लोक की पूर्ण जगरुकता बिन लोकतंत्र अधूरा

उदय केसरी-
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लोकतंत्र की अवधारणा में मोटे तौर पर जनता का शासन, समता, स्वतंत्रता, न्याय व निष्पक्षता का विशेष महत्व होता है। हमारा देश भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, तो जाहिर है कि हमें अपने लोकतंत्र पर गर्व है। लेकिन यह लोकतंत्र रूपी सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू वह है जिसमें हम लोकतंत्र के इन्हीं महत्वों को अक्षुण्ण व मजबूत बनाए रखने की अपेक्षा उनसे करते हैं, जिन्हें हम अपना वोट देकर सत्ता की कुर्सी पर बिठाते हैं। दरअसल वो सत्ताधारी जनता का प्रतिनिधि होता है और उसकी जिम्मेदारी होती है कि जनता के मन मुताबिक शासन करे। पर क्या दरअसल ऐसा होता है ? नहीं ! जब जनता को अपने द्वारा चुनी हुई सरकार से ही अपनी बुनियादी जरूरतों की मांग को लेकर संघर्ष करना पड़ता है तो फिर लोकतंत्र में जनता के शासन का महत्व कैसा ?

फिर भी लोकतंत्र दुनिया भर के अन्य सभी शासन प्रणालियों में सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि 'लोकतंत्र' शब्द जनता में एक भरोसा पैदा करता है। इसमें उसे वोट देने का राजनीतिक अधिकार मिलता है। यह अधिकार साधारण नहीं, अनमोल है। जनता इस अधिकार के जरीये अपने अन्य सभी अधिकारों व अपेक्षाओं की पूर्ति कर सकती है। लेकिन तभी एक सवाल भी खड़ा होता है कि भारत जैसे देश में जनता क्या अपने इस अधिकार और इसकी शक्ति के प्रति पूरी तरह जागरूक है ? नहीं! वजह है जागरूकता का अभाव।

जागरुकता और शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं। जबकि अपने देश की आधी से अधिक आबादी तो अब भी शिक्षा की रौशनी से दूर है। जाहिर है अपने देश की शत प्रतिशत जनता जबतक शिक्षित नहीं होगी, तबतक वह अपने लोकत्रांतिक अधिकारों के बारे में पूर्णतः जागरूक भी नहीं होगी। और इसका अर्थ यह भी है कि हम भले ही सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा होने का गर्व कर लें, फिर भी क्या आप इसके पूर्ण हिस्सेदार खुद को बना पाये हैं ? यह सवाल हम सबको खुद से पूछने की जरूरत है। तभी हम अपने सबसे बड़े लोकतंत्र से अपने देश को उन्नति व उत्थान के शिखर पर ले जाने का सपना सच कर सकते हैं।