अनुजा रस्तोगी
सेक्स को हमारे यहां हमेशा से ही टैबू माना गया है। सेक्स पर बात करना। उसे जग-ज़ाहिर करना या आपस में शेयर करना। हर कहीं सेक्स प्रतिबंधित है। सेक्स का जिक्र आते ही क्षणभर में हमारी सभ्यता-संस्कृति ख़तरे में पड़ जाती है। मुंह पर हाथ रखकर सेक्स की बात पर शर्म और गंदगी व्यक्त की जाती है। सेक्स को इस कदर घृणा की दृष्टि से देखा जाता है, मानो वो दुनिया की सबसे तुच्छ चीज हो।
खुलकर सेक्स का विरोध करते हुए मैंने उन सभ्यता-संस्कृति रक्षकों को भी देखा है जिन्हें सड़क चलती हर लड़की में 'गज़ब का माल' दिखाई देता है। जिन्हें देखकर उनके हाथ और दिमाग न जाने कहां-कहां स्वतः ही विचरण करने लगते हैं। जिन्हें रात के अंधेरे में नीली-फिल्में देखने में कतई शर्म नहीं आती और नीली-फिल्मों के साथ रंगीन-माल भी हर वक्त जिनकी प्राथमिकता में बना रहता है। परंतु रात से सुबह होते-होते उनका सेक्स-मोह 'सेक्स-टैबू' में बदल जाता है।
यह सही है कि हम परिवर्तन के दौर से गुज़र रहे हैं। हर दिन, हर पल हमारे आस-पास कुछ न कुछ बदल रहा है। हम आधुनिक हो रहे हैं। यहां तक कि टीवी पर दिखाए जाने वाले कंडोम, केयरफ्री, ब्रा-पेंटी के विज्ञापनों को भी हम खुलकर देख रहे हैं। एक-दूसरे को बता भी रहे हैं। मगर सेक्स को स्वीकारने और इस पर अधिकार जताने को अभी-भी हमने अपनी सभ्यता-संस्कृति के ताबूतों में कैद कर रखा है। हमें हर पल डर सताता रहता है कि सेक्स का प्रेत अगर कहीं बाहर आ गया तो हमारी तमाम पौराणिक मान्यताएं-स्थापनाएं पलभर में ध्वस्त हो जाएंगीं। हम पश्चिमी भोगवाद के शिकार हो जाएंगें। इसलिए जितना हो सके कोशिश करो अपनी मां-बहनों, पत्नियों को सेक्स से दूर रखने और उन्हें अपनी इच्छाओं से अपाहिज बनाने की।
हमारे पुराणों तक में लिखा है कि यौन-सुख स्त्री के लिए वर्जित, पुरुष के लिए हर वक्त खुला है। पुरुष आजाद है हर कहीं 'मुंह मारने' के लिए। यही कारण है स्त्री को अपना सेक्स चुनने की आजादी हमारे यहां नहीं है।
गज़ब की बात यह है स्त्री-सेक्स पर प्रायः वे लोग भी अपना मुंह सींये रहते हैं जो स्त्री-विमर्श के बहाने 'स्त्री-देह' के सबसे बड़े समर्थक बने फिरते हैं। स्त्री जब अपने सुख के लिए सेक्स की मांग करने लगती है तो परंपरावादियों की तरह उनके तन-बदन में भी आग-सी लग जाती है। इन स्त्री-विमर्शवादियों को सेक्स के मामले में वही दबी-सिमटी स्त्री ही चाहिए जो मांग या प्रतिकार न कर सके।
पता नहीं लोग यह कैसे मान बैठे हैं कि हम और हमारा समाज निरंतर बदल या विकसित हो रहा है। आज भी जब मैं किसी स्त्री को दहेज या यौन शोषण के मामलों में मरते हुए देखती हूं तो मुझे लगता है हम अभी भी सदियों पुरानी दुनिया में जी रहे हैं।
मुझे एक बात का जवाब आप सभी से चाहिए आखिर जब पुरुष अपने बल पर अंदरूनी और बाहरी सारे सुख भोगने को स्वतंत्र है तो यह आजादी स्त्रियों को क्यों और किसलिए नहीं दी जाती?
