कुआं व खाई के बीच फंसी अभिव्यक्ति

उदय केसरी
कई दिनों से मन में एक द्वंद्व है कि इस आजाद लोकतांत्रिक देश में जब सत्ता और संपत्ति, तमाम आचार-विचार-संवाद और जनविरोध-प्रदर्शन-भूख हड़ताल या अनशन से व्यवहारिक तौर पर बड़ी हो चुकी है, तब फिर अभिव्यक्ति की आजादी क्या कभी सत्ता एवं संपत्ति वानों की आत्मा जगा पाएगी?....नहीं ना!....तो फिर क्या यही अभिव्यक्ति जनता को उद्वेलित नहीं करेगी?...हां!...तो क्या यह सत्ता और संपत्ति वानों को कभी मंजूर होगा? नही ंना!....ऐसे में क्या सच को सच्चाई के साथ अभिव्यक्त करने वालों के समक्ष इससे-एक तरफ कुआं दूसरी तरफ खाई-वाली स्थिति पैदा नहीं होती? दरअसल,

‘चोरों’ की मदद से ‘डकैतों’ से बाबा की जंग

उदय केसरी
काफी दिनों की चुप्पी के बाद भाजपा ने टीम अन्ना के राजनीतिक पार्टी बनाने के फैसले पर अब अपनी बौखलाहट जाहिर की है। इससे यह साफ हो गया है कि भाजपा को भी भ्रष्टाचार के मुद्दे से नहीं, बल्कि महज सत्ता से मतलब है।

ये क्या हो रहा है देश में?

उदय केसरी 
ये क्या हो रहा है देश  में? नैतिकता और कर्तव्यों का गला घोंट का भ्रष्टाचार और लूट; सरकारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा रूपी खंजर से जन आंदोलनों की हत्याएं; महंगाई की मार से कराहती जनता को मोबाइल देने की योजना-क्या इसे ही लोकतंत्र कहते हैं? वह भी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र। शायद नहीं, बल्कि यह परोक्ष अराजकता है।

भटक वे नहीं, मीडिया गया है

उदय केसरी
मेरे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकार साथियों का टीम अन्ना के समर्थन को लेकर प्रायः मतभेद होता है। वे टीम अन्ना की हर छोटी-बड़ी गलतियों और उनपे लगने वाले आरोपों व उठने वाले सवालों को आधार बनाकर टीम अन्ना के प्रति मेरे सकारात्मक विचारों को खंडित करने की कोशिश करते हैं। मैं हर बार उनसे कहता हूं कि व्यक्ति या संगठन से कहीं बड़ा उसके विचार और मकसद होते हैं।

नीतीश की धर्मनिरपेक्षता व ममता की नाराजगी के मायने

उदय केसरी 
देश की राजनीति में देश कहीं पीछे छूटता जा रहा है। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन जनता को बार-बार इसे याद कराना भी जरूरी है, क्योंकि जनता से जुड़े मुद्दे अब सियासत के गलियारों में सत्ता और अहम के मुद्दों के आगे दम तोड़ने लगे हैं। देश के नाम पर और जनता के वास्ते अनेक राजनीतिक दल मौजूद हैं, लेकिन गौर करें तो लगभग पार्टियां पाइवेट लिमिटेड कंपनी जैसी या ऐसी कंपनियों के लिए हो चुकी हैं।

अच्छे दाम पर भद्दी चाय का प्लैटफार्म

उदय केसरी
भारत में ही नहीं, चाय दुनियाभर में लोकप्रिय पेय है। अपने देश  में चाय तो जैसे ज्यादातर लोगों की शक्ति, स्फूर्ति का राज हो। इसे पीए बिना जैसे कोई काम न हो। तभी सुदूर गांव से लेकर मैट्रो शहर तक कोने-कोने में भले ही आपको और कुछ मिले न मिले पर चाय की छोटी-बड़ी दुकान मिल ही जाएगी।

अब क्यों प्रतिक्रियावादी हो रहे हैं प्रधानमंत्री ?

उदय केसरी 
देश  बहुत मुश्किल  दौर से गुजर रहा है। सरकार और उसके नीति-नियंता अनिर्णय की स्थिति में हैं। महंगाई चरमसीमा की ओर बढ़ रही है। आम जनता कराह रही है। इन बातों से देश  का हर एक आम नागरिक निराश  और दुखी है, सिवाय कांग्रेस के शीर्ष नेताओं और यूपीए सरकार के।

गलतियों के बाद भी देशहित में टीम अन्ना की प्रासंगिकता जरूरी

उदय केसरी  
टीम अन्ना ने फिर हुंकार भरी है। टीम अन्ना ने यूपीए सरकार के 14 कैबिनेट मंत्रियों के अलावा भ्रष्टाचार के आरोप से अबतक अछूता रहे प्रधानमंत्री पर भी पहली बार भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं। प्रधानमंत्री समेत 15 मंत्रियों के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं, उनके आधार तथ्यों के नामवार पुलिंदें भी तैयार किए गए हैं।

मोदी के आगे दंडवत भाजपा का सच

उदय केसरी  
केंद्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार लगातार खुद अपने हाथों अपना कब्र खोदने में लगी है। बेहिसाब महंगाई और पेट्रोल के दाम में अपूर्व वृद्धि से साफ होने लगा है कि सरकार को शायद अब सत्ता की फिक्र नहीं रही है। ऐसे में हालत में यदि चुनाव की नौबत आ जाए तो कई बुराइयों के बाद भी एंटी इनकम्बेंसी का सबसे अधिक लाभ भाजपा को मिलने के अनुमान लगाए जा रहे हैं। जाहिर है कि भाजपा यूपीए-2 की नाकामी और बदनामी से खुश तो बहुत होगी। लेकिन मुंबई में भाजपा की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से ठीक पहले भाजपा में जो घटना हुई है, उसने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है। भाजपा ने जिस तरह से ऐन वक्त पर संजय जोशी की बलि लेकर नरेंद्र मोदी को कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने के लिए मनाया है, उससे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के कयास को बल मिला है। बहस इन सवालों पर कि क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के लायक हैं? हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाने वाले नरेंद्र पर से 2002 में लगे गुजरात दंगों के दाग धुल गए हैं? मोदी को वाकई में विकास पुरुष माना जा सकता है? गुजरात की जमीनी हकीकत प्रचारित विकास मॉडल से कितना अलग है? और कई सवालों पर बहस होने लगा है। लेकिन मेरे सवाल यह हैं कि क्या भाजपा में नेताओं की कमी हो गई है? भाजपा क्या अपने संगठन धर्म को भूल चुकी है? क्या भाजपा नरेंद्र मोदी को इसलिए महत्व दे रही है, क्योंकि गुजरात के तथाकथित विकास से मोदी को काफी लोकप्रियता मिली और वह लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने?
     दरअसल, देश 2002 के गुजरात दंगों के दर्दनाक दृश्य को अबतक नहीं भूल पाया है। इस दृश्य के कसूरवार के तौर पर नरेंद्र मोदी को देखा जाता है। कानूनी तौर पर भी मोदी की छवि से यह दाग अबतक नहीं धुला है। ऐसे में भी यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में पेश करने पर विचार रही है, तो यह कदम भाजपा के साम्प्रदायिक छवि को और गहरा करेगा। वहीं इस कदम के नतीजे का अंदाजा पिछले चुनाव से लिया जा सकता है, जब लालकृष्णा आडवाणी को प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में पेश किया गया था। आडवाणी को भी जनता साम्प्रदायिकता की छाया में ही देखती रही है। वैसे भी, पिछले आम चुनाव और गुजरे कई विधानसभा चुनावों में धर्म, जाति व क्षेत्र के मुद्दे विकास के आगे क्षीण हुए हैं। विकास का मुद्दा देशभर में सबसे अहम चुका है।
    ऐसे में यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में भी पेश करती है तो भी सवाल है कि भाजपा की राय क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह बारे में विकास पुरुष वाला नहीं है? दरअसल भाजपा यदि वाकई में किसी गैर-साम्प्रदायिक छवि वाले विकास पुरुष को अपना नेता बनाने के पक्ष होती तो नरेंद्र मोदी की जगह वह शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह को ज्यादा तवज्जो देती है। ये दोनों मुख्यमंत्री भी संगठन की बजाय अपनी छवि और विकास के मुद्दों के दम पर लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं। इसके बाद भी यदि एनडीए के नेता के रूप देखा जाए तो शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के अलावा एक तीसरा नाम भी अहम है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का। ये तीनों नाम ऐसे हैं जो न सिर्फ लगातार दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुए हंै, बल्कि अपने प्रदेशों में विकास को एक सराहनीय गति प्रदान किए हैं, वहीं इनपर न किसी दंगे में बहे खून के  छीटें हैं और न ही मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता के दाग।
       इन सवालों पर जारी बहसों में के बीच सवाल यह भी है कि भाजपा में आखिर नरेंद्र मोदी को इतनी महत्ता क्यों दी जा रही है? इसका जवाब इस तथ्य में देखा जा सकता है कि भाजपा संगठन को सबसे अधिक आर्थिक संपोषण गुजरात से हो रहा है। फिर नरेंद्र मोदी के नाम पर धनवर्षा की जो गुंजाइश है, वह अन्य किसी पार्टी नेता के नाम पर कम ही नजर आती है। और लाख टके का सवाल यह कि इस दौर में बिना धन के चुनाव आखिर कौन पार्टी जीत पाती है?  

