कुछ अनाम टिप्‍पणीकारों के नाम टिप्‍पणी

उदय केसरी
पहली बार मैं सीधीबात पर प्रकाशित किसी आलेख की टिप्‍पणियों के जवाब में अपनी टिप्‍पणी लिख रहा हूं। हालांकि मैं टिप्‍पणी-प्रतिटिप्‍पणी के नाम पर अभिव्‍यक्ति की मर्यादा को ताक पर रखकर बहस करने के खिलाफ हूं, जिसमें कई ब्‍लॉगरों का एक तपका शामिल है। उनके लिए भले ही एक-दूसरे के पोस्‍ट या कथित विचारों पर निजता की हदें पार कर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करना बौद्धि‍क बहस हो, पर मैं इसे कलालीगप मानता हूं, जिसके मैं सख्त खिलाफ हूं...

मेरी यह टिप्‍पणी सीधीबात पर 14 अक्‍टूबर को प्रकाशित आलेख ‘खुद अपने घर जला रहे हैं ईसाई’ ...बेशर्मी की हद तो देखिए पर कुल छह टिप्‍पणियों के लेखकों को खासकर संबोधित है. इन टिप्‍प‍णीकारों में केवल एक का नाम (मनीष सिन्‍हा, दिल्‍ली) पता चल पाया. शेष की गुमनाम टिप्‍पणी मिली है, जिन्‍हें मैंने बिना किसी संशोधन के प्रकाशित कर दिया. बस केवल एक टिप्‍पणी में मैंने अपने ब्‍लॉग की मर्यादा को ध्‍यान में रखते हुए एक शब्‍द मिटाया, जो गाली था.

पहले, मैं इन सभी अनाम/सुनाम टिप्‍पणीकारों को धन्‍यवाद देता हूं कि आपने छुपकर ही सही सीधीबात पर प्रकाशित आलेख पढ़ा और अपने ‘बौद्धिक’ विचारों को व्‍यक्‍त भी किया. मगर मुझे आपकी टिप्‍पणियों को पढ़कर दुख नहीं हुआ, बल्कि आश्‍चर्य हुआ कि अपना नाम तक जाहिर करने की हिम्‍मत न रखने वाले ‘अपने हिन्‍दुत्‍व’ की रक्षा कैसे कर पायेंगे?

हां, सबसे ज्‍यादा दुख तो इस बात का हुआ कि उस आलेख के असल मर्म पर अपनी संवेदना व्‍यक्‍त करने वाली एक भी टिप्‍पणी किसी ने नहीं की. यदि किसी ने की होती, तो शायद मैं यह प्रतिटिप्‍पणी कतई नहीं लिखता.

तकलीफ यह सोचकर भी हुई कि क्‍या बजरंग दल, विश्‍व हिन्‍दू परिषद् आदि नफरत के सौदागर संगठनों द्वारा देश भर में फैलाया जा रहा भ्रम इस हद तक विस्‍तृत हो चला है कि लोग धार्मिक सहिष्‍णुता के मायने भूल गए हैं...कि वे भूल गए हैं कि भारत की आबोहवा में असल ताजिगी मंदिर की घंटी, मस्जिद की अजान, चर्च के घंटे और गुरूद्वारे की गुरूवाणी की आवाजों से ही है...कि देश की अस्मिता पर कोई दुश्‍मन देश जब कभी करगिल के रास्‍ते कुदृष्टि डालता है, तो क्‍या हिन्‍दू, मुसलमान, क्‍या ईसाई, पूरे हिन्‍दुस्‍तान का खून एक साथ खौलता है...कि भूल गए हैं गुलाम से आजाद भारत तक के सफर में जर, जमीन, जवानी व बुढ़ापा तक न्‍यौच्‍छावर करने वाले भारत के उन सभी जाति-धर्म व भाषा-बोली वाले असंख्‍य अमरशहीदों को, जिन्‍होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कुर्बानियां दीं, लेकिन क्‍या उन्‍होंने अंग्रेजों के धर्म ईसाईयत का कभी विरोध किया?...नहीं न...भारत के मूल चरित्र में कभी धार्मिक कट्टरता को बल नहीं दिया गया और न ही इसे सियासत का हथियार बनाने वाले शासकों को तहेदिल से कभी स्‍वीकार किया गया.

