देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी के सबसे शीर्ष पायदान पर बैठे नीति-नियंताओं के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा की महत्ता अब सत्ता की राजनीति से उपर नहीं रह गई है. तभी, केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल को दिल्ली धमाके के दौरान कपड़े बदलने का वक्त मिल जाता है, तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को यह खुलासा करने की सुध आ जाती है कि उन्होंने प्रधानमंत्री को धमाके की आशंका से पहले ही आगाह कर दिया था, वहीं प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने फिर रहे भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी गृह मंत्री शिवराज पाटिल को हटाने की मांग करने लगते हैं, और अव्वल तो यह कि रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव अपनी ही सरकार में आईबी व्यवस्था को फेल बताने लगते हैं...किसी ने यह नहीं कहा कि देश की सुरक्षा के लिए और क्या जरूरी उपाय किया जाए और इसके लिए वे तत्काल क्या ठोस कदम उठाने जा रहे हैं, जो आतंकियों में खलबली मचा दे और उनके नापाक मंसूबों को पस्त कर दे. लेकिन अपने देश में शायद यह तबतक संभव नहीं लगता, जबतक देश की सुरक्षा के शीर्ष पर बैठे राजनेताओं व नौकरशाहों की राष्ट्रीय नैतिकता सत्तालोलुपता के गंदे दायर से बाहर नहीं हो जाती...इसी सच का खुलासा करती है महानगर टाइम्स वेब पोर्टल पर प्रकाशित यह रिपोर्ट.
केंद्रीय गृह मंत्रालय की सुस्त चाल और हर निर्णय को लागू करने के पहले ‘वोट के तराजू’ पर तौलने की पार्टियों की नीति के चलते देश की खुफिया व्यवस्था को समृद्ध करने की एक महती योजना ने अस्तित्व में आने से पहले ही दम तोड़ दिया।
11 सितम्बर 2001 को जब अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमला हुआ था, तो आनन-फानन में भारत सरकार द्वारा बुलायी गयी सुरक्षा मामलों की कैबिनेट ने देश के खुफिया तंत्र को धारदार बनाने के लिए ‘मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स’ के गठन का निर्णय लिया था। ‘इंटेलीजेंस ब्यूरो’ के अधीन बनायी जाने वाली इस टास्क फोर्स में रा, मिलट्रिी इंटेलीजेंस और राज्यों की खुफिया इकाईयों के प्रतिनिधित्व की रूपरेखा बनायी गयी थी। सात साल बाद भी केंद्र सरकार की यह योजना अस्तित्व में क्यों नहीं आ पायी, इसका जवाब गृह मंत्रालय के पास नहीं है। शायद यह बात कहने-सुनने की नहीं है कि सरकार बदलती है तो प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं।
लेकिन ‘मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स’ के गठन का निर्णय जब राजग के कार्यकाल में लिया गया था, तो उसके बाद इसे अस्तित्व में लाने के लिए राजग के पास ही ढाई साल का वक्त था। उस समयावधि में तो यह अस्तित्व में नहीं ही आया, सरकार बदल गयी तो वैसे भी इसे ठंडे बस्ते में जाना था। यूपीए सरकार ने भी देश और देश की जनता की सुरक्षा के लिए इस महती योजना पर गौर नहीं किया। सरकार की प्राथमिकता में यह नहीं था। जाहिरा तौर पर कैबिनेट का यह फैसला गृह मंत्रालय के किसी कोने में फेंक दिया गया। शायद इस फोर्स का गठन हो गया होता तो हमारी खुफिया व्यवस्था इतनी लाचार नहीं होती।
एक के बाद एक धमाके नहीं होते और न जाने कितने मासूमों की जान यूं ही नहीं चली जाती। वर्ष 1999 में जब करिगल में तकरीबन सौ से अधिक पाक गुरिल्ला घुसपैठियों ने अपने पक्के बंकर बना लिये थे, तब भी हमारी खुफिया एजेंसियों और खासकर मिलट्रिी इंटेलीजेंस को इसकी भनक नहीं लग पायी थी। इस घुसपैठ की प्रथम सूचना बकरवालों (चरवाहों) ने सेना को दी थी। करगिल युद्ध के बाद तत्कालीन राजग सरकार ने उस वक्त देश के खुफिया तंत्र को कारगर बनाने की जरूरत पर बल दिया था। गृह मंत्रालय ने एक ‘इंटेलीजेंस कोआर्डिनेशन ग्रुप’ और एक ‘ज्वाइंट मिलीटरी इटेलीजेंस एजेंसी’ के गठन की योजना बनायी थी। यघपि बाद में ‘ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी’ का गठन किया जरूर लेकिन यह भी एक तरह से ‘सफेद हाथी’ ही साबित हुआ। इस कमेटी में केंद्र के सभी खुफिया तंत्र का प्रतिनिधित्व रखा गया है। बेहतर समन्वयन और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में यह कमेटी भी महज खानापूर्ति करने का एक जरिया ही रह गयी है। भारत में जो खुफिया तंत्र का ढांचा है वह बिखरा हुआ है। इसलिए अमरीका की जांच एवं खुफिया एजेंसियों की तर्ज पर यहां भी एक संघीय एजेंसी की जरूरत महसूस की जा रही है। राज्य की खुफिया इकाईयों का केंद्रीय खुफिया तंत्र से कोई वास्ता ही नहीं है। सूचनाओं का आदान-प्रदान तक नहीं होता। साभार: महानगर टाईम्स डॉट नेट