मुश्किल में देश, ठोस नेतृत्व की दरकार

 उदय केसरी 
 देश काफी अजीबो-गरीब दौर से गुजर रहा है। केंद्र की यूपीए सरकार ने अपनी दूसरी पारी का तीसरा साल पूरा कर लिया है। इस पारी के ये तीन साल बड़ी मुश्किल से पूरे हुए हैं। घोटालों के फोड़ों के बदबूदार जख्म और भ्रष्टाचार विरोधी कोड़ों की मार से सरकार बेहाल रही है। वहीं इस दौर में महंगाई की मार से जनता इस कदर परेशान है कि उसका तो जैसे सरकार पर भरोसा ही उठ गया है। यूपीए की दूसरी पारी में गैरों (विपक्ष) के साथ-साथ अपनों (गठबंधन दलों) ने हर मुद्दे पर सरकार को निचोड़ा है। नतीजतन, सरकार बहुत कमजोर और दुबली हो चुकी है। फिलहाल यह सरकार बड़ी मुश्किल से सांस ले पा रही है। ऐसी अवस्था में यह सरकारअपने शेष दो साल पूरा करने से पहले भी लुढ़क सकती है। ऐसी आशंका पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के कई धुरंधर नेता कर रहे हैं। यूपी में धमाकेदार जीत दर्ज कर केंद्र की राजनीति में काफी मजबूत दिख रहे मुलायम सिंह ने तो चुनाव खत्म होते ही अपने कार्यकर्ताओं को आम चुनाव की तैयारी में लग जाने का निर्देश दे दिया था। इसके बाद अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी हाल में ऐसा ही निर्देश अपने कार्यकर्ताओं को दिया है। अपने कार्यकर्ताओं को ममता ने तो यह भी कहा था कि वाम दल इसकी तैयारी में पहले से ही लग चुके हैं। जाहिर है केंद्र की सत्ता यूपीए के नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के नियंत्रण से बहुत तक बाहर हो चुकी है। एबीपी न्यूज-नीलसन के सर्वे ने तो जैसे इस बात की तस्दीक कर दी है। इसके मुताबिक 57 फीसदी लोगों का मत है कि मौजूदा यूपीए सरकार आजाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार है। सरकार के लिए परेशानी की बात यह है कि पिछले साल जहां 45 फीसदी लोगों ने सरकार को भ्रष्ट माना था, वह आंकड़ा अब बहुमत को पार करके 12 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ 57 फीसदी पर पहुंच गया है।
    सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी से यूपीए की पहली पारी में जनता को उम्मीद की नई किरणें अवश्य दिखी थीं। वे किरणें दूसरी पारी में अंधेरे में तब्दील हो चुकी हैं। यूपी चुनाव के बाद राहुल गांधी की जैसी छवि उभरकर सामने आई है, वह जनता के लिए निराशाजनक है। मनमोहन सिंह तो पहले से ही यह जाहिर कर चुके हैं कि यूपीए की सरकार में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की कुर्सी में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों का नियंत्रण कहीं और से होता है। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की इस विवशता को अब पूरा देश समझ चुका है। यही वजह है कि इस सरकार पर तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद भी मनमोहन सिंह को व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार बताया जाता है। सवाल है यूपीए सरकार की पहली पारी से दूसरी पारी में आते ही ऐसा क्या हो गया है, जिससे देश की, औसत दर्जे की ही सही, खुशहाली पर ग्रहण लग गया है। 
    दरअसल, पिछली यूपीए सरकार के रास्ते में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर वाम दलों ने काफी रोड़े अटकाए थे, लेकिन इसके बावजूद नीतिगत मसलों पर वह आगे बढ़ती गई थी। लेकिन यूपीए-2 में सरकार में किसी भी मुद्दे पर सरकार कोई निर्णय नहीं ले पा रही है। अनिर्णय की इस दशा में देश कहीं रुक या पिछड़ सा गया है। सरकार सबसे अधिक महंगाई से परेशान है, जो अप्रैल में दहाई के आंकड़े में पहुंच गई है। इतना ही नहीं विनिर्माण और कर संग्रहण के क्षेत्र में भी गिरावट ने सरकार की रातों की नींद उड़ा रखी है। अर्थशास्त्री से राजनेता बने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर पहले कार्यकाल में अपनी सरकार पर बड़ा दांव खेला था, लेकिन वह भी इस बार 2जी स्पेक्ट्रम समेत विभिन्न घोटालों में ऐसी उलझी है कि उससे निकल पाना मुश्किल हो रहा है। वहीं राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले ने पहले ही सरकार की छवि को आघात पहुंचाया है।
    हालांकि सरकार की बेहतर छवि पेश करने के लिए बनाए गए मंत्रियों के समूह के प्रमुख सदस्य और विधि मंत्री सलमान खुर्शीद का मनमोहन सिंह के बारे में कहना है कि, ‘मुझे नहीं लगता कि इस समय हमारे पास उनसे बेहतर कोई व्यक्ति हो सकता है। ऐसे समय में जब हम दबाव में हैं और भारत के शासन को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। हमारे पास सिंह से अच्छा व्यक्ति हो ही नहीं सकता।’ जाहिर है कांग्रेस के पास राहुल गांधी या अन्य कोई नाम अब ऐसा नहीं बचा है, जो जनता में भरोसे की डोर को फिलहाल थाम सके। सवाल है कि यदि इतने काबिल अर्थशास्त्री के हाथों में भी देश की अर्थव्यवस्था की डोर कमजोर पड़ रही है तो फिर इस देश को आखिर महंगाई और भ्रष्टाचार की मार से कौन बचा पाएगा?
    एबीपी न्यूज-नीलसन के सर्वे में जनता के सामने प्रधानमंत्री पद पर अपनी पसंद बताने के लिए तीन नाम रखे गए थे। ये तीन नाम थे- नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह और राहुल गांधी। इस सर्वे का जो निष्कर्ष निकला, उसमें मोदी को 17 फीसदी जनता ने पसंद किया तो मनमोहन सिंह को 16 फीसदी लोग ने, वहीं राहुल गांधी को बतौर प्रधानमंत्री 13 फीसदी जनता अपना समर्थन देने को राजी हुई। जनता की पसंद में महज एक से चार फीसदी अंतर यह स्पष्ट करते हैं कि यह पसंद कम मजबूरी अधिक है। देश के प्रधानमंत्री के तौर पर जनता के सामने प्रधानमंत्री पद के लिए यदि यही सबसे बड़ विकल्प हैं तो यह चिंताजनक स्थिति है। ऐसे में यूपी चुनाव के बाद से देश की राजनीतिक गलियारों से, जो तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट रह-रहकर आ रही है, उसे अब खुले तौर पर सामने आ जाना चाहिए। इससे पहले कि देश के नेतृत्व को लेकर जनता का भरोसा पूरी तरह से न उठ जाए। 