दरअसल धर्म किसी मानव का निजी, नैतिक व आध्‍यात्मिक संस्‍कार है, वैसे ही जैसे उसका रूप-रंग, भेष-भूसा, भाषा-बोली, जिस पर कोई प्रतिबंध लगाना, उसकी हत्‍या के बराबर है...क्‍या आपको कोई अपनी पसंद से कंघी करने से रोके, तो आप बर्दास्‍त करेंगे?....नहीं न तो, क्‍यों मानव की प्रकृति प्रदत्‍त धार्मिक आजादी की धज्जियां उड़ाई जा रही है, यदि किसी धर्म के अनुआई की बातों से प्रभावित होकर कोई अपना धर्म परिवर्तन करता है, तो इसमें बुरा क्‍या है? और यदि आप इसे घोर अपराध मानते हैं, तो पहले देश भर में सक्रिय सैकड़ों धर्मगुरूओं के अगल-अलग संगठनों व उनके अलग-अलग धर्म संस्‍कारों के प्रचार-प्रसार को रोका जाए। क्‍यों वे अपने-अपने तरीके से धर्म पुराणों की व्‍याख्‍या कर रहे हैं? क्‍यों वे केवल अपने-अपने ईष्‍ट देवों का अनुआई बनने का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं? क्‍या उनका करोड़ों का धर्म-उपदेश का कारोबार असल में धर्मसंगत है?

....और फिर भी यदि आपकी आंखें नहीं खुलती, तो पहले भगवान बुद्ध, महाराजा अशोक, साईं बाबा, कबीरदास, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर आदि कई ऐसे नाम हैं, जिन्‍होंने अपने जन्‍म से प्राप्‍त धर्मों का पालन न कर अपनी मर्जी से अलग धर्मों को अपनाया. उन महापुरूषों के विचारों को जबाव देने जितनी बौद्धिकता प्राप्‍त करने में अपनी ताकत व ऊर्जा का इस्‍तेमाल कीजिए...सच मानिए, फिर आपके विचार, लोगों में दंगा-फसाद करके समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लोग खुद ब खुद आपके मत को अपना धर्म बना लेंगे...और आपकी पूजा करेंगे.

9 comments:

  1. dear dikkhat apni lekhni me hi hain...kahin ap RSS ya Bajrang dal ke dalal to nahi hain...

    Jai Shree ram

    ReplyDelete
  2. इन जाहिलों को कौन समझाए?

    ReplyDelete
  3. हास्य प्रदान करने वाले साधन 'धर्म' से इतना विमुख मत होइए. संता बंता के चुटकुलों की तरह धर्म में बहुत संभावनाएं हैं. सारा धार्मिक साहित्य, चाहे हिन्दुओं का हो या मुसलामानों का या ईसाइयों का, हास्य से भरपूर है. हमारे मनोरंजन के लिए कुछ तो होना चाहिए.

    ReplyDelete
  4. आपका कहना बिल्कुल सही है, ऐसे लोग ब्लॉगर समुदाय के माहौल को ख़राब कर रहे हैं.

    ReplyDelete
  5. sir mai chata hu ki ap ab kuch achha likhe jisse pad kar sukun mile.
    ho sakta hai apko nature ke khilaph ho lekin mujhe ye lag rha hai ki apko apne ur pathako ka khyal rkhe.
    thanks sir

    ReplyDelete
  6. धर्म की आड़ में स्वार्थ सिद्धि कर रहे लोग वास्तविकता को नही समझ सकते जो लोग अपना नाम लिखने मैं डरते हो वो क्या हिंदू जैसे विशाल धर्म की रक्षा कर सकते है.

    ReplyDelete
  7. sir.aapka khana ek dam thik h.....dharam kisi ek smuday ya kisi ek jati ka nhi h.dharam to hmari sharddha par tika hua h.koi bhagwan yha nhi khata ki meri puja karo ye to dharam ke naam par apni dukane chalane baale aaviveki adarmi log bhakt ur bhgwan ke bich deevar khadi kar rhe h.....

    ReplyDelete
  8. ...ek chiti thi jo apne muha mai gandgi bharkar meetha kha rhi thi...use us wakt bhi gandgi ka hi swad aa rha tha ...aise hi ye log h joapne andar itni samprdaikta,kattarwaad ki gandgi bhare h ki unhe dharm ki shai pahchhan hi nhi rhi ....phir desh prem to koso dur h........

    ReplyDelete
  9. भगवान बुद्ध, महाराजा अशोक, साईं बाबा, कबीरदास, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर आदि कई ऐसे नाम हैं, जिन्‍होंने अपने जन्‍म से प्राप्‍त धर्मों का पालन न कर अपनी मर्जी से अलग धर्मों को अपनाया. उन महापुरूषों के विचारों को जबाव देने जितनी बौद्धिकता प्राप्‍त करने में अपनी ताकत व ऊर्जा का इस्‍तेमाल कीजिए...सच मानिए, फिर आपके विचार, लोगों में दंगा-फसाद करके समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लोग खुद ब खुद आपके मत को अपना धर्म बना लेंगे...और आपकी पूजा करेंगे.


    मझे लगता है कि बर्तमान में सर्वोतम मंत्र है सबका मालिक एक जो इस मंत्र के रहस्य को समझ गया उसको बहुत कुछ समझ आ जाएगा.

    ReplyDelete