उदय केसरी
आपने हाल के एक-आध सालों में मीडिया में आये नाटकीय परिवर्तन पर गौर किया है? अखबार के पन्ने ही नहीं बढ़े हैं. यह (पत्र) से पत्रिका में तब्दिल होता जा रहा है. समाचार फीचर का रूप धरते जा रहे हैं...तब पत्रकारों की भावभंगिमा बदलना तो स्वाभाविक है, सो वे अब पत्रकार से कलाकर होते जा रहे हैं...अब तो पत्रकारिता पुरानी बात होती जा रही है, नयी बात अघोषित ही सही ‘पत्रिकाकारिता’ हो गई है. अव्वल तो यह कि एक बड़े अखबार का नाम ही पत्रिका रख लिया गया है.
पत्रों के पत्रिका बनने से सबसे बड़ा नुकसान वास्तव में मासिक, पाक्षिक व साप्ताहिक पत्रिका प्रकाशित करने वालों को हुआ है. उनका सर्कुलेशन घटने लगा है. उनके संवाददाताओं, उपसंपादकों व संपादकों को बिकनेवाला मसाला तैयार करने में इतना सर खपाना पड़ रहा है कि वे इससे बेहतर किसी अखबार को ही जॉइन कर लेना समझने लगे हैं...पिछले दिनों खबर लगी कि आउटलुक हिन्दी के संपादक श्री आलोक मेहता ने नईदुनिया अखबार समूह जॉइन कर लिया...और फिर ऐसा क्यों न करें जमाने के साथ बदलना तो पड़ता ही है. खादी का कुर्ता-पैजामा और थैले वाला दौर कैसे खत्म हुआ, वैसे ही सिंपल शर्ट-पैंट और हल्की दाढ़ी का दौर भी अवसान की ओर है. अब कारपोरेट लुक चाहिए, क्योंकि अखबार (यानी पत्रिका) के मालिक रातोंरात पत्रकारिता के मर्म समझने लगे हैं. मर्म यह कि पाठकों को केवल खबर नहीं, मनोरंजन भी चाहिए. भले ही इससे अखबार के मूल्य के साथ पत्रकारिता के मूल्य भी पेंदी छूने लगे. आप कहीं पेज थ्री के दौर पर तो नहीं सोचने लगे, वह भी पुराना हो चला है उसमें अब केवल पेज नंबर थ्री ही नहीं अन्य कई पेज और पुलआउट के रूप में अन्य कई पेजों की संख्या भी जुड़ गई है. खैर, इतना सब बदलने पर भी आपका सवाल हो सकता है कि क्या पत्रकार नहीं बदले?...क्यों नहीं बदले...बदलकर कुछ कलाकार हो गए और कुछ कुढ़कर बेकार. कलाकार हुए सो तर गए...कैसे? यह मत पूछिए, यह बस अब देखिए...खबरिया चैनलों पर...चेहरे पर मेकअप, कीमती कोट व टाई में बायें हाथ की कोहनी से टिककर एक से बढ़कर एक अंदाज में ‘खबर’ परोसते हुए. खबर की शक्ल में अपराध, सनसनी, अंधविश्वास, रहस्य, रोमांच और अब चुटकुले व मनोरंजन टीवी कार्यक्रम के रियलिटी शो भी बेचते हुए. यदि आप वास्तव में खबर पर विचार करेंगे, तो आपके सामने बरबस यह सवाल आ खड़ा होगा- 24 घंटे के खबरिया चैनलों पर कितने घंटे खबर? खैर, मैं बात कर रहा था अखबार के तेवर, कलेवर में आये बदलाव की...तो जैसा कि जमाने भर में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है, अखबार जगत में भी महिलाएं पुरूषों से कदम से कदम मिलाकर ही नहीं, एक कदम आगे चल रही हैं. शायद यह भी एक वजह हो सकती है कि पत्र अपना लिंग बदलकर पत्रिका हो गया है. इसलिए पत्रिका में छपने वाली चीजें अब पत्र या अखबार में छपने लगी हैं...मोहक तस्वीरें देखने और गॉसिप पढ़ने के लिए महीना-पंद्रह दिन या सप्ताह भर इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं...हर रोज सुबह हसीन हो पाठकों की...तभी अखबार की सार्थकता है और गलाकाट अखबार बाजार की मांग...ऐसे में कोई अखबार यदि विकास पत्रकारिता का झंडा बुलंद करने की कोशिश करता है, तो उसकी गति या दुर्गति की कल्पना करना स्वाभाविक है...तो क्या पाठकों का स्वाद बदल गया है? .....
आपने हाल के एक-आध सालों में मीडिया में आये नाटकीय परिवर्तन पर गौर किया है? अखबार के पन्ने ही नहीं बढ़े हैं. यह (पत्र) से पत्रिका में तब्दिल होता जा रहा है. समाचार फीचर का रूप धरते जा रहे हैं...तब पत्रकारों की भावभंगिमा बदलना तो स्वाभाविक है, सो वे अब पत्रकार से कलाकर होते जा रहे हैं...अब तो पत्रकारिता पुरानी बात होती जा रही है, नयी बात अघोषित ही सही ‘पत्रिकाकारिता’ हो गई है. अव्वल तो यह कि एक बड़े अखबार का नाम ही पत्रिका रख लिया गया है.