अब सरोकार में भी कारोबार की संभावनाएं

उदय केसरी  
 हिन्दुस्तान का नवधनाड्य वर्ग, जिसकी एक अलग पहचान है। वह अपने बिजनस और मालदार नौकरी से पागलपन ही हद तक प्रेम करता है। गरीबी की कल्पना करके भी वह सिहर उठता है। इस वर्ग की मां उदारीकरण को कह सकते हंै। 1990 के बाद तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा लागू की गई यह नीति अब दो दशक से अधिक पुरानी हो चुकी है, इसलिए इससे पैदा हुए नवधनाड्य वर्ग भी अब जवान हो चुका है। कॉरपोरेट जगत इसी वर्ग की बसाई दुनिया है, जिससे अब हर कोई वाकिफ हो चुका है। इन दो दशकों में नवधनाड्य वर्ग के कॉरपोरेट जगत ने इतने रुपए और शोहरत कमाए हैं कि हिन्दुस्तान का हर एक नौजवान इस दुनिया का निवासी, प्रवासी होने के सपने देखता है। उनमें से कई के सपने साकार भी हो रहे हैं। देश में कॉरपोरेट कंपनियों की संख्या आबादी की दर से बढ़ रही है। बिजनस के तमाम संभावनाओं को खोद-खोद कर निकाले जा रहे हैं। इससे भी कुछ नहीं मिले तो छोटे-छोटे परंपरागत कुटीर व्यापारों को विज्ञापन और रैपर की चमक दिखाकर हथिया लिया जा रहा है। समाज की कोई भी ऐसी जरूरत की चीज इस वर्ग की नजर से नहीं बची है-फिर से चाहे अगबत्ती हो या आचार-पापड़, आटे की पिसाई हो या तेल की पेराई।
आप सोच रहे होंगे इस मुद्दे की चर्चा मैं यहां फिलहाल किस संदर्भ में कर रहा हूं, तो बता दूं कि इस नवधनाड्य वर्ग के पास फिलहाल बिजनस करने के लिए पूंजी की भरमार है, लेकिन वे बिजनस किस चीज का करें, उन्हें शायद इसकी कमी हो रही है। इसलिए वे अब उन विचारों को भी अपने बिजनस आइडिया बनाने के लिए तैयार हो रहे हैं, जिसे पूंजीपति वर्ग ने कभी फायदे का सौदा नहीं समझा और सदा ऐसे विचारों और इसके समर्थकों की उपेक्षा की। विचार-बुनियादी विकास के, सामाजिक सरोकारों के। ‘सत्यमेव जयते’ टीवी शो के व्यापार को इसके ताजा उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है। इस शो की लागत और कारोबार पर थोड़ा गौर करें तो नवधनाड्य वर्ग के जवां हो चुके व्यापारिक कौशल का अंदाजा आप आसानी से लगा पाएंगे। इस शो के सबसे बड़े एक्स फैक्टर आमिर खान इसके हर एपिसोड के लिए 3 करोड़ रुपए फीस ले रहे हैं, जबकि एक एपिसोड की पूरी लागत 4 करोड़ रुपए है। इसमें यदि आमिर की फीस अलग कर दें तो महज एक करोड़ रुपए में पूरा कॉन्सेप्ट, रिसर्च, फिल्मांकन आदि तमाम उपक्रम किए जा रहे हैं। साफ है कि बुनियादी विषयों को बेचने की वस्तु तो बनाया गया, लेकिन अब भी इन विचारों के संवाहकों की कीमत उपेक्षात्मक ही है। अब जरा इस शो की कमाई पर नजर डाल लें तो यह संदर्भ दिन की तरह साफ हो जाएगा। भारत की सबसे बड़ी मोबाइल टेलीकॉम कंपनी भारती एयरटेल लिमिटेड इस शो की मुख्य प्रयोजक है, जिसने इसमें 18 करोड़ रुपए लगाए हैं। वहीं वॉटर प्यूरीफायर कंपनी एक्वागार्ड ने इसमें16 करोड़ रुपए लगाए हैं।  इसके अलावा शो के सह प्रायोजकों में एक्सिस बैंक लिमिटेड, कोका कोला इंडिया, स्कोडा आटो इंडिया, बर्जर पेंट्स इंडिया लिमिटेड, डिक्सी टेक्स्टाइल प्राइवेट लिमिटेड और जॉनसन एंड जॉनसन लिमिटेड हैं। इन 6 कंपनियों ने भी 6-7 करोड़ रुपए (सभी का मिलाकर लगभग 40 करोड़ रुपए) शो में लगाए हैं। यही नहीं, इस शो के एड स्लॉट अबतक के सबसे अधिक भाव में बेचे जा रहे हैं। प्रत्येक 10 सेकेंड के एड स्लॉट के लिए पूरे दस लाख रुपए लिए जा रहे हैं। इस तरह देखा जाए तो यह शो कई गुना फायदे में चल रहा है। अब जरा इस सच को भी जान लें कि इस शो में दर्शकों द्वारा सबसे अधिक क्या पसंद किया जा रहा है-आमिर खान को या सामाजिक सरोकार के मुद्दों को। गूगल इंडिया के अनुसार, देश में इंटरनेट का उपयोग करने के आदी लोग इस शो के लिए अधिक से अधिक तथ्यों की तलाश कर रहे हैं। गूगल के जरिये ज्वलंत मुद्दों के बारे में तथ्यों की तलाश करने वालों की बढ़ती संख्या इस बात का संकेत है कि 'सत्यमेव जयते' की लोकप्रियता 'आमिर खान' से कहीं अधिक है।
जाहिर है बिजनस करना है, पूंजी भी है तो हर उस चीज पर ग्लैमर का तड़का मार कर फायदे कमाए जा सकते हैं, जिसे पूर्वाग्राह से ग्रस्त धनाड््यों ने पहले कभी तरजीह नहीं दी। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही आपको बता दिया कि नवधनाड्यों की फौज ने हिन्दुस्तान में बाजार की जमकर खोज की है और इसे उन्होंने वैश्विक स्तर पर ख्यात कर दिया है। इसके उन्हें फायदे भी मिले तो गंभीर प्रतिस्पर्द्धा के रूप में नुकसान और परेशानियां भी। लेकिन इससे देश की गरीबी, उसकी बुनियादी समस्याओं पर कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि वे पहले से ज्यादा बढ़ते चले गए, जिससे नवधनाड्यों से नीचे के तमाम वर्ग पहले की तरह ही त्रस्त हैं। ऐसे में, पिछले दिनों एक खबर दिल को तसल्ली देने वाली प्रतीत हुई। बॉलीवुड के मेगास्टार अमिताभ बच्चन ने कर्ज से दबे विदर्भ के 114 किसानों के कर्ज चुकाने के लिए उन्हें 30 लाख  रुपए दान दिए हैं। यह दान उन किसानों को खुदकुशी के फंदे से उतारने और जीवनदान देने जैसा है। लेकिन अमिताभ ने ऐसा किस उपलक्ष्य या संदर्भ में किया, इसकी उन्होंने मीडिया समेत किसी को भी जानकारी नहीं दी। वैसे, अमिताभ ने शायद बहुत अर्से बाद ऐसी कोई पहल की है, जिसमें विशुद्ध सामाजिक सरोकार प्रदर्शित होता है। फिर भी अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है क्योंकि आमिर खान पर भी यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि उन्होंने पूर्व में सामाजिक मुद्दों और अभियानों में जिस तरह हिस्सा लिया, उसी का फायदा उन्हें ‘सत्यमेव जयते’ कार्यक्रम की एंकरिंग में मिल रहा है। लोग उन्हें उम्मीद की नजरों से देख रहे हैं।   

