उदय केसरी
स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस सरकार में ही 1975 में प्रेस की स्वतंत्रता पर सेंसरशिप जैसा काला कानून लादा गया था और अब एक बार फिर कांग्रेस सरकार में ही ऐसा कानून मीडिया पर लादने की गुपचुप तैयारी चल रही है। हालांकि इस कानून के जरिये सरकार के निशाने पर अखबार से अधिक न्यूज चैनल हैं, जिससे केंद्र सरकार ही नहीं, भारत के लगभग सभी घाघ राजनीतिक खार खाये हुए हैं। बेशक, इस काले कानून के पक्ष में सरकार के पास कई तर्क होंगे। देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा के नाम पर अनेक दलील होंगे। पर, क्या जिस राष्ट्र में मीडिया गुलाम हो, वहां स्वस्थ लोकतंत्र मुमकीन है? यदि नहीं, तो केंद्र सरकार की यह कोशिश, कुछ न्यूज चैनलों की चंद नादानियों के आधार पर लोकतंत्र की धड़कन यानी मीडिया पर तानाशाही कायम करना है, ताकि सरकारी नाकामियों और सत्तासीनों के भ्रष्ट आचरण की सूचना जनता तक पहुंच ही न सकें।
तो क्या अब मीडिया गुलाम और राजनेता स्वतंत्र होंगे?
तो क्या मीडिया अब सरकारी जुबान बन कर रह जायेगा? क्या मीडिया आम आदमी की आवाज़ नहीं रह पायेगा? बल्कि यह राजनेताओं की कटपुतली होगा? क्या सरकार द्वारा मीडिया को नियंत्रित करने के लिए बनाया जा रहा कानून 1975 में इंदिरा गांधी सरकार की तानाशाही में लगी सेंसरशिप का विस्तार अथवा दोहराव है? यह जान लेने के बाद कि केन्द्र सरकार मीडिया को नियंत्रित करने वाला कानून बनाने जा रही है, उक्त सवालों का उठाना लाजमी है। यह सीधेतौर पर संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है, जिसका अस्तित्व मीडिया की स्वतंत्रता पर ही निर्भर है। इस कानून के पैरोकार भले ही यह दावा करे कि कानून आतंकी हमले, सांप्रदायिक दंगे, हाईजैकिंग और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी घटनाओं के कवरेज के लिए मीडिया को नियंत्रित करेगा, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि सत्ता पक्ष इस कानून का उपयोग अपने फायदे के लिए नहीं करेगा। इस कानून के तहत उक्त घटनाओं में वही फुटेज दिखाये जा सकेंगे, जो सरकार जारी करेगी। यानी मीडिया वही दिखा पायेगा, जो सरकार चाहेगी, तो फिर मीडिया के होने का क्या मतलब रह जाएगा?
स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस सरकार में ही 1975 में प्रेस की स्वतंत्रता पर सेंसरशिप जैसा काला कानून लादा गया था और अब एक बार फिर कांग्रेस सरकार में ही ऐसा कानून मीडिया पर लादने की गुपचुप तैयारी चल रही है। हालांकि इस कानून के जरिये सरकार के निशाने पर अखबार से अधिक न्यूज चैनल हैं, जिससे केंद्र सरकार ही नहीं, भारत के लगभग सभी घाघ राजनीतिक खार खाये हुए हैं। बेशक, इस काले कानून के पक्ष में सरकार के पास कई तर्क होंगे। देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा के नाम पर अनेक दलील होंगे। पर, क्या जिस राष्ट्र में मीडिया गुलाम हो, वहां स्वस्थ लोकतंत्र मुमकीन है? यदि नहीं, तो केंद्र सरकार की यह कोशिश, कुछ न्यूज चैनलों की चंद नादानियों के आधार पर लोकतंत्र की धड़कन यानी मीडिया पर तानाशाही कायम करना है, ताकि सरकारी नाकामियों और सत्तासीनों के भ्रष्ट आचरण की सूचना जनता तक पहुंच ही न सकें।
तो क्या अब मीडिया गुलाम और राजनेता स्वतंत्र होंगे?
