अब जंग के वक्त देश मौन क्यों?

उदय केसरी  
१६ अगस्त के बाद देश को यदि जागा हुआ माना जाए, तो अब जंग के वक्त देश मौन क्यों है? शायद, यही सवाल उस ७४ साल के युवा की उपाधि पा चुके अन्ना हजारे के मन में उठा होगा, जिसका कोई जवाब नहीं मिलने पर उन्होंने अनिश्‍चितकाल के लिए मौन धारण कर लिया| हालांकि खुद अन्ना ने मौन की वजह आत्मशांति और अपनी नासाज सेहत की जरूरत को बताया और १२ बार पहले भी ऐसा कर चुकने की बात कही| लेकिन क्या यह उन करोड़ों युवा भारतवासियों को झकझोरने वाली घटना नहीं लगी? जिनकी जुबान यह कहते नहीं थक रही थी- मैं अन्ना हूं्| देश की गलियां, जिनके नाम से गूंजने लगी थीं और सड़कों पर जन सैलाब उमड़ पड़ा था, उस शख्स को आखिर अपनी ही अभिव्यक्ति पर क्यों विराम लगाना पड़ा?
इस पर मेरा जवाब शायद कुछ लोगों को जज्बाती लगे, लेकिन साफ है कि अन्ना की अगस्त क्रांति से देश के सबसे अधिक युवा समेत करोड़ों लोगों की आंखें जरूर खुलीं, लेकिन वे खुद के भीतर जंग में चौतरफा हमलों के बीच अपने जज्बे को बरकरार रखने का अटूट साहस नहीं जगा पाए| जबकि हमारी इस कमजोरी से इस देश पर राज करने वाले चतुर-चालाक नेता बहुत पहले से वाकिफ रहे हैं| हमारे अंदर क्षण भर में पैदा होने वाले देशप्रेम के जज्बे से इस देश के नेता केवल तब ही डरते हैं, जब वक्त उनके चुनाव का होता है, जो एक लंबे अंतराल के बाद आता है और तब वे जनता के एकदम वफादार सेवक का चोला और व्यवहार धारण कर लेते हैं-हमारे क्षणिक जज्बे को धोखा देने और सत्ता में आने के बाद अपनी आंखें तरेरने के लिए|
अन्ना की अगस्त क्रांति में हम-आप ने यदि कुछ वक्त के लिए ही अन्ना होने के जज्बे से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई हो, तो हमारे अंदर के उस अन्ना का दमन केंद्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस के चालबाज सिपाही कैसे कर रहे हैं, यह क्या किसी से छुपा हुआ है? नहीं, तो फिर हम मौन क्यों हैं? क्या इस देश में अभिव्यक्ति इतनी खतरनाक हो गई है कि देश के एक जाने-माने वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को उनके चैंबर में घुसकर एक सिरफिरा युवा बुरी तरह से पीट देता है और गर्व से खुद को छद्म सेना का सिपाही बताता है| यही नहीं, इसके खिलाफ जब टीम अन्ना के कुछ समर्थक आवाज उठाते हैं तो उन्हें भी उतनी ही बेरहमी से पीटा जाता है| कश्मीर मसले पर प्रशांत भूषण ने अपनी जो निजी राय व्यक्त की, उनसे पहले क्या ऐसी राय दिल्ली में ही प्रसिद्ध लेखिका अरूंधती राय ने नहीं व्यक्त की थी? की थी और यही बात उन्होंने कश्मीर में भी कही थी, तब उनके बयान के खिलाफ किसी छद्म सेना के सिपाही का खून इसी तरह से क्यों नहीं खौला?