हिलेरी पर ममता की प्रकृति का साया

उदय केसरी  
 यह कैसा संयोग है कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम  बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिलने आई अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पर ममता की प्रकृति का साया पड़ गया। जैसे ममता बनर्जी आए दिन विभिन्न मुद्दों पर केंद्र सरकार पर धौंस जमाती रहती हैं, कुछ वैसे ही हिलेरी क्लिंटन ने भारत में ही भारत को से दो टूक कह दिया है कि ईरान से दूर रहो। वैसे अमेरिका यह दबाव भारत के अलावा चीन, यूरोपीय देशों और जापान पर भी बना रहा है कि ईरान से तेल आयात में कटौती करें। लेकिन भारत के बारे में हिलेरी के सुर ममता बनर्जी की तरह ही धौंस भरा प्रतीत हुआ, जब हिलेरी ने कहा ईरान के कुल तेल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 12 फीसदी है। सऊदी अरब के बाद ईरान भारत को तेल का निर्यात करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। यानी भारत जल्दी कटौती की  ओर कदम बढ़ाए। यह भी कह दिया गया कि इराक और सऊदी अरब जैसे पेट्रोलियम उत्पादक देश भारत जैसे देशों की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। इस एकतरफा फरमान के पीछे अमेरिका का तर्क है कि इससे ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएगा। ज्ञात रहे कि अमेरिका इस बाबत  इससे पहले मार्च में  भी भारत और 11 अन्य देशों को नोटिस थमाकर धमकी दे चुका है कि ईरान से तेल आयात में कटौती नहीं करने पर उनपर वित्तीय प्रतिबंधों को कड़ा कर दिया जाएगा। उसी तरह जैसे ममता बनर्जी पेट्रोल के दाम बढ़ाए जाने पर केंद्र सरकार को धमकी दी थी। भलें ही संदर्भ अलग-अलग हों, पर कोलकाता में हिलेरी और ममता बनर्जी की शैली में, जो एक समानता दिखी, वह भारत सरकार पर अपनी मांग को लेकर धौंस जमाने जैसा ही कह सकते हैं।
खैर, ऐसे संयोग के बीच सवाल यह है कि आखिर भारत क्यों अमेरिकी धौंस में आकर ईरान से अपने पुराने रिश्ते  तोड़ दे और तेल के आयात में कटौती करे? जबकि भारत में पहले से ही तेल की  आपूर्ति और उसके आए दिन बढ़ते दाम को लेकर बवाल मचा रहता है। ऐसे में क्या  एक पुराने आपूर्तिकर्ता देश से आयात कम करके दूसरे देशों से तेल खरीदने में नई व्यवस्था बनाने आदि का अतिरिक्त भार नहीं बढ़ेगा ? फिर सऊदी अरब को तेल निर्यात करने में कहीं कोई उपलब्धता की समस्या खड़ी हो गई तो? खासकर तब जब उसे ईरान से तेल लेने वाले 11 देशों  को भी तेल निर्यात करना पड़ेगा। उससे भारत में पैदा होने वाले तेल के महासंकट से निपटने के लिए हमारी मदद कौन करेगा? यह तो निश्चित  को छोड़कर अनिश्चित की ओर बढ़ने जैसा खतरनाक कदम हो सकता है। 
दरअसल, अमेरिका ये दबाव की राजनीति ईरान पर अपनी दादागिरी को इराक के माफिक स्थापित करने के लिए कर रहा है। अमेरिका  ईरान से तेल आयात में काटौती का फरमान जारी कर ईरान के खिलाफ अप्रत्यक्ष रूप से ध्रुवीकरण को बढ़ावा देकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश में है। वैसे ही जैसे जैविक हथियार के नाम पर इराक के खिलाफ पहले विश्व  समुदाय को भड़काया गया और फिर उसपर हमला बोल दिया गया। अमेरिका को हमेशा से तेल संपन्न इन देशों  को अपने नियंत्रण में रखने की ख्वाहिश रही है। इराक के बाद अब बारी ईरान की है और बहाना परमाणु बम निर्माण का है। अमेरिका के इस अघोषित मंशा  को ईरान और इजराइल के बीच लगातार तनातनी से भी बल मिलता है। इसमें वह इजराइल की ममद भी इसी कारण बढ़-चढ़कर करता रहा है। वैसे ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने के मुद्दे में अमेरिका को परमाणु अप्रसार संधि टूटने से ज्यादा खुद की मंशा पर पानी फिरने का डर है। यदि ईरान ऐसा करने में सफल हो गया तो उसपर इराक की तरह नियंत्रण पाना अमेरिका के लिए बड़ी दूर की कौड़ी हो सकती है। इस डर का अंदाजा पिछले दिनों की उस घटना से लग चुका है, जब ईरान ने परमाणु बम बनाने की अपनी कुशलता का खुला प्रदर्शन किया था और जिसे देख अमेरिका मानो बौखला उठा था। अमेरिका तभी से खाड़ी और पश्चिम एशिया के सभी देशों को ईरान से नाता तोड़ने का सुझाव देने लगा है। इस तरह वह ध्रवीकरण को हवा दे रहा है।
यही नहीं ईरान के खिलाफ देशों को बांटने के लिए अमेरिका अब कुचक्र भी रचने लगा है। हाल ही में दिल्ली में हुए स्टीकर बम धमाके पर खुफिया विभाग की बैंकॉक यूनिट की जो रिपोर्ट सामने आई। उसके मुताबिक दिल्ली, बैंकॉक और जार्जिया के ब्लास्ट एक समान थे। तीनों धमाकों में लो-इंटेंसिटी बम का प्रयोग किया गया। तीनों धमाकों की साजिश इजराइल या अमेरिका में ही रची गई और तीनों जगहों पर लोकल लोगों ने ही इसे अंजाम दिलाया। वहीं तीनों ब्लास्ट का मकसद किसी को मारने का नहीं था। जाहिर है, इस विस्फोट का मकसद तबाही फैलाना नहीं, बल्कि भारत और कुछ देशों के बीच मनमुटाव पैदा कर संबंधित देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करना था। यहीं नहीं, इन धमाकों के बाद तमाम एजेंसियों ने अभी छानबीन की शुरुआत ही की थी और वे हमले के बारे में कुछ कह पातीं, इससे पहले ही इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू ने हमलों के लिए ईरान और हिजबुल्लाह पर आरोप लगा दिया। हालांकि भारत ने इस मामले में ईरान को क्लीनचीट देकर यह साफ कर दिया कि अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच जारी कूटनीतिक चालबाजियों के बीच भारत का रुख तटस्थ है और ईरान से भारत के रिश्ते पूर्ववत बने रहेंगे। वहीं हिजबुल्लाह ने भी स्पष्ट कर दिया कि इन धमाकों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ, इसके लिए इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद की भूमिका पर सवाल खड़ा होने लगा, क्योंकि वह पहले से ही इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ इस तरह के हथियार इस्तेमाल करता रहा है। फिलीस्तिन और दूसरे अरब देशों में इसके उदाहरण भी मिले हैं।
ऐसे में ईरान को लेकर अमेरिका के असल मकसद को समझना मुश्किल नहीं है, लेकिन इस माहौल में भारत को बेहद सतर्कता से अपनी तटस्थता को बरकरार रखने की चुनौती होगी और इस चुनौती को पार पाना तभी संभव है, जब अमेरिका पर भरोसा और निर्भरता दोनों ही नापतौल कर किया जाए।

