उड़ीसा में हिंसा हदों को पार कर गई है। अब हिंसा करने वाले धर्म ही नहीं, इंसानियत को भी शर्मसार करने पर लगे हैं। कर्नाटक और उड़ीसा में जिस तरह की अराजकता फैली हुई है, उसे देखते हुए क्या बजरंग दल पर बैन लगा देना चाहिए? इस सवाल पर देश में सौहार्दपसंद लोगों को विचार करना लाजिमी हो चुका है। वैसे भी, जब सिमी प्रतिबंधित है तो बजरंग दल को किस अच्छे कर्म के लिए छुट्टा छोड़ दिया जाए....आखिर, इन्हें कैसे पता चल पायेगा कि नफरत, दहशत व दादागिरी से समुदाय का विकास नहीं, विनाश होता है और जिसकी आग से खुद दहशतर्ग भी नहीं बच पाता। पेश है यह कटाक्ष जो धर्म को दहशतगर्दी का पर्याय बनाने की कोशिश करती ताकतों को आईना दिखाता है।
' उड़ीसा में ईसाई लोग अच्छा मुआवजा लेने के लिए खुद अपने घर जला रहे हैं। ईसाई समुदायों में आपसी होड़ हैं। वे एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं और एक दूसरे को मार रहे हैं।' -विश्व हिंदू परिषद के एक नेता मोहन जोशी
तो देश के संभ्रांत नागरिकों! आप समझें! हमारा या हमारे संघ परिवार का उड़ीसा में ईसाइयों के घर जलाने, उनकी हत्या करने, उनकी औरतों से बदसलूकी करने या किसी भी नन के साथ बलात्कार करने में कोई हाथ नहीं है। कोई हिंदू ऐसा कर ही नहीं सकता। करना तो करना, ऐसा सोचना भी पाप है। हिंदू से ज्यादा सहिष्णु कौम दुनिया में कहीं हो ही नहीं सकती। आप समझने की कोशिश कीजिए बंधु। हिंदू धर्म तो उदार धर्म है। यहां हूण आए, शक आए, यहूदी आए, ईसाई आए, मुसलमान आए, पारसी आए, बहाई आए और यहीं के होकर रह गए। हमारी संस्कृति तो सर्वधर्म समभाव की संस्कृति है। संवाद और असहमति को आदर देने की संस्कृति।
एक हिंदू में दया और करुणा कूट-कूट कर भरी है। वह कभी हमलावर नहीं हुआ। तुर्कों-मुगलों ने तलवार की नोक पर हिंदुओं को मुसलमान बनाया। उनके मंदिर लूटे। जजिया (कर) लगाया। हिंदुओं ने सब चुपचाप सह लिया। लालच देकर मिशनरियों ने उन्हें ईसाई बनाया मगर अंतत: हिंदू जाति का बाल भी बांका नहीं हुआ। आज भी इस देश के 80 प्रतिशत लोग हिंदू हैं क्योंकि उनमें सहने और समाहित करने की क्षमता है। वे हिंसा तो कर ही नहीं सकते। ।
कितना मासूम तर्क है। तो क्या ईसाई लोग बावले हो गए हैं? खुद अपने घर जला रहे हैं। एक-दूसरे को मार रहे हैं। काट रहे हैं। खुद बलात्कार करवा रहे हैं। ठीक है, मान लिया भाई जी। ऐसा ही हो रहा होगा। ईसाइयों के घर हिंदू लोग नहीं जला रहे होंगे। माचिस की तीलियों के तन-बदन में अचानक खारिश उठ खड़ी हुई होगी। वे आपस में रगड़ खाती और एक-दूसरे को खुजाती मकानों की ओर दौड़ रही होंगी। तीलियां तो राष्ट्रवादी होती हैं। वे मित्रों और शत्रुओं में भेद कर सकती हैं। अपनों और परायों में। वे ही उनके घरों को जलाकर राख कर रही होंगी। मान लिया भाईजी। कोई हिंदू तो ऐसा काम कर ही नहीं सकता।