जाहिर है, यहां मकसद देश की कथितअखंडता के खिलाफ बयान देने का नहीं है, बल्कि हमारे अंदर जागे अन्ना को दमन करने का है| यहां मैं अखंडता शब्द से पहले लिखे कथितशब्द का मतलब स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह वह अखंडता है, जिसकी बात करने वाले खुद, इस धर्मनिरपेक्ष भारत भूमि में, सांप्रदायिक विचारों के खंडों में बंटे हुए हैं| जहां तक कश्मीर को देश से अलग होने की छूट देने का सवाल है तो प्रशांत भूषण की राय से मैं सहमत नहीं हूं, लेकिन मैं आरएसएस, विश्‍व हिन्दू परिषद, शिव सेना, बजरंग दल व कथित राम सेना, भगत सिंह क्रांति सेना समेत सांप्रदायिक मुस्लिम संगठनों, चरमपंथी सिमी, बब्बर खालसा, कट्टर ईसाई मिशनरी आदि के सांप्रदायिक विचारों से भी सहमत नहीं हूं, और मैं क्या इस देश की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था इससे सहमत नहीं है| तो क्या उनके खिलाफ तब तक कोई हिंसक कार्रवाई की जाती है, जब तक कि उनके कारनामों से देश में सुरक्षा-व्यवस्था का कोई भयंकर संकट पैदा नहीं हो जाता? नहीं ना, क्योंकि देश की इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था से हमें अहिंसक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी मिला हुआ है|
लेकिन इस अधिकार पर ही नहीं, २००५ में बने सूचना के अधिकार (आरटीआई) पर भी कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के नेताओं का नजरिया बदलने लगा है| कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के जरिये टीम अन्ना पर हो रहे लगातार हमलों के बीच सूचना आयुक्तों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा यह बयान दिया जाता है कि आरटीआई कानून के दायरे पर पुनर्विचार करने की जरूरत है| क्या इससे जाहिर नहीं होता कि टीम अन्ना और भ्रष्टाचार के खिलाफ हिसार समेत देशभर में जगे अनेक अन्नाओं से खार खाई कांग्रेस की सरकार बदले की कार्रवाई कर रही है? ऐसे में, यही सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में क्या वाकई सख्त लोकपाल बिल लाने और उसे पारित करवाने का वादा पूरा करेगी? विश्‍वास करना मुश्किल है| केंद्र सरकार तो अब लोकपाल कानून के लिए टीम अन्ना द्वारा की गई ऐतिहासिक पहल को भी जैसे मिटाने की फिराक में है और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के उस प्रस्ताव पर विचार होने लगा है कि लोकपाल को एक संवैधानिक संस्था बनाया जाए, जिसे बनाने की प्रक्रिया, कानून बनाने से कहीं अधिक मुश्किल है| यानी सरकार की मंशा कुछ और ही है, मगर हैरत यह है कि...टीम अन्ना पर चौतरफा हमलों के खिलाफ और अपने मौलिक अधिकारों के रक्षार्थ जंग के इस वक्त में देश मौन क्यों है?
मासिक पत्रिका 'फ्लाइंग स्क्वाड' के नवम्बर अंक में प्रकाशित|

दिल्ली आखिर खुद पर क्यों गर्व करे ?

उदय केसरी  
जिस दिल्ली ने देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जनक्रांति का ऐतिहासिक आगाज देखा, उसी दिल्ली को महज ९ दिन बाद एक आतंकी बम विस्फोट में जनहानि और कई घरों में मातम देखना पड़ा, तो ऐसी दिल्ली को इस देश की राजधानी होने पर कितना गर्व होता होगा? यह सवाल भले ही तथाकथित एलीट क्लास के कुछ विचारकों और बुद्धिजीवियों को जज्बाती लगे, लेकिन क्या बिना किसी जज्बात के किसी देश का कभी भला हुआ है? दिल्ली के हाईकोर्ट परिसर में ७ सितंबर को, जो विस्फोट हुआ, उसे आतंकियों के दुस्साहस की कौन सी सीमा कहेंगे? इसी जगह पर महज चार महीने पहले ही उन्हीं आतंकियों ने इस बम विस्फोट की रिहर्सल की थी| कितनी लाचार हो गई है देश की व्यवस्था? कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पड़ता है-यह हमारी व्यवस्था की चूक है| ऐसी चूक का एहसास होने के बाद भी क्या किसी राष्ट्र का नेता चुप बैठ सकता है?...यह क्या हमारे नेतृत्वकर्ता की क्षमता पर एक बार फिर से प्रश्‍नचिन्ह खड़ा नहीं करता?
