जज, ज्यूरी और जल्लाद भी
एक के बाद एक उत्तर प्रदेश की कई बार असोसिएशनों ने आतंकवाद के आरोपियों की पैरवी करने न करने का फैसला कर रखा है। नतीजा पुलिस स्वच्छंद होकर आरोपियों को मुजरिम साबित करने के लिए कुछ भी कर रही है और आरोपी अपनी बात तक रखने की स्थिति में नहीं हैं। क्या मुस्लिम युवा किसी अघोषित, अनाधिकारिक आपातकाल के शिकार हैं? इलाहाबद में कुछ हफ्तों पहले एक असामान्य बैठक हुई जिसे लगभग सभी ने अनदेखा कर दिया। मीडिया की चकाचौंध से दूर हजारों मुसलमान वो सवाल करने के लिए इकट्ठा हुए थे जो मुस्लिम समुदाय के अंदर दिनों-दिन गहरी पैठ बनाता जा रहा है। क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में उनकी दशा गेंहू के घुन जैसी हो गई है? आयोजन में जमा लोगों ने विशेषकर उत्तर प्रदेश की बात की जहां स्थानीय वकीलों ने आतंकवाद के आरोपी मुसलमानों की पैरवी करने से ही इनकार कर दिया। न्याय को नकारने के ये असाधारण मामले हैं। किसी वकील द्वारा पैरवी न किए जाने की वजह से पुलिस को मनमानी करने की आज़ादी मिल जाती है और ऐसा ही हो रहा है। आरोपियों के खिलाफ आरोप साबित करने के लिए पुलिस उल्टे-सीधे, वैध-अवैध सभी हथकंडे अपना रही है।
इलाहाबाद की मीटिंग राज्य द्वारा प्रायोजित इस आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए बुलाई गई थी। मीटिंग में लगे बैनरों पर लिखा था-- "एटीएस-एसटीएफ विभाग - आतंकवाद का दूसरा नाम"। एटीएस और एसटीएफ उत्तर प्रदेश में बढ़ रही जेहादी घटनाओं से निपटने के लिए बनाए गए दो विशेष पुलिस बल हैं। एक वक्ता ने श्रोताओं को चेताया, "ये सोचकर खुद को दिलासा मत दीजिए कि एसटीएफ ने आपको नहीं पकड़ा, बहुत जल्द आप की बारी भी आ सकती है।"
कोर्ट में उसके ऊपर हमला हुआ और वकीलों ने उसका केस लड़ने से इनकार कर दिया। जब डेढ़ साल तक मामले में कोई प्रगति नहीं हुई तो उसने अपना केस दूसरी जगह ट्रांसफर करने के लिए इलाहाबाद हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
वलीउल्लाह, आफताब आलम अंसारी, मोहम्मद खालिद मुजाहिद, मोहम्मद तारिक क़ासमी, सहजादुर रहमान, मोहम्मद अख्तर। इन सभी के परिवार वालों ने ने पुलिस पर अवैध तौरतरीके अपनाने के आरोप लगाए हैं। लेकिन किसी को भी किसी तरह की भी क़ानूनी सहायता नहीं मिल सकी क्योंकि एक के बाद एक तमाम बार एसोसिएशन्स ने इन आरोपियों का बहिष्कार करने के प्रस्ताव पारित कर रखे है। फैजाबाद बार एसोसिएशन ने 2005 में राम जन्मभूमि पर आतंकी हमले के बाद इसकी शुरुआत की थी। इसके बाद वाराणसी बार एसोसिएशन ने 2006 में संकटमोचन और कैंट स्टेशन पर हुए विस्फोट के आरोपी वलीउल्लाह के मामले में यही रुख अपनाया। लखनऊ और बाराबंकी बार एसोसिएशनों ने भी 22 नवंबर 2007 में लखनऊ, बाराबंकी और वाराणसी के कचहरी परिसर में हुए सिलिसलेवार धमाकों के बाद आरोपियों को क़ानूनी सहायता नहीं दिए जाने के फरमान पास कर दिए। विस्फोट के एक दिन पहले लखनऊ कचहरी के वकीलों ने एसटीएफ द्वारा पकड़े गए राहुल गांधी की हत्या की साजिश के तीन आरोपियों के साथ मारपीट भी की थी।
इलाहाबाद से 40 किलोमीटर दूर फूलपुर में 25 मार्च 2006 को वलीउल्लाह स्थानीय पुलिस थाने में पूछताछ के लिए हाजिर हुआ था। कुछ चश्मदीदों के हवाले से वलीउल्लाह के पड़ोसी इम्तियाज़ बताते हैं कि अगले दिन उससे इफ्को के परिसर में पूछताछ के लिए आने को कहा गया। इफ्को जाते वक्त रास्ते में बोलेरो में सवार तीन लोगों ने उसे रोक लिया। उसे एक गाड़ी में डालकर वे वहां से फुर्र हो गए। वलीउल्लाह को लोग मुफ्तीसाब के नाम से पुकारते हैं। ये एक मदरसा संचालित करते हैं और फूलपुर मस्जिद के इमाम भी हैं। उनके गायब होने के बाद फूलपुर जैसे थम सा गया, यहां तक कि ट्रेनों का भी यहां से निकलना मुश्किल हो गया।