तो क्या मीडिया अब सरकारी जुबान बन कर रह जायेगा? क्या मीडिया आम आदमी की आवाज़ नहीं रह पायेगा? बल्कि यह राजनेताओं की कटपुतली होगा? क्या सरकार द्वारा मीडिया को नियंत्रित करने के लिए बनाया जा रहा कानून 1975 में इंदिरा गांधी सरकार की तानाशाही में लगी सेंसरशिप का विस्तार अथवा दोहराव है? यह जान लेने के बाद कि केन्द्र सरकार मीडिया को नियंत्रित करने वाला कानून बनाने जा रही है, उक्त सवालों का उठाना लाजमी है। यह सीधेतौर पर संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है, जिसका अस्तित्व मीडिया की स्वतंत्रता पर ही निर्भर है। इस कानून के पैरोकार भले ही यह दावा करे कि कानून आतंकी हमले, सांप्रदायिक दंगे, हाईजैकिंग और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी घटनाओं के कवरेज के लिए मीडिया को नियंत्रित करेगा, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि सत्ता पक्ष इस कानून का उपयोग अपने फायदे के लिए नहीं करेगा। इस कानून के तहत उक्त घटनाओं में वही फुटेज दिखाये जा सकेंगे, जो सरकार जारी करेगी। यानी मीडिया वही दिखा पायेगा, जो सरकार चाहेगी, तो फिर मीडिया के होने का क्या मतलब रह जाएगा?
क्या अमेरिकी मीडिया की स्वतंत्रता से वाकिफ नहीं सरकार?
कोई शक नहीं कि मुंबई हमले के बाद कुछ चैनलों ने अतिउत्साह में कमांडो कार्रवाई, होटल में मौजूद महत्वपूर्ण व्यक्तियों सहित कई ऐसे कवरेज प्रसारित किये, जिससे आतंकियों को मदद मिली। लेकिन इसके आधार पर पूरे मीडिया जगत पर एक तानाशाही कानून लादना क्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया है? मुंबई की घटना के बाद एनबीए ने मीडिया के आत्मनियंत्रण की आवश्कता को समझते हुए अपने दिशा-निर्देश जारी किये। क्या यह रास्ता सही नहीं है? तो क्या अमेरिकी नीतियों के प्रसंशक देश की कांग्रेस सरकार अमेरिकी मीडिया की स्वतंत्रता से वाकिफ नहीं है?
भारतीय मीडिया का प्रधान संपादक होगा सत्तासीन राजनेता
मीडिया को अगर किसी कानून में बांध दिया गया, तो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मीडिया को इस हद तक नियंत्रित किया जा सकता है कि वह पूरी तरह असहाय हो जाये। हालांकि इसमें काफी समय लगेगा, लेकिन इस कानून के पास होने के साथ ही इसकी शुरूआत जरूर हो जायेगी। फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया के बाद वेब मीडिया और फिर प्रिंट मीडिया को भी इस दायरे में लाया जायेगा। या कहें कि इस कानून के पूरी तरह से लागू होने के बाद भारतीय मीडिया का प्रधान संपादक सत्तासीन राजनेता होगा और पत्रकार उनके अधीन काम करने वाले कर्मचारी।
फिर पाकिस्तान और भारत की मीडिया में क्या अंतर रह जायेगा?
मुंबई हमले में गिरफ़्तार आतंकी अजमल कसाब पाकिस्तान का है। जब पाकिस्तान के एक न्यूज चैनल ने कसाब के पाकिस्तानी होने से संबंधित खबर प्रसारित किया, तो पाक हुक्मरानों ने उस चैनल पर देशद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। सोचिए, जब भारत में यह कानून बन जायेगा, तो क्या किसी घटना को लेकर भारत सरकार इस तरह का कदम नहीं उठायेगी? पाक में मीडिया को उतनी स्वतंत्रता नहीं है, जितनी होनी चाहिए, तो क्या इस कानून के बाद भारत में भी मीडिया की स्थिति पाक जैसी हो जायेगी? रिचर्ड रीड उर्फ अब्दुल रहीम की आतंकी गतिविधियों के मामले की जांच के सिलसिल में अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल 2002 में कराची गया था, जिसका अपहरण करने के बाद हत्या कर दी गई। जानते है क्यों? क्योंकि वह अल कायदा और आईएसआई के बीच संबंधों को उजागर करने की कोशिश में लगा था। इसमें कोई शक नहीं कि यह पाकिस्तान के हुक्मरानों की सह पर हुआ।
कोई शक नहीं कि मुंबई हमले के बाद कुछ चैनलों ने अतिउत्साह में कमांडो कार्रवाई, होटल में मौजूद महत्वपूर्ण व्यक्तियों सहित कई ऐसे कवरेज प्रसारित किये, जिससे आतंकियों को मदद मिली। लेकिन इसके आधार पर पूरे मीडिया जगत पर एक तानाशाही कानून लादना क्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया है? मुंबई की घटना के बाद एनबीए ने मीडिया के आत्मनियंत्रण की आवश्कता को समझते हुए अपने दिशा-निर्देश जारी किये। क्या यह रास्ता सही नहीं है? तो क्या अमेरिकी नीतियों के प्रसंशक देश की कांग्रेस सरकार अमेरिकी मीडिया की स्वतंत्रता से वाकिफ नहीं है?