कायरता, जज्बात के अभाव और स्वार्थ की पराकाष्ठा से पैदा होती है| लेकिन इस जज्बात से देश के एक प्रसिद्ध न्यूज चैनल के एक स्टार एंकर महोदय इत्तेफाक नहीं रखते| वह ७/९ के बम विस्फोट की रात ही अपने चैनल पर एक परिचर्चा में खम ठोंककर कहते हैं- भले ही बाकी चैनलवाले इसे देश पर हमला कह रहे हों, पर मैं ऐसा नहीं कह सकता|
...क्या ऐसे पत्रकारों से देश का भला होने की उम्मीद की जा सकती है? यही नहीं, केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता शकील अहमद के जज्बात तो जैसे पार्टी की कुर्सी में सदा के लिए दफन हो चुके हैं| एक न्यूज चैनल पर वह मनिन्दरजीत सिंह बिट्टा के जज्बात के खिलाफ ऐसी संकीर्णता के साथ फटे कि उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है...माहौल इतना खराब हो गया कि उस चैनल को यह परिचर्चा बीच में ही बंद करनी पड़ी| जनता को सीख देने वाले ऐसे पत्रकार और प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे नेताओं के विचारों को क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की श्रेणी में रखा जाना चाहिए? इसका जवाब मैं आप पर छोड़ता हूं| लेकिन यह कहे बिना नहीं रह सकता कि राजधानी दिल्ली के हाईकोर्ट परिसर में हाई अलर्ट के बाद भी आतंकियों ने बम विस्फोट करके हमारे देश की संप्रभुता को एक बार फिर चुनौती दी है| यदि आतंकियों के इस दुस्साहस का माकूल जवाब नहीं दिया गया, तो और किसी को तकलीफ भले न हो, पर अतीत के पन्नों में दर्ज देश के अनगिनत वीरों की आत्मा को जरूर दुख होगा|
भारत के लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका संभवत: पूरी दुनिया में अलहदा है| चाहे देश पर कैसी भी आफत आ जाए, वह सत्तापक्ष यानी सरकार के खिलाफ तमाम तरह के दोषारोपण वाले बयान दे दे, बस इतने से ही उसकी देश के प्रति सभी जिम्मेदारियां पूरी हो जाती है| या फिर आफत यदि राजनीतिक हो तो सरकार को गिराने के लिए कोई भी कर्म-कुकर्म करने से न चूके, यही उसका परम धर्म होता है| मसलन, भाजपा के सबसे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ऐसे वक्त में एक बार फिर देश में रथयात्रा करने वाले हैं, जब पूरा देश भ्रष्टाचार, महंगाई और आतंकवाद से जूझ रहा है| उन्होंने यह ऐलान, नोट के बदले वोट कांड में अमर सिंह के साथ भाजपा के भी दो पूर्व सांसदों को जेल भेजने के विरोध में किया है और वे रथयात्रा के माध्यम से देशवासियों को यूपीए सरकार की असलियत बताएंगे|
किसी पार्टी या सरकार के प्रति देश की जनता की समझ क्या अब भी नेताओं के भाषणों की मुहताज है?...नहीं| वह जमाना बीती बात हो गई, जब धर्म के नाम राजनीतिक स्वार्थ के रथ पर सवार होकर देश की भोली-भाली जनता को बरगलाया जा सकता था| हाल ही में अन्ना के अनशन के पक्ष में बिना किसी कैम्पेन और भाषण के जिस तरह लोग स्वत: ही सड़कों और गलियों में तिरंगा लेकर निकल पड़े थे, उससे देश के नेताओं ने क्या कोई सबक नहीं लिया? प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा करने में अब तक विफल रहे लालकृष्ण आडवाणी अपनी उम्र की इस ढलान पर फिर से वही पुरानी चाल क्यों चल रहे हैं? क्या इससे देश में आतंकवादी हमलों को रोकने में मदद मिलेगी़? या केंद्र की सरकार की असलीयत जानकर जनता समय से पहले ही केंद्र की सरकार को सत्ता की कुर्सी से बेदखल कर देगी? राइट टू रिकॉल का हक तो अभी जनता को मिला ही नहीं है, तो फिर इस रथयात्रा से देश की समस्या का हल कैसे निकलेगा? बरसों से सोई जनता जब भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त लोकपाल कानून की मांग पर जागी, तभी तो भाजपा भी जागी| तो फिर जनता को अब क्या बताना शेष रह गया है?