एसटीएफ की एफआईआर के मुताबिक वलीउल्लाह को विस्फोटकों के साथ पांच अप्रैल को लखनऊ से गिरफ्तार किया गया था, चश्मदीदों की बताई तारीख से ठीक दस दिन बाद। वलीउल्लाह के भाई वसीउल्लाह एसटीएफ के उस आरोप को सिरे से नकारते हैं जिसमें कहा गया है कि वलीउल्लाह के पास एक पासपोर्ट था और उसके बैंक खाते में पचास लाख रूपए थे। वाराणसी में वलीउल्लाह की सुनवाई अभी शुरू भी नहीं हुई थी कि पुलिस के सामने किया गया उसका इकरारनामा टीवी पर प्रसारित कर दिया गया। कोर्ट में उसके ऊपर हमला हुआ और वकीलों ने उसका केस लड़ने से इनकार कर दिया। जब डेढ़ साल तक मामले में कोई प्रगति नहीं हुई तो उसने अपना केस दूसरी जगह ट्रांसफर करने के लिए इलाहाबाद हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उसका केस गाज़ियाबाद ट्रांसफर कर दिया गया। यहां दो सालों से कैद में रह रहे वलीउल्लाह को जैसे-तैसे एक वकील मिल पाया। जिस समय उन्हें गिरफ्तार किया गया था उनकी पत्नी गर्भवती थी और दो छोटे बच्चे भी थे। बहिष्कार की अगुवाई करने वाले वाराणसी के वकील अनुपम वर्मा से पूछने पर उनका जवाब कुछ यूं था-- "ये ही वो लोग हैं जो देश के साथ धोखा कर रहे हैं। उनका मामला पुलिस की जांच का विषय है और पुलिस के कहने को ही सही माना जाना चाहिए।"
एक तरह से वकील खुद ही यहां जज की भूमिका में आ गए हैं। कचहरी परिसरों में एक के बाद एक धमाकों से न्यायिक समुदाय एकजुट हो गया और इस केस के पांच आरोपियों को अछूत घोषित कर दिया गया। लखनऊ के एक वकील मोहम्मद शोएब इस प्रतिबंध को दरकिनार करके उनके बचाव में आगे आए। शोएब, आफताब आलम अंसारी की पैरवी कर रहे हैं जिनके ऊपर एसटीएफ ने हूजी आतंकवादी होने का आरोप लगाया है। "आफताब की मां और मुझे जेल में उससे मिलने भी नहीं दिया गया। जब मैंने कोर्ट में शिकायत दाखिल की तो जज ने इस पर कार्रवाई करने की बजाय जेल अथॉरिटी से रिपोर्ट मांगी," शोएब कहते हैं। लेकिन उनकी कोशिश रंग लायी और कुछ ही दिनों बाद जब शोएब ने पुलिसिया कहानी की धज्जियां उड़ा दी तब आफताब को रिहा किया गया। क़ानून के इस अकेले सिपाही की इस सफलता के बाद जल्द ही मामले के सह आरोपी मोहम्मद खालिद मुजाहिद और मोहम्मद तारिक क़ासमी के परिवारों ने भी उनसे संपर्क किया।
आतंकवाद के संदिग्ध आरोपियों के खिलाफ पूर्वाग्रह रखने वालों का दायरा बहुत व्यापक है। इसमें निचले स्तर तक के कर्मी शामिल हैं। यहां तक कि केस से जुड़े कागजातों का निवेदन भी अनसुना कर दिया गया।
"खालिद को एसटीएफ ने जौनपुर ज़िले के मड़ियाहूं से गिरफ्तार किया था, जहां वो सब्जी खरीद रहा था। इस बात के सैकड़ो गवाह हैं जिन्होंने इसकी पुष्टि करने वाले एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर भी किए हैं.," खालिद की पत्नी शबनम बानों कहती हैं। ये घटना 16 दिसंबर 2007 की है—दोनों का निकाह इससे केवल दो महीने पहले ही हुआ था। तारिक की कहानी भी ऐसी ही है। "उसे आज़मगढ़ ज़िले के सरायमीर कस्बे से गिरफ्तार किया गया था। वो अपने घर मोहम्मदपुर जा रहा था। जब आस-पास के लोगों ने पूछा तो एसटीएफ के लोगों ने कहा कि इन्हें मोहम्मदपुर ले जा रहे हैं। लेकिन वहां ले जाने की बजाय उसे लखनऊ जेल में डाल दिया गया," नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के नेता अरशद खान कहते हैं। इसके बाद 22 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ने एक प्रेस कांफ्रेंस मे घोषणा की कि उन्होंने हूजी के दो आतंकवादियों को गिरफ्तार किया है जिनके ऊपर कचहरी सीरियल धमाकों में शामिल होने की आशंका है। ये दोनों संदिग्ध तारिक और खालिद थे। इनके बारे में डीजीपी ने दावा किया कि धमाके वाले दिन ही एसटीएफ ने इन्हें बाराबंकी में धर दबोचा था।