अच्छा तो फिर यह बताइए कि उड़ीसा में आपके अपने परिवार की एक मिलीजुली सरकार है। कंधमाल में इतनी आग लगी हुई है कि उसकी लपटें दिल्ली तक दिखाई दे रही हैं। निर्दोष ईसाइयों की चीखों से अखबार भरे हुए हैं और आपकी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही है। अब जिम्मेदारी तो आपके परिवार को लेनी ही होगी। पर आपको तो कोई पछतावा तक नहीं है। हिंसा की निंदा करते आपकी जुबान ऐंठ जाती है।
बंधु! आपको देश के भूगोल की कोई जानकारी है कि नहीं? बस चबड़-चबड़ किए जा रहे हो। उड़ीसा देखा है? कंधमाल गए हो कभी? यहां ए।सी. कमरे में बैठकर हमें भाषण पिला रहे हो। कंधमाल उड़ीसा का एक आदिवासी जिला है, वनों और जंगलों के बीच, सड़कें बेहद खराब हैं। आबादी गांवों में छितरी हुई है। पुलिस वहां मुख्य सड़कों तक तो पहुंच सकती है। जंगलों से घिरी बस्तियों में नहीं। इन पूरी बस्तियों तक कांग्रेसी सरकारों ने न तो स्कूल पहुंचाए हैं और न अस्पताल। पूरे जिले में कंध लोग और पण लोग जहां-तहां छितरे हुए हैं। दोनों आदिवासी हैं। ये ही आपस में लड़ रहे हैं। आपसी ईर्ष्या और द्वेष। अब पुलिस कहां तक जाए? ईसाई मिशनरियां पणों के बीच काम करती हैं और उन्हें लालच देकर ईसाई बनाती हैं।
बंधु! आप नहीं जानते पूरे उड़ीसा में मुश्किल से दो प्रतिशत भी ईसाई नहीं हैं, जबकि कंधमाल जिले की पूरी आबादी का एक चौथाई हिस्सा ईसाई है। किसी को है चिंता कि उड़ीसा में दलित पण लोगों को जबर्दस्ती ईसाई बनाया जाता है? कंध और पण समुदायों का जटिल सामाजिक इतिहास रहा है। उसे आप समझते भी हैं? बस उठाई जबान तालू से लगा दी। उनके लिए किसी ने कुछ नहीं किया। संघ परिवार ने तन-मन-धन लगाया है, इसलिए कंध हिंदू बचे हैं। पणों को ईसाई बनाया जाता रहा है- जबरन या प्रलोभन देकर। इससे तनाव पैदा होता है। अब सरकार कहां-कहां जाए? कैसे जाए?
राज्य सरकार सी।आर.पी.एफ भेजने की मांग करती रही और उसे हस्बेमामूल लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा। मगर हमारे बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के लिए झट केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक बुला ली गई। अब हिम्मत है तो लगाओ प्रतिबंध। पिया है माँ का दूध तो आओ आगे। और किसी समुदाय पर बस नहीं चलता पर हम पर प्रतिबंध की बात की जाती है। हम तो कहते हैं कि यह शौक भी पूरा करके देख लो। कोई हिंदू होने का गर्व ही नहीं। अपनी सनातन संस्कृति को लेकर कोई स्वाभिमान ही नहीं। कैसी हीन ग्रंथि पैदा हो गई है इस देश में?
