हम एकेश्वरवादी हैं। हमारा धर्म रूढ़ियों का त्याग है। सांप्रदायिकता का लुप्त हो जाना ही सत्य धर्म का प्रकट होना है।उदय केसरी
आज से दो सौ ग्यारह साल पहले आगरा की धरती पर जन्म लिया था उस शख्स ने। उस जैसा आज तक कोई दूसरा नहीं हुआ और आगे शायद ही हो। वह बचपन से ही कोई आमशख्स नहीं था। उसे तो जैसे खुदा ने बड़ी तबीयत से गढ़ा, इस जहां के लिए। उसके हृदय में दुनिया के तमाम कवि हृदयों की गहराइयों को समेटकर एक साथ डाल दिया। उसके मस्तिष्क में जीवनदर्शन की अंतिम ज्योति भी प्रज्जवलित कर दी। पर शायद खुदा उस शख्स को गढ़ने के दौरान कवि हृदय की असीम गहराई और मानव जीवन दर्शन के अनंत ज्ञानलोक में खो गये, तभी तो वे उस नायाब शख्स की तकदीर पर विशेष ध्यान नहीं दे सके। उस शख्स के जीवनकाल की भौतिक समृद्धि और पारिवारिक सुख से नजरें चूक गईं। फिर भी, जो दिया दिल खोलकर दिया, जैसा आज तक किसी को नहीं मिला। तभी, उस शख्स के अक्स को मिटा, छिपा पाने में वक्त की परतें सौकड़ों साल बाद भी नाकाम हैं। उस शख्स की जुबां से निकले शेर के एक-एक शब्द की गहराइयों में उतरना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है। जाहिर है हम बात कर रहे हैं, उसी अज़ीम शख्स की, जिसका पूरा नाम मिर्ज़ा असदउल्लाह खां और जिसे सारा ज़माना मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानता है।
चौड़ा-चकला हाड़, लंबा कद, सुडौल इकहरा जिस्म, भरे-भरे हाथ-पैर, सुर्ख चेहरा, खड़े नाक-नक्श, चौड़ी पेशानी, घनी लंबी पलकें, बड़ी-बड़ी बादामी आंखें और सुर्ख गोरे रंग वाले मिर्ज़ा ग़ालिब का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक था। ऐबक तुर्क वंश के इस शख्स का मिजाज ईरानी, धार्मिक विश्वास अरबी, शिक्षा-दीक्षा फारसी, भाषा उर्दू और संस्कार हिन्दुस्तानी था। दस-ग्यारह साल की उम्र में मकतब (पाठशाला) में पढ़ाई के दौरान ही ग़ालिब की जुबां से एक से बढ़कर एक शेर निकलने लगे थे। शेर सुनकर लोग अक्सर उसकी अवस्था और शेर के ऊंचे दर्जे से भौचक्के रह जाते थे। इस शख्स ने पच्चीस पार करने से पूर्व ही उच्चकोटि के क़सीदे और ग़ज़लें कह डाली थीं। तीस-बत्तीस के होते-होते ग़ालिब ने अपनी शेरो-शायरी की जादूगरी से कलकत्ते से दिल्ली तक हलचल-सी मचा दी थी। उस ज़माने में दिल्ली में खासा शायराना माहौल हुआ करता था। दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफ़र खुद शायर थे। आए दिन शेरो-शायरी की महफिलें जमती थीं। इन महफिलों में ग़ालिब ने अपने कलाम पढ़कर न जाने कितने ही मुशायरे लूट लिये। इस शख्स के शेर तो खासमखास होते ही थे, अंदाज-ए-बयां भी अलहदा था। जिस पर सुनने वाले लुट-लुट जाते थे। उस्तादों के उस्ताद ग़ालिब कभी किसी उस्ताद शायर के शार्गिद नहीं बने, उन्हें तो जैसे कवित्वमय इस सुंदर दुनिया की रचना करने वाले सबसे बड़े उस्ताद ने ऊपर से ही सब कुछ सिखाकर धरती पर भेजा था। इतना कि वे शायरी जगत के समकालीन बड़े-बड़े उस्तादों के शेरों की नुक्ताचीनी भी कर दिया करते थे।