शोएब के मुताबिक उन्हें केस लड़ने के साथ-साथ लोगों के छुआछूत भरे व्यवहार से भी लड़ना पड़ रहा है क्योंकि आतंकवाद के संदिग्ध आरोपियों के खिलाफ पूर्वाग्रह रखने वालों का दायरा बहुत व्यापक है। इसमें निचले स्तर तक के कर्मी शामिल हैं। यहां तक कि केस से जुड़े कागजातों का निवेदन भी अनसुना कर दिया गया। इस अभियान में सिर्फ वकील ही नहीं बल्कि जेल अधिकारी भी शामिल हैं। फैजाबाद के जेल सुपरिटेंडेंट ने तो अपने खिलाफ उस कारण बताओ नोटिस का भी जवाब नहीं दिया जो उन्हें आरोपियों को अदालत में पेश न करने के लिए जारी किया गया था। लिहाजा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को एक अजीबोगरीब कदम उठीना पड़ा। शोएब कहते हैं, "उन्होंने खुद जेल परिसर में जाकर मुझे और मेरे मुवक्किलों को आरोपपत्र पढ़कर सुनाया।" जेल प्रशासन ने अभी तक तारिक और खालिद को कोर्ट में पेश नहीं किया है।
जब शोएब बाराबंकी में जमानत अर्जी दाखिल करने के लिए गए तो वहां पर स्थानीय बार एसोसिएशन के सचिव प्रदीप सिंह ने उन्हें चेतावनी दी कि अगर उन्होंने मामलों से हाथ नहीं खींचा तो उनपर हमला भी हो सकता है। दबाव में झुकते हुए उन्होंने मामले से अपना हाथ खींच लिया और वापस लखनऊ पहुंच कर अपने मुवक्किलों के कागजातों से अपना नाम हटा दिया। खालिद औऱ तारिक के परेशान परिवार वालों ने उनसे इस फैसले पर फिर से विचार करने का निवेदन किया है। इस बात को जानते हुए कि किसी दूसरे वकील का मिलना असंभव है शोएब तहलका को बताते हैं, "तमाम संभावनाओं के बाद, ये विकल्प मैं ही होऊंगा।"
कोई आरोपी आरोप साबित हुए बिना दोषी नहीं होता, लेकिन क़ानून का ये मूलभूत सिद्धांत उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में लागू नहीं होता। वकीलों द्वारा बहिष्कार आरोपियों के परिवार वालों के लिए जीवन-मरण के सवाल जैसा होता है। मगर करने वालों पर इसका कैसा भी असर दिखाई नहीं देता। फैजाबाद बार एसोसिएशन के सचिव सभाजीत पांडेय ने बहिष्कार का प्रस्ताव पारित करते समय कहा था, "ये प्रस्ताव वकीलों की अपनी व्यक्तिगत आवाज़ है। ये देश क प्रति उनके प्यार से प्रेरित है। भविष्य में भी ऐसा होना जारी रहेगा।" ये बहिष्कार पिछले तीन सालों से जारी है और अब जाकर शोएब ने लखनऊ, फैजाबाद और बाराबंकी बार एसोसिएशन के बहिष्कार संबंधी प्रस्ताव के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की है। इसकी सुनवाई 22 मई को होनी है- इस तारीख पर ही आरोपियों के परिवार वालों की उम्मीदें टिकी हुई हैं।उधर शोएब के असहाय मुवक्किलों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अब वो सज्जादुर्रहमान और मोहम्मद अख्तर की पैरवी भी कर रहे हैं। ये दोनों भी कचहरी में हुए धमाकों के आरोपी हैं। इसके अलावा वे शोएब कौशर फारुखी के वकील भी हैं जिसे संदिग्ध परिस्थितियों में प्रतापगढ़ के कुंडा से गिरफ्तार किया गया था। इनके ऊपर रामपुर में सीआरपीएफ कैंप पर हमले का आरोप है। "मेरे तीन दशकों के करियर में मेरा सामना इस तरह की परिस्थितियों से कभी नहीं हुआ। यहां तक कि आपातकाल के दौरान भी नहीं, जब मैं करीब साल भर तक भूमिगत और फिर दो महीनें तक जेल में रहा था। उस दौर में भी मुझे क़ानूनी सहायता उपलब्ध हो सकती थी," शोएब कहते हैं। उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में ऐसा लगता है मुस्लिम युवाओं के लिए कोई अनाधिकारिक अघोषित आपातकाल लागू है।