जाहिर है, सत्तारूढ़ केंद्र सरकार के कांग्रेसी नेता व मंत्री सत्ता की मद में चूर देश के लोकतंत्र को जोकतंत्रबनाने पर तुल गए हैं, जिसमें विपक्षी पार्टियों की भूमिका भी कुछ कम नहीं है|...और दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की ऐसी दुर्दशा की सबसे बड़ी वजह, इसके प्रति यहां के शासकों और प्रशासकों में जज्बात का नहीं होना है|
मासिक पत्रिका 'फ्लाइंग स्क्वाड' के अक्टूबर अंक में प्रकाशित|

लेकिन जीत पर अब भी भरोसा नहीं

उदय केसरी  
 बेशक, 12-13 (288 घंटे) के अनवरत अनशन के दौरान किशन बाबू हजारे उर्फ अन्ना पूरे देश की जनता के दिलों में राष्ट्रनायक की तरह धड़कने लगे। लोगों के अंतस में कहीं सोई हुई देशभक्ति के जज्बे को जगाने में अन्ना आश्‍चर्यजनक तरीके से सफल भी रहे| यही नहीं, सख्त लोकपाल बिल के लिए अपनी तीन अहम शर्तों को मनवाने और उन्हें संसद से पारित करवाने में भी कामयाब हो गए| लेकिन अन्ना का अनशन टूटने के बाद क्या केंद्र की सरकार और संसद के तमाम सदस्य अन्ना के लोकपाल बिल को कानूनी रूप देने और उसे पूरे देश में पूरी सख्ती से लागू करवाने में भी तत्परता दिखाएंगे? भरोसा करना मुश्किल है, क्योंकि भरोसा सद्भावना से लिये गए फैसलों पर किया जा सकता है, मजबूरी या विकल्पहीनता की स्थिति में लिये गए फैसलों पर नहीं| १६ अगस्त से शुरू हुआ अन्ना का अनशन भी ५ अप्रैल को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना के चार दिनों के अनशन के बाद सरकार से मिले जोकपाल के रूप में धोखा का ही परिणाम था| और फिर इसबार की आर या पार के संघर्ष से पूर्व अन् ना या सिविल सोसाइटी के प्रमुख सदस्यों को जिस कदर बदनाम करने की कोशिश की गई, उसे भी भूलना नहीं चाहिए| इससे २ महीने पहले ही रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के अनशन को जिस तरह से आधी रात में कुचला गया, वैसा अंग्रेजो के जमाने में हुआ करता था| फिर १६ की सुबह क्या हुआ-अन्ना को बिना किसी अरोप या अपराध के उनके निवास स्थान से गिरफ्तार कर उन्हें उस जेल में डाल दिया गया, जहां जघन्य अपराधियों को रखा जाता है| इस घटना की खबर सुनकर अन्ना समर्थकों की भारी भीड़ जब तिहाड़ जेल के बाहर जमा हो जाती है तो फिर अन्ना को रिहाई देकर उन्हें जबरन दिल्ली के बाहर भेजने की तैयारी कर ली जाती है| वह तो ऐनवक्त पर यदि अन्ना को सरकार की इस चालबाजी का आभास या पता नहीं चलता, तब शायद इस क्रांति की तस्वीर इतनी चौंकाने वाली नहीं होती| अन्ना के इस अगस्त क्रांति के दौरान केंद्र की मनमोहन सरकार की भूमिका तो अंग्रेजों जैसी ही रही, जो हर वक्त आंदोलन को विफल करने या उसे दबाने की नापाक कोशिश करती दिखी, लेकिन साथ ही देश के विपक्षी पार्टियों की नीयत भी अन्ना के अनशन और मांग के प्रति साफ नहीं दिखी| प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की भूमिका तो सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूट पाए वाली थी| उसके भी सुर सरकार की तरह ही दिनोंदिन आंदोलन में बढ़ती स्वस्फूर्त जनभागीदारी के साथ बदली| यानी उन्होंने मजबूरी और अवसरवादी राजनीति की मांग को ध्यान में रखकर ही अन्ना के पक्ष में सुर बदले|
ऐसे में, कैसे भरोसा किया जा सकता है कि इस जीत के बाद यह सरकार और विपक्षी पार्टियां भ्रष्टाचार पर सख्ती से अंकुश लगाने वाले लोकपाल कानून को बनवाने और लागू करवाने में ईमानदारी और तत्परता दिखाएगी?
