मूर्ख भारत या धूर्त अमेरिका?

उदय केसरी
पुराने जमाने में सूदखोर साहूकार निर्धन ग्रामीण की ज़मीन हथियाने के लिए पहले उसे कम ब्याज पर बिन मांगे ऋण देता, उसका हाल-समाचार लेता, उसकी घर की समस्याओं में बढ़-चढ़कर मदद करता और फिर जब उस ग्रामीण पर ऋण और सूदखोर के अहसान का बोझ बहुत अधिक बढ़ जाते, तब वह अपने असल मक़सद की दिशा में चाल चलता कि ऋण का बोझ हल्का करने के लिए अपनी ज़मीन गिरवी रख दो...अहसानों व ऋण तले दबा गरीब ग्रामीण इसके लिए बाध्य हो जाता, जिसके लिए उसकी ज़मीन जीवनाधार है...पर उसे क्या मालूम सूदखोर के सारे अहसान बदनीयत थे और वह इसी वक्त की फिराक में यह सारा फ़रेबजाल बुन रहा था। ज़मीन गिरवी रखते ही सूदखोर दबंग हो जाता और निरक्षर, भोला-भाला ग्रामीण बेसहाय। और इस तरह ग्रामीण की ज़मीन सूदखोर हड़प लेता...यहां तक कि कई बार सूदखोर द्वारा हड़पी ज़मीन पर उसके वास्तविक मालिक को ही मजबूरन मजदूरी करनी पड़ती थी।
यदि इस प्रसंग पर हम आज के वैश्विक जमाने में गौर करें तो भाव एक जैसा ही प्रतीत होगा बस, अब पात्र व दौर का फर्क पायेंगे। अमेरिका को यदि विश्‍व का सबसे चतुर, चालाक बनिया या साहूकार माना जाता है, तो यह कोई मजाक नहीं है। अमेरिका के कृत्य ऐसे ही हैं, जो कभी तालिबानियों को अपने फायदे के लिए आतंक का रास्ता सुझाता है और काम निकल जाने या उसका बुरा परिणाम (9/11 के रूप में) खुद पर पड़ते ही आतंक को वैश्विक समस्या घोषित करने में एक पल भी देर नहीं करता। यहां तक कि बिना किसी की सहमति के अफगानिस्तान पर हमला बोल देता है।...ऐसा ही सद्दाम हुसैन के साथ किया। यही नहीं भारत-रूस दोस्ती पर अमेरिका की तल्खी भी जगजाहिर है और इसके नतीजे भी भारत को झेलने पड़े हैं। लेकिन इन सबके बावजूद जब से ग्लोबलाइजेशन की फील गुड संस्कृति की हवा चली है, तब से कौन बदनियत या धूर्त है और कौन भोला-भाला या मूर्ख, समझना मुश्किल हो गया है, क्योंकि इन सब सवालों पर सब्जबाग दिखाने वाली विश्‍व कल्याण की कोरी कल्पना हावी है।
ऐसे हालात में, अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु ऊर्जा करार कितना सही है? यह सवाल तो करार की प्रक्रिया शुरू होने के समय से ही प्रासंगिक है और इसी सवाल पर लंबे समय तक रार के बाद यूपीए सरकार के प्रमुख सहयोगी वाम दलों ने अपना समर्थन वापस ले लिया, जिसके परिणामस्‍वरूप केंद्र की राजनीति में ऐसी गंदी राजनीति बजबजाई कि उसकी दुर्गंध न केवल पूरे देश में फैली, बल्कि इसने संसद की मर्यादा को तार-तार करके रख दिया. केंद्र सरकार ने अविश्‍वास प्रस्‍ताव पर मतदान की प्रक्रिया में किस तरह से जीत हासिल की, उसे इतनी जल्‍दी भुलाया नहीं जा सकता. उस पर से विडंबना यह कि यह सडांध उस करार के नाम पर फैलाई गई, जिसके बारे में किसी को कोई सही जानकारी नहीं थी. न इसका विरोध करने वालों को और न ही इसके पक्षधरों को. वाम दलों का चरम विरोध भी ज्‍यादातर अमेरिका अथवा पूंजीवाद विरोधी जन्‍मजात घुट्टी का नतीजा था. वहीं इसके घोर पक्षधर केंद्र सरकार के प्रधानमंत्री या सोनिया मेमसाहब के मोहरे मनमोहन सिंह को भी अमेरिका के चतुरनार राष्‍ट्रपति जॉर्ज डब्‍ल्‍यू बुश ने गुमराह कर रखा था कि करार के बाद भी भारत के परमाणु प‍रीक्षण कार्यक्रम पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जबकि सच्‍चाई इसके उलट है, जिसका खुलासा 4-5 सितंबर को वियेना में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की बैठक के ठीक पहले अमेरिका के ही प्रमुख अखबार वाशिंगटन पोस्‍ट में किया गया है. दरअसल, करार संबंधी 26 पेज का दस्तावेज विदेश मामलों संबंधी कांग्रेस की स्थायी समिति के अध्यक्ष व करार विरोधी हावर्ड बरमैन ने सार्वजनिक किया है। इसमें करार को लेकर पूछे गए 45 सवालों पर जॉर्ज बुश प्रशासन के जवाब शामिल हैं। ये सवाल बरमैन के पूर्ववर्ती दिवंगत टॉम लैंटोस ने अक्टूबर में पूछे थे और बुश प्रशासन ने 16 जनवरी को इसका जवाब दिया था। तब भारत में करार को लेकर राजनीतिक विवाद के चलते अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने समिति से आग्रह किया था कि वे इसे सार्वजनिक न करें।
अब यह खुलासा करार के अंधे पक्षधरों के लिए शर्म से डूब मरने वाला है. लेकिन शर्म हो तब तो कोई असर पड़े, बजाए इसके, केंद्र के विदेश मंत्री ने चुप्‍पी साध ली है, वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह दुविधा में पड़ गए हैं और वाम दलों के लिए तो यह बिल्‍ली के भाग्‍य से छींका टूटने जैसा है.

