राष्ट्रीयता के प्रति वाम दलों की भूमिका ऐसी है, मानों उनकी दृष्टि में आतंकियों का जेहाद भारतीय पूंजीवाद के खिलाफ एक वर्ग संघर्ष हो !
उदय केसरी
सीधीबात पर दिल्ली बम धमाके (13 सितंबर) के एक दिन पहले ही ‘...तो भारत क्यों नहीं पीओके में घुसकर मार सकता’ आलेख के जरिये यह आवाज बुलंद की गई कि आतंकी दहशतगर्दों से भारत और भारतवासियों की रक्षा करना है, तो अमेरिका की तरह भारत को भी तत्काल सख्त जवाबी कदम उठाना होगा।...इसके दूसरे ही दिन देश की राजधानी में आतंकियों ने सीरियल बम बलास्ट कर दिया, जिसमें 22 बेगुनाहों की मौत हुई और सौ से अधिक लोग जख्मी हो गए। इस घटना के 13 दिन बाद एक बार फिर दिल्ली के महरौली में विस्फोट हुआ।...यही नहीं फिर 30 अक्टूबर को आतंकी बम बलास्ट से असम दहल उठा। इसमें 13 धमाकें, 70 निर्दोषों की मौत और 470 से अधिक लोग घायल हो गए।...और अब फिर 26 नवंबर को मुंबई पर हमला।...क्या भारत के संयम की कोई हद है या नहीं?...और यदि है, तो भारत के खिलाफ आतंकियों ने सारी हदें पार नहीं कर ली हैं?...यदि हां, तो केंद्र सरकार अब तक सोच-विचार में ही क्यों डूबी हुई है?
मुंबई हमले के बाद से सीधीबात पर दो आलेखों में फिर से पीओके पर हमले की आवाज बुलंद की गई, जिसमें आपमें से कई ब्लॉगर पाठकों की आवाज भी शामिल है। यही नहीं, अब तो पूरा संवेदनशील भारत बदले की आग में जल रहा है। हर दिन आतंकी हमलों पर जनता नेताओं को कोस रही है। इसके बावजूद केंद्र सरकार सख्त फैसला लेने में देर कर रही है।...जबकि अब तो अमेरिका भी यह कह रहा है कि भारत को आतंक के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करने का पूरा हक है।...ऐसे में, देश के बुजुर्ग नेताओं से बड़ी खीज उत्पन्न होती है...और दिल टीस से भर उठता है-कि काश! अपने देश की बागडोर भी किसी युवा के हाथ में होती...तो आतंकियों के हौसले इतने बुलंद न होते कि वे हमें बता-बता कर हमारी धरती पर तबाही मचाते...और हमारे देश के नेता कभी बयान देकर, कभी खेद जताकर, तो कभी इस्तीफा देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते।
यह स्थिति तब है, जब 26 नवंबर के आतंकी हमले ने मुंबई ही नहीं, पूरे देश की संवेदनशील व प्रभावित जनता को झकझोर कर रख दिया है। यहां संवेदनशील से मेरा अर्थ उनसे है जिनके लिए देश के प्रति वफादारी सर्वोच्च है, दूसरा शब्द प्रभावित यानी आतंक की आग में मारे गए बेगुनाहों के परिजन। इसके बाद देश में जो लोग बचते हैं, वे हैं नेता (अपवाद हो सकते हैं), अपराधी, भ्रष्ट नौकरशाह यानी बेईमान, जिनके लिए सत्ता, पार्टी व पैसा सर्वोच्च है।...इन्हें मुंबई हमले ने झकझोरा नहीं, बल्कि संवेदनशील व प्रभावित जनता के बीच रहना दूभर कर दिया है। तभी तो वे पागल कुत्तों की तरह कुछ भी भौंकने लगे हैं। हालांकि इसका तत्काल खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। फिर भी वे इससे बाज नहीं आ रहे, क्योंकि उन्हें असल संवेदना का मतलब ही नहीं मालूम। न्यूज चैनलों पर ऐसे नेताओं को ‘बयान बहादुर’, ‘बेशर्म बयान’, तो ‘क्योंकि इन्हें शर्म नहीं आती’ आदि कई अलंकारों से विभूषित किया गया, पर इससे उनकी संवेदना व नैतिकता यदि जागती तो देश में कभी ऐसी नौबत ही न आती।
