म.प्र. में भाजपा को 79 व कांग्रेस को 70 सीटें !

चुनावी आंकलनः मध्यप्रदेश, राजस्थान व दिल्ली में किसी को बहुमत मिलने के आसार नहीं
मध्यप्रदेश, राजस्थान व दिल्ली में मतदान की घड़ी करीब है। इसलिए प्रायः की तरह राजनीति में रूचि रखने वाले इन राज्यों के पाठकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, ब्लॉगरों समेत ठंड में भी पसीना बहा रहे विभिन्न पार्टियों के नेताओं व कार्यकर्ताओं में मतगणना पूर्व यह जिज्ञासा काफी तीव्र होगी कि जनता का फैसला क्या होगा? किसे मिलेगा सत्ता का ताज और कौन होगा बेताज? एडिटोरियल प्लस डेस्क, भोपाल द्वारा इस जिज्ञासा पर ठोस विश्‍लेषण के लिए अपनी संपर्क सूची के वरिष्ठ राजनीतिक विश्‍लेषकों, लेखकों व पत्रकारों से विश्‍लेण मंगवाये गये। प्राप्त विश्‍लेषणों में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्‍लेषक श्री विनोद तिवारी के शोधपरख विश्‍लेषण को सीधीबात पर प्रकाशित किया जा रहा है। इस विश्‍लेषण में मध्यप्रदेश के चुनावी नतीजों पर खासकर बात की गई है, जबकि राजस्थान व दिल्ली के नतीजों पर अनुभवी विचार व्यक्त किये गए हैं। श्री तिवारी ने मध्यप्रदेश के लगभग 200 से अधिक पत्रकारों और सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बातचीत के आधार पर विस्तार से नतीजों का आंकलन किया है। इस चुनावी आंकलन में कितना दम है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के एक सर्वे और इसी राज्य के खुफिया तंत्रों के आंकलन से प्राप्त नतीजे भी श्री तिवारी के चुनावी आंकलन के लगभग आसपास हैं।