जैसा कि हर उस शख्स का मिजाज कुछ खास होता है, जो आम से हटकर और आसाधारण प्रतिभा का धनी होता है, ग़ालिब का मिजाज भी बेशक अलहदा था। दृढ़ स्वाभिमानी, जो निश्चय कर लिया, वह ब्रहमलकीर, जो कह दिया, उससे डिगना नामुमकिन। लेकिन उनकी भौतिक तकदीर सजाने में जैसे खुदा से चूक हो गई हो, उनका जीवन इस धरती पर भौतिक सुख के लिए सदा तरसता रहा। बावजूद इसके कभी उन्होंने अपने मिजाज या कहें दृढ़ स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। उस अजीम शख्स के जीवन में धन की तंगी तो रही ही, पारिवारिक सुख भी बहुत कम ही मिला। आगरा में 28 दिसंबर 1797 में उनके जन्म लेने के कुछेक साल बाद ही पिता और चाचाजी चल बसे। बचपन में ही वे अनाथ सरीखे हो गए। लालन-पालन ननिहाल (आगरा) में हुआ। जब उन्होंने होश संभाला आर्थिक तंगहाली को अपने साथ पाया और यह ताजिंदगी उनके साथ रही। लेकिन इससे उस शख्स ने कभी हार नहीं मानी। उनकी जीवनशैली कोई आम नहीं, रईसों की थी। कर्ज में डूबकर भी, अपने रईसी शौक से कभी उन्होंने तौबा नहीं की। करेला, इमली के फूल, चने की दाल, अंगूर, आम, कबाब, शराब, मधुरराग और सुंदर मुखड़े सदा उन्हें आकर्षित करते रहे। तभी तो ग़ालिब ने अपने एक शेर में कहा-
कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हां
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
एक बार कर्ज के पहाड़ ने ग़ालिब को अपने घर में बंद रहने तक को मजबूर कर दिया, जब एक दीवानी मुकदमे में उनके खिलाफ पांच हजार रुपये की डिग्री हो गई। क्योंकि उस जमाने में कर्जदार व्यक्ति यदि प्रतिष्ठित होता, तो उसे घर के अंदर से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था। ऐसी दुर्दशा में भी मिर्जा साहब अपने शतरंज और चौसर खेलने के शौक को पूरा करते थे। दिल्ली के चांदनी चौक के कुछ लौहरी मित्र के बीच जुआं चला करता था, जो ग़ालिब के घर पर ही जुआं खेलने पहुंच जाते थे। बादशाह घराने के कई लोग, धनवान जौहरी से लेकर शराब विक्रेताओं तक और दिल्ली के पंडितों, विद्वानों से लेकर अंग्रेज अधिकारियों तक अनेक लोग उस शख्स की बेमिसाल शायरी के कद्रदान थे और जो इनके खास मित्र भी हुआ करते थे। बीस-पच्चीस साल की उम्र होने से पहले जवानी में ग़ालिब नृत्य, संगीत, शराब, सुंदरता व जुएं की रंगीन दुनिया से खासा मोहित रहे। मगर इसके बाद इन सब से बहुत हद तक उनका मोहभंग हो गया। यह वक्त जैसे मिर्जा ग़ालिब के जीवन का अहम मोड़ था। वह जीवन दर्शन की दिशा में चल पड़े। उनकी शायरी में सूफियों जैसे स्वतंत्र व धर्मनिरपेक्ष विचार व्यक्त होने लगे। इस दौर में उन्होंने एक शेर लिखा-
हम मुवाहिद हैं, हमारा केश है तर्के-रसुम
मिल्लतें जब मिट गई, अजज़ाए-ईमां हो गई।
मतलब यह कि, हम एकेश्वरवादी हैं। हमारा धर्म रूढ़ियों का त्याग है। सांप्रदायिकता का लुप्त हो जाना ही सत्य धर्म का प्रकट होना है।
ग़ालिब से पहले उर्दू शायरी में गुलो-बुलबुल, हुस्नो-इश्क आदि के रंग कुछ ज्यादा ही हुआ करते थे। यह ग़ालिब को पसंद न था। इसे वे ग़जल की तंग गली कहते थे, जिससे वे अपने शेरों के साथ गुजर नहीं सकते थे। इसलिए उन्होंने ऐसी शायरी करने वाले उस्तादों को अपने शेरों में खूब लताड़ा। इस कारण इन उस्तादों द्वारा उनका मजाक उड़ाया जाता था, जिसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। दिलचस्प तो यह कि ग़ालिब के शेरों की आलोचना उनसे खिसियाये या घबराये उस्तादों ने जितनी नहीं की, उतनी उन्होंने स्वयं की। यह अजीब ही था कि ग़ालिब अपनी शायरी के कठोर आलोचक भी थे। तभी तो उन्होंने, जब दीवान-ए-ग़ालिब संकलन तैयार करना शुरु किया, तो बचपन से लेकर जिंदगी के अंतिम दौर तक लिखे असंख्य शेरों में से दो हज़ार शेरों को बड़ी बेदर्दी से निरस्त कर दिया। इस कारण ग़ालिब का यह महान संकलन छोटा तो है, लेकिन इसमें जो शेर हैं, वह उर्दू शायरी के सर्वश्रेष्ठ मूल्यों से सिंचित ही नहीं, जीवन दर्शन और आध्यात्मिक आनंद की असीम गहराइयों वाले हैं, जिसमें डूबना आज भी उतना आनंदप्रद है, जितना इसके रचयिता के जमाने में।