जाहिर है कि भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए महज एक कानून बनवाने के लिए जब पूरे देश की जनता को ऐतिहासिक आंदोलन करना पड़ा और तब जाकर सरकार झुकी, तो फिर उस कानून को सख्ती से लागू करवाने के लिए भी जनता को आंदोलन जारी रखना होगा| शायद इसका आभास इस आंदोलन के नेता अन्ना हजारे को भी है, तभी उन्होंने संसद में प्रस्ताव पारित होने के बाद जनता से कहा-यह आधी जीत है| यानी जितना संघर्ष अबतक हो चुका है, उतना या उससे अधिक संघर्ष और करना होगा| तब कहीं पूरी जीत हासिल होगी| वजह साफ है कि भ्रष्टाचार के दलदल में देश के नौकरशाह ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के अनगिनत नेता -कार्यकर्ता भी धंसे हुए हैं| फर्क बस इतना कि दलदल में कोई गले तक, तो कोई कंधे तक, कोई कमर तक तो कोई घुटने तक धंसे हुए हैं| बाकी ऐेसे नेता भी अनगिनत हैं जिनकी काली कमाई कमाई का खुलासा होना अभी बाकी है| अब ऐसे भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के चंगुल में दशकों से लुटते देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं नेताओं और नौकशाहों को सौंपी जाएगी तो उसके सफल क्रियान्वयन पर कैसे भरोसा किया जा सकता है?अन्ना के अनशन की आंधी से केवल केंद्र सरकार ही नहीं, विपक्षी पार्टियों के नेता भी घबराए हुए थे| चूंकि हमाम में तो सभी निवस्त्र ही हैं| इसका अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस संसद की मर्यादा को एक नहीं कई बार धो डालने वाले सांसदों को अन्ना के अनशन से संसद की गरिमा संकट में नजर आने लगी थी| नोट लेकर या फिर मलाईदार कुर्सी की चाह में अपने वोट का सौदा करने वाले सांसदों को अन्ना के अनशन में ब्लैकमेलिंग नजर आ रही थी|
यही नहीं कुछ तथाकथित बुद्घिजीवियों ने भी अन्ना के अनशन पर सवाल उठाए और अनशन को भटका हुआ गांधीवाद करार दिया| ऐसा कहने वालों में वे ज्यादा थे, जिन्होंने सबसे अधिक महात्मा गांधी की आलोचना की| ऐसे माहौल में यदि अन्ना को बिना अन्न के संघर्ष करने की जहां से ऊर्जा मिली उसका एकमात्र स्रोत देश की जनता में स्वत: उमड़े निष्कपट और अटूट प्रेम था| लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन के बाद देश के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी क्रांति हुई, जिसके बारे में सुविधाभोगी विचारकों और नीतिकारों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था|
अन्ना आंदोलन में देश के युवाओं जैसी भागीदारी निभाई है, उसका राष्ट्रीय नेतृत्व करने का सपना देखने वाले कांग्रेस के सबसे खास युवा नेता राहुल गांधी को पहले ७४ साल के युवा अन्ना हजारे से कुछ सीखना चाहिए| स्व. राजीव गांधी के पुत्र होने के नाते देश के लोगों को उनसे कुछ उम्मीद जरूर जगी थी, लेकिन अन्ना के आंदोलन में उनके भी चाल और चरित्र को जगजाहिर हो गया| अन्ना के अनशन पर पहले तो राहुल पूरी तरह से चुप्प रहेे और अनशन के ग्यारहवें दिन जब बोले तो अन्ना के लोकपाल बिल को भ्रष्टाचार रोकने में नाकाबिल कह दिया और चुनाव आयोग की तरह लोकपाल को एक संवैधानिक संस्था बनाने का एक नया विचार थोपने की कोशिश की| तो क्या राहुल गांधी को यह विचार तब नहीं आया जब सरकारी लोकपाल का प्रस्ताव तैयार किया गया? साफ है देश को चलाने वाले ऐसे नेताओं पर भरोसा करके भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुए आंदोलन को खत्म कर देना खुद के पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा|
