अब क्यों प्रतिक्रियावादी हो रहे हैं प्रधानमंत्री ?

उदय केसरी 
देश  बहुत मुश्किल  दौर से गुजर रहा है। सरकार और उसके नीति-नियंता अनिर्णय की स्थिति में हैं। महंगाई चरमसीमा की ओर बढ़ रही है। आम जनता कराह रही है। इन बातों से देश  का हर एक आम नागरिक निराश  और दुखी है, सिवाय कांग्रेस के शीर्ष नेताओं और यूपीए सरकार के।
यह बात भी अब पूरा देश  जान चुका है कि देश  के इस हालत की सबसे बड़ी वजह क्या है-भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार। ऐसे हालत में जब बाबा रामदेव के साथ अपने सारे पुराने व तात्कालीक मतभेद भूलाकर टीम अन्ना एक मंच पर आकर हजारों जनता के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ हुंकार भर रही है तो भी कांगे्रस अध्यक्षा सोनिया गांधी को इसमें विपक्ष की साजिश  नजर आ रही है, जिसमें टीम अन्ना और बाबा रामदेव शामिल हैं।
अव्वल तो यह कि कल तक ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करने वाले देश  के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सख्त अल्फाज में टीम अन्ना और रामदेव के आरोपों को बेबुनियाद करार दिया और कहा कि यूपीए सरकार के खिलाफ ये अफवाह फैला रहे हैं। सच ही कहा गया है कि पत्थर दिल इंसान को दूसरे के दर्द का सही अंदाजा तभी होता है, जब वही चोट उसे खुद लगे। जब तक टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री पर सीधा आरोप नहीं लगाए थे, तबतक प्रधानमंत्री को अन्ना हजारे के अनशन में न कोई साजिश  दिखती थी और न ही कोई अफवाह। तब वे सदभावनापूर्व पत्र अन्ना हजारे को लिखते थे, भले ही दूसरी तरफ कांग्रेस के नेता अन्ना के खिलाफ जहर उगलते रहे। लेकिन अब जैसे ही मनमोहन सिंह के अधीन कोयला मंत्रालय द्वारा कोल ब्लाक आवंटन में घोटाले के आरोप लगे तो मनमोहन सिंह बिलबिला उठे।   
पेट्रोल के दाम में लगातार जबर्दस्त इजाफा, दैनिक राशन, दूध, तेल, दवा, सब्जी के दामों में लग रही आग से पिछले करीब दो सालों से जनता बिलबिला रही है। उस दर्द पर क्या कभी प्रधानमंत्री इतने सख्त हुए? साफ है कि अन्याय पर आंखें मूंदना भी उतना ही बड़ा जुर्म है, जितना अन्याय करना। गठबंधन की मजबूरियों का वास्ता देकर जनता को भूखे-परेशान मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। टीम अन्ना को सभ्य शब्दों, लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर खिंचाई करने की कोशिश  करने वाले यूपीए सरकार के मंत्रियों और गठबंधन के दलों को अब यह मान लेना चाहिए कि सिर से पानी उपर बहने लगा है। जनता में नेताओं के प्रति भरोसा काफी हद तक उठ चुका है। यदि उन्हें इस बात का गुमान है कि वोट उन्हें जनता ने ही दिया है, तो आगामी आम चुनाव में वोट की बजाय चोट देने के लिए वही जनता उन्हें तैयार मिलेगी।
लेकिन सवाल है कि इसकी परवाह कब और किस पार्टी की सरकार को रही है? सत्ता में आते ही विपक्ष के सुर और विपक्ष में जाते ही पक्ष के सुर बदल जाते हैं। जनता के हक और हकूक के नारे देकर वोट पाने वाली पार्टियां मुश्किल की घढ़ी में भी सत्ता की राजनीतिक दांवपेच की खातिर जनता को मरने के लिए छोड़ देती हैं। मसलन, यदि यूपीए सरकार ने पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए तो उसके खिलाफ पूरा देश  बंद जरूर करेंगे, विरोध-प्रदर्शन  जरूर करेंगे, लेकिन जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं, वहां तेल के टैक्स में कटौती करके सकारात्मक विरोध कभी नहीं करेंगे। वजह साफ है सत्ता पक्ष को हराना है तो उसके खिलाफ जनता को लुटने दो, परेशान  होने दो। फिर वे जनता के बीच भाषणों और आश्वासनों की जुगाली करने तो जाएंगे ही। वाकई में इस भारत की शासन व्यवस्था में देश  और जनता सबसे नीचे हो गए  हैं। तभी तो एक दिन पहले बाबा रामदेव दिल्ली में एक दिन का अनशन करते हैं, उसी के दूसरे दिन सरकार उन्हें पांच करोड़ रुपए के सर्विस टैक्स का नोटिस थमा देती है। वहीं यूपीए की अघोषित सुप्रीमो सोनिया गांधी कांग्रेस पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं का आह्वान करती है कि वे एकजुट होकर विरोधियों यानी विपक्ष, टीम अन्ना और बाबा रामदेव को जवाब दें। जाहिर है कि यूपीए सरकार की नजर में हालात देश  का नहीं, कांग्रेस पार्टी का ज्यादा खराब है और वैसे भी, देश  और यहां की जनता को तो कुशासन झेलने की पुरानी आदत पड़ी हुई है।

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