पहले : मध्यप्रदेश के चुनावी हालात
जनता को शिवराज पर तो भरोसा, पर शिवगणों पर नहीं
लोकतंत्र के यज्ञ में आहुति देने का समय नजदीक (27 नवंबर) है। लेकिन परिणाम को लेकर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में संशय की स्थिति बनी हुई है। ऊपरी तौर पर भले ही कुछ भी दावें किये जा रहे हों, लेकिन जमीनी हकीकत से सब वाकिफ हैं। भाजपा की बात हम करें, तो उनके सभी बड़े महारथी कड़कती ठंड में भी माथे से पसीना पोछने को मजबूर हैं। दरअसल, प्रदेश की जनता को शिवराज पर तो भरोसा है, लेकिन जिनको शिव का गण यानी विधायक चुना जाना है, उनसे न सिर्फ जनता नाराज है, बल्कि उसकी नजर में ये गण विश्‍वासघाती भी हैं। यही वजह है कि अंकों का गणित सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के गणितज्ञों को उलझन में डाले हुए है। यहां सभी शिवगण अब मोदी स्टाइल में शिवराज के भरोसे हैं। वहीं शिवराज भी ‘मैं हूं न’ का भरोसा दिलाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। भाजपा के लिए भले यह अच्छी बात हो सकती है कि शिवराज को सुनने लोग आ रहे हैं, लेकिन उमा भारती की सभाओं की भीड़ कम नहीं है। यह भाजपा को सरकार बनाने में सबसे बड़े रोड़े के रूप में दिख रही है। उमा की बगावत या यूं कहें कि घर से निकालने के बाद इस साध्वी राजनेता ने भाजपा को पूरी तरह उखाड़ फेंकने की कसम खाई है। और जैसा कि जंग में सब जायज होता है, उमा भारती ने भी बिना किसी परहेज के न सिर्फ जातिवाद, बल्कि समाजवादी पार्टी के कर्ताधर्ता अमर सिंह के मार्फत कांग्रेस से भी गुप्त समझौते में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उमा भारती के बारे में इस बात का जिक्र इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि साध्वी के पास उड़न खटोले में घूमने और चुनाव में खर्च करने के लिए करोड़ों रुपये आखिर कहां से आये? यह सिर्फ हमारा ही जिक्र नहीं है, राजनीतिक गलियारों में यह बात आमतौर पर सवाल खड़ी कर रही है। भाजपा के लिए बागियों की बात अब पुरानी होती जा रही है, क्योंकि वह जिसे बागी मान रही है, दरअसल वे भाजश के उम्मीदवार हैं। और जब कोई नेता पार्टी बदल लेता है, तो वह बागी नहीं रह जाता।
एक अंधा एक कोढ़ी की तर्ज पर कांग्रेस
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बात करें तो, वह ‘राम मिलाये जोड़ी, एक अंधा-एक कोढ़ी’ की तर्ज पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। बचपन के एक लंगड़े व दूसरा अंधे दोस्तों की एक कहानी मुझे याद है, जिसमें लंगड़ा राह दिखाता और अंधा आगे चलता। समझना सहज है कि कांगेस में कौन लंगडा है और कौन अंधा। हम यहां बसपा का जिक्र करना नहीं भूलेंगे, जो बहुजन हिताय के नारे से सर्वजन हिताय के नारे में तब्दिल हो गई। उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के विज्ञापनों में एक लाइन खासतौर पर डाली जाती है-सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय-इसका मतलब साफ है कि जिस मनुवादी व्यवस्था के नाम पर बसपा के संस्थापक काशीराम आगे बढ़े थे, उसे न सिर्फ मायावती ने ध्वस्त कर दिया, बल्कि सर्वणों को दुत्कारने और उन्हें अपमानित करने के राजनीतिक पाप को धोने के लिए माया ने मनुवादियों से गलबहियां कर ली। ब्राह्मणों और दलितों में गठजोड़ फार्मूला से ही माया को उत्तर प्रदेश में सत्ता मिली। उसी फार्मूले को वह अब मध्यप्रदेश में सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचने के लिए लागू कर रही हैं। वहीं, समाजवादी पार्टी को मध्यप्रदेश में अब फिर से नयी जमीन तलाशने की जरूरत है।