खैर, मैं वामपंथी व साम्यवादी दलों के राजनीतिक वर्ग की देश की राष्ट्रीयता के प्रति भूमिका पर कुछ सीधीबात करना चाहता हूं। यह वर्ग ऐसा है, जो मजदूरों, किसानों व गरीबों के हक और बुनियादी परिवर्तन के लिए क्रांति की बात करता है। कार्ल मार्क्स के समाजवाद या साम्यवाद का सपना देखने की वकालत करता है। इनकी बातों के पीछे दर्शनों की भरमार होती है। लेकिन आप कहेंगे कि राष्ट्रीयता, राष्ट्रधर्म, देशभक्ति, भारतमाता, तो ऐसी बातें इन्हें जज्बाती और बेतुकी लगती है। ये धर्म को नहीं मानते। पूंजीवाद को अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते हैं। पूजा-पाठ करने वाले इनकी नजर में मूर्ख व अंधविश्वासी हैं। यहीं नहीं, देश की आजादी की लड़ाई में इनका कोई सरोकार नहीं था, ये अपने वाद के तहत परिवर्तन का रट लगाते हुए स्वाधीनता संग्राम से तटस्थ रहे। देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले असंख्य शहीदों के प्रति इनके मन में बस औपचारिक सम्मान है।
यह आलेख पढ़ने वाले वामपंथी दलों के समर्थक जरूर यह कहेंगे कि मेरी बातें आरोप है, जिसका कोई सबूत नहीं। या फिर मुझे दक्षिणपंथी घोषित कर देंगे। मुझे इससे कोई मतलब नहीं...और उन्हें सबूत देने से कोई फायदा भी नहीं। जिनके वाद से पैदा हुआ नक्सलवाद अपने ही देश में या कहें घर में निहत्थों, मजलूमों, किसानों व गरीबों की हत्या कर सामानांतर सरकार चलाने का दंभ भरता है। ऐसे वादियों से भी देश के संवदेनशील लोगों को सतर्क रहना चाहिए। खैर, अभी तो आतंकी संकट से निपटने के लिए जरूरी राष्ट्रीयता में वाम दलों की भूमिका की बात कर रहे हैं, तो याद करें कि क्या पिछले अनेक बम धमाकों के बाद वाम दलों की कोई भी ऐसी प्रतिक्रिया आई, जो देश की सुरक्षा व्यवस्था की बेहतरी या निकंमेपन के विरोध में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने वाली हो। या फिर, आतंक की समस्या से निपटने के लिए संघर्ष करने का जनता को भरोसा देती हो।...जहां तक मुझे याद है, नहीं। राष्ट्रीयता के मुद्दे से इतर थोड़ा नजर डालें, तो केंद्र सरकार पर पिछले दिनों करार के मुद्दे पर तो वाम दलों ने सरकार तक को हिला कर रख दिया। अब जब देश के खिलाफ आतंकियों ने सारी हदें पार कर दी है, तब देखिए, इन वाम दलों की भूमिका- मुंबई हमले में शहीद मेजर संदीप के घर से निकाले जाने पर केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन ने कहा- ‘शहीद का घर नहीं होता, तो कुत्ता भी नहीं जाता।’ जब इस बयान पर देश भर में बवाल मचा तो माकपा नेता प्रकाश कारत ने इस पर औपचारिक खेद व्यक्त कर दिया। सीपीआई नेता एबी वर्धन ने कहा- शब्द गलत हो सकते हैं, पर अच्युतानंदन ने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे तूल दिया जाए। इसके बाद भी जब इस बयान पर बवाल नहीं थमा, तो दो दिन बाद अपनी कुर्सी के मोह से बाध्य होकर अच्युतानंदन को भी अपने बयान पर खेद प्रकट करना पड़ा। अब देखिए जरा, इस वाकये के दौरान दिल्ली में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई सर्वदलीय बैठक में जब आतंक के खिलाफ संघीय जांच एजेंसी बनाने का प्रस्ताव लाया गया, तो केवल वाम दलों को ही एतराज हुआ।
