भारतीय गणतंत्र अब 60वें साल में प्रवेश कर चुका है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी, कूटनीतिक व सामरिक दृष्टि से भारत अब काफी सक्षम भी हो गया है। विदेशी पूंजी निवेश का दरवाजा खुलने या कहें उदारीकरण की नीति से तो भारत में जबरदस्त बदलाव आया है। सूचना क्रांति, सेवा क्षेत्र का विस्तार, अंतरिक्ष विज्ञान में प्रगति, खाद्यान्न उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भरता, सैन्य ताकत में विकसित राष्ट्रों से बराबरी आदि बीते सालों की उपलब्धियां हैं। लेकिन इन सालों में जिस गति से अपना देश सबल हुआ, उसी गति से निर्बल और असुरक्षित भी हुआ है।
कश्मीर समस्या का आज तक कोई हल नहीं निकाला जा सका और पकिस्तान आज भी भारत से निरंतर दुश्मनी निकाल रहा है। इस समस्या से अब न केवल कश्मीर बल्कि पूरा देश प्रभावित है। पाकिस्तान व बांग्लादेश से लगी भारतीय सीमा क्षेत्रों में आतंकियों की घुसपैठ जारी है।
इन सालों के दौरान जहां एक तरफ, भारत में विदेशी पूंजी निवेश व निजी क्षेत्र में उल्लेखनीय विस्तार हुआ है, तो दूसरी तरफ, देश में बेरोजगारी विकराल रूप में विद्यमान है। गरीबी का ग्राफ अब भी ऊंचाई पर है। गांवों, कस्बों व छोटे शहरों में आज भी बुनियादी समस्याएं सबसे बड़ी है।
काफी मशक्कत और बड़ी देर से हमें सूचना का अधिकार तो मिल गया है, पर रोजी-रोटी का अधिकार नहीं मिला है। तो फिर सरकारी शिक्षा, उच्च शिक्षा व जागरूकता अभियान से सफलता की कैसे उम्मीद की जा सकती है। पेट की भूख मिटाने की पुख्ता व्यवस्था किये बिना क्या ऐसे अभियान को कभी सफलता मिल सकती है?
ये संक्षेप में पिछले उनसठ सालों के भारतीय गणतंत्र की बस झलक है। यदि विस्तार में देखेंगे तो आपको भारत की तस्वीर काफी दयनीय दिखेगी। लेकिन यह तस्वीर महानगरों व बड़े शहरों में बैठकर देश के विकास की नीति गढ़ने वाले राजनेता व नौकरशाहों को नहीं दिखती। या फिर दिखती है तो जैसा कि मैंने पिछले आलेख ‘ओबामा की लोकप्रियता और अमेरिकीयों की देशभक्ति अनुकरणीय’ में भी कहा था-भारतीय राजनीति की नीति गरीबों, निर्धनों को बस जीने लायक बनाए रखने की हो गई है, क्योंकि वे यदि संपन्न, समझदार व जागरुक हो गए, तो नाकाबिल व भ्रष्ट राजनेताओं की दुकानदारी खतरे में पड़ जाएगी।
भारत के संविधान के अनुसार नागरिकों को समानता का अधिकार तो प्राप्त है, लेकिन इसके विपरीत सरकार में शामिल राजनेता एक ही देश में अलग-अलग कानून लागू करवाकर भेदभाव को बढ़ावा देते रहे हैं। संविधान के मूल स्वरूप में अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है। लेकिन बाद में राजनेताओं ने अपनी सुविधा और राजनीतिक लाभ के वास्ते संविधान संशोधन कर इतने छोटे-बड़े कानून लागू करवा दिये कि पूरे देश की जनता धर्म, क्षेत्र, भाषा, जाति आदि में बंटकर रह गई। और जिसका दुष्परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश का बाबरी मस्जिद विवाद, महाराष्ट्र का गैर-मराठी विवाद, असम का बाहरी-भीतरी विवाद आदि इसी के नतीजे हैं।