असल पत्रकारिता को आमिर का सलाम

उदय केसरी  
 आमिर खान ने अपने पहले टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ के पहले एपिसोड से सरोकारों से जुड़े दर्शकों को खासा आकर्षित किया है और सोशल नेटवर्किंग साइटों पर जमकर इस शो की तरीफ भी हो रही है। इस शो के प्रसारण की टाइमिंग और सादे-सच्चे फार्मेट को लेकर महज टीआरपी का चश्मा लगाने वाले कार्यक्रम निर्माता-निर्देशक अवश्य आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं, लेकिन आमिर ने इन सबके बावजूद जिस हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ इस शो का निर्माण किया है, उससे साफ है कि उन्होंने बड़े पर्दे की तरह, छोटे पर्दे पर भी एक अनोखा मिसाल कायम करने की ठान ली है। यही नहीं उन्होंने सरोकार के असल पथ भटकते कई न्यूज चैनलों और अखबारों को भी आईना दिखाने की कोशिश की है, जो इसे टीआरपीलेस सब्जेक्ट मानते हैं।
आमिर जैसे फिल्मों के किसी देसी अवार्ड फंक्शन में जाना पसंद नहीं करते हैं और अपने कैरियर के लिए ऐसे अवार्ड को नहीं, बल्कि मेहनत व ईमानदारी से किए गए काम को महत्वपूर्ण मानते हैं। वैसे ही शायद वे टीवी जगत में भी टीआरपी को महत्वपूर्ण नहीं मानते हैं, बल्कि दर्शकों के दिलों को छूकर अपने संदेश पहुंचाने में वे किस हद तक सफल होते हैं, इसे वह महत्वपूर्ण मानते हैं। इस शो के आने से पहले एक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने अपना यह विचार जाहिर भी कर दिया था। इसलिए महज क्षणिक मनोरंजन की उम्मीद रखने और सरोकारों को बोरिंग समझने वाले दर्शक इस शो के निर्माता यानी आमिर खान के टारगेट आडियंस नहीं हैं। 
आमिर को अपने अलहदे काम करने की शैली के चलते पहले उन्हें काफी समय तक तमाम तरह की आलोचनाएं सहनी पड़ी, लेकिन उन्होंने कभी इसपर ध्यान नहीं दिया और अपने काम में लगातार संजीदा और शोधपरक बने रहे। उनके काम की इसी शैली के कारण उन्हें मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहा जाने लगा और उन्होंने हर साल अपनी फिल्मों के जरिए खुद को साबित किया, इस हद तक साबित किया कि अब उनके आलोचकों के पास कोई तर्क ही नहीं बचे। वे ऐसे अभिनेता बन गए जिसके महज होने से फिल्मों के सफल होने की गारंटी दी जाने लगी।
लेकिन ‘सत्यमेव जयते’ कार्यक्रम के आने के बाद जिस आमिर खान ने टीवी पर आवतार लिया है, वह अभिनेता से कहीं अधिक असल पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के धर्म का बाखूबी पालन करते हुए सरोकारों से दूर होते इस देश के कई मनोरंजन चैनलों, न्यूज चैनलों और अखबारों को आईना दिखाते से प्रतीत होते हैं। आमिर ने पहले एपिसोड में महिलाओं पर अत्याचार और भ्रूण हत्या के जिस स्याह सच को शोधपरक तरीके से सामने लाया है, वह नया नहीं है, उसे कई सामाजिक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर उजागर किया जाता रहा है, लेकिन मीडिया में ऐसे मुद्दे को कभी विशेष तवज्जो नहीं दिया गया, क्योंकि टीआरपी गुरुओं को यह समाजसेवा ज्यादा नजर आती है, इसलिए उन्हें यह फायदे का सब्जेक्ट नहीं लगता।
ऐसे माहौल में आमिर खान प्रोडक्शन द्वारा टीवी के लिए ऐसे शो बनाना और उसे प्राइम टाइम पर नहीं, बल्कि एक औड टाइमलाइन पर रविवार सुबह 11 बजे पेश करना अपने आप में चुनौतीपूर्ण माना जा रहा है, लेकिन गौर करने की बात है कि इनडेप्थ रिसर्च के बाद ही किसी काम को हाथ में लेने वाले आमिर खान ने  क्या इन टीआरपी गुरुओं की आशंकाओं पर विचार नहीं किया होगा। जरूर किया होगा, लेकिन जैसे कभी दूरदर्शन पर आने वाला आधे-एक घंटे के समाचार कार्यक्रम को दर्शकों के लिए पर्याप्त माना जाता था और 24 घंटे समाचार प्रसारित करने की कोई कल्पना भी नहीं कर पाते थे, तब 24 घंटे न्यूज चैनल शुरू करने वालों को लेकर भी ऐसी ही आशंकाएं व्यक्त की गई थीं। ऐसे आशंकाओं से क्रांतिकारी विचारों और पहल करने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता, बशर्ते उसके पीछे का इरादा नेक और सरोकारों से जुड़ा हो।
जहिर है, आमिर खान ने ‘सत्यमेव जयते’ के माध्यम से एक क्रांतिकारी पहल ही नहीं की है, बल्कि भारतीय पत्रकारिता और संचार के वास्तविक मूल्यों को एक बड़े कैनवास पर फिर से सबसे उपर लाकर उकेरने की कोशिश की है, जिसे कारपोरेट जगत की मीडिया ने कहीं स्वार्थ के परदों की ओट में छुपा दिया था।       

उमा के बयान पर गौर करे मीडिया

उदय केसरी  
 जिस मीडिया ने पहले निर्मल बाबा के लाइव समागम कार्यक्रम को बतौर विज्ञापन प्रसारित कर उन्हें देशभर के लोगों से सीधे जोड़ने का काम किया, उसी की आंख बाद में उनकी कमाई पर लग गई। लेकिन, मजे बात यह है कि निर्मल बाबा से न्यूज चैनलों को बतौर विज्ञापन होने वाली कमाई अब भी जारी है। कुछ चैनलों पर पहले की तरह ही अब भी समागम के लाइव कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है। पिछले दिनों झारखंड के एक अखबार प्रभात खबर ने निर्मल बाबा के असली नाम और पहचान की खोज क्या की, कुछ न्यूज चैनल वालों ने अपने चिरपरिचित अंदाज में इसे सनसनीखेज बनाकर पेश  करना शुरू कर दिया। निर्मल बाबा के खिलाफ तमाम तरह के तथ्यों को खोज निकालने की होड़ सी लग गई। इसपर विराम तब लगा जब खुद निर्मल बाबा ने एक न्यूज चैनल पर अपनी सारी कहानी बयां कर दी। उन्होंने बताया कि वह कोई चमत्कार नहीं करते हैं, बस जो उन्हें लोगों के बारे में समागम के दौरान महसूस होता है, उसका हल बताने की  कोशिश  करते हैं। इससे उन्हें जो धन मिलता है, उसके लिए वे नियमतः टैक्स चुकाते हैं और किसी से गुप्त तरीके से धन नहीं लेते।
निर्मल बाबा के इस इंटरव्यू के बाद उनसे संबंधित खबरों की सनसनी जैसे जाती रही और एक-दो दिनों में ही न्यूज चैनलों का ध्यान निर्मल बाबा से हटने लगा। हाल तक यह बाबा खबरों से लगभग विलुप्त हो गए थे। इसीबीच, भाजपा की फायरब्रांड कहे जाने वाली नेत्री उमा भारती ने निर्मल बाबा के मुद्दे  पर बयान देकर एक बार फिर उन्हें खबरों के केंद्र में ला दिया, लेकिन उमा भारती ने जो कुछ कहा है, उसपर  मीडिया को गौर करने और समाज को जागरूक करने की जरूरत है। उमा भारती ने कहा, ‘मैं निर्मल बाबा के पक्ष या विपक्ष में नहीं हूं। मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि जब बात समागम, सभाओं की हो तो केवल निर्मल बाबा का नाम ही सामने क्यों आ रहा है। भारत में ही नहीं बल्कि दूसरे देशों  में भी इसी तरह की धार्मिक सभाएं आयोजित की जाती हैं।’ भारती ने यह भी कहा कि निर्मल बाबा को रोकना है तो ईसाई धर्म गुरू पौल  दिनाकरण को भी रोका जाना चाहिए। उमा के इस बयान में दक्षिणपंथी राजनीति की बू से इंकार नहीं किया जा सकता और यह भी कि ईसाई धर्मगुरू ही नहीं, कई हिन्दू धर्म गुरू और योग गुरू भी अच्छी-खासी फीस लेकर अपनी सभाओं में लोगों को आने देते हैं-मसलन, आशाराम बापू, श्रीश्री रविशंकर, स्वामी रामदेव आदि। यहीं नहीं, अनेक ऐसी धार्मिक संस्थाएं भी लोगों को योग, ध्यान और मोक्ष की शिक्षा देने के नाम पर चल रही हैं, जिसमें भी विविध प्रकार से भक्तों से शुल्क वसूले जाते हैं। साथ ही इसकी आड़ में पत्र-पत्रिकाएं, किताब, आयुर्वेदिक दवाएं, माला, मूर्ति, फोटो, कैलेंडर आदि भी बेचे जाते हैं। लेकिन सवाल है कि इनकी कमाई पर मीडिया या अन्य किसी संस्था की नजर क्यों नहीं गई, जैसे निर्मल बाबा की कमाई पर गई? क्या केवल इसलिए कि इन संस्थाओं के बाबा भुट्टे, पानीपूरी, रसगुल्ले, खीर जैसे अजीबोगरीब उपायों के जरिए लोगों की समस्याओं का निदान नहीं बताते, बल्कि अपने भक्तों को उनके प्रवचनों को सुनने-पढ़ते और सत्संग करते रहने या उनके बताए योग विधि का पालन करते रहने के लिए कहते हैं। यहां एक बात याद दिला दूं कि दो साल पहले सत्संगी सभाएं लगाने वाले कई नामचीन बाबाओं की गतिविधियों को लेकर कोबरा पोस्ट ने एक स्टिंग ऑपरेशन  कर खुलासा किया था कि ऐसे कुछ बाबा भक्तों से दान लेने की आड़ में काले धन को सफेद करने का काम भी करते हैं। इस ऑपरेशन  में जिन बाबाओं को काले धन को सफेद करने के प्रसंगों में डील करते हुए गुप्त कैमरों में कैद किया गया था, उनमें कुछ की सभाएं आज भी लगती हैं और भक्तों की भीड़ में भी कोई कमी नहीं आई है।
    साफ है कि ऐसे धार्मिक सत्संग, समागम, योग शिविर चाहे किसी भी धर्म के गुरू लगाते हो, चलाते हो, उसमें जुटने वाले लोग कहीं न कहीं अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए इन गुरुओं पर अपनी आस्था जताते हैं और इसकी कीमत भी चुकाते हैं। अब यदि इनमें ठगी, धोखा, प्रपंच की पड़ताल की जाए शायद ही कोई धर्मगुरू ऐसे मिलेंगे जो इसके कठघरे में न आए। असल  सवाल यह है कि आस्था और विश्वास  के इस कारोबार के फलने-फूलने की वजह क्या है? इसकी बुनियादी वजह है इस 21वीं सदी में देश  में बरकरार पिछड़ापन, बेकारी, बेरोजगारी, विपन्नता, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा  और जागरूकता का अभाव है। इन समस्याओं से निजात दिला पाने में देश  की सरकारें जबतक विफल रहेंगी, विभिन्न तरह के बाबाओं, धर्मगुरुओं, स्वामियों के समागम में लोग ऐसे ही अपनी गाढ़ी कमाई फीस में चुका कर अपनी समस्याओं का हल खोजते रहेंगे।  