साभार : तहलका हिन्दी डॉट कॉम
देशभक्त के भरोसे पर ठेस
क्रिकेट के नाम पर करोडो -अरबों रूपये लुटा देनी सरकार हो या भारत की आजादी को कैश करने वाली व्यावसायिक कम्पनीयाँ और या हो खुले आम लोगों से देश सेवा के नाम पर करोडो रूपयों बटोकर वाले स्वयं सेवी संगठन इन कीसि को भी कश्मीर सिंह और ऐसे ही अन्य देशभक्तों की तरफ ध्यान ही नही गया कि उसकी जान की कीमत पर हम सब सुरक्षित होकर प्रगति के पथ पर आगे बढ रहे है। रिहाई के अगले दिन हुए एक पत्रकार वार्ता मे जब पाकिस्तान जेल से रिहा हुए होशियारपुर के ६७ वर्षीय कश्मीर सिंह ने जब वर्तमान और पिछली सरकारों पर आरोप लगाये कि ”भारत सरकार ने मेरे परिवार की कीसी तरह की कोई जिम्मेवारी नही निभायी, मुझे मेरी देश सेवा के बदले मेरे परिवार को रोजी - रोटी तक व्यवस्था नही कर सकी। मेरी पत्नी लोगों के घरों मे एक नौकर की तरह और जैसे तेसे अपने परिवार का पाला-पोसा। भारत सरकार ने केवल कागजी कार्यवाही के अलावा कुछ नही किया, अगर वो मेरे परिवार का ध्यान रख लेती तो मुझे बेहद खुशी होती और देश सेवा के लिए मेरे साथ अन्य लोगों का भरोसा रहता, लेकिन मुझे गहरा दुख है कि मुझे देश सेवा का यह फल मिला“।
रूंआसे कश्मीर सिंह के मूंह से जब यह बोल निकल रहे थे तो मुझे नही पता कि सम्बंधित अधिकारियों और राजनेताओं पर इसका क्या असर पडा होगा लेकिन मुझे इस देश का नागरिक कहलाने मे बडी ही शर्म महसूस होने लगी है कि जिस देश मे अपने राष्ट्र रक्षकों के प्रति इतनी सवेंदहीनता है, वो कैसे आने वाली पीढी को इस क्षेत्र मे कार्य करने के लिए प्रेरणा देगा। जिस दिन कश्मीर सिंह की वक्तव्य अखबारों की सुखिर्यां बना हुआ था उसी दिन ये लाइने भी थी कि ”युवाओं ने चुनी कम्पनीयों की राह, सेना नही रही आकर्षण“ - ये लाइने एक ऐसे भविष्य की तरह संकेत कर रही थी कि देश मे व्यापार और तकनीकी ने तो बहुत उन्नती कर ली है, लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए फौज नही के बराबर है।
केवल अपने और अपने परिचितों के निजि स्वार्थो की पूर्ति करने की प्रवृत्ति वाले नेताओं और अधिकारियों ने इस देश का इतना बेडा गर्क दिया है कि आम नागरिक का सर उठाकर जीना भी बडा मुश्किल हो रहा है। कश्मीर सिंह की जब यह पीडा सामने आयी तो उल्टा उसी पर आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होने सबके सामने इस स्वीकारोक्ति की ”वह भारत के एक जासूस है“, के कारण पाकिस्तान जेलों मे करीब ६०० भारतीय जासूसी के आरोप मे कैद है, की रिहाई खतरे मे पड सकती है। देश की सुरक्षा के सामने परिवार की भी बलि दे देना राष्ट रक्षकों की विशेषता रही है, लेकिन इसका मतलब यह कदापि नही की बेरूखी और लापरवाही के चलते उनके परिवार की बली दी जाये।
भ्रष्टाचार के बडे बडे कीर्तिमान गढ देने वाले इन लोगों को इतना भी नही दिख रहा है कि जिन लोगों के भरोसे ही हम और हमारा देश-परिवार सुरक्षित है। पूरे विश्व के सामने हम आजादी के साथ जी पा रहे है तो केवल ऐसे ही लोगों के कारण जो अपना तन मन देश पर न्यौछावर कर रहे है और बदले मे उनकी इच्छा सिर्फ इतनी सी है कि उसका परिवार भी आफ और हमारे परिवारों की तरह ही सम्मानजनक रोजी रोटी के साथ सुख चैन से जी सके। उन्होने कभी भी राजनेताओं और अधिकारियों की तरह बडे बडे बंगले, लम्बी लम्बी गाडयां और ढेरो नौकर-चाकर नही मांगे।
साभार : ख़बर एक्सप्रेस डॉट कॉम
मारेगी महंगाई...
