सीधीबात पर पहली बार जलते सामयिक राष्ट्रीय मुद्दों, घटनाओं, भ्रष्टाचार, मीडिया की कारस्तानियों पर सतत बहस को एक लघुविराम दिया जा रहा है. हमारे कुछ पाठक मित्रों ने सुझाव दिया कि सीधीबात पर मन को सुकून देने वाली सामग्री भी प्रकाशित होनी चाहिए, सो, एडिटोरियल प्लस डेस्क द्वारा आज बहस व आलेख की जगह हमारे युवा पत्रकार मित्र मीतेन्द्र नागेश की यह कहानी प्रकाशित की जा रही है....हम आप पाठकों व लेखकों से भी आग्रह करेंगे कि आप भी हमें अपनी कोई साहित्यिक रचना भेजें, जिसे हम ऐसे ही बहसों के तनाव के बीच सुकून के लिए उसे प्रकाशित कर सके...प्रस्तुत है सीधीबात पर पहली कहानी: लघुकथा
मैं लघुकथा और उपन्यास में कभी अंतर समझ ही नहीं पाया था। उपेन्द्र दा के लाख समझाने पर भी मेरी बुद्धि में कुछ न बैठता। उपेन्द्र दा को गुस्सा तो बहुत कम आता था, मगर कभी-कभी वे खीज जाया करते- 'तू तो पूरा गधा है, तेरे भेजे में कुछ नहीं आएगा।' फिर थोड़ा शांत होकर कहते-'जिंदगी तुझे लघुकथा और उपन्यास में अंतर समझा देगी।'
सही कहा था उन्होंने...। उनकी जिदंगी ने मुझे इस अंतर को समझा दिया।
'देख गधे एक लघुकथा लिखी है'- फिर खुद उसको अभिनय के साथ पढ़कर सुनाते। कहानी सुनाने का अंदाज भी गजब का था। उनके शब्द आंखों के सामने चित्र खींचते चलते और सुनने वाला पात्रों में जीने लगता।
हंसमुख स्वभाव के उपेन्द्र दा हमेशा हंसी मजाक करते थे, लेकिन उनके चेहरे पर हमेशा सजी रहने वाली हंसी जाने कहां खो गई...।
'देखना लोग मुझे सदियों तक याद करेंगे'- एक बार बड़े चहककर मुझसे कहा था उन्होंने। इस एक वाक्य में ही उनका सपना, महत्वाकांक्षा और जीवनलक्ष्य समाया हुआ था। सच, लोग उन्हें सदियों तक याद रखते, मगर...। ऊंची परवाज की ख्वाहिश रखने वालों के लिए आसमान छोटा पड़ ही जाता है। यही तो हुआ था उपेन्द्र दा के साथ। अपनी परवाज के लिए असीमित विस्तार की तलाश उन्हें शहर ले आई। यूं तो गांव में उनकी साख कम न थी। बच्चों-बच्चों की जुबान पर उनके लिखे गीत होते, तो युवाओं में उनके नाटकों के संवाद। बुजुर्गो में कहानियों की चर्चाएं भी कम न थी। जाने कौन उनके दिमाग में यह बात बैठा गया था कि उनकी जगह यहां नहीं है। उन्हें तो ऐसे शहर में होना चाहिए, जहां साहित्य का माहौल हो, जहां अन्य रचनाकारों के साथ उठना-बैठना हों, चर्चाएं हों, जहां मंच भी मिले और मान-सम्मान भी। इस छोटे से गांव के अनपढ़ लोगों की वाहवाही से क्या मिलता है, गांव के बाहर कौन जानता है आपको...बस उपेन्द्र दा शहर चले गए।
शहर से पहली बार लौटने के बाद उपेन्द्र दा के चेहरे की रंगत ही कुछ और थी। वे काफी खुश नजर आए थे। लेकिन उस दिन के बाद जब भी उनसे मुलाकात हुई, वह कभी खुश नहीं दिखे। उपेन्द्र दा की खासियत कहिए या कमजोरी, उनके दिल के भाव कभी छिपते नहीं थे। चेहरा सब कुछ बयान कर देता था. हमेशा वह मुझे उदास से लगे। उदासी ने उस हंसमुख चेहरे का भूगोल ही बदल डाला।
'वहां बड़े-बड़े लिखाड़ हैं, मैं तो कुछ भी नहीं।‘
'आप भी कुछ कम नहीं दादा'- मैंने उनका हौसला बढ़ाना चाहा था।
'वे देश के नामी-गिरामी पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं।'
'फिर तो आप भी नामी-गिरामी हो जाएंगे, हमे भूलेंगे तो नहीं न दादा'
'फिर गधे जैसी बात करने लगा, तू कभी सुधरेगा नहीं'
और हम दोनों जोरदार ठहाका लगाकर हंस दिए। आज भी गूंजता है वह ठहाका और...।
और फिर मुझे वो दिन भी याद है, जब उपेन्द्र दा की बातों में न तो उत्साह था और न आवाजद् में खनक। बड़ी उदासी में उन्होंने मुझसे कहा था-
'दोस्त, मैं जब भी कहानी लिखने बैठता हूं, वह लघुकथा बनकर रह जाती है।'
'क्या दादा आप फिर लघुकथा लेकर बैठ गए, फिर आप उपन्यास की चर्चा करने लगेंगे'- मैंने चुटकी लेना चाहा, लेकिन दादा का गंभीर चेहरा देख मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। मैंने उनकी बातों को पूरी गंभीरता से सुना।
'लघुकथा भी अद्भुत विधा है, मगर उपन्यास की बात ही कुछ और है...,' और उस दिन जीवन के कई रंग देखे मैंने दादा की आंखों से। वे काफी त्रस्त थे, उनकी बातों से लगता जैसे वह अपने अस्तित्व को तलाशने की कोशिश कर रहे हों। जैसे एक नदी, जो अपना रास्ता खुद बनाती आई हो, समुन्दर के अथाह जल में असहज महसूस कर रही थी।
'दादा लघुकथा भी तो कितनों को प्रेरणा दे जाती है, दिल में उतर जाती है।'- मैंने उनसे कहा था।
'पर, लघुकथाओं को कौन याद रखता है’
उनके इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था। मेरी जुबान जम गई।
मैं उन्हें जितना समझ पाया अगर वही सच हो, तो-‘वे अपनी जिन्दगी को उपन्यास की तरह विस्तार देना चाहते थे, जिसका एक-एक शब्द लोगों के दिल से गुजरे. जिसे लोग सदियों तक भूल न पाए, मगर..., मगर उनकी जिंदगी एक लघुकथा बनकर रह गई। आज समझ पाया मैं लघुकथा और उपन्यास में अंतर।
मैं नहीं जानता दादा आज कहां हैं. लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि उनका कहीं कोई जिक्र नहीं, न कहानी में, न उपन्यास में। पता नहीं दुनिया के किस अंधेरे कोने में होंगे दादा?
मीतेन्द्र नागेश, भोपाल
meetendra.nagesh@gmail.com
यह लघु कथा अपने आप में दिल को छूने वाली है यह कथा हमें अपनों से जोड़ने का बहुत खूब मध्यम है.
ReplyDeleteसर आज तो बोर हो गये लघुकथा पड़ना अच्छा नही लगता...
ReplyDeleteलघु कथा पढ़ कर अच्छा लगा !यह कांसेप्ट दिल को सुकून पहुचने वाला है
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