मोदी के आगे दंडवत भाजपा का सच

उदय केसरी  
केंद्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार लगातार खुद अपने हाथों अपना कब्र खोदने में लगी है। बेहिसाब महंगाई और पेट्रोल के दाम में अपूर्व वृद्धि से साफ होने लगा है कि सरकार को शायद अब सत्ता की फिक्र नहीं रही है। ऐसे में हालत में यदि चुनाव की नौबत आ जाए तो कई बुराइयों के बाद भी एंटी इनकम्बेंसी का सबसे अधिक लाभ भाजपा को मिलने के अनुमान लगाए जा रहे हैं। जाहिर है कि भाजपा यूपीए-2 की नाकामी और बदनामी से खुश तो बहुत होगी। लेकिन मुंबई में भाजपा की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से ठीक पहले भाजपा में जो घटना हुई है, उसने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है। भाजपा ने जिस तरह से ऐन वक्त पर संजय जोशी की बलि लेकर नरेंद्र मोदी को कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने के लिए मनाया है, उससे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के कयास को बल मिला है। बहस इन सवालों पर कि क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के लायक हैं? हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाने वाले नरेंद्र पर से 2002 में लगे गुजरात दंगों के दाग धुल गए हैं? मोदी को वाकई में विकास पुरुष माना जा सकता है? गुजरात की जमीनी हकीकत प्रचारित विकास मॉडल से कितना अलग है? और कई सवालों पर बहस होने लगा है। लेकिन मेरे सवाल यह हैं कि क्या भाजपा में नेताओं की कमी हो गई है? भाजपा क्या अपने संगठन धर्म को भूल चुकी है? क्या भाजपा नरेंद्र मोदी को इसलिए महत्व दे रही है, क्योंकि गुजरात के तथाकथित विकास से मोदी को काफी लोकप्रियता मिली और वह लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने?
     दरअसल, देश 2002 के गुजरात दंगों के दर्दनाक दृश्य को अबतक नहीं भूल पाया है। इस दृश्य के कसूरवार के तौर पर नरेंद्र मोदी को देखा जाता है। कानूनी तौर पर भी मोदी की छवि से यह दाग अबतक नहीं धुला है। ऐसे में भी यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में पेश करने पर विचार रही है, तो यह कदम भाजपा के साम्प्रदायिक छवि को और गहरा करेगा। वहीं इस कदम के नतीजे का अंदाजा पिछले चुनाव से लिया जा सकता है, जब लालकृष्णा आडवाणी को प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में पेश किया गया था। आडवाणी को भी जनता साम्प्रदायिकता की छाया में ही देखती रही है। वैसे भी, पिछले आम चुनाव और गुजरे कई विधानसभा चुनावों में धर्म, जाति व क्षेत्र के मुद्दे विकास के आगे क्षीण हुए हैं। विकास का मुद्दा देशभर में सबसे अहम चुका है।
    ऐसे में यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में भी पेश करती है तो भी सवाल है कि भाजपा की राय क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह बारे में विकास पुरुष वाला नहीं है? दरअसल भाजपा यदि वाकई में किसी गैर-साम्प्रदायिक छवि वाले विकास पुरुष को अपना नेता बनाने के पक्ष होती तो नरेंद्र मोदी की जगह वह शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह को ज्यादा तवज्जो देती है। ये दोनों मुख्यमंत्री भी संगठन की बजाय अपनी छवि और विकास के मुद्दों के दम पर लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं। इसके बाद भी यदि एनडीए के नेता के रूप देखा जाए तो शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के अलावा एक तीसरा नाम भी अहम है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का। ये तीनों नाम ऐसे हैं जो न सिर्फ लगातार दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुए हंै, बल्कि अपने प्रदेशों में विकास को एक सराहनीय गति प्रदान किए हैं, वहीं इनपर न किसी दंगे में बहे खून के  छीटें हैं और न ही मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता के दाग।
       इन सवालों पर जारी बहसों में के बीच सवाल यह भी है कि भाजपा में आखिर नरेंद्र मोदी को इतनी महत्ता क्यों दी जा रही है? इसका जवाब इस तथ्य में देखा जा सकता है कि भाजपा संगठन को सबसे अधिक आर्थिक संपोषण गुजरात से हो रहा है। फिर नरेंद्र मोदी के नाम पर धनवर्षा की जो गुंजाइश है, वह अन्य किसी पार्टी नेता के नाम पर कम ही नजर आती है। और लाख टके का सवाल यह कि इस दौर में बिना धन के चुनाव आखिर कौन पार्टी जीत पाती है?  

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