जब पूरा देश आतंक से सुरक्षा, आतंकियों से बदला लेने और देश की संप्रभुता पर लगे दाग को मिटाने की सोच रहा है, तब वाम दलों के पास आतंकियों के विरुद्ध भारत सरकार की कार्रवाई के खिलाफ भी सोचने का वक्त है। तब तो कोई आश्चर्य नहीं, वाम दलों की दृष्टि में आतंकियों का जेहाद भारतीय पूंजीवाद के खिलाफ एक वर्ग संघर्ष जैसा हो, जिसका पक्ष लेना उनका परम कर्तव्य है। (इस मुद्दे पर बाकी बातें मैं बाद में करूंगा, धन्यवाद।)
उदय केसरी
सीधीबात पर दिल्ली बम धमाके (13 सितंबर) के एक दिन पहले ही ‘...तो भारत क्यों नहीं पीओके में घुसकर मार सकता’ आलेख के जरिये यह आवाज बुलंद की गई कि आतंकी दहशतगर्दों से भारत और भारतवासियों की रक्षा करना है, तो अमेरिका की तरह भारत को भी तत्काल सख्त जवाबी कदम उठाना होगा।...इसके दूसरे ही दिन देश की राजधानी में आतंकियों ने सीरियल बम बलास्ट कर दिया, जिसमें 22 बेगुनाहों की मौत हुई और सौ से अधिक लोग जख्मी हो गए। इस घटना के 13 दिन बाद एक बार फिर दिल्ली के महरौली में विस्फोट हुआ।...यही नहीं फिर 30 अक्टूबर को आतंकी बम बलास्ट से असम दहल उठा। इसमें 13 धमाकें, 70 निर्दोषों की मौत और 470 से अधिक लोग घायल हो गए।...और अब फिर 26 नवंबर को मुंबई पर हमला।...क्या भारत के संयम की कोई हद है या नहीं?...और यदि है, तो भारत के खिलाफ आतंकियों ने सारी हदें पार नहीं कर ली हैं?...यदि हां, तो केंद्र सरकार अब तक सोच-विचार में ही क्यों डूबी हुई है?
मुंबई हमले के बाद से सीधीबात पर दो आलेखों में फिर से पीओके पर हमले की आवाज बुलंद की गई, जिसमें आपमें से कई ब्लॉगर पाठकों की आवाज भी शामिल है। यही नहीं, अब तो पूरा संवेदनशील भारत बदले की आग में जल रहा है। हर दिन आतंकी हमलों पर जनता नेताओं को कोस रही है। इसके बावजूद केंद्र सरकार सख्त फैसला लेने में देर कर रही है।...जबकि अब तो अमेरिका भी यह कह रहा है कि भारत को आतंक के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करने का पूरा हक है।...ऐसे में, देश के बुजुर्ग नेताओं से बड़ी खीज उत्पन्न होती है...और दिल टीस से भर उठता है-कि काश! अपने देश की बागडोर भी किसी युवा के हाथ में होती...तो आतंकियों के हौसले इतने बुलंद न होते कि वे हमें बता-बता कर हमारी धरती पर तबाही मचाते...और हमारे देश के नेता कभी बयान देकर, कभी खेद जताकर, तो कभी इस्तीफा देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते।
यह स्थिति तब है, जब 26 नवंबर के आतंकी हमले ने मुंबई ही नहीं, पूरे देश की संवेदनशील व प्रभावित जनता को झकझोर कर रख दिया है। यहां संवेदनशील से मेरा अर्थ उनसे है जिनके लिए देश के प्रति वफादारी सर्वोच्च है, दूसरा शब्द प्रभावित यानी आतंक की आग में मारे गए बेगुनाहों के परिजन। इसके बाद देश में जो लोग बचते हैं, वे हैं नेता (अपवाद हो सकते हैं), अपराधी, भ्रष्ट नौकरशाह यानी बेईमान, जिनके लिए सत्ता, पार्टी व पैसा सर्वोच्च है।...इन्हें मुंबई हमले ने झकझोरा नहीं, बल्कि संवेदनशील व प्रभावित जनता के बीच रहना दूभर कर दिया है। तभी तो वे पागल कुत्तों की तरह कुछ भी भौंकने लगे हैं। हालांकि इसका तत्काल खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। फिर भी वे इससे बाज नहीं आ रहे, क्योंकि उन्हें असल संवेदना का मतलब ही नहीं मालूम। न्यूज चैनलों पर ऐसे नेताओं को ‘बयान बहादुर’, ‘बेशर्म बयान’, तो ‘क्योंकि इन्हें शर्म नहीं आती’ आदि कई अलंकारों से विभूषित किया गया, पर इससे उनकी संवेदना व नैतिकता यदि जागती तो देश में कभी ऐसी नौबत ही न आती।
