मीतेन्द्र नागेश
पत्रकारिता मिशन या व्यवसाय? बहुत बड़ा और शर्मनाक प्रश्न है न जाने कितने व्याख्यान, संगोष्ठी, बहस और सभाएं हो चुकी है इस बात पर की आज पत्रकारिता आख़िर है क्या? अफ़सोसजनक है की आज सुनना पड़ता है- पत्रकारित अब मिशन नही रही यह रूपांतरण पत्रकारिता को गर्त में ले जा रहा है और हमने इसे मौन स्वीकृति दे दी है दूसरी तरफ़ हम 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' यानी 'फ्रीडम ऑफ़ प्रेस' की बहुत बात और बहस करते हैं यह बहस लम्बी चलती रहेगी लेकिन यहां चन्द प्रश्न नए और अहम् हैं जब हम अधिकार की बात करते हैं, तो कर्त्तव्य की बात क्यों नहीं करते? प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता के अधिकार के हो-हल्ला में कर्त्तव्य 'स्वतंत्रता का सम्मान' को क्यो भुला दिया जाता हैं? प्रश्न यह है कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' से पहले क्या पत्रकारिता को एक विशेष वर्ग की गुलामी से आजाद करवाना प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए? यानी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' से पहले 'प्रेस की आज़ादी' की बात की जानी चाहिए
पत्रकिरिता में जिस प्रकार का बदलाव आया है, उससे इसके मायने ही बदल गए हैं गंभीर, शोधात्मक खबरें, आम जनता के हितों का ध्यान, समाज को दिशा देने की कला-जैसे पक्षों को पहले तो पीत पत्रकारिता की चुहलबाजी का अर्द्धग्रहण लगा और आज की उद्देश्य विहीन 'ब्लैक जर्नलिज्म' की परछाई इस पर पूरी तरह छा जाने की कोशिश में है 'ब्लैक जर्नलिज्म' यानी बिना उद्देश्य के अंधकार में भटकने वाली पत्रकारिता 'ब्लैक जर्नलिज्म' यानी जो रात के साये में होती है, जिसका उद्देश्य अंधकार में छिपा होता है ख़ुद पत्रकार को भी पता नहीं होता कि वह इस तरह की पत्रकारिता आख़िर क्यों कर रहा है और कब तक इस अंधेरे में सनसनी खोजता रहेगा 'ब्लैक जर्नलिज्म' यानी खबरों के एवज में ब्लैकमनी बनाना, काले धंधों पर परदा डालना चौबीस घंटे समाचार की बाध्यता और देर रात तक दर्शकों को स्क्रीन से चिपकाये रखकर टीआरपी बढ़ाने की दौड़ ने इस 'ब्लैक जर्नलिज्म' को जन्म दिया हैं इसी का अनुकरण प्रिंट मीडिया भी कर रहा है
अब पत्रकारिता आम जनता की आवाज़ नहीं रही अब पत्रकारिता के श्रीमुख से पूंजीपतियों की तूती बोलती है किसी पूंजीपति ने विदेशी कम्पनी को हथिया लिया या भोग-विलास का सबसे सस्ता उत्पाद बाज़ार में उतार दिया, तो यह सबसे बड़ी ख़बर होती है, लेकिन अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रहा आम आदमी अब मीडिया के टीजी (टारगेट ग्रुप) के काबिल भी नहीं रहा देश के कई बड़े और नामी-गिरामी अखबारों का टीजी है- उच्च मध्यम वर्ग, उच्च वर्ग और विदेश में अपनी ऊर्जा झौक आए एनआरआई गरीब की बस्ती की समस्या की ख़बर से ज्यादा वजनी ख़बर है कि फलां क्लब ने 'पानीपुरी खाओ' प्रतियोगिता का आयोजन किया मिसेज़ 'पूंजीपति' ने एक मिनट में सबसे ज्यादा 'पानीपुरी' खाकर खिताव जीत लिया एसी बैतुकी ख़बरों को बड़े-बड़े फोटो के साथ अखबारों में चिपकाया जाता है इधर रोज़ रोटी की जंग जीतने की चुनौती का सामना करने वाली महिला मजदूरों की ख़बर महज़ विज्ञापन के कारण रोक दी जाती है चैनल एक भूत की मनगढ़ंत कहानी के सहारे घंटों ख़राब करते रहते हैं
लोगों को पीने का पानी नहीं मिल रहा है, शासन की योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है इस पर आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है अगर मीडिया के मध्यम से आवाज़ उठती है, तो वह भी किसी राजनीतिक दल के खिलाफ अथवा समर्थन में एजेंडा सेट करने के उद्देश्य से उठती है माहौल इस कदर बिगड़ा है कि पत्रकारिता के मूल्यों की बात करने वालों को फ्रसटेड करार दे दिया जाता है जो कुछ लोग मूल्यों पर चल रहे हैं. उन्हें इसके लिए क्या कहना पड़ रहा है, यह वही जानते हैं सच्चाई सामने लाने वाले पत्रकार पर दबाव बनाया जाता है कि अपनी ख़बर को रोक दो और सामने वाले से डील करके पैसा बना लो, जिसमें मालिक और संपादक का हिस्सा भी होगा मीडिया के दफ्तरों में अब पत्रकार नाम की चीज़ ज़हनीतौर पर सुप्त अथवा मृत अवस्था में पाई जाती है और जो थोड़ी-बहुत साँस लेने की हिम्मत कर रहे हैं, उन्हें 'कामा-बिंदी' की गलतियों पर औकात दिखा दी जाती है-'क्या लिखते हैं आप, मैं क्या यहाँ प्रूफ़ रीडिंग के लिए बैठा हूँ' संपादक महोदय का इस बात से कोई लेना-देना नही क्या खबर जाने लायक है, बल्कि ध्यान इस बात पर होता है कि 'दुकानदारी' की कोई ख़बर छुट न जाए
हर एक मीडियाकर्मी इस असलियत से वाकिफ है और रोना भी रोता है, मगर कोई आवाज़ नही उठाता चन्द लोगों को छोड़कर कोई कोशिश नहीं करता इस पूंजीपति केंद्रित पत्रकारिता के समांतर असली पत्रकारिता की इमारत खड़ी करने की पत्रकारों की एक अच्छी-खासी ज़मात को चन्द पूंजीपति अपने इशारों पर नचाकर हित साध रहे हैं यह पत्रकारिता का कला युग है, जहाँ पत्रकार गुलाम हो चुका है और जो ख़ुद गुलाम हो, वह आम आदमी की आवाज़ कैसे उठाएगा वह तो अंधकार में दौड़ रहा है और पूंजीपति उसे हांक रहे हैं उसे नहीं मालूम कि उसकी इस 'ब्लैक जर्नलिज्म' से किस का भला हो पा रहा है...?
प्रिय मित्र मीतेश
ReplyDeleteतुम्हारा लेख पढ़ा पर मुझे लगता है कि इसमें कुछ भी नया नहीं है। सभी जानते हैं कि पत्रकारिता का मिशन सिर्फ देश की आजादी तक ही सीमित था। इसके बाद सभी अखबारों ने इसे व्यवसाय के रुप में स्वीकार कर लिया। और सच कहूं तो यह जरुरी भी है क्योंकि मुझे नहीं लगता कि कोई पत्रकार आज के जमाने में ऐसा होगा जो मिशन के लिए काम कर रहा हो। क्योंकि जीविकोपार्जन मिशन से ज्यादा जरुरी है।