11 सितम्बर 2001 को जब अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमला हुआ था, तो आनन-फानन में भारत सरकार द्वारा बुलायी गयी सुरक्षा मामलों की कैबिनेट ने देश के खुफिया तंत्र को धारदार बनाने के लिए ‘मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स’ के गठन का निर्णय लिया था। ‘इंटेलीजेंस ब्यूरो’ के अधीन बनायी जाने वाली इस टास्क फोर्स में रा, मिलट्रिी इंटेलीजेंस और राज्यों की खुफिया इकाईयों के प्रतिनिधित्व की रूपरेखा बनायी गयी थी। सात साल बाद भी केंद्र सरकार की यह योजना अस्तित्व में क्यों नहीं आ पायी, इसका जवाब गृह मंत्रालय के पास नहीं है। शायद यह बात कहने-सुनने की नहीं है कि सरकार बदलती है तो प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं।
लेकिन ‘मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स’ के गठन का निर्णय जब राजग के कार्यकाल में लिया गया था, तो उसके बाद इसे अस्तित्व में लाने के लिए राजग के पास ही ढाई साल का वक्त था। उस समयावधि में तो यह अस्तित्व में नहीं ही आया, सरकार बदल गयी तो वैसे भी इसे ठंडे बस्ते में जाना था। यूपीए सरकार ने भी देश और देश की जनता की सुरक्षा के लिए इस महती योजना पर गौर नहीं किया। सरकार की प्राथमिकता में यह नहीं था। जाहिरा तौर पर कैबिनेट का यह फैसला गृह मंत्रालय के किसी कोने में फेंक दिया गया। शायद इस फोर्स का गठन हो गया होता तो हमारी खुफिया व्यवस्था इतनी लाचार नहीं होती।
एक के बाद एक धमाके नहीं होते और न जाने कितने मासूमों की जान यूं ही नहीं चली जाती। वर्ष 1999 में जब करिगल में तकरीबन सौ से अधिक पाक गुरिल्ला घुसपैठियों ने अपने पक्के बंकर बना लिये थे, तब भी हमारी खुफिया एजेंसियों और खासकर मिलट्रिी इंटेलीजेंस को इसकी भनक नहीं लग पायी थी। इस घुसपैठ की प्रथम सूचना बकरवालों (चरवाहों) ने सेना को दी थी। करगिल युद्ध के बाद तत्कालीन राजग सरकार ने उस वक्त देश के खुफिया तंत्र को कारगर बनाने की जरूरत पर बल दिया था। गृह मंत्रालय ने एक ‘इंटेलीजेंस कोआर्डिनेशन ग्रुप’ और एक ‘ज्वाइंट मिलीटरी इटेलीजेंस एजेंसी’ के गठन की योजना बनायी थी। यघपि बाद में ‘ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी’ का गठन किया जरूर लेकिन यह भी एक तरह से ‘सफेद हाथी’ ही साबित हुआ। इस कमेटी में केंद्र के सभी खुफिया तंत्र का प्रतिनिधित्व रखा गया है। बेहतर समन्वयन और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में यह कमेटी भी महज खानापूर्ति करने का एक जरिया ही रह गयी है। भारत में जो खुफिया तंत्र का ढांचा है वह बिखरा हुआ है। इसलिए अमरीका की जांच एवं खुफिया एजेंसियों की तर्ज पर यहां भी एक संघीय एजेंसी की जरूरत महसूस की जा रही है। राज्य की खुफिया इकाईयों का केंद्रीय खुफिया तंत्र से कोई वास्ता ही नहीं है। सूचनाओं का आदान-प्रदान तक नहीं होता। साभार: महानगर टाईम्स डॉट नेट
सर नमस्कार
ReplyDeleteआपका लेख भुत अछा लगा रही बात इन राजनितिक लोगो की तो इनको आम लोगो पैर ही अपनी राज नीतिक रोटी सेकने की आदत पड़ चुकी है आज जिस तरह के हालत है उसके जिमेदार और कोई नही बल्कि ये राजनितिक झंडाबरदार है इनको आपनी सुरछा की ज्यादा चिंता रहती है लोगो की नही
सर मेल का जवाब बिच मे छोड के जाने के लिये माफ़ी मागता हु
ReplyDeleteइसी क्रम मे मै कहना च्चाताहू की यहाँ के लोग घर के लोगो की कही हुई बात को तो इतना टूल देती है की लोगो को सर्मिन्दा होना पड़ता है और जब बात देस की आती है तो बिल मै घुस जाते है आप समझ रही है मै किसकी बात कर रहा हु हा राज की आपकी द्वारा भेजी गयी रचना बहुत सुंदर है
सांतनु मिश्रा
sir, it was really knowledgefull but how can we make strong are security system at city level.
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