ़ और भूख से जूझती लाचार जिंदगी

उदय केसरी
कल रात (सोमवार 1 सितंबर 08) हर रोज की तरह ही अपने बेडरूम में आराम से बैठा मैं वीडियो गेम की तरह टीवी के रिमोट से चैनल-चैनल' खेल रहा था। (चैनल-चैनल...आजकल प्रायः लोग अपनी टीवी पर खेलते हैं...मनोरंजन, न्यूज व अन्य चैनलों को मिलाकर इतने सेटेलाइट चैनल हो गये हैं कि दर्शकों को समझ में नहीं आता कि किसे देखे और किसे न देखे...और रिमोट के बटन दबाते-दबाते व विभिन्न चैनलों की झलकी लेते-लेते ही सारा वक्त गुजर जाता है।) खैर, कल रात की बात... चैनल-चैनल खेलते हुए जी न्यूज के दृश्‍य ने मुझे स्तब्ध कर दिया। मैं हर रोज का खेल भूलकर एकटक देखता रहा- वे दृश्‍य विचलित करने वाले थे। कई दिनों से भूखे बाढ़ पीड़ितों के बीच थोड़े से अनाज के पैकेट आते ही उसे पाने के लिए जानवरों की तरह टूट पड़ते लोगों के दृश्‍य...छीनाझपटी में किसी को कुछ नहीं मिल पाना और फिर एक बूढ़ी मां द्वारा जमीन पर गिरे, अनेक पैरों तले कुचले, धूल-धूसरित अनाज के दानों को चुन-चुनकर अपने आंचल में रखना, ताकि वह अपने भूख से बिलखते बच्चों को कुछ खिला सके...आंखें भर देने वाले दृश्‍य थे...एक गांव के सौ से अधिक स्त्री-पुरूष व बच्चे एक स्कूल की छोटी सी छत पर पिछले चौदह दिनों से खुद को जिंदा रखे हुए हैं...जिन्हें इतने दिनों बाद बाहर निकालने के लिए रिस्क्यू टीम के केवल दो बोट आ पाये थे...जीटीवी के एक संवाददाता से लिपटकर बच्चों की तरह रोता एक अधेड़ ग्रामीण...मौत के तांडव के बीच दूधमुंहे बच्चे के मासूम चेहरे और उसके कोमल होठों पर भूख के निशान...बता नहीं सकते कितने दर्दनाक दृश्‍य थे...उन्हें शब्दों में स्पष्ट बयां नहीं किया जा सकता...जी न्यूज के इस कार्यक्रम में बाढ़ की विभीषिका और उससे हुए जान-माल के नुकसान और इसके लिए जिम्मेदार सरकारी तंत्र या दो इंजीनियरों की लापरवाही आदि कई सवालों पर भी पड़ताल की गई...लेकिन मेरे मन-मस्तिष्क में इन सवालों से कहीं अधिक भूख के वे भयावह दृश्‍य कौंध रहे थे और उस कार्यक्रम के खत्म होने के घंटों बाद भी उसकी याद आते ही वे दृश्‍य साफ दिखने लगते हैं और मेरी संवेदना एक अलग ही सवाल करती है...कि क्या ये लोग बाढ़ आने से पहले सुखी-संपन्न थे. बाढ़ पीड़ितों के दृश्‍यों को देख ऐसा कतई नहीं लगता. वे गरीब मजदूर, किसान व निर्धन ग्रामीण थे, जिनके लिए रोज भूख का निदान ढूंढना सबसे बड़ा काम होता है। ऐसे में, बाढ़ ने उनकी आधी जान तो ऐसे ही ले ली होगी, फिर भी यदि वे मौत से लड़ रहे हैं और जिंदा हैं, तो यह जरूर उनके पिछले जन्‍म के पुन्‍यकर्मों का फल होगा...अन्‍यथा चौदह दिनों तक एक ऐसी जगह पर भूखे रात-दिन बीताना, जहां प्रत्‍येक को बैठने तक की पर्याप्‍त जगह नहीं हो, कोई सामान्‍य बात नहीं है...बाढ़ से बचाव करने या आपदा प्रबंधन में लापरवाही करने वाले नौकरशाहों या फिर कोसी नदी पर बने तटबंध की जर्जर अवस्‍था को नजरअंदाज कर गए इंजीनियरों को महज 24 घंटे ऐसी विभीषिका के बीच रहने के लिए छोड़ दिया जाए, तब ही उन्‍हें अपनी लापरवाही का अंदाजा होगा और पश्‍चाताप भी.
इस गलती का नतीजा इतना भयावह होगा, शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. बिहार के मधेपुरा, अररिया और सुपौल ज़िले, जो बाढ़ के कहर से सबसे अधिक प्रभावित हैं, में खबरों के मु‍ताबिक 20 लाख स्‍त्री-पुरूष व बच्‍चे बाढ़ की गिरफ्त में मौत और भूख से जूझ रहे हैं. कोसी का तटबंध नेपाल के कुसाहा में 18 अगस्त को टूटा था और अब जैसे-जैसे विभीषिका बढ़ रही है, सरकार और नौकरशाह अपनी गलती की नैतिक जिम्‍मेदारी लेने के बजाय बड़ी बेशर्मी से एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगे हैं, जबकि इतने दिनों बाद भी राहत कार्य और खाद्य पदार्थों की पहुंच अपर्याप्‍त है. हैरानी की बात यह है कि इतनी दुर्व्‍यवस्‍था का आलम तब है, जब बाढ़ की समस्‍या बिहार के लिए नई बात नहीं...