धमाकों के पीछे का सच नापाक

उदय केसरी  
 परमाणु मुद्दे को लेकर अमेरिका और ईरान के बीच तनाव का माहौल गहराने लगा है। वहीं इन दोनों के बीच इजराइल एक मासूम उत्प्रेरक की भूमिका निभाता प्रतीत हो रहा है। जाहिर है ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने की अपनी कुशलता का खुला प्रदर्शन करना अमेरिका को चुनौती जैसा लगा हो, तभी वह खाड़ी और पश्चिम एशिया के सभी देशों को ईरान से नाता तोड़ने का सुझाव देकर ध्रवीकरण को हवा दे रहा है। वैसे, ये हालात खुद नहीं बन रहे, बल्कि बनाए जा रहे हैं। खुफिया विभाग की बैंकॉक यूनिट की जो रिपोर्ट सामने आई है। उसके मुताबिक दिल्ली, बैंकॉक और जार्जिया के ब्लास्ट एक समान हैं। तीनों धमाकों में लो-इंटेंसिटी बम का प्रयोग किया गया। तीनों धमाकों की साजिश इजराइल या अमेरिका में ही रची गई और तीनों जगहों पर लोकल लोगों ने ही इसे अंजाम दिलाया। तीनों ब्लास्ट का मकसद किसी को मारने का नहीं था। जाहिर है, इस विस्फोट का मकसद तबाही फैलाना नहीं, बल्कि भारत और कुछ देशों के बीच मनमुटाव पैदा कर संबंधित देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करना था। यहीं नहीं, इन धमाकों के बाद तमाम एजेंसियों ने अभी छानबीन की शुरुआत ही की थी और वे हमले के बारे में कुछ कह पातीं, इससे पहले ही इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू ने हमलों के लिए ईरान और हिजबुल्लाह पर आरोप लगा दिया। हालांकि भारत ने इस मामले में ईरान को क्लीनचीट देकर यह साफ कर दिया है अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच जारी कूटनीतिक चालबाजियों के बीच भारत का रुख तटस्थ है और ईरान से भारत के रिश्ते पूर्ववत बने रहेंगे। वहीं हिजबुल्लाह ने भी स्पष्ट कर दिया कि इन धमाकों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ, इसके लिए इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद की भूमिका पर सवाल खड़ा होने लगा, क्योंकि वह पहले से ही इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ इस तरह के हथियार इस्तेमाल करता रहा है। फिलिस्तीन और दूसरे अरब देशों में इसके उदाहरण भी मिले हैं। सवाल है क्या वाकई ईरान के दावों में दम है कि खुद इजरायल ने ही ये धमाके अपनी सीक्रेट सर्विस मोसाद के जरिए करवाया है? यदि ऐसा है तो आने वाला समय एक बार फिर खाड़ी युद्ध का गवाह बन सकता है। करीब नौ साल पहले 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद इराकी आवाम की तबाही और अमेरिकी दादागिरी, दोनों से पूरी दुनिया वाकिफ है। ऐसे में, ईरान के साथ अमेरिका का तनाव गहराना गंभीर है। हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि हाल ही में अमेरिका और ईरान में चुनाव होने वाले हैं, वहीं पूर्व के इराक व अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले से अमेरिकी सरकार को अपने ही देश में समर्थन से अधिक विरोध ङोलने पड़े हैं और उसपर से अभी आर्थिक मंदी बोझ भी है। ऐसे में, में ईरान पर अमेरिकी हमले की आशंका कम से कम फिलहाल के कुछ महीनों में नहीं दिखती है। हालांकि युद्ध के मामले में ऐसे विश्लेषण तब धरे के धरे रहे जाते हैं, जब हितों का टकराव और आपसी महत्वाकांक्षा चरम पर पहुंच जाती है, मसलन, 2001 का अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला बहुत प्रत्याशित नहीं था। बहरहाल, इन तनावों के बीच भारत की तटस्थता एक बेहतर नीति है।