क्या इच्छाएं सिर्फ पुरुषों की ही गुलाम होती हैं, स्त्रियों की नहीं?
(बरेली की रहने वालीं अनुजा, एक शिक्षिका हैं। उनहोंने पत्र-पत्रिकाओं में कभी नहीं लिखा। अभी तक जो भी लिखा अपने ब्लॉग पर ही लिखा। बिंदास लिखना ही उन्हें पसंद है। समझौते के बगैर।)
साभार: तहलका हिन्दी डॉट कॉम
नमस्कार, आप का लेख बहुत से सवाल ले कर आया हे,
ReplyDeleteमे ज्यादा बत नही करुगां, ना ही अपनी कोई राय दुगां, बस आप के सवाल का जबाब आप के लेख मे ही हे...
आप कहते हे..****स्त्री को अपना सेक्स चुनने की आजादी हमारे यहां नहीं है।
आप ठीक कहते हे... लेकिन आप ने इस सवाल का जबाब तो खुद ही दे दिया.....
***पुरुष के लिए हर वक्त खुला है। पुरुष आजाद है हर कहीं 'मुंह मारने' के लिए। तो क्या आप बताये गे , जो पुरुष कही भी मुह मारते हे क्या वो स्त्री नही होती?????? जिस से वो मुह मारते हे,किसी ओर जीव से मुंह मारते हे, किसी जानवर से मुंह मारते हे?
धन्यवाद आप ने अपने विचार रखे, मेने अपने,लेकिन एक दोस्त के नाते इसे बिरोध मत समझे,अगर बुरा लगे तो आप से ओर लेखिका से माफ़ी चहाता हु.
भस्मासुर का नाच तभी तक ही अच्छा लग सकता है जब तक कि उनसे अपना हाथ अपने सर पर नहीं रखा हो. नदियां किनारों के बीच बहे तो ही सुकुनदायी है.
ReplyDeleteपुरुष आजाद है हर कहीं 'मुंह मारने' के लिए। यही कारण है स्त्री को अपना सेक्स चुनने की आजादी हमारे यहां नहीं है।
ReplyDeleteस्त्री जब अपने सुख के लिए सेक्स की मांग करने लगती है तो परंपरावादियों की तरह उनके तन-बदन में भी आग-सी लग जाती है। इन स्त्री-विमर्शवादियों को सेक्स के मामले में वही दबी-सिमटी स्त्री ही चाहिए जो मांग या प्रतिकार न कर सके।
मैं आप की भड़ास को समझ सकता हूँ ..और इसे दूर भी करना चाहता हूँ ...
accha likha hai aap ne ...
ReplyDeleteमुझे एक बात का जवाब आप सभी से चाहिए आखिर जब पुरुष अपने बल पर अंदरूनी और बाहरी सारे सुख भोगने को स्वतंत्र है तो यह आजादी स्त्रियों को क्यों और किसलिए नहीं दी जाती? ---
ReplyDeleteइस सवाल के लिए एक ही जवाब है कि आज़ादी दी नही ली जाती है... पुरुष अगर आज़ादी के लिए हाथ नही फैलाता तो स्त्री क्यों !!
क्या इच्छाएं सिर्फ पुरुषों की ही गुलाम होती हैं, स्त्रियों की नहीं? ---- मेरे विचार में स्त्री सदियों से अपनी इच्छाओं को दबाने में कुशल हो चुकी है...
great
ReplyDeletemai aapki bhawna ko samajhta hoon lekin aaj samaj me sex ko leke kafi udherboon hai.Logon mein iski jagrukta bilkul nahi ke barabar hai. Mai ye bhi manta hoon ki purush apni paurush ko dikhane ke liye kafi had tak gir sakte hain.
ReplyDeletelast but not the least...
wo bhul gaye hain ki wo bhi kisi maa ke garv se janme hain...
में आपके विचारो की बहुत क़द्र करता हूँ. काश ऐसा हो पाता!
ReplyDeleteखेर मुजे लगता है की हमारे समाज में महिलाओ की इसतथी सुधरेगी . आप और हम मिलकर समाज को बदलने की कोसिस करेंगे.