उदय केसरी
आपने खबरों में देखा-पढ़ा होगा। नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के शपथ ग्रहण समारोह की शान-औ-शौकत। यह अश्वेत राष्ट्रपति के कारण ऐतिहासिक ही नहीं, बल्कि नागरिक लोकप्रियता की दृष्टि से भी बेजोड़ माना जा रहा है। यह अमेरिका के प्रत्यक्ष लोकतंत्र का कमाल ही है कि 30 करोड़ आबादी वाले अमेरिका के बेमिसाल नये राष्ट्रपति के स्वागत में जबदस्त भीड़ उमड़ी। वाशिंगटन डीसी के नेशनल मॉल में 20 लाख के करीब लोग पहुंचे अपने नये राष्ट्रनेता के दीदार को। वह भी अपनी जेब से खर्च करके। इस मॉल की पांच हजार सीटों के लिए जारी टिकट की बिक्री की रफ्तार भी ऐतिहासिक थी। महज एक मिनट में लगभग सारी टिकटें बिक गईं।
वाकई में, बराक ओबामा की लोकप्रियता और अमेरिकी नागरिकों की राष्ट्रभक्ति आज के भारतीय नेता व जनता दोनों के लिए बेहद अनुकरणीय है।...क्या आपको ऐसा महसूस नहीं होता, बराक ओबामा की ताजपोशी की खबरें जानकर? आजाद भारत में प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में पं. जवाहरलाल नेहरू की ताजपोशी के बाद किसी दूसरे प्रधानमंत्री की ताजपोशी समारोह में क्या कभी ऐसा जन-सैलाब उमड़ा? फिर, क्यों भारतीय जनता में नेताओं की लोकप्रियता उत्तरोतर घटती गई? भारत में तो नेताओं को अपनी रैलियों के लिए लोगों को बहला-फुसलाकर, खिला-पिलाकर, कुछ देकर गाड़ियों में भरकर लाना पड़ता है। ऐसे में तो भारतीय नेताओं के मंत्री-प्रधानमंत्री बनने पर जनता में स्वाभाविक जश्न की कल्पना ही बेकार है। जो कुछ होता है, वह नेता से संबंधित पार्टी का जश्न भर होता है।...आखिर भारत में ऐसा क्यों है? इस पर यदि विचार करें, तो इसके लिए खुद नेताओं के कृत्य तो जिम्मेदार हैं ही, पर राष्ट्र के प्रति जनता की कर्तव्यविमुखता भी कम जिम्मेदार नहीं है। हम भारत के लोग राष्ट्र चलाने के वास्ते अपना प्रतिनिधि तो चुनते हैं, लेकिन बाद में इस पर कम ही ध्यान देते हैं कि वह अपनी बोली कहां लगवा रहा है।...हमारे मतों से जीत कर जाने वाले प्रतिनिधि किस दल के हाथों बिककर हमारे मतों की धज्जियां उड़ा रहा है।
वैसे, मेरे विचार से तो इस विशाल भारत में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र होना ही नहीं चाहिए। जब महज तीस करोड़ आबादी वाले अमेरिका के लोग मिलकर अपने देश के लिए इतने काबिल व ऐतिहासिक राष्ट्रपति या नेता चुन सकते हैं...तो फर्ज कीजिए, एक अरब आबादी वाले भारत के लोग जब देश के प्रधानमंत्री का सीधे चुनाव करते, तो इस पद के दावेदारों को कितना चमत्कारिक छवि वाला होना पड़ता।...हमारा लोकतंत्र तो भारत में ब्रिटेन की विरासत जैसा है, जिसे हम गले लगाकर राजनीतिक व्यवस्था चला रहे हैं...जिसमें जनता का विश्वास दोयम दर्जे का है। इसमें जनता जिस पर विश्वास करती है, वह निजी फायदे के लिए किसी और पर विश्वास व्यक्त करता है।...ऐसी व्यवस्था में विकास तो प्रभावित होगा ही। सो, पिछले 50-55 सालों में देख ही रहे हैं। राजनीतिक दलों के चुनावी मुद्दे विकास से अधिक दंगा-फसाद, भ्रष्टाचार, घोटाला आदि के होते हैं। आखिर जनता के पास दो जून की रोटी-दाल का जुगाड़ सुनिश्चित हो, तब तो वह नेताओं की काबिलियत और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों पर कुछ विचार कर पायेगी।...सच कहें तो, भारतीय राजनीति की नीति यह हो गई है कि गरीबों, निर्धनों को बस जीने लायक बनाए रखो...उसे संपन्न, समझदार व जागरुक नहीं बनने दो...इसी में अपनी राजनीतिक दुकानदारी की प्रगति है।