चुनावी जुगाली के संक्रमण से बचें

उदय केसरी  
 देश को झकझोर देने वाले अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद अब देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में चुनावों का मौसम अपने चरम की ओर बढ़ रहा है| इस मौसम में राजनीतिक दलों के तमाम संकीर्ण समीकरणों के बावजूद जनता में एक मुद्दा काफी प्रभावी है| वह मुद्दा है भ्रष्टाचार, जिसके विरोध में अर्से बाद पुरजोर हवा चलने की उम्मीद है| यह देश के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, इन पांचों राज्यों के मद्देनजर भी लाजमी है| चाहे उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की मायावती सरकार हो या पंजाब में शिरोमणि अकाली दल व भाजपा गठबंधन की प्रकाश सिंह बादल की सरकार और उत्तराखंड में भाजपा की पहले पोखरियाल निशंक और फिलहाल भुवन चंद्र खंडूरी की सरकार हो या फिर गोवा व मणिपुर में कांग्रेस की दिगंबर कामत व इबोबी सिंह की सरकारें, इन पांचों राज्यों की सरकारों में किसी नाते यदि सबसे अधिक समानता है, तो वह है भ्रष्टाचार| कहने की जरूरत नहीं कि इन सभी राज्यों की जनता यदि गरीब, पिछड़ी और विकास से दूर है, तो उसकी सबसे बड़ी वजह इन सरकारों के संचालकों के बीच लहलहाती भ्रष्टाचार की पौध है| लेकिन हैरतअंगेज बात यह है कि इन राज्यों की ऐसी दुर्गति करने के बाद भी सभी प्रमुख दलों के सियासतदानों ने हमेशा की तरह इस बार भी चुनावी बिसात पर जाति, धर्म, समुदाय, आरक्षण और लालच के वही पुराने दांव चले हैं| जबकि सबसे अहम भ्रष्टाचार के मुद्दे को वे महज फैशन के चोले के तौर पर ओढ़कर चुनावी जुगाली कर रहे हैं, जिसमें पड़कर जनता हमेशा से ठगी जाती रही है|   फिर भी, इस बार भ्रष्टाचार विरोधी पुरजोर हवा चलने की उम्मीद इसलिए की जा सकती है, क्योंकि इन चुनावों के दो-तीन महीनों के मौसम से ठीक पहले हमने अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के आठ महीने भी देखे हैं, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरा देश जाग उठा था| उम्मीद है कि चुनाव पूर्व के आठ महीनों में, जनता में इतनी प्रतिरोधी क्षमता जरूर पैदा हो गई होगी कि वे अपनी आंखों से नेताओं की चुनावी जुगाली के संक्रमण का मुकाबला कर सकें और अपने मत एवं विचार का सही इस्तेमाल करें| हालांकि यह भी कड़वा सच है कि इस आधुनिक युग में कई लोग तात्कालिक लाभ या लालच में पड़कर अपने विचारों से समझौता भी कर बैठते हैं| ऐसे लोगों के बीच उन तमाम लोगों को उसी तरह जाकर जागरूकता फैलाने की जरूरत है, जैसे टीम अन्ना के लोग कर रहे हैं| जाहिर है, बदलाव और विकास केवल उम्मीदों से नहीं हो सकता, सियासतदानों के लालच, आश्‍वासन और नकली मुद्दों को भी धीरज से समझना होगा|  यह सब समझने के बाद यक्ष प्रश्‍न यह भी है कि आखिर किस पार्टी और उम्मीदवार को सही माना जाए? जबकि इन पांचों राज्यों की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां, वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो या बसपा या फिर अकाली दल, सभी की सरकारों में भ्रष्टाचार घटने के बजाय बेतहाशा बढ़ा है| यही नहीं, अपराध, गरीबी, भुखमरी और सामाजिक असमानता में जबर्दस्त इजाफा हुआ है| उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य में ६९.९ फीसदी आबादी गरीबी में जी रही है, तो पंजाब जैसे कृषि समृद्ध राज्य में अब भी २६.२ फीसदी, उत्तराखंड में ७७ फीसदी, गोवा में २१.७ और मणिपुर समेत पूर्वोत्तर में ५७.६ फीसदी जनता गरीबी में जीने को मजबूर है| वहीं इन राज्यों में हजारों करोड़ रुपयों के घोटाले सामने आए हैं| उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) घोटाला, पंजाब में जीपीएफ और गेहूं घोटाला, उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट घोटाला, गोवा और मणिपुर में खनन घोटाले इस बात के प्रमाण हैं कि चाहे कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पाटियां हों या फिर बसपा, सपा या अकाली दल जैसी क्षेत्रीय स्तर की पार्टियां, जनता के निवाले छीनकर काली कमाई करने में कोई पीछे नहीं है| ऐसे में, यदि आप यह सोचते हैं कि वोट देने से क्या बदलेगा तो यह शत-प्रतिशत गलत है| सही और व्यावहारिक राय यह है कि सभी दलों के उम्मीदवारों में से उसको वोट दें, जो तुलनात्मक दृष्टि से आपकी नजर में सबसे कम भ्रष्ट या खराब हो| इससे भले ही चुनाव बाद शीघ्रता से बदलाव नहीं आएगा, लेकिन भ्रष्टाचार को राजनीतिक शिष्टाचार बना कर रखने वाले नेताओं को करारा झटका जरूर लगेगा| इससे और कुछ नहीं तो बदलाव की शुरुआत अवश्य होगी और फिर अभी २०१४ का आम चुनाव भी तो आने वाला है| हमने यदि बिना किसी लालच में पड़े आने वाले चुनावों में समझदारी से वोट डाला, तो ऐसे नेताओं और उम्मीदवारों के पास, राजनीति से बाहर जाने के सिवाय कोई रास्ता या समीकरण या दांव नहीं बचेगा

अन्ना के मायने समझे सरकार

उदय केसरी  
 हाल के दशकों में हुए बेतहाशा भ्रष्टाचार से देश तो खोखला हुआ ही, सबसे अधिक जनता बेहाल हुई है| इसी बेहाली के मौके पर भ्रष्टाचार विरोधी सख्त जनलोकपाल कानून की अवधारणा के साथ ७४ वर्षीय अन्ना हजारे देश के सामने आए और देखते ही देखते पूरे देश की जनता की उम्मीद बन गए| अन्ना व्यक्तिगत तौर पर एक ईमानदार समाजसेवक रहे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार का विरोध करके सार्वजनिक तौर पर वे जननायक या बहुसंख्य जनता के पर्याय जैसे हो चुके हैं| अगस्त २०११ के अनशन के बाद से अन्ना महज रालेगण सिद्धि गांव के नहीं, बल्कि देशभर के गांवों व शहरों में नायक हो चुके हैं और वर्तमान में अन्ना का वास्तविक मायने यही है| लेकिन कांग्रेस नीत केंद्र की यूपीए सरकार को अगस्त से अब तक चार महीने गुजर जाने के बाद भी अन्ना का यह मायने समझ में नहीं आया है| उलटे इन चार महीनों के दौरान कांग्रेस के नेताओं और मंत्रियों ने पानी पी-पीकर अन्ना व टीम अन्ना को कोसा, उन्हें तोड़ने-फोड़ने और बदनाम करने की कोशिश की है, जिसे पूरे देश ने देखा है और उसके मायने भी लगाए हैं| इसलिए दिसंबर से जनता ने, अन्ना के रूप में फिर से सरकार को अपनी ताकत और अन्ना के मायने समझाने की कोशिश पुन: शुरू कर दी है| लेकिन, जब सिर पर सत्ता की मद सवार हो तो मतिभ्रम की आशंका सबसे अधिक होती है| शायद सरकार को मतिभ्रम हो चुका है और उसे अन्ना में देश की जनता नहीं, बल्कि विपक्षी राजनीतिक पार्टियां, भाजपा व आरएसएस दिख रही है| उसे तो यह भी परवाह नहीं कि देश के अन्ना को नाराज करके २०१४ में वह किस मुंह से उसी अन्ना से वोट मांगने जाएगी?  वैसे, केंद्र सरकार ने अगस्त में अन्ना से किए उस वादे को खुद ही लगभग झूठ साबित कर दिया है, जिसमें संसद के शीतकालीन सत्र में सख्त लोकपाल बिल पारित कराने का वादा किया गया था| इस पर कभी स्टैंडिंग कमेटी की राय का ड्रामा, तो कभी ग्रुप सी व डी के कर्मचारियों और सीबीआई को परे रखने के विचार ने अंतत: लोकपाल को टीन के डब्बे वाली अवधारणा में परिणत कर दिया है| यानी इन चार महीनों के इंतजार के बाद भी अब तक अन्ना यानी देश की जनता को सरकार से सिर्फ धोखा ही मिला है| ऐसे में अन्ना के आंदोलन को तेज करने के सिवाय देश की जनता के पास, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का अन्य कोई विकल्प नहीं बचता| लेकिन इस बार की लड़ाई केंद्र सरकार को पहले से बहुत अधिक भारी पड़ेगी, यह तय है, क्योंकि कांग्रेस को शायद जयप्रकाश आंदोलन के अनुभव अब याद नहीं रहे हैं, वरना वह फिर वैसी ही भूल दोहराने की दिशा में नहीं बढ़ती| हालांकि दूसरी तरफ, देश की विपक्षी पार्टियों को शायद अन्ना के मायने की समझ आ गई है, तभी तो कल तक अन्ना को चुनाव लड़ के आने की सलाह देने वाले सांसद, ११ दिसंबर २०११ को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना के मंच पर सख्त लोकपाल की मांग को बुलंद करने की बातें करते नजर आए| हालांकि इसके ठीक बाद ही इस मुद्दे पर सरकार ने जब सर्वदलीय बैठक बुलाई तो उसमें कुछ विपक्षी पार्टियों की बातों में अंतर आ गया| यह अंतर साफ करता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का सहयोग उनकी राजनीति के नफे-नुकसान के आधार ही पर प्राप्त होगा, क्योंकि भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है, जिसके दाग से कौन सा दल अछूता है और कौन कब तक अछूता रहेगा, कहना मुश्किल है| मसलन, हाल ही में कर्नाटक में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा को भ्रष्टाचार के मामले में इस्तीफा देना पड़ा है| यही भाजपा केंद्र में प्रमुख विपक्षी दल है, जो कांग्रेस के खिलाफ अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को अपना समर्थन दे रही है| साफ है, अन्ना या जनता को भ्रष्टाचार की लड़ाई खुद अपने दम पर लड़नी होगी और इस बार अगस्त से कहीं अधिक बड़ा आंदोलन करके सरकार को अन्ना के मायने समझाना होगा| पिछली बार की लड़ाई में सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम पासे फेंकते नजर आ रहे थे, लेकिन इस बार ये दोनों शायद ही नजर आएं| वजह साफ है कि कांग्रेस की आलाकमान सोनिया गांधी की गैर-मौजूदगी में सिब्बल के दांव-पेंच को लगभग विफल माना गया और जहां तक चिदंबरम की बात है तो वे अभी खुद ही एक तरफ, महाभ्रष्टाचार २जी के घेरे में घिरते नजर आ रहे, तो दूसरी तरफ, अपने एक पुराने मुवक्किल को बचाने से संबंधित हितों के टकराव के एक नए मामले में भी उनका गला फंसता नजर आ रहा है| हां, इस बार कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी अवश्य पूरे फॉर्म में नजर आ रहे हैं और अन्ना के खिलाफ वह खुलकर बोलने भी लगे हैं, जो अन्ना के अगस्त के अनशन के दौरान काफी संयम बरते हुए थे| वैसे, यह करके वे खुद की छवि को ही क्षति पहुंचा रहे हैं, क्योंकि कांगे्रस की यूपीए सरकार के विरोध के बावजूद भी राहुल गांधी से जनता को सहयोग की उम्मीद रही है| लेकिन हाल के दिनों में उनके अन्ना विरोधी बयानों ने इस उम्मीद पर पानी फेरा है और शायद इसीलिए खुद अन्ना ने भी उन्हें संभलने का इशारा करते हुए अपने एक बयान में कहा कि कई लोगों का मानना है कि राहुल गांधी शीघ्र ही प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन यदि वह लोकपाल पर अपने वर्तमान विचारों को नहीं बदलते हैं तो यह देश के लिए खतरनाक होगा| जाहिर है राहुल गांधी समेत केंद्र सरकार को अन्ना के मायने समझना होगा     