खैर, मैं वामपंथी व साम्यवादी दलों के राजनीतिक वर्ग की देश की राष्ट्रीयता के प्रति भूमिका पर कुछ सीधीबात करना चाहता हूं। यह वर्ग ऐसा है, जो मजदूरों, किसानों व गरीबों के हक और बुनियादी परिवर्तन के लिए क्रांति की बात करता है। कार्ल मार्क्स के समाजवाद या साम्यवाद का सपना देखने की वकालत करता है। इनकी बातों के पीछे दर्शनों की भरमार होती है। लेकिन आप कहेंगे कि राष्ट्रीयता, राष्ट्रधर्म, देशभक्ति, भारतमाता, तो ऐसी बातें इन्हें जज्बाती और बेतुकी लगती है। ये धर्म को नहीं मानते। पूंजीवाद को अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते हैं। पूजा-पाठ करने वाले इनकी नजर में मूर्ख व अंधविश्वासी हैं। यहीं नहीं, देश की आजादी की लड़ाई में इनका कोई सरोकार नहीं था, ये अपने वाद के तहत परिवर्तन का रट लगाते हुए स्वाधीनता संग्राम से तटस्थ रहे। देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले असंख्य शहीदों के प्रति इनके मन में बस औपचारिक सम्मान है।
यह आलेख पढ़ने वाले वामपंथी दलों के समर्थक जरूर यह कहेंगे कि मेरी बातें आरोप है, जिसका कोई सबूत नहीं। या फिर मुझे दक्षिणपंथी घोषित कर देंगे। मुझे इससे कोई मतलब नहीं...और उन्हें सबूत देने से कोई फायदा भी नहीं। जिनके वाद से पैदा हुआ नक्सलवाद अपने ही देश में या कहें घर में निहत्थों, मजलूमों, किसानों व गरीबों की हत्या कर सामानांतर सरकार चलाने का दंभ भरता है। ऐसे वादियों से भी देश के संवदेनशील लोगों को सतर्क रहना चाहिए। खैर, अभी तो आतंकी संकट से निपटने के लिए जरूरी राष्ट्रीयता में वाम दलों की भूमिका की बात कर रहे हैं, तो याद करें कि क्या पिछले अनेक बम धमाकों के बाद वाम दलों की कोई भी ऐसी प्रतिक्रिया आई, जो देश की सुरक्षा व्यवस्था की बेहतरी या निकंमेपन के विरोध में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने वाली हो। या फिर, आतंक की समस्या से निपटने के लिए संघर्ष करने का जनता को भरोसा देती हो।...जहां तक मुझे याद है, नहीं। राष्ट्रीयता के मुद्दे से इतर थोड़ा नजर डालें, तो केंद्र सरकार पर पिछले दिनों करार के मुद्दे पर तो वाम दलों ने सरकार तक को हिला कर रख दिया। अब जब देश के खिलाफ आतंकियों ने सारी हदें पार कर दी है, तब देखिए, इन वाम दलों की भूमिका- मुंबई हमले में शहीद मेजर संदीप के घर से निकाले जाने पर केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन ने कहा- ‘शहीद का घर नहीं होता, तो कुत्ता भी नहीं जाता।’ जब इस बयान पर देश भर में बवाल मचा तो माकपा नेता प्रकाश कारत ने इस पर औपचारिक खेद व्यक्त कर दिया। सीपीआई नेता एबी वर्धन ने कहा- शब्द गलत हो सकते हैं, पर अच्युतानंदन ने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे तूल दिया जाए। इसके बाद भी जब इस बयान पर बवाल नहीं थमा, तो दो दिन बाद अपनी कुर्सी के मोह से बाध्य होकर अच्युतानंदन को भी अपने बयान पर खेद प्रकट करना पड़ा। अब देखिए जरा, इस वाकये के दौरान दिल्ली में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई सर्वदलीय बैठक में जब आतंक के खिलाफ संघीय जांच एजेंसी बनाने का प्रस्ताव लाया गया, तो केवल वाम दलों को ही एतराज हुआ।
