मुश्किल में देश, ठोस नेतृत्व की दरकार

 उदय केसरी 
 देश काफी अजीबो-गरीब दौर से गुजर रहा है। केंद्र की यूपीए सरकार ने अपनी दूसरी पारी का तीसरा साल पूरा कर लिया है। इस पारी के ये तीन साल बड़ी मुश्किल से पूरे हुए हैं। घोटालों के फोड़ों के बदबूदार जख्म और भ्रष्टाचार विरोधी कोड़ों की मार से सरकार बेहाल रही है। वहीं इस दौर में महंगाई की मार से जनता इस कदर परेशान है कि उसका तो जैसे सरकार पर भरोसा ही उठ गया है। यूपीए की दूसरी पारी में गैरों (विपक्ष) के साथ-साथ अपनों (गठबंधन दलों) ने हर मुद्दे पर सरकार को निचोड़ा है। नतीजतन, सरकार बहुत कमजोर और दुबली हो चुकी है। फिलहाल यह सरकार बड़ी मुश्किल से सांस ले पा रही है। ऐसी अवस्था में यह सरकारअपने शेष दो साल पूरा करने से पहले भी लुढ़क सकती है। ऐसी आशंका पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के कई धुरंधर नेता कर रहे हैं। यूपी में धमाकेदार जीत दर्ज कर केंद्र की राजनीति में काफी मजबूत दिख रहे मुलायम सिंह ने तो चुनाव खत्म होते ही अपने कार्यकर्ताओं को आम चुनाव की तैयारी में लग जाने का निर्देश दे दिया था। इसके बाद अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी हाल में ऐसा ही निर्देश अपने कार्यकर्ताओं को दिया है। अपने कार्यकर्ताओं को ममता ने तो यह भी कहा था कि वाम दल इसकी तैयारी में पहले से ही लग चुके हैं। जाहिर है केंद्र की सत्ता यूपीए के नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के नियंत्रण से बहुत तक बाहर हो चुकी है। एबीपी न्यूज-नीलसन के सर्वे ने तो जैसे इस बात की तस्दीक कर दी है। इसके मुताबिक 57 फीसदी लोगों का मत है कि मौजूदा यूपीए सरकार आजाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार है। सरकार के लिए परेशानी की बात यह है कि पिछले साल जहां 45 फीसदी लोगों ने सरकार को भ्रष्ट माना था, वह आंकड़ा अब बहुमत को पार करके 12 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ 57 फीसदी पर पहुंच गया है।
    सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी से यूपीए की पहली पारी में जनता को उम्मीद की नई किरणें अवश्य दिखी थीं। वे किरणें दूसरी पारी में अंधेरे में तब्दील हो चुकी हैं। यूपी चुनाव के बाद राहुल गांधी की जैसी छवि उभरकर सामने आई है, वह जनता के लिए निराशाजनक है। मनमोहन सिंह तो पहले से ही यह जाहिर कर चुके हैं कि यूपीए की सरकार में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की कुर्सी में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों का नियंत्रण कहीं और से होता है। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की इस विवशता को अब पूरा देश समझ चुका है। यही वजह है कि इस सरकार पर तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद भी मनमोहन सिंह को व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार बताया जाता है। सवाल है यूपीए सरकार की पहली पारी से दूसरी पारी में आते ही ऐसा क्या हो गया है, जिससे देश की, औसत दर्जे की ही सही, खुशहाली पर ग्रहण लग गया है। 
    दरअसल, पिछली यूपीए सरकार के रास्ते में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर वाम दलों ने काफी रोड़े अटकाए थे, लेकिन इसके बावजूद नीतिगत मसलों पर वह आगे बढ़ती गई थी। लेकिन यूपीए-2 में सरकार में किसी भी मुद्दे पर सरकार कोई निर्णय नहीं ले पा रही है। अनिर्णय की इस दशा में देश कहीं रुक या पिछड़ सा गया है। सरकार सबसे अधिक महंगाई से परेशान है, जो अप्रैल में दहाई के आंकड़े में पहुंच गई है। इतना ही नहीं विनिर्माण और कर संग्रहण के क्षेत्र में भी गिरावट ने सरकार की रातों की नींद उड़ा रखी है। अर्थशास्त्री से राजनेता बने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर पहले कार्यकाल में अपनी सरकार पर बड़ा दांव खेला था, लेकिन वह भी इस बार 2जी स्पेक्ट्रम समेत विभिन्न घोटालों में ऐसी उलझी है कि उससे निकल पाना मुश्किल हो रहा है। वहीं राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले ने पहले ही सरकार की छवि को आघात पहुंचाया है।
    हालांकि सरकार की बेहतर छवि पेश करने के लिए बनाए गए मंत्रियों के समूह के प्रमुख सदस्य और विधि मंत्री सलमान खुर्शीद का मनमोहन सिंह के बारे में कहना है कि, ‘मुझे नहीं लगता कि इस समय हमारे पास उनसे बेहतर कोई व्यक्ति हो सकता है। ऐसे समय में जब हम दबाव में हैं और भारत के शासन को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। हमारे पास सिंह से अच्छा व्यक्ति हो ही नहीं सकता।’ जाहिर है कांग्रेस के पास राहुल गांधी या अन्य कोई नाम अब ऐसा नहीं बचा है, जो जनता में भरोसे की डोर को फिलहाल थाम सके। सवाल है कि यदि इतने काबिल अर्थशास्त्री के हाथों में भी देश की अर्थव्यवस्था की डोर कमजोर पड़ रही है तो फिर इस देश को आखिर महंगाई और भ्रष्टाचार की मार से कौन बचा पाएगा?
    एबीपी न्यूज-नीलसन के सर्वे में जनता के सामने प्रधानमंत्री पद पर अपनी पसंद बताने के लिए तीन नाम रखे गए थे। ये तीन नाम थे- नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह और राहुल गांधी। इस सर्वे का जो निष्कर्ष निकला, उसमें मोदी को 17 फीसदी जनता ने पसंद किया तो मनमोहन सिंह को 16 फीसदी लोग ने, वहीं राहुल गांधी को बतौर प्रधानमंत्री 13 फीसदी जनता अपना समर्थन देने को राजी हुई। जनता की पसंद में महज एक से चार फीसदी अंतर यह स्पष्ट करते हैं कि यह पसंद कम मजबूरी अधिक है। देश के प्रधानमंत्री के तौर पर जनता के सामने प्रधानमंत्री पद के लिए यदि यही सबसे बड़ विकल्प हैं तो यह चिंताजनक स्थिति है। ऐसे में यूपी चुनाव के बाद से देश की राजनीतिक गलियारों से, जो तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट रह-रहकर आ रही है, उसे अब खुले तौर पर सामने आ जाना चाहिए। इससे पहले कि देश के नेतृत्व को लेकर जनता का भरोसा पूरी तरह से न उठ जाए। 

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