बाहर कुछ, अंदर कुछ

उदय केसरी  
भारत की वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की घर के बाहर की नीति और भीतर की नीति में सहिष्णुता के स्तर पर गजब का विरोधाभास है| एक तरफ, हमारे देश पर आतंकी हमले कर हमारी संप्रभुता को बार-बार चुनौती देने वाले आतंकियों के पोषक पाकिस्तान के साथ यूपीए सरकार तमाम दर्द और दगे भूलकर दोस्ती, भाईचारे का हाथ बढ़ा रही है, तो दूसरी तरफ, देश के भीतर देशहित में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों, अनशन व आंदोलन करने वालों को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से तत्काल दमन करने की कोशिश की जा रही है| यदि भारत की मौलिक विदेश नीति में सहिष्णुता की बात करें, तो यह इसके सात निर्धारक तत्वों में से एक है और इसी सहिष्णुुता के कारण भारत ने आज तक कभी किसी देश पर अधिकार नहीं किया और न ही किसी देश की भूमि को हड़पने की कोशिश की| अब भले ही, पाकिस्तान ने कश्मीर की आधी भूमि पर जबरन कब्जा ही क्यों नहीं जमा रखा हो| खैर, फिलहाल, विषय यह नहीं है| लेकिन, सवाल यह है कि मौलिक गृह नीति में क्या सहिष्णुता का कोई स्थान है?
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में कभी भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ अहिंसक तरीके से देश को जगाने की कोशिश करने वाले स्वामी रामदेव के हजारों समर्थकों पर आधी रात में लाठी चार्ज कर उन्हें दिल्ली से बाहर कर दिया जाता है, तो कभी ७४ साल के अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता को लामबंद करने से रोकने के लिए तमाम तरह के नैतिक-अनैतिक हथकंडे अपनाएं जाते हैं| बावजूद इसके जनशक्ति की तेज से चमकते अन्ना को दबाने में विफल हो जाने पर उनके खिलाफ राजनीतिक चालों-कुचालों का सहारा लिया जाता है| और तो और अब टीम अन्ना में फूट डालने की भी साजिश होने लगी है| लेकिन, क्या इस तरह के हथकंडे अपनाने वाले और ऐसी साजिशों में शामिल नेताओं को यह अंदाजा नहीं कि देश जाग चुका है और शीतकालीन सत्र संपन्न होने का इंतजार कर रहा है| जनलोकपाल बिल की तर्ज पर सख्त लोकपाल बिल संसद से पारित करने का वादा यदि पूरा नहीं किया गया, तो शायद अन्ना के नेतृत्व में जनता की जवाबी नीति सरकार के लिए प्राणघातक हो सकती है|
रकार या सोनिया गांधी को क्या यह अंदाजा नहीं कि रालेगांव सिद्धि से आने वाले एक सामान्य नागरिक अन्ना हजारे को देश का नेता किसने बनाया? जनता ने| वह भी बिना किसी राजनीतिक पार्टी के, बिना चुनाव लड़े और बिना किसी राजनीतिक परिवार में जन्म लिए| हालांकि यह बात कुछ राजनीतिक विरादरी खासकर कांग्रेस के नेताओं और कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों को पसंद नहीं आई है, लेकिन, जो लोग राजनीतिक पार्टियों से चुनाव लड़कर या राजनीतिक परिवार में जन्म लेकर देश के नेता बने हैं, वे अब तक अन्ना की तरह जनता की आवाज क्यों नहीं बन पाए? उन्हें क्या भाषण देना नहीं आता? शायद नहीं| तभी शायद, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के फूलपुर में कांग्रेस की रैली को संबोधित करते हुए कुछ ऐसा कह गए, जिसकी कम से कम उनसे कभी उम्मीद नहीं थी| ऐसे शब्दों का इस्तेमाल महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना या शिव सेना के नेता करते रहे हैं| ऐसे शब्द प्राय: सहिष्णुता के अभाव में निकल जाते हैं| यूपीए सरकार और कांग्रेस की सहिष्णुता में विरोधाभास विदेश और देश के विरोधी नेताओं को लेकर ही नहीं है| यह विरोधाभास तो खुद कांग्रेस के भीतर स्पष्ट हो चुका है, पिछले माह की शुरुआत में जब पेट्रोल के दाम में एक बार फिर से १.८० रुपए का इजाफा किया गया और इसके विरोध में विपक्षी पार्टियां ही नहीं, यूपीए की सहयोगी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने समर्थन वापसी तक की धमकी दे दी| तब खुद कांग्रेस पार्टी ने भी इस मूल्यवृद्धि पर सरकार की दलील पर अपनी असहमति जता दी थी| संभवत: इसी वजह से डेढ़ साल बाद पहली बार पेट्रोल के दाम में २.४१ रुपए कटौती की गई| जहिर है, सहिष्णुता के स्तर पर कांग्रेस की यूपीए सरकार ‘बाहर कुछ और अंदर कुछ’ की विरोधाभासी नीति पर चलकर देश का उत्थान करे-न करे, पर यह तय है कि खुद का पतन अवश्य कर लेगी, क्योंकि जनता अब जाग चुकी है|
दरअसल, यूपीए सरकार की नीति बाहर कुछ और अंदर कुछ और है, जिसे प्राय: आम भाषा में राजनीति कहते हैं, लेकिन ऐसी राजनीति से कुछ समय के लिए सत्ता जरूर पाई जा सकती है, देश का उत्थान नहीं किया जा सकता| अब कुछ दिनों पहले की ही बात लीजिए, देश के बाहर, मालद्वीप में सार्क सम्मेलन के दौरान हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी कोे ‘शांति पुरुष’ करार दे दिया| क्या दशकों से पाक पोषित आतंकवाद से आए दिन दो-चार होती देश जनता कभी पाक के प्रधानमंत्री को ऐसी उपाधि देती, शायद नहीं, तो फिर इस बयान को क्या भारतीय सहिष्णुता कहेंगे? शायद नहीं| लेकिन देश के भीतर इससे ठीक विपरीत, कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी, जिनकी व्यावहारिक तौर पर यूपीए सरकार में पीएम के बराबर की भूमिका मानी जाती है, जो पहली बार गांधीवादी व अहिंसा की राह पर चलने वाले समाजसेवी अन्ना हजारे पर कुछ बोली तो वह भी उनके खिलाफ, कि केवल भाषणबाजी से भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता| यूपीए