अब यह साफ दिखने लगा है कि अगले आम चुनाव और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में बड़ा मुद्दा महंगाई की मार का होने वाला है। यूपीए सरकार, बड़े अर्थशास्त्री माने जाने वाले मनमोहन सिंह की अगुवाई में चल रही है। उनके साथ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया जुड़े हुए हैं, जो खुद अर्थशास्त्री हैं। वकालत छोड़कर वित्त मंत्रालय संभालने वाले पी चिदंबरम पांच बजट पेश कर चुके हैं, लेकिन इतने ज्यादा हुनरमंद रहनुमाओं के देश में महंगाई लगातार बढ़ रही है, जिससे निपटने के उपाय किसी के पास दिखाए नहीं देते।
सरकार एक के बाद एक बैठक कर रही है और इन बैठकों में कुछ मंत्री दबे स्वर में कह रहे हैं कि चिदंबरम साहब अगला चुनाव हरवाएंगे। मुद्रास्फीति एनडीए के जमाने में ज्यादा हुआ करती थी। 'शाइनिंग इंडिया' का नारा देकर एनडीए ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया और चुनाव में नुकसान उठाया, लेकिन यूपीए ने आम आदमी के अपने नारे को भजन की तरह इतना गाया है कि आंकड़ों के हिसाब से कम महंगाई भी उसे भारी पड़ सकती है। सबसे अहम बात यह है कि मुद्रास्फीति चाहे औसतन पांच फीसदी के आसपास रही हो, लेकिन खाने-पीने की चीजों की कीमतें हमेशा आठ से 10 फीसदी के हिसाब से बढ़ती रही हैं। पिछले बजट के बाद तो इसमें 12 फीसदी तक वृद्धि देखी गई।
अब हिन्दुस्तान में 67 फीसदी जनता ऐसी है, जो अपने कुल खर्च का 61 फीसदी सिर्फ खाने-पीने के सामान पर खर्च करती है। यही आबादी वोट देने वालों की है, जिस पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है। पिछले चार सालों में आटे का भाव 40 फीसदी ऊपर चढ़ा है, चीनी 20 फीसदी, दालें 50 फीसदी तक महंगी हुई हैं और खाने के तेल के दाम एक तिहाई बढ़ गए हैं। अगर सेवाओं को भी शामिल कर लिया जाए तो परिवहन और शिक्षा पर लोगों को लगातार ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है। दूसरी तरफ, शहरी मध्यम वर्ग को सरकार की नीतियों का लगातार फायदा हो रहा है। मोबाइल फोन, एसी, फ्रिज, टीवी, डीवीडी प्लेयर, बाइक, कार, हवाई यात्रा और कंप्यूटर सस्ते हो रहे हैं। निजीकरण की नीतियों ने पूंजी बाजार में स्पर्धा शुरू कर दी है और अब हिन्दुस्तान में जापान से ज्यादा अरबपति बन गए हैं।
मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में 1,000 से ज्यादा कंपनियों का बाजार भाव 100 करोड़ रुपये से ज्यादा है और दुनिया की हर बड़ी कंपनी हिन्दुस्तान में ऑफिस खोल रही है। इससे असमानता बढ़ रही है। 20 लाख लोगों को रोजगार देने वाले आईटी उद्योग में प्रति व्यक्ति सालाना आय एक करोड़ रुपये से ज्यादा है, जबकि कृषि क्षेत्र में लगे 67 फीसदी लोगों की सालाना आमदनी पांच हजार रुपये से भी कम बैठती है। यह अर्थशास्त्र के साथ-साथ राजनीति की भी नाकामी है। यूपीए सरकार किसानों के कर्ज माफ करके चुनाव से पहले मरहम-पट्टी करना चाहती है, लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा महंगाई का मारा हुआ है। जिस दिन उसके हाथ में वोट की लाठी आई, वह अपना हिसाब बराबर कर लेगा।
कब जागेंगे हम?