कोई भी दल अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नहीं
दलवार संभावित सीटें : भाजपा-79, कांग्रेस-70, बसपा-9, भाजश-7, सपा-2, गोंगपा-2, जदयू-1 व अन्य-12। शेष 57 सीटों पर बहुकोणीय मुकाबला। कुल सीट सं. 230
खैर, मध्यप्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर हमने, जो आंकलन किया है, वह चैंकाने वाला है। हमारे आंकलन के मुताबिक कोई भी राजनीतिक दल अभी की स्थिति में सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत जुटाने में सफल नहीं होगा। क्षेत्रवार विश्‍लेषण के अनुसार भाजपा को 79, कांग्रेस को 70, बसपा को 9, भाजश को 7, सपा को 2, गोंगपा को 2 तो जदयू को 1 और अन्य को 12 सीटें मिलती दिख रही हैं। शेष 57 सीटें ऐसी हैं, जिनपर त्रिकोणी, बहुकोणी और सीधा मुकाबला है। और ये 57 सीटें ही किसी भी राजनीतिक पार्टी के भविष्य का फैसला करेंगी।
शिवराज, उमा, कमलनाथ, सुरेश पचैरी, दिग्विजय आदि के प्रभाव-अप्रभाव
मोटे तौर पर जहां बुंदेलखंड भाजश प्रमुख उमा भारती के प्रभाव में है, वहीं ग्वालियर-चंबल क्षेत्र को ग्वालियर राजघराना अपने कब्जे में करता हुआ नजर आ रहा है। बुंदेलखंड में पिछली बार जहां 24 सीटें भाजपा और 2 सीटें कांग्रेस के पास थीं, उनमें इस बार 10-12 सीटें ही भाजपा की झोली में आ सकती हैं। भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि दो विपरीत दिशाओं के आदिवासी जिले मंडला और झाबुआ में भाजपा की पकड़ बेहद मजबूत है। हालांकि, कांग्रेस के भविष्य राहुल गांधी झाबुआ में सभा कर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने में लगे हैं। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में भाजपा 34 में से 22 सीटों पर फिलहाल काबिज है, पर यह संख्या इस बार घटकर 15-16 होने के आसार हैं। विंध्य क्षेत्र में मिश्रित जनादेश सभी पार्टियों के गणित को बिगाड़ रहा है, वहीं महाकौशल में कमलनाथ की आन पर बन आई है। कमलनाथ महाकौशल में बहुमत की उम्मीद में मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोये हुए हैं, जिसकी झलक उनके भाषणों में साफ है। मालवा क्षेत्र में भाजपा अभी भी मजबूत स्थिति में दिख रही है, लेकिन नर्मदा के दोनों किनारों की जनता भाजपा से दूर होती नजर आ रही है। खरगौन में चुनाव हारने के बाद से भाजपा के संघी नेता कृष्णमुरारी मोघे की रूचि अब निमाड़ में नहीं है। उनके निष्क्रिय होने से कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष यादव का हौसला बुलंद है। एक खास सीट झाबुआ का जिक्र करना जरूरी है, जहां राहुल गांधी के पसंदीदा उम्मीदवार जेबियर मेंड़ा चुनाव लड़ रहे हैं। यदि मेंड़ा चुनाव हारते हैं, तो केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भुरिया की राजनीति को पलीता लग सकता है। सुरेश पचैरी कहने को तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में उनकी स्थिति यह कह सकने की नहीं कि वे किस कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, क्योंकि प्रदेश में दिग्विजय कांग्रेस, कमलनाथ कांग्रेस, सुभाष कांग्रेस, अर्जुन कांग्रेस और ज्‍योतिरादित्‍य कांग्रेस का वर्चस्व है। ऐसे में, श्री पचैरी की स्थिति समझना सहज है।
अब जरा 2003 के नतीजों पर एक नजर
भाजपा-173 सीट , कांग्रेस-38 सीट, शेष-19 सीट अन्य दलों को। कुल सीट-230