इन बातों के अलावा यदि भारत की वर्तमान शासन व्यवस्था को देखें, तो हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विश्वास भी कहीं और (सोनिया गांधी) गिरवी प्रतीत होता है। फिर भी, देश की मनमोहन सरकार अमेरिका से कुछ खासा ही प्रभावित है।...मसलन, परमाणु करार के लिए सत्ता तक की बाजी लगा दी गई।...मगर देश की संप्रभुता को सामने खड़े होकर ललकार रहे आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने में यह सरकार पिछड़ गई। जानते हैं क्यों? क्योंकि अमेरिका ऐसा नहीं चाहता। दूसरे देशों के साथ अमेरिकी बनियागिरी के लिहाज से भारत द्वारा पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर कार्रवाई फायदेमंद नहीं है। आखिर, अमेरिका विरोधी आतंकवाद के सफाये के लिए पाकिस्तान को दिये गए अरबों डॉलर का क्या होगा। पाकिस्तान ये पैसे कहीं भारत के खिलाफ युद्ध लड़ने में न खर्च कर दे। इसलिए...अमेरिका द्वारा भारत को धैर्य रखकर दबाव बनाने की नसीहते दी जाने लगीं।...आपने देखा, अपने देश के फायदे-नुकसान के प्रति कितनी चतुर होती है अमेरिकी नीति। एक तरफ, भारत से परमाणु करार कर दोस्ती का हाथ मिलाया, दूसरी तरफ, भारत के दुश्मन से भी दोस्ती के सौदे में केवल मुनाफे पर नजर है।
बहरहाल, कहने का आशय है कि वर्तमान विश्व में जनता की राष्ट्रभक्ति और उससे पैदा हुए नेतृत्व/राष्ट्रनेता की निस्वार्थ करनी व कार्यकुशलता पर ही किसी राष्ट्र की प्रगति निर्भर करती है। इस संदर्भ में अमेरिकीयों की देशभक्ति और उससे उत्पन्न हुए अब्राहम लिंकन से लेकर वर्तमान के बराक ओबामा जैसे नेतृत्व से उस देश को मिली और मिलने वाली प्रगति भारत के लिए खासकर अनुकरणीय है।
आपने खबरों में देखा-पढ़ा होगा। नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के शपथ ग्रहण समारोह की शान-औ-शौकत। यह अश्वेत राष्ट्रपति के कारण ऐतिहासिक ही नहीं, बल्कि नागरिक लोकप्रियता की दृष्टि से भी बेजोड़ माना जा रहा है। यह अमेरिका के प्रत्यक्ष लोकतंत्र का कमाल ही है कि 30 करोड़ आबादी वाले अमेरिका के बेमिसाल नये राष्ट्रपति के स्वागत में जबदस्त भीड़ उमड़ी। वाशिंगटन डीसी के नेशनल मॉल में 20 लाख के करीब लोग पहुंचे अपने नये राष्ट्रनेता के दीदार को। वह भी अपनी जेब से खर्च करके। इस मॉल की पांच हजार सीटों के लिए जारी टिकट की बिक्री की रफ्तार भी ऐतिहासिक थी। महज एक मिनट में लगभग सारी टिकटें बिक गईं।
वाकई में, बराक ओबामा की लोकप्रियता और अमेरिकी नागरिकों की राष्ट्रभक्ति आज के भारतीय नेता व जनता दोनों के लिए बेहद अनुकरणीय है।...क्या आपको ऐसा महसूस नहीं होता, बराक ओबामा की ताजपोशी की खबरें जानकर? आजाद भारत में प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में पं. जवाहरलाल नेहरू की ताजपोशी के बाद किसी दूसरे प्रधानमंत्री की ताजपोशी समारोह में क्या कभी ऐसा जन-सैलाब उमड़ा? फिर, क्यों भारतीय जनता में नेताओं की लोकप्रियता उत्तरोतर घटती गई? भारत में तो नेताओं को अपनी रैलियों के लिए लोगों को बहला-फुसलाकर, खिला-पिलाकर, कुछ देकर गाड़ियों में भरकर लाना पड़ता है। ऐसे में तो भारतीय नेताओं के मंत्री-प्रधानमंत्री बनने पर जनता में स्वाभाविक जश्न की कल्पना ही बेकार है। जो कुछ होता है, वह नेता से संबंधित पार्टी का जश्न भर होता है।...आखिर भारत में ऐसा क्यों है? इस पर यदि विचार करें, तो इसके लिए खुद नेताओं के कृत्य तो जिम्मेदार हैं ही, पर राष्ट्र के प्रति जनता की कर्तव्यविमुखता भी कम जिम्मेदार नहीं है। हम भारत के लोग राष्ट्र चलाने के वास्ते अपना प्रतिनिधि तो चुनते हैं, लेकिन बाद में इस पर कम ही ध्यान देते हैं कि वह अपनी बोली कहां लगवा रहा है।...हमारे मतों से जीत कर जाने वाले प्रतिनिधि किस दल के हाथों बिककर हमारे मतों की धज्जियां उड़ा रहा है।