मासिक पत्रिका 'फ्लाइंग स्क्वाड' के सितम्बर अंक में प्रकाशित|

जिस देश में आतंकी हमले सहनेवालों को बहादुर कहते हैं

उदय केसरी  
26/11 के बाद एक बार फिर मुंबई में 13/07 को हुआ आतंकी हमला देश के सुरक्षा तंत्र के लिए लानत ही है, लेकिन जब इसका एहसास इस तंत्र के मुखिया केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम तक को नहीं है, तो बाकियों को क्या होगा? वह तो यह कहते हुए अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हैं कि 26/11 के 31 महीने बाद मुंबई में पहली बार आतंकी किसी वारदात को अंजाम देने में सफल हो पाए हैं] तो क्या 31 महीनों बाद मुंबई की जनता ने अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी चिदंबरम से वापस ले ली थी?
सवाल कई हैं] जो मानवता के खिलाफ बम विस्फोट करते आतंकवादियों को रोक पाने या उन्हें सबक सिखाने में विफल भारतीय सुरक्षा तंत्र को कटघरे में खड़ा करते हैं, लेकिन असली मुद्दा इच्छाशक्ति और कर्तव्यों के प्रति वफादारी का है, जो शायद इस देश की शासन-सत्ता में बीती बात हो गई है। अब अपनी कमजोरियों, लापरवाहियों और अनियमितताओं को छुपाने के लिए एक जुमला निकल पड़ा है-सहनशीलता।
कोई भी हमारे घर में घुसकर हमें लहूलुहान कर जाता है और हम चंद जुमले उछालकर अपने-आप को ताकतवर साबित करने की कोशिश करने लगते हैं- लोगों ने बड़ी हिम्मत दिखाई, स्पिरिट ऑफ मुंबई, लोग बेखौफ होकर अपने-अपने काम पर निकले... बस बहुत हुआ यह झूठा जज्बा दिखाने का खेल। हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि हमारा नेतृत्व पूरी तरह कायर हो चुका है। हर हमले के बाद हमें आश्‍वासन मिलेंगे। शांति बनाए रखने की गुजारिश होगी। साक्ष्य जुटाए जाएंगे। जांच चलेगी। मृतकों-घायलों के जख्मों पर मुआवजे की मरहम लगा दी जाएगी। आतंकियों को कोसा जाएगा। पाकिस्तान को कोसा जाएगा। उसे घटना के साक्ष्य और आतंकियों की सूची सौंपी जाएगी। अमेरिका से दबाव डलवाने की कोशिश की जाएगी। शांति वार्ताएं थम जाएंगी। बयानबाजी होने लगेगी। पक्ष-विपक्ष आरोप और सफाई देते रहेंगे। मीडिया, लोगों के जज्बे को सलाम करता रहेगा।
तो इन सबके बीच हम क्या करें? देश की जनता क्या करे? फिर एक और हमले का इंतजार करें? फिर नए जख्म सहने के लिए खुद को तैयार करें? अगर देश में आतंकी हमले पहली बार होते, तो अलग बात थी, लेकिन हम हमेशा दहशतगर्दों के निशाने पर रहे हैं। इसके बावजूद भी हम इतने लापरवाह क्यों हैं? गृह मंत्रालय ने 4 जुलाई को अलर्ट जारी किया था कि लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा के आतंकी देश में आतंकवादी वारदात को अंजाम दे सकते हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) ने फरवरी में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकियों की बातचीत इंटरसेप्ट की थी, जिसमें जुलाई में इंडियन मुजाहिदीन द्वारा मुंबई पर हमले की बात कही जा रही थी। इस बातचीत में यह भी जिक्र था कि इंडियन मुजाहिदीन ने आतंकवादियों के दो नए समूहों को इस काम पर लगाया है, जिनका कोई पुराना रिकॉर्ड पुलिस के पास मौजूद नहीं है। महाराष्ट्र पुलिस के एटीएस ने भी हाल ही में इंडियन मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों- मुहम्मद मोबिन अब्दुल शकूर खान उर्फ इरफान और उसके चचेरे भाई अयूब राजा उर्फ अमीन शेख को मुंबई में हथियार सहित पकड़ा था। इन आतंकियों ने पुलिस को आगाह किया था कि मुंबई पर फिर हमला हो सकता है और आतंकवादियों का एक समूह यहां आतंक फैलाने का षड्यंत्र कर रहा है। लेकिन इन तमाम जानकारियों और आशंकाओं के बावजूद देश के सुरक्षा तंत्र ने कोई गंभीरता नहीं दिखाई। आखिरकार, आतंकी एक बार फिर अपने मकसद में कामयाब हो गए। क्या काम है एनआईए, सीबीआई, रॉ, एटीएस और खुफिया तंत्र का? देश के खिलाफ जंग छेड़ने वाले आतंकी कसाब को अभी तक हम फांसी नहीं दे पाए। संसद पर हमले का दोषी अफजल गुरू आज भी जिंदा है। १९९३ के मुंबई सीरियल बम कांड में 13 साल बाद कोर्ट का फैसला तो आया, लेकिन दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी, जहां अब भी इस केस पर सिर्फ सुनवाई चल रही है। 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मुहम्मद आरिफ के फांसी की सजा पर अभी तक सुनवाई जारी है। 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमलावरों को फांसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 2005 में दीपावली के मौके पर दिल्ली के बाजारों में हुई आतंकी घटना की सुनवाई अब भी चल रही है। 2006 में मुंबई लोकल ट्रेनों में विस्फोट करने वाले आतंकियों को अभी तक सजा नहीं मिल पाई है। यही रवैया इस बार भी दिखाई देगा। सालों तक जांच चलेगी। जांच पूरी होगी नहीं, और फिर एक हमला।
अगर हमारे देश के कानूनी प्रावधान इसकी वजह हैं, तो क्या ऐसे कानूनों में बदलाव नहीं किया जाना चाहिए? अफजल गुरू को फांसी देने में आखिर हमारी सरकार क्यों झिझकती रही है? हमारा नरम और लापरवाही भरा रवैया ही आतंकी हमलों की असल वजह है। हम सहते हैं और आतंकी, वार पर वार करते हैं। हम मुंहतोड़ जवाब नहीं देते और आतंकियों का हौसला बढ़ता जाता है। लेकिन अब बहुत हुआ, अब इस देश को झूठे आश्‍वासन नहीं चाहिए। अब देश एक और हमले का इंतजार नहीं कर सकता। आतंकी तो हमें कायर मान ही चुके हैं, तो क्या अब हम भी खुद को कायर मान लें?

हमने बार-बार सहनशीलता दिखाकर यह तो बता दिया कि हम शांति के पक्षधर हैं, लेकिन क्या अब हमें यह साबित नहीं करना चाहिए कि हम कायर नहीं है? क्यों हम बार-बार अपनी सेनाओं के हाथ बांध देते हैं? हाथ में सबूत है, परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो चुकी है और हमें जवाबी कार्रवाई का हक है, इसके बावजूद हम चुप क्यों बैठे हैं? हमें जवाब चाहिए, हमें जवाब चाहिए हमारी व्यवस्था से, जिसके हाथों हमने हमारा देश सौंप रखा है?
मासिक पत्रिका 'फ्लाइंग स्क्वाड' के अगस्त अंक में प्रकाशित