अब राजस्थान के चुनावी हालात
जातिगत जुगाड़ से सत्ता जीतने की कोशिश
राजघरानों के लिए मशहूर राजस्थान की चुनावी जंग इस बार पिछड़ों और दलितों के इर्द-गिर्द घूम रही है। राजपूताना विरासत के राजाओं के वंशजों की प्रभावशून्यता जहां राजनीतिक पार्टियों के पोस्टरों पर दिख रही है। वहीं जातिगत समीकरणों में नये क्षत्रपों के दम पर लोकतंत्र के अश्‍वमेध को जीतने की जुगाड़ लगाई है। जुगाड़ शब्द का नाता राजस्थान से बहुत पुराना है। वैज्ञानिक प्रो. यशपाल के शब्दों में जुगाड़ राजस्थान के ग्रामीण परिवहन की रीढ़ है। (राजस्थान में सामान्य लकड़ी की पहियेदार ट्राली में कोई भी डीजल इंजन रखकर गाड़ी बना ली जाती है और परिवहन विभाग में उसका कोई रजिस्ट्रेशन भी नहीं होता और वहां के ग्रामीण जीवन में यह बहुत ही लोकप्रिय है) इसी जुगाड़ की तरह जातीय समीकरण राजस्थान की राजनीतिक सड़कों पर बगैर रजिस्ट्रेशन के दौड़ लगा रहे हैं।
बागियों को मना पाई तो लंगड़ी सरकार बना सकती है भाजपा
चुनाव की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए जातियों के बड़े नेताओं ने रातोंरात गद्दी संभालने की कवायद में जातिभेद के संघर्ष शुरू किये। इसमें आधा सैकड़ा निरीह जानें बेवजह बलि चढ़ गईं और कर्नल बैसला नेता बन गए। भौतिक विज्ञान के आकर्षण और प्रतिकर्षण के सिद्धांत का असर राजस्थान में भी हुआ और सरकार के खिलाफ शुरू हुआ यह संघर्ष मीणा और गुर्जरों के बीच की लड़ाई बनकर रह गया। जिस राजस्थान को महाराणा प्रताप, राणा संगा जैसे वीर जवानों और हल्दी घाटी की लड़ाई के लिए जाना जाता है, वहां तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ पूरा करने के लिए जिस तरह मीणा और गुर्जरों में संघर्ष करवाया गया, वह शर्मनाक है। अब वही लोग राजस्थान के कर्णधार बनने के लिए चुनावी समर में हैं। हम ऊपर आपको बता ही चुके हैं कि राजस्थान पूरी तरह से बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह जातीयता में उलझ चुका है। मीणा नेता कीरोड़ीलाल का मुख्यमंत्री वसुंधरा से झगड़ा और उसके बाद उनकी बगावत भाजपा के लिए 13 फीसदी मीणा वोटरों में सेंध लगाने के लिए काफी है। वहीं 6.5 फीसदी गुर्जरों से उम्मीद लगाये बैठी भाजपा को शायद यह नहीं मालूम कि कर्नल बैसला से पहले कांगेस के सचिन पायलट गुर्जरों के बड़े नेता हैं। ऐसे में, भाजपा की स्थिति दो पाटों के बीच फंसने जैसी है, जहां से बचना मुश्किल ही होता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के लिए यह सबकुछ आसान है, क्योंकि पांच साल पहले अशोक गहलोत के सत्ता से जाने के बाद कांगेस का संगठन आजतक बिखरा ही हुआ है। ऐसी स्थिति में भगवान भरोसे सरकार बनने का सपना या कहें भाजपा सरकार के इंकम्बैंसी फैक्टर के भरोसे मुख्यमंत्री की गद्दी की आशा बंधी हुई है। भाजपा के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि यदि मतदान से पहले वह बागियों को मना पाई तो लंगड़ी टांग से सरकार बना सकती है।
अंततः संक्षेप में दिल्ली के चुनावी हालात
किसी को बहुमत की गारंटी नहीं
दिल्ली की सरकार पर सिलिंग लगी हुई है। वर्तमान मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता शीला दीक्षित सिलिंग से मुक्त होने की कोशिश में दिन-रात एक कर रही हैं, लेकिन भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा और इसबार उन्हें मायावती के हाथी से पंजे को कुचलने का भी डर बहुत ज्यादा सता रहा है। 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा के चुनाव में कोई भी दल दावे से यह नहीं कह सकता कि हम 30 सीटें हासिल कर पायेंगे। विश्‍वस्तरीय आर्थिक मंदी में जिस तरह शेयर ब्रोकरों ने चुप्पी साध ली है, वही हाल दिल्ली के मतदाताओं का भी है। वैसे भी चुप्पी बड़ी ताकत होती है।...और जब चुनाव हो, तो मतदाता की यह चुप्पी महाशक्ति बन जाती है। फिर महाशक्ति जिसके साथ होगी, जीत तो उसी की होगी। कहने का मतलब यह है कि दिल्ली के जो हालात हैं, उनमें बड़ी पार्टी के रूप में भाजपा के आने की संभावना तो दिख रही है, लेकिन बहुमत की गारंटी नहीं है। तब राजनीति के कारपेट पर सरकार बनाने के लिए किसी छोटे दल का पैबंद लगाना जरूरी होगा।

5 comments:

  1. क्या फ़र्क है दोनों में, कोई जीते-हारे.
    यह न करने देगा कुछ,सभी तन्त्र के मारे.
    सभी तन्त्र के मारे, हैं निरपेक्ष धर्म से.
    कैसे सँवरे राष्ट्र, बन्धा है देश धर्म से.
    कह साधक कवि, दोनो करते बेङा गर्क हैं.
    इन्डिया का नित पोषण करते, क्या फ़र्क है?

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  2. तिवारी सर का चुनावी विश्लेषण रूचिकर लगा. राजनीतिक उठापटक जनता को नही पसंद है. जानता बनायागी अपनी नयी पसंद सरकार.

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  3. चुनाव में मिलने वाली सीटों पर अच्‍छी रिपोर्ट है। ब्‍लॉग अच्‍छा है और सही दिशा में प्रयास चल रहा है।

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  4. तिवारी सर का चुनावी विश्लेषण पढ़कर बोहुत अच्छा लगा

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  5. सर इससे तो त्रिशंकु सरकार बन ने के असर लग रहे है. जो मध्यावधि चुनाव की और संकेत हो सकते है.

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