8 comments:

  1. माननीय सर आपने जो भी लिखा है वह बहुत काबिले तारीफ है
    और रही बात अमरीका की तो वह तो ख़ुद ही बिन पैदी का लोटा है उसे तो आपनी बात मनवाने का मोका मिलना चाहिये और अपने राजनितिक दलालों की क्या कही जो जिस देस का खाते है उसी से गद्दारी करते है मै तो मानता हु की जब तक हम जैसे लोगे लोगो को जागरूक करने का काम नही करेगे तब तक हमे इसी तरह दुसरो के विचारो काम दास होना पडेगा आप जैसे लोगो की जरूरत हमेसा भारत को रहेगी
    आपका छोटा भाई सांतनु मिश्रा

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  2. माननीय सर आपने जो भी लिखा है वह बहुत काबिले तारीफ है
    और रही बात अमरीका की तो वह तो ख़ुद ही बिन पैदी का लोटा है उसे तो आपनी बात मनवाने का मोका मिलना चाहिये और अपने राजनितिक दलालों की क्या कही जो जिस देस का खाते है उसी से गद्दारी करते है मै तो मानता हु की जब तक हम जैसे लोगे लोगो को जागरूक करने का काम नही करेगे तब तक हमे इसी तरह दुसरो के विचारो काम दास होना पडेगा आप जैसे लोगो की जरूरत हमेसा भारत को रहेगी
    आपका छोटा भाई सांतनु मिश्रा

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  3. सबको भले ही मालूम न हो लेकिन बहुत लोगों को ये बात मालूम थी, फिर भी वे लोग चिल्लाते रहे कि यदि करार नहीं हुआ तो इतिहास कभी माफ नहीं करेगा. दरअसल आपने को कथा लिखी है. बस प्रसंगवश सही है. अमेरिका चतुर सूदखोर महाजन है और भारत छुद्र स्वार्थी नेताओं के हाथ में कैद बेबस किसान.

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  4. मेने कई बांलग पर ओर बीबी सी पर अपनी टिपण्णी पर यही बात कही थी, ओर जो सच हो गई, ओर अब मेम्साहिब के बाप का क्या गया, हरजाना त हमे भुगतना हे, अब भी कुछ नही बिगडा, नयी सरकार इसे कभी भी तोड सकती हे... लेकिन तब तक देर हो चुकी हो गी.

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  5. इस करार से देश्‍ा को क्‍या नुकसान होगा? हमारी सफेदी को इस बात की चिंता नहीं है. असल मुद्रदा कुछ और ही है. पक्ष के लिए यह प्रतिष्‍ठा का विषय बन गया है और विपक्ष के लिए सरकार को घेरने का साधन, वहीं वाम दलों के लिए सिर्फ पूंजीवाद के विरोध की परंपरा का निर्वाहन. यह तो केवल संयोग है कि अमेरिका के मंसूबे सामने आ गये और विरोधियों की बाते फलित होने लगी. असल विरोध तो तब कहा जा सकता है, जब इस करार के दुष्‍प्रभाव का सबको सही ढंग से भान होता और विरोध का उद्रदेश्‍य 'भारत की संप्रभुता को बनाये रखना होता, न कि एक दूसरी की टांग खींचना...

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  6. sir murkh bharat hi hai.jo is karar ke pichhe hath dho ke nahi naha dho ke pada hai.aaj obama ka bayan se saaph hai ki america ki niyati saph nahi hai.

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  7. आप सही कह रहे हैं.इन चीजों पर मुझे केवल यही समझ में आता है .
    समरथ को नही दोष गोसाई .चाहे अमेरिका हो चाहे भारत का नेत्रित्व अमेरिका का हित भारत से जानकारी छिपाने में है,तो भारतीय नेत्रत्व का यहाँ की जनता से.देश स्टार पर अमेरिका का बहुत बिरोध नही किया जा सकता है .तो एक बार वोट दे चुकाने के बाद हम (आम लोग )अपने नेतावो का कुछ उखार नही सकते वे चाहे जो करें यही हमारी मजबूरी है नही तो इतनी बड़ी डील बिना देश की राय जाने कराने की हिम्मत न होती.

    इनके पास एक अच्छा रास्ता यह भी है जानकारी छिपाने का, की हिन्दी क्षेत्र में इंग्लिश में विज्ञापन करें और.तमिल भाषी क्षेत्र में हिन्दी या पाली में.

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