आप तो बेकार ही इतना गरम हो रहे हैं भाईजी। देश की चिंता छोडि़ए। सिर्फ इतना बता दीजिए कि उड़ीसा में हिंदू राष्ट्रवादी गुटों के डर से जो लोग राहत शिविरों में जाकर रहने लगे हैं या जान बचाने के लिए जंगलों में जा छिपे हैं, उन्हें वापस लौटने दिया जाएगा या नहीं। सुनने में आ रहा है कि आपके लोग कह रहे हैं कि पहले धर्म बदल कर वापस हिंदू बनो, तभी तुम वापस अपने घरों में लौट सकोगे। अखबारों में छप रहा है कि इन ईसाइयों से कहा जा रहा है कि आओ अपना सिर मुंडवाओ, गोमूत्र पियो, आगे बढ़कर चर्च पर पत्थर फेंको और वापस हिंदू हो जाओ, तभी हम तुम्हें तुम्हारे घर वापस जाने देंगे। जबकि ये आदिवासी ईसाई पूछ रहे हैं : घर? क्या हमारा घर बचा रह गया है। फिर भी खुलेआम यह धमकी कि रहना है तो सिर्फ हिंदू बनकर रह सकते हो।
झूठ! एकदम सफेद झूठ है बंधु! कोई हिंदू ऐसा कह ही नहीं सकता। आप खुद हिंदू हैं। आप कहेंगे ऐसा? यह सब साजिश है। अखबार और टेलिविजन झूठ बोल रहे हैं और झूठ दिखा रहे हैं। मैंने कहा है न कोई हिंदू तो ऐसा कह ही नहीं सकता और जो कहता है, वह असली हिंदू नहीं। छोटा-मोटा दंगा फसाद तो देश में चलता ही रहता है। आप क्यों हैरान-परेशान हो रहे हैं। कब तक रहेंगे शिविरों में ये लोग। अपने आप लौट आएंगे एक न एक दिन।
यानी सरकार मिट्टी की माधो बनी रहेगी? कुछ नहीं करेगी? इस देश में कोई कानून है कि नहीं। नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है कि नहीं। उनको तो जीने के अधिकार तक से महरूम कर दिया जा रहा है। फरमाया गया है कि आप से आप हालात बदलेंगे। लेकिन भाईजी! पादरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों को कुछ साल पहले जिंदा जला दिए जाने और उनकी पत्नी द्वारा हत्यारों को क्षमादान देने के बाद भी हालात तो नहीं बदले। सिर्फ ईसाई ही क्यों मारे जा रहे हैं और कब तक यह सब चलेगा।
अरे! क्या ग्राहम स्टेन्स- ग्राहम स्टेन्स लगा रखा है आपने। स्वामी लक्ष्मणानन्द जैसे संत पुरुष का नाम आपकी जुबान तक पर नहीं आता। उनका खून, खून नहीं है? उन्हें तो भाईजी माओवादियों ने मारा था। उन्होंने दावा भी किया है। बदला ईसाइयों से क्यों लिया जा रहा है। गरीब और अल्पसंख्यकों से।
बंधु! आपसे संवाद नहीं हो सकता। आप कुतर्क करते हो। आप समझते हैं कि कंध आदिवासी अमीर हैं। आपमें भारतीय संस्कृति को समझने की जरा भी सलाहियत नहीं। आपका दृष्टिकोण तक वैज्ञानिक नहीं। हर क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी ही। सृष्टि का यही नियम है। फिर मैं और आप थोड़े ही लड़ रहे है। वहां स्थानीय लोग लड़ रहे हैं। लड़-मरकर बैठ जाएंगे। आप मुझे जवाब दीजिए कि इस मुल्क में एक हिंदू संत को मारा जाए और लोगों का खून न खौले। समझ लें कंधमाल में जो कुछ हो रहा है, अपने आप हो रहा है। चीजें अपने आप शुरू हुई हैं, अपने आप खत्म हो जाएंगी। जहां तक हम लोगों का दृष्टिकोण है, हम तो अपनी संस्कृति को बचाने में लगे हुए हैं।
अच्छा, तो यह भारतीय संस्कृति की शुद्धि के लिए हवन हो रहा है। मैं भी कितना संज्ञाहीन हो चुका हूं। मुझे न तो बहते लाल रक्त की सुगंध महसूस हो रही है और न मानवीय चीखों के मंत्र सुनाई पड़ रहे हैं। मेरा तो कुछ नहीं हो सकता भाईजी! बिल्कुल होपलैस केस है मेरा। साभार: नवभारत टाईम्स डॉट कॉम