पत्रों के पत्रिका बनने से सबसे बड़ा नुकसान वास्तव में मासिक, पाक्षिक व साप्ताहिक पत्रिका प्रकाशित करने वालों को हुआ है. उनका सर्कुलेशन घटने लगा है. उनके संवाददाताओं, उपसंपादकों व संपादकों को बिकनेवाला मसाला तैयार करने में इतना सर खपाना पड़ रहा है कि वे इससे बेहतर किसी अखबार को ही जॉइन कर लेना समझने लगे हैं...पिछले दिनों खबर लगी कि आउटलुक हिन्दी के संपादक श्री आलोक मेहता ने नईदुनिया अखबार समूह जॉइन कर लिया...और फिर ऐसा क्यों न करें जमाने के साथ बदलना तो पड़ता ही है. खादी का कुर्ता-पैजामा और थैले वाला दौर कैसे खत्म हुआ, वैसे ही सिंपल शर्ट-पैंट और हल्की दाढ़ी का दौर भी अवसान की ओर है. अब कारपोरेट लुक चाहिए, क्योंकि अखबार (यानी पत्रिका) के मालिक रातोंरात पत्रकारिता के मर्म समझने लगे हैं. मर्म यह कि पाठकों को केवल खबर नहीं, मनोरंजन भी चाहिए. भले ही इससे अखबार के मूल्य के साथ पत्रकारिता के मूल्य भी पेंदी छूने लगे. आप कहीं पेज थ्री के दौर पर तो नहीं सोचने लगे, वह भी पुराना हो चला है उसमें अब केवल पेज नंबर थ्री ही नहीं अन्य कई पेज और पुलआउट के रूप में अन्य कई पेजों की संख्या भी जुड़ गई है. खैर, इतना सब बदलने पर भी आपका सवाल हो सकता है कि क्या पत्रकार नहीं बदले?...क्यों नहीं बदले...बदलकर कुछ कलाकार हो गए और कुछ कुढ़कर बेकार. कलाकार हुए सो तर गए...कैसे? यह मत पूछिए, यह बस अब देखिए...खबरिया चैनलों पर...चेहरे पर मेकअप, कीमती कोट व टाई में बायें हाथ की कोहनी से टिककर एक से बढ़कर एक अंदाज में ‘खबर’ परोसते हुए. खबर की शक्ल में अपराध, सनसनी, अंधविश्वास, रहस्य, रोमांच और अब चुटकुले व मनोरंजन टीवी कार्यक्रम के रियलिटी शो भी बेचते हुए. यदि आप वास्तव में खबर पर विचार करेंगे, तो आपके सामने बरबस यह सवाल आ खड़ा होगा- 24 घंटे के खबरिया चैनलों पर कितने घंटे खबर? खैर, मैं बात कर रहा था अखबार के तेवर, कलेवर में आये बदलाव की...तो जैसा कि जमाने भर में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है, अखबार जगत में भी महिलाएं पुरूषों से कदम से कदम मिलाकर ही नहीं, एक कदम आगे चल रही हैं. शायद यह भी एक वजह हो सकती है कि पत्र अपना लिंग बदलकर पत्रिका हो गया है. इसलिए पत्रिका में छपने वाली चीजें अब पत्र या अखबार में छपने लगी हैं...मोहक तस्वीरें देखने और गॉसिप पढ़ने के लिए महीना-पंद्रह दिन या सप्ताह भर इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं...हर रोज सुबह हसीन हो पाठकों की...तभी अखबार की सार्थकता है और गलाकाट अखबार बाजार की मांग...ऐसे में कोई अखबार यदि विकास पत्रकारिता का झंडा बुलंद करने की कोशिश करता है, तो उसकी गति या दुर्गति की कल्पना करना स्वाभाविक है...तो क्या पाठकों का स्वाद बदल गया है? .....
...तो क्या पाठकों का स्वाद बदल गया है?