भारतीय मीडिया का प्रधान संपादक होगा सत्तासीन राजनेता
मीडिया को अगर किसी कानून में बांध दिया गया, तो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मीडिया को इस हद तक नियंत्रित किया जा सकता है कि वह पूरी तरह असहाय हो जाये। हालांकि इसमें काफी समय लगेगा, लेकिन इस कानून के पास होने के साथ ही इसकी शुरूआत जरूर हो जायेगी। फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया के बाद वेब मीडिया और फिर प्रिंट मीडिया को भी इस दायरे में लाया जायेगा। या कहें कि इस कानून के पूरी तरह से लागू होने के बाद भारतीय मीडिया का प्रधान संपादक सत्तासीन राजनेता होगा और पत्रकार उनके अधीन काम करने वाले कर्मचारी।
फिर पाकिस्तान और भारत की मीडिया में क्या अंतर रह जायेगा?
मुंबई हमले में गिरफ़्तार आतंकी अजमल कसाब पाकिस्तान का है। जब पाकिस्तान के एक न्यूज चैनल ने कसाब के पाकिस्तानी होने से संबंधित खबर प्रसारित किया, तो पाक हुक्मरानों ने उस चैनल पर देशद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। सोचिए, जब भारत में यह कानून बन जायेगा, तो क्या किसी घटना को लेकर भारत सरकार इस तरह का कदम नहीं उठायेगी? पाक में मीडिया को उतनी स्वतंत्रता नहीं है, जितनी होनी चाहिए, तो क्या इस कानून के बाद भारत में भी मीडिया की स्थिति पाक जैसी हो जायेगी? रिचर्ड रीड उर्फ अब्दुल रहीम की आतंकी गतिविधियों के मामले की जांच के सिलसिल में अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल 2002 में कराची गया था, जिसका अपहरण करने के बाद हत्या कर दी गई। जानते है क्यों? क्योंकि वह अल कायदा और आईएसआई के बीच संबंधों को उजागर करने की कोशिश में लगा था। इसमें कोई शक नहीं कि यह पाकिस्तान के हुक्मरानों की सह पर हुआ।
यकीं किस पे करे सोच के डर लगता है,
ReplyDeleteजो पहरेदार है घर का वही लूटेरा है |
वही वकील वही मुद्दई मुंसिफ है वही ,
चलो ये मानलिया सब कसूर मेरा है |
पता नही ये राजनीति का स्तर किस चरण में है |
'घर को आग लग गई घर के चिराग से'
ReplyDeleteकांग्रेस का तो प्रारंभ से ही ऐसा आचरण रहा है पूरे राष्ट्र में हर वास्तु की कमी घोटाला, महंगाई, वैमनस्यता, और जनता का दमन ये अंग्रजों के सही प्रतिनिधि हैं
सर नमस्कार मिडिया पैर रोक लगाने की बात राजनेता लोगे ही अधिक कर रहे है क्योकि उन्हे इससे बहुत दीक्कत हो रही उनकी काली करतूतों को मिडिया उजागर कर रहा है लेकिन मेरे विचार से मीडिया पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र का सबसे सशक्त और ज़रूरी माध्यम है. अगर ऐसा हुआ तो शासक वर्ग निरंकुश हो जायेगा. जहाँ जहाँ देश की सुरक्षा का सवाल हो वहां मीडिया को बहुत ही ज़िम्मेदार तरीक़े से पेश आना चाहिए और इसकी गंभीरता का ध्यान रखना चाहिए. मीडिया को शासक के नियंत्रण से बचने का एक ही उपाय है कि वो सत्य और राष्ट्रहित का ध्यान रखे ताकि शासक वर्ग को मीडिया को नियंत्रित करने का बहाना ना मिले. पुरा शासक वर्ग मिडिया को अपने खिलाफ नही देखना चाहता
ReplyDeleteजिस राष्ट्र में मीडिया गुलाम हो, वहां स्वस्थ लोकतंत्र मुमकीन नही है? लेकिन मुंबई हमले के बाद कुछ चैनलों ने अतिउत्साह में कमांडो कार्रवाई, होटल में मौजूद महत्वपूर्ण व्यक्तियों सहित कई ऐसे कवरेज प्रसारित किये, जिससे आतंकियों को मदद मिली। लेकिन यह तो पुरी तरह से मीडिया के स्वंत्रता का नाजायज़ फायदा लगा । मीडिया को भी अपनी समय सीमा तय कर लेनी चाहिए । है, ना?
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