वैसे, मेरे विचार से तो इस विशाल भारत में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र होना ही नहीं चाहिए। जब महज तीस करोड़ आबादी वाले अमेरिका के लोग मिलकर अपने देश के लिए इतने काबिल व ऐतिहासिक राष्ट्रपति या नेता चुन सकते हैं...तो फर्ज कीजिए, एक अरब आबादी वाले भारत के लोग जब देश के प्रधानमंत्री का सीधे चुनाव करते, तो इस पद के दावेदारों को कितना चमत्कारिक छवि वाला होना पड़ता।...हमारा लोकतंत्र तो भारत में ब्रिटेन की विरासत जैसा है, जिसे हम गले लगाकर राजनीतिक व्यवस्था चला रहे हैं...जिसमें जनता का विश्वास दोयम दर्जे का है। इसमें जनता जिस पर विश्वास करती है, वह निजी फायदे के लिए किसी और पर विश्वास व्यक्त करता है।...ऐसी व्यवस्था में विकास तो प्रभावित होगा ही। सो, पिछले 50-55 सालों में देख ही रहे हैं। राजनीतिक दलों के चुनावी मुद्दे विकास से अधिक दंगा-फसाद, भ्रष्टाचार, घोटाला आदि के होते हैं। आखिर जनता के पास दो जून की रोटी-दाल का जुगाड़ सुनिश्चित हो, तब तो वह नेताओं की काबिलियत और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों पर कुछ विचार कर पायेगी।...सच कहें तो, भारतीय राजनीति की नीति यह हो गई है कि गरीबों, निर्धनों को बस जीने लायक बनाए रखो...उसे संपन्न, समझदार व जागरुक नहीं बनने दो...इसी में अपनी राजनीतिक दुकानदारी की प्रगति है।
इन बातों के अलावा यदि भारत की वर्तमान शासन व्यवस्था को देखें, तो हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विश्वास भी कहीं और (सोनिया गांधी) गिरवी प्रतीत होता है। फिर भी, देश की मनमोहन सरकार अमेरिका से कुछ खासा ही प्रभावित है।...मसलन, परमाणु करार के लिए सत्ता तक की बाजी लगा दी गई।...मगर देश की संप्रभुता को सामने खड़े होकर ललकार रहे आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने में यह सरकार पिछड़ गई। जानते हैं क्यों? क्योंकि अमेरिका ऐसा नहीं चाहता। दूसरे देशों के साथ अमेरिकी बनियागिरी के लिहाज से भारत द्वारा पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर कार्रवाई फायदेमंद नहीं है। आखिर, अमेरिका विरोधी आतंकवाद के सफाये के लिए पाकिस्तान को दिये गए अरबों डॉलर का क्या होगा। पाकिस्तान ये पैसे कहीं भारत के खिलाफ युद्ध लड़ने में न खर्च कर दे। इसलिए...अमेरिका द्वारा भारत को धैर्य रखकर दबाव बनाने की नसीहते दी जाने लगीं।...आपने देखा, अपने देश के फायदे-नुकसान के प्रति कितनी चतुर होती है अमेरिकी नीति। एक तरफ, भारत से परमाणु करार कर दोस्ती का हाथ मिलाया, दूसरी तरफ, भारत के दुश्मन से भी दोस्ती के सौदे में केवल मुनाफे पर नजर है।
बहरहाल, कहने का आशय है कि वर्तमान विश्व में जनता की राष्ट्रभक्ति और उससे पैदा हुए नेतृत्व/राष्ट्रनेता की निस्वार्थ करनी व कार्यकुशलता पर ही किसी राष्ट्र की प्रगति निर्भर करती है। इस संदर्भ में अमेरिकीयों की देशभक्ति और उससे उत्पन्न हुए अब्राहम लिंकन से लेकर वर्तमान के बराक ओबामा जैसे नेतृत्व से उस देश को मिली और मिलने वाली प्रगति भारत के लिए खासकर अनुकरणीय है।
उदयजी भारत की जनता जागरूक है परन्तु चुनावी प्रक्रिया इस प्रकार की है कि यदि चुनाव में खड़े सभी प्रत्याशी अपराधी हैं तो भी उनमें से किसी एक को चुनना ही होगा. क्रपया चुनाव सुधार से सम्बन्धित मेरा ब्लॉग पढ़े. जब तक जनता के हाथ में ताकत नही होगी सब ऐसे ही चलेगा. आपका क्रोध स्वाभाविक है सभी में गुस्सा होना चाहिए
ReplyDeleteसच कहा आपने,
ReplyDeleteलेकिन हमारे देश की जनता को जागरूक होने में अभी काफी समय लगेगा तब तक इसी तरह आतंकवादी हमलों का सामना करना होगा
अगर हमारा देश इतना ही अनुकरणीय देश होता तो अब तक बहुत आगे निकल चुका होता
achha likha hai......
ReplyDeleteअच्छा आलेख है....
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