जब पिछली बार हमने सत्ता के गलियारों को हिलाने की हिमाकत की थी तो हमें तीन साल तक दहकते अंगारों पर चलने का अभिशाप दिया गया. रक्षा सौदों में भष्टाचार की पोल खोलने वाला ऑपरेशन वेस्ट एंड मार्च 2001 में प्रसारित हुआ था. इसके फौरन बाद दो चीजें हुईं. पहला हमें लंबे समय तक लोगों की अपार सराहना और उनका प्यार मिला. दूसरा, हमारे काम और जिंदगी पर एक अनैतिक और असंवैधानिक हमला बोला गया. ये भी लंबे समय तक नहीं रूका—तब तक जब तक सरकार का सारा गोला-बारूद खत्म नहीं हो गया.
छह साल पहले उस वक्त हम पर एक के बाद एक कई आरोप लगाए गए. कुछ ने कहा कि हम कांग्रेस के लिए काम करते हैं. कइयों के लिए हम दाऊद के आदमी थे. कुछ का कहना था कि हमारे पीछे हिंदुजा का पैसा लगा है. कोई हमें आईएसआई से जोड़ रहा था जिसका मकसद हमारे जरिये शेयर बाजार को औंधे मुंह गिराना था. कहा जा रहा था कि इस काम के लिए हमें करोड़ों रुपये मिले हैं. यही नरेंद्र मोदी उस समय बीजेपी के महासचिव हुआ करते थे. मुझे वह टीवी इंटरव्यू नहीं भूलता जिसमें मोदी और मैं दोनों फोन पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और मोदी चिल्लाचिल्लाकर हमारे खिलाफ झूठ उगल रहे थे. एक दिन बाद ही वह मेरे बारे में दस तथ्यों से भरा एक पर्चा भी छापने वाले थे.
मुझे वह टीवी इंटरव्यू नहीं भूलता जिसमें मोदी और मैं दोनों फोन पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और मोदी चिल्लाचिल्लाकर हमारे खिलाफ झूठ उगल रहे थे. एक दिन बाद ही वह मेरे बारे में दस तथ्यों से भरा एक पर्चा छापने वाले थे.
इनमें पहला और सबसे अहम तथ्य ये था कि मैं एक कांट्रेक्टर का बेटा हूं जो कि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह के करीबी सहयोगी थे.
हमारे ख़िलाफ़ उछाला गया हर आरोप दिल्ली के संभ्रांत हलकों में न केवल चटखारे लगाकर सुना-सुनाया गया बल्कि एक कान से दूसरे कान तक जाने की प्रक्रिया में इसमें कई और स्वाद भी जोड़े गए. यहां तक कि दोस्तों और जानने वालों ने भी दबी जबान में बातें कीं. ये वे लोग थे जिन्होंने किसी को बिना फायदे के कभी कुछ करते हुए नहीं देखा था. उनके लिए ये मानना सही भी था कि हम भला उनसे क्योंकर अलग होंगे. और अब जब सरकार हमारे शिकार पर निकल ही चुकी थी तो सच का सामने आना बस कुछ वक्त का ही खेल था. इतना सब कहने के बाद मिलने पर हमारी तरफ एक जुमला उछाल दिया जाता कि आपने असाधारण काम किया...ऐसा काम जो न सिर्फ जरूरी था बल्कि बहुत साहसिक भी.
हकीकत ये है कि-
-मैं कभी भी किसी हिंदुजा से नहीं मिला था
-मैंने स्टॉक मार्केट में एक शेयर की भी खरीद-फरोख्त नहीं की थी.
-मेरा कांग्रेस से कभी भी कोई लेनादेना नहीं रहा. मैं तो राजनीति कवर करने वाला पत्रकार तक नहीं था. रिकार्ड के लिए बता दूं कि तहलका शायद भारत में अकेली ऐसी कंपनी होगी जिसके खिलाफ तीन सीबीआई केस चल रहे हैं. ये तीनों केस एनडीए सरकार के वक्त दर्ज किए गए थे और यूपीए के सत्ता में आने के बाद भी जारी हैं. हमें जमानत लेने के लिए नियमित रूप से कोर्ट के चक्कर काटने पड़ते हैं.
-हमारे पास कभी भी काले धन की एक पाई तक नहीं रही. अगर ऐसा होता तो हर घड़ी हमारे पीछे लगी रही एजेंसियां हमें कब का जेल में ठूंस देतीं. आखिर में ऐसा वक्त आया जब इस कंपनी में काम करने वाले लोग 120 से घटकर सिर्फ चार रह गए. साउथ एक्सटेंशन के पीछे एक किराए के कमरे में हमारा ऑफिस चल रहा था. कानूनी और जिंदगी के तमाम पचड़ों से लड़ने के लिए हम पर दसियों लाख रुपये उधार चढ़ चुके थे जो हम अब तक चुका रहे हैं.