जब पूरा देश आतंक से सुरक्षा, आतंकियों से बदला लेने और देश की संप्रभुता पर लगे दाग को मिटाने की सोच रहा है, तब वाम दलों के पास आतंकियों के विरुद्ध भारत सरकार की कार्रवाई के खिलाफ भी सोचने का वक्त है। तब तो कोई आश्चर्य नहीं, वाम दलों की दृष्टि में आतंकियों का जेहाद भारतीय पूंजीवाद के खिलाफ एक वर्ग संघर्ष जैसा हो, जिसका पक्ष लेना उनका परम कर्तव्य है। (इस मुद्दे पर बाकी बातें मैं बाद में करूंगा, धन्यवाद।)
पढ़ कर अच्छा लगा.. बहुत बढ़िया लिखा आपने.. अगर मौका मिले तो मेरा १ दिन पुराना लेख पढ़ लें.. लिंक है - http://prashant7aug.blogspot.com/2008/12/blog-post.html
ReplyDeleteएक चेहरा है जो जो बुढापे से अभी दूर है, अनुभवी है, अपनी लोकप्रियता सिद्ध कर चुका है, अपने शासनकाल में भारी औद्योगिक विकास करके दिखलाया है.
ReplyDeletehttp://hamaravatan.blogspot.com/2008/12/blog-post.html
वैसे कहने को तो ४० वर्षीय राहुल बाबा भी है, मदाम के युवराज, पर उन्होंने किसी भी पद, योग्यता, मानदंड, ज़िम्मेदारी या जनता के बीच चुनावी दंगल में अपने को सिद्ध नहीं किया है. उनकी शैक्षणिक योग्यता, भारतीय समाज की समझ और मानसिक परिपक्वता भी सवालों के घेरे में है, वे या उनकी मम्मी आज तक किसी लाइव बहस या टॉक शो में पब्लिक के सीधे सवालों के घेरे में नहीं आए हैं. क्या वे इतने स्पेशल हैं मीडिया के लिए की उन्हें सवालों के घेरे में लाना मीडिया कुफ्र मानती है?
सर आपने जो भी लिखा सही है लेकिन क्या अपने यह कभी सोचा की ये वृद्ध वजीर अपनी जागीर रूपी राजनीती को समाप्त नही करना चाहते लेकिन मै यह पुरे विस्वास से कहता हु की वो सुबह जरुर आएगी जब हमारे देस पर हमला करने वाला यह सोचकर पीछे हट जाएगा की वहा की जनता और सासन में कोई अन्तर नही है रही बात इन राजनीतिको की तो बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी पुरे देस की आवाज आज जिस तरह से उठी है उससे पुरे राज नेताओ को जैसे बिछु ने दान मर दिया है उन्हें अपनी सीमा का भी अहसास भी हो गया है आप जैसे लोगो की लेखनी इसी तरह चालती रही तो वो दिन दूर नही जब पुरे देस में हमारी शाख होगी
ReplyDeleteउदय जी भावनाओं और जज्बातों से युद्ध नही जीता जा सकता. हमें पाक पर आक्रमण करने से समस्या का हल नही निकल सकता. आप किस आतकवाद की बात करते हैं अब तो वह भारत में भी सर उठा रहा है . दरअसल हमें अपने सुरक्षा की व्यवस्था में सुधार और लोगों को जागरूक बनाकर इस समस्या से निपटा जा सकता है .
ReplyDeleteअवधेश कुमार
मीडिया स्टुडेंट, जामिया मिल्लिया इस्लामिया
उदयजी आपकी भावनाओं में राष्ट्र की वर्तमान स्थिति के लिए अदम्य पीडा झलक रही है नव युवक लेकिन भ्रस्त नेता से भी कुछ भला होने वाला नही है जब तक जन प्रतिनिधियों को अनावश्यक विशेष सुविधाएं, रुतबा और विकास निधि के नाम पर लूट के अवसर प्रदान किए जायेंगे तब तक जो भी चुन कर आयेंगे वो ऐसे ही होजयेंग क्यों की 'प्रभुता पाही कही मद नही' आपके उत्तेजक विचारों के लिए साधुवाद
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