कह सकते हैं, क्योंकि नहीं कहने का आधार धूमिल हो गया है। उसी तरह जैसे अफीम या चरस का धंधा करने वाले पहले तो युवाओं को अफीम या चरस मुफ्त में देते हैं, फिर आदत में शामिल होते ही उसे बेचने लगते हैं और इसकी आदत बुरी तरह से लग जाने पर धंधेबाज अफीम या चरस के मनमाने दाम वसूलने लगते हैं और एक वक्त ऐसा आता है जब अफीम या चरस के आदि हो चुके लोग इस नशे में पूरी तरह से बर्बाद हो जाते हैं. और फिर स्थिति ऐसी हो जाती है कि हम इस बर्बादी का दोष उस धंधेबाज को कम, इसमें पड़कर बर्बाद होने वाले को ज्यादा देते हैं. हमारी कलयुगी आदत लकीर पीटने की ज्यादा रही है, जिम्मेदार सांप को पकड़ने या उसे कुचलने की कम. हमारी यह भी आदत रही है कि ऐसे सांप जब बड़े और भयंकर हो जाते हैं तो उनकी पूजा भी करने लगते हैं. यानी ऐसे सांप के कृत्य सामाजिक परंपरा सदृश्य हो जाते हैं. फिर अखबार जगत की परंपरा में परिवर्तन लाने वाले सांपों को हम कैसे दोष दे सकते है, बल्कि यही कहेंगे कि पाठकों का ही स्वाद बदल चुका है. वह भी इतना बदल चुका है कि न्यूज चैनल वाले अनसेंसर्ड चित्र तक दिखाने के लिए बेकाबू हुए जा रहे हैं. फिल्म के बाद अब खबरों में भी सेक्स और नारीदेह सबसे अधिक बिकाऊ आइटम हो चुका है. ऐसा कुछ मिलते ही न्यूज चैनल वाले तमाम सामाजिक मर्यादा भूल कर मंजे हुए दलालों की तरह टूट पड़ते हैं ऐसी खबरों को परोसने और सबसे अधिक टीआरपी बटोरने में. तो फिर क्या अखबार वालों के कृत्यों को अलग से समझने की जरूरत है...नहीं. अंतर बस इतना है कि यहां टीआरपी का नाम बदलकर सर्कुलेशन हो जाता है, बाकी सारे हथकंडे वैसे ही है जैसे न्यूज चैनलों के. और इसीलिए अखबार को अपने मौलिक चरित्र से समझौता करना पड़ा है यानी पत्र से पत्रिका का रूप धरना पड़ा है...तो फिर कौन करायेगा अखबार को उसके मौलिक चरित्र या फिर पुरूषत्व का अहसास...जो पाठकों के स्वाद को ही नहीं, उनके चरित्र को भी प्रदूषित कर रहा है...ईश्वर जाने!!! (धन्यवाद)
yes sir,logon ke jayke ki tarah samachar patra ne bhi apn clavour badla hai.lekin sir kahan jakar rukegi be sir pair ki ye patrakarita.sir article padhkar chintan karne par majboor ho ham bhavi patrkar.
ReplyDeleteसर आपका सोचना लाजमी है की अखबार का कलेवर बदल रहा है इसमे कोई नई बात नही है बदलना जमाने का दस्तूर है लेकिन आपका यह सोचना की पत्रकार कलाकार होते जा रहे यह भी अपनी जगह ठीक है. यह सारा दोस खबरिया चैनल का है इसके लिये भी हमे मिलकर कदम बढाना होगा. आपने इस तरह कई विषय को उठाकर पहले कदम की सुरुआत कर दी. इसके लिये आप बधाई कई काबिल है.
ReplyDeleteaachha laga...
ReplyDeleteजो कुछ लिखा है यथार्थ के काफी निकट तक है लेकिन पत्रकार कलाकार होते जा रहे हैं यह है तो सही लेकिन इसकी वजह क्षमा कीजिएगा पत्रकारों की वह नई कौम(सभी नहीं)है जो डिग्री तो पत्रकारिता की हासिल कर लेती है लेकिन पत्रकारिता कैसे की जाती है उसे वह पता ही नहीं होता. डिग्री के बाद नौकरी फिर खबर लाने का दबाव सो जो मिला रंग कर ले आए. दरअसल मेरा अपना अनुभव जो है उसके अनुसार ७० फीसदी यह कौम अभी भी नहीं जानती की कितने विभाग होते है और उनसे क्या खबर बनती है. मैं जिस क्षेत्र में हूं यहां की ९० फीसदी पत्रकारिता घटना पर होती है. इन्हें नहीं मालूम होता कि आदिम जाति कल्याण विभाग क्या होता है वहां क्या खबरे होती है. उन्हें नहीं मालूम होता कि जिला पंचायत की कितनी योजनाएं हैं और उनमें क्या खबर होती है. उन्हें यह भी नहीं मालूम होता कि सरकारी राशि जो हितग्राहियों के लिये स्वीकृत होती हैं उसमें कैसे खेल किये जाते हैं, सरकारी राशि को कैसे बैंक बगैर ब्याज दिये अपने पास रखकर अपना फायदा करते हैं, वे यह नहीं जानते डीएलसीसी बैठक में प्रस्तुत डाटा से कैसे खबर बनती है... माफ कीजीएगा जब पत्रकारों को यह जानकारी ही नहीं होती की खबर क्या है और कहां है तो फिर उनके पास जो बचता है वह होता सिर्फ मसाला ... मेरा कहने का आशय शायद आप समझ गए होंगे. इसलिये पहले हमें खुद को इस योग्य तैयार करना होगा फिर हमें स्तरीय खबरे मिलेंगी तब जाकर सही पत्रकारिता सामने आएगी अन्यथा हम यूं ही दोष मढ़ते रहेंगे.
ReplyDeleteरही बात कलेवर बदलने की तो पत्रकारिता समाज का आइना है जो वहां बदलाव होगा वह यहां भी दिखाई देगा.
रमाशंकर शर्मा