ऐसे में, जब हम हर साल 26 जनवरी को भारतीय गणतंत्र के प्रति आस्था के संकल्प दोहराते हैं, तो कहीं न कहीं भारतीय संविधान और उससे मिले संविधान संशोधन के अधिकार का नाजायज फायदा उठाने वाले संकीर्ण राजनेताओं के प्रति आस्था की बात करते हैं, जिन्हें भारतीय संविधान की मूल भावना से कोई सरोकार नहीं। परिणामस्वरूप भारतीय प्रजातंत्र की प्रजा में अपने संविधान के प्रति निराशा के भाव पैदा होना स्वाभाविक है।
भारत के समुचित विकास, सुरक्षा व अमन की जिम्मेदारी संभालने वाले राजनेताओं की संकीर्णता के लिए भारतीय लोकतंत्र की शासन प्रणाली भी शायद जिम्मेदार है। भारत के सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री का चुनाव क्या जनता करती है? इस सवाल का सैद्धांतिक जवाब भले ही ‘हां’ हो, पर व्यावहारिक जवाब ‘नहीं’ है। जब से भारत में राजनीतिक पार्टी और सत्ता राष्ट्र से ऊपर हो गई है, तब से हम भारत के लोग राष्ट्र चलाने के वास्ते अपना प्रतिनिधि तो चुनते हैं, लेकिन बाद में इस बात पर कम ही ध्यान देते हैं कि वह अपनी बोली कहां लगवा रहा है।...हमारे मतों से जीत कर जाने वाले प्रतिनिधि किस दल के हाथों बिककर हमारे मतों की धज्जियां उड़ा रहे हैं।
इस मामले में अमेरिकी शासन प्रणाली जरूर अनुकरणीय है, जहां कम से कम अपने देश के सर्वशक्तिमान नेता या कहें राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता के मतों से होता है। और तभी तो कभी अमेरिका में नफरत का पर्याय बन चुके, वहां के अश्वेतों के बीच से निकला एक शख्स बराक ओबामा अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाता है। भारत में यदि कोई ओबामा जनप्रतिनिधि बन भी जाता है, तो यह जरूरी नहीं कि वह राज्य या राष्ट्र का नेता भी बन जाए, क्योंकि उसे अन्य प्रतिनिधियों के मत भी प्राप्त करने होते है, जो इतना आसान नहीं होता...इसके लिए तो पहुंच, ताकत व पैसे का पुल बनाना पड़ता है।...जिस पुल को बनाते-बनाते यहां का ओबामा या तो राजनीति छोड़ देता है या जनता का विश्वास बेचने लगता है।
bahut hi khari bat kahi aapne..
ReplyDeleteshayad hame ye swikar karne me abhi kuch aur sal lag jaye ki hamare adhikar aur karatvya kya hai aur iska nirwah kaise karna hai...
हल क्या है भारत की आज की परिस्थियों में? उस पर प्रकाश डालें.
ReplyDeleteसिर्फ छिद्रान्वेषण से तो काम नहीं चलेगा और न ही कोई बात बनेगी.
इतने सालों बाद भी भारतीय गणतंत्र की इस हालत के जिम्मेवार कौन है ?? क्या सिर्फ़ नेतागन ही ??
ReplyDeleteसच तो यह है की अपने स्वार्थ के आगे हम सब कुछ भूल जाते है , चाहे वह अपने मताधिकार का उचित प्रयोग ही क्यों न हो |
उदयजी यह गणतंत्र तब तक बेईमानी है जब तक यहाँ के कर्णधारों में नैतिकता और आत्मानुशाशन नही होगा, भ्रष्टाचार एवं उत्तरदायित्व हीनता ही सत्ता की ललक बनाए रखने का कारण है. नेता क़ानून से ऊपर हैं इसका कारण दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली है.अंग्रेजो के फूट डालो और राज करो नीति आज भी जीवित है.
ReplyDeleteबदलाव तो हमें और आपको ही करना है लेख लिखने से कुछ होता है क्या, मैदान में उतरने से सब-कुछ होता है।
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस का लेख बहुत ही अच्छा है कभी याद भी कर लिया करो
ReplyDeleteअमर रहे गणतंत्र हमारा इसी कामना के साथ गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई ...
ReplyDelete