बाढ़ और भूख से जूझती लाचार जिंदगी

उदय केसरी
कल रात (सोमवार 1 सितंबर 08) हर रोज की तरह ही अपने बेडरूम में आराम से बैठा मैं वीडियो गेम की तरह टीवी के रिमोट से चैनल-चैनल' खेल रहा था। (चैनल-चैनल...आजकल प्रायः लोग अपनी टीवी पर खेलते हैं...मनोरंजन, न्यूज व अन्य चैनलों को मिलाकर इतने सेटेलाइट चैनल हो गये हैं कि दर्शकों को समझ में नहीं आता कि किसे देखे और किसे न देखे...और रिमोट के बटन दबाते-दबाते व विभिन्न चैनलों की झलकी लेते-लेते ही सारा वक्त गुजर जाता है।) खैर, कल रात की बात... चैनल-चैनल खेलते हुए जी न्यूज के दृश्‍य ने मुझे स्तब्ध कर दिया। मैं हर रोज का खेल भूलकर एकटक देखता रहा- वे दृश्‍य विचलित करने वाले थे। कई दिनों से भूखे बाढ़ पीड़ितों के बीच थोड़े से अनाज के पैकेट आते ही उसे पाने के लिए जानवरों की तरह टूट पड़ते लोगों के दृश्‍य...छीनाझपटी में किसी को कुछ नहीं मिल पाना और फिर एक बूढ़ी मां द्वारा जमीन पर गिरे, अनेक पैरों तले कुचले, धूल-धूसरित अनाज के दानों को चुन-चुनकर अपने आंचल में रखना, ताकि वह अपने भूख से बिलखते बच्चों को कुछ खिला सके...आंखें भर देने वाले दृश्‍य थे...एक गांव के सौ से अधिक स्त्री-पुरूष व बच्चे एक स्कूल की छोटी सी छत पर पिछले चौदह दिनों से खुद को जिंदा रखे हुए हैं...जिन्हें इतने दिनों बाद बाहर निकालने के लिए रिस्क्यू टीम के केवल दो बोट आ पाये थे...जीटीवी के एक संवाददाता से लिपटकर बच्चों की तरह रोता एक अधेड़ ग्रामीण...मौत के तांडव के बीच दूधमुंहे बच्चे के मासूम चेहरे और उसके कोमल होठों पर भूख के निशान...बता नहीं सकते कितने दर्दनाक दृश्‍य थे...उन्हें शब्दों में स्पष्ट बयां नहीं किया जा सकता...जी न्यूज के इस कार्यक्रम में बाढ़ की विभीषिका और उससे हुए जान-माल के नुकसान और इसके लिए जिम्मेदार सरकारी तंत्र या दो इंजीनियरों की लापरवाही आदि कई सवालों पर भी पड़ताल की गई...लेकिन मेरे मन-मस्तिष्क में इन सवालों से कहीं अधिक भूख के वे भयावह दृश्‍य कौंध रहे थे और उस कार्यक्रम के खत्म होने के घंटों बाद भी उसकी याद आते ही वे दृश्‍य साफ दिखने लगते हैं और मेरी संवेदना एक अलग ही सवाल करती है...कि क्या ये लोग बाढ़ आने से पहले सुखी-संपन्न थे. बाढ़ पीड़ितों के दृश्‍यों को देख ऐसा कतई नहीं लगता. वे गरीब मजदूर, किसान व निर्धन ग्रामीण थे, जिनके लिए रोज भूख का निदान ढूंढना सबसे बड़ा काम होता है। ऐसे में, बाढ़ ने उनकी आधी जान तो ऐसे ही ले ली होगी, फिर भी यदि वे मौत से लड़ रहे हैं और जिंदा हैं, तो यह जरूर उनके पिछले जन्‍म के पुन्‍यकर्मों का फल होगा...अन्‍यथा चौदह दिनों तक एक ऐसी जगह पर भूखे रात-दिन बीताना, जहां प्रत्‍येक को बैठने तक की पर्याप्‍त जगह नहीं हो, कोई सामान्‍य बात नहीं है...बाढ़ से बचाव करने या आपदा प्रबंधन में लापरवाही करने वाले नौकरशाहों या फिर कोसी नदी पर बने तटबंध की जर्जर अवस्‍था को नजरअंदाज कर गए इंजीनियरों को महज 24 घंटे ऐसी विभीषिका के बीच रहने के लिए छोड़ दिया जाए, तब ही उन्‍हें अपनी लापरवाही का अंदाजा होगा और पश्‍चाताप भी.
इस गलती का नतीजा इतना भयावह होगा, शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. बिहार के मधेपुरा, अररिया और सुपौल ज़िले, जो बाढ़ के कहर से सबसे अधिक प्रभावित हैं, में खबरों के मु‍ताबिक 20 लाख स्‍त्री-पुरूष व बच्‍चे बाढ़ की गिरफ्त में मौत और भूख से जूझ रहे हैं. कोसी का तटबंध नेपाल के कुसाहा में 18 अगस्त को टूटा था और अब जैसे-जैसे विभीषिका बढ़ रही है, सरकार और नौकरशाह अपनी गलती की नैतिक जिम्‍मेदारी लेने के बजाय बड़ी बेशर्मी से एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगे हैं, जबकि इतने दिनों बाद भी राहत कार्य और खाद्य पदार्थों की पहुंच अपर्याप्‍त है. हैरानी की बात यह है कि इतनी दुर्व्‍यवस्‍था का आलम तब है, जब बाढ़ की समस्‍या बिहार के लिए नई बात नहीं...

3 comments:

  1. बहुत बुरा हाल है बिहार में कुछ भी देखा नही जाता बहुत ही मार्मिक है ये सब।

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  2. dhikkar hai oon rajnitigyon par...
    unhe jara bhi sarm nahi aati hai abhi bhi besarmi se ek dusre par dosharopan kar rahe hain. Aaj jahan ekjut hokar samashya ka nidaan doondhna chahiye, wahan phanse lakhon logon ko kaise nikala jaye...
    jinhone mutthi bhar mitti nahi dali unhe dosharopan ka koi hak nahi banta hai.

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  3. sir channel-channel ka khel wali baat dil ko chhoo gayi.aur Bihar ki vibhishika ka kitna marm sparshi varnan kiya hai aapne

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