गंभीर आरोप लगने पर चिल्लाचोट की रणनीति भले ही चतुर लेकिन निंदनीय राजनीतिक दांव हो लेकिन भारतीय संभ्रांत वर्ग की साजिश ढूंढने का शगल समझ से परे है. इससे केवल खुद के बारे में सोचने वाली संस्कृति की बू आती है जहां कोई जनहित कोई मकसद ही नहीं होता.
-और हां, अंडरवर्ल्ड को झटका देने वाले क्रिकेट मैच फिक्सिंग के खुलासे के बावजूद हमसे से कोई दाऊद इब्राहिम या किसी और भाई से कभी नहीं मिला था.
मेरे पिता को तो छोड़िये मैं भी उस समय तक अर्जुन सिंह से कभी नहीं मिला था. कांट्रेक्टर होने की बजाय मेरे पिता की जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा भारतीय सेना में गुजरा था. इस दौरान उन्होंने 1965 और 1971 में पाकिस्तान से हुए दोनों युद्ध भी लड़े. फिर भी मोदी ने सार्वजनिक मंच पर ये और ऐसे दूसरे कई सफेद झूठ बोलने से पहले कुछ नहीं सोचा और सेंसेक्स से भी ज्यादा चकरायमान मीडिया ने इसके पीछे के सच को बाहर लाने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं समझी.
झूठ के पीछे के सच को अगर बाहर न लाया जाए तो झूठ खतरनाक आकार ले लेता है. सच्चाई का चेहरा विकृत हो जाता है और अराजकता घर करने लगती है. पुरानी कहावत है कि झूठ को अगर लगातार और कई तरीकों से फैलाया जाता है तो वह सच बन जाता है या फ़िर कम से कम सच को डुबो तो देता ही है. इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब 1984 में सिक्खों की गर्दनें तलवारों पर रखी गईं. और हमने ऐसा होते 2002 में भी देखा जब गुजरात को दूषित भावनाओं के साथ गलत जानकारी की आड़ में आग के हवाले कर दिया गया. कुछ मौकों पर मीडिया ने सच की पड़ताल कर उसे दिखाया भी. लेकिन तब तक सच का महत्व ही खत्म हो चुका था. सच से बेनकाब होते लोगों की रणनीति इतना शोर मचाने की थी कि उसमें सब कुछ डूब जाए—अच्छा, बुरा, सच, झूठ सब कुछ. हमारी इस तहकीकात पर उनका शोर है कि आपने गोधरा के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं. जबकि सच ये है कि इस अंक के 30 पन्ने गोधरा की तहकीकात को ही समर्पित हैं.
गंभीर आरोप लगने पर चिल्लाचोट की रणनीति भले ही चतुर लेकिन निंदनीय राजनीतिक दांव हो लेकिन भारतीय संभ्रांत वर्ग की साजिश ढूंढने का शगल समझ से परे है. इससे केवल खुद के बारे में सोचने वाली संस्कृति की बू आती है जहां कोई जनहित कोई मकसद ही नहीं होता. पिछले कुछ सालों में मुझे कई बार ये अजीब और कड़वा अनुभव हुआ है जब लोगों को मैंने मेधा पाटकर और अरुंधती रॉय जैसे जनता के लिए लड़ने वाले लोगों पर पैसे के लिए काम करने का आरोप लगाते देखा है. किसी की राय से सहमत न होना अलग बात है. लेकिन खुद ही ये मान लेना कि आम लोगों के मुद्दों को उठाने वाले लोग भष्ट्र हैं, हमारे बारे में कई गंभीर पहलुओं की पोल खोलता है. इस विकृति का कुछ लेना-देना हमारी गुलामी के समय से भी है--वह दौर जब हम ईर्ष्या, चालाकी, साजिश, चुगली या धोखा, किसी भी तरह से गोरे मालिकों को खुश करने के लिए बैचैन रहते थे.
इस बार जब हमने 2002 के गुजरात नरसंहार के पीछे छिपे सच का खुलासा किया तो साजिश ढूंढने वालों ने नई ऊंचाइयां नाप लीं. बीजेपी ने हम पर कांग्रेस के लिए काम करने का आरोप लगाते हुए हमला किया. उधर, कांग्रेस का कहना था कि हम बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. इससे साफ था कि हम किसी सही काम को ही अंजाम दे रहे थे. इस सबके बीच भारत के विचार के लिए लड़ने का काम लालू यादव, मायावती और वामदलों पर छोड़ दिया गया. हालांकि आदर्श भारत का ये विचार कभी कांग्रेस के पुरोधाओं द्वारा रचा गया था लेकिन आज की कांग्रेस से जुड़े दिग्गज शायद इसका मतलब भी भूल चुके हैं.
अगर सीआईआई को थोड़ी भी बदहजमी हो जाए तो प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर तुरंत स्पष्टीकरण जारी कर देता है. और अगर इस बदहजमी पर वह एक सेमिनार भी करना चाहे तो प्रधानमंत्री उसमें मुख्य वक्ता के रूप में फौरन पहुंच जाते हैं.
ये भी अपने आप में असाधारण बात है कि गुजरात नरसंहार के खुलासे को कई दिन होने को आए लेकिन अब तक इस पर न तो प्रधानमंत्री ने ही कोई बयान दिया और न ही गृहमंत्री ने. पत्रकारिता के इतिहास में पहली बार सामूहिक हत्याकांड करने वाले कैमरे पर खुद बता रहे थे कि उन्होंने कैसे मारा, क्यों मारा और किसकी इजाजत से मारा. ये कोई छोटे-मोटे अपराधी नहीं थे. ये विचारधारा में अंधे वे उन्मादी लोग थे जो उस खतरनाक दरार की सच्चाई का खुलासा कर रहे थे जिसमें इस देश के टुकड़े करने की क्षमता है. लेकिन रेसकोर्स रोड में बैठे भद्रजनों के लिए ये काफी नहीं था. अगर सीआईआई को थोड़ी भी बदहजमी हो जाए तो प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर तुरंत स्पष्टीकरण जारी कर देता है. और अगर इस बदहजमी पर वह एक सेमिनार भी करना चाहे तो प्रधानमंत्री उसमें मुख्य वक्ता के रूप में फौरन पहुंच जाते हैं.
प्रधानमंत्री को भी कोसने का क्या फायदा. उनके पास जिम्मेदारी तो है पर शक्तियां नहीं. बेईमानी के पहाड़ की चोटी पर बैठा ईमानदार व्यक्ति. कांग्रेस के उन बड़े रणनीतिकारों पर नजर डालते हैं जो खुद तो कोई चुनाव नहीं जीत सकते मगर कईयों को चुनाव जितवाने के रहस्य जानते हैं. उनके हिसाब से देखा जाए तो हत्याओं और बलात्कारों में मोदी की भूमिका का पर्दाफाश इस तरह से डिजाइन किया गया था कि गुजराती हिंदू को ये यकीन हो जाए कि मोदी ही उनके लिए आदर्श नेतृत्व हैं. उन्हें यह नहीं सूझा कि हिंसा के इन सबूतों को वे मोदी के खिलाफ एक हिला देने वाली सार्थक बहस शुरू करने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
वास्तविकता ये है कि कांग्रेस को आज कुछ ऐसे छुटभैये रणनीतिकार चला रहे हैं जो ये भूल चुके हैं कि सही कदम उठाना क्या होता है. उनके पास न तो इतिहास के अनुभवों का प्रकाश है और न ही भविष्य के लिए दृष्टि. वे यह देख पाने में असमर्थ हैं कि एक जमाने में महान विभूतियों ने धर्म, जाति, भाषा, नस्ल आदि जैसी खाइयों को पाटते हुए इस देश के विचार को शक्ल दी थी. मूर्खतापूर्ण तरीके से वे अब इन्हीं दरारों को फिर से उभार रहे हैं. वे उन संकटों को देख पाने में असमर्थ हैं जो इसके परिणामस्वरूप सामने आएंगे. उन्हें ये नहीं पता कि राजनीति में नैतिकता को हथियार कैसे बनाया जा सकता है और उनमें नैतिकता के रास्ते पर चलने की हिम्मत भी नहीं है. ये लोग और कुछ नहीं ज्यादा से ज्यादा बस चुनावों में वोटों की तिकड़म भिड़ाने वाले एकाउंटेंट हैं जो चुनावी लाभ और हानि के बीच झूला झूलते रहते हैं.
आज की कांग्रेस उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्र में निष्ठा रखने वाले उस भारतीय को निराश करती है जिसे भारत की आत्मा की रक्षा करने को एक राजनीतिक छाते की आवश्यकता है. सही बातें न कहकर, सही कदम न उठाकर ये उस उदार भारतीय को कमजोर करती है जिसकी विवादों में कोई रुचि नहीं और जो अपनी अच्छाई की स्वीकृति चाहता है. इससे पैदा हुए खाली स्थान पर जहरीली और विकृत विचारधाराएं काबिज हो जाती हैं.
और ये सब तब हो रहा है जब भारतीय कुलीन वर्ग ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसा कि 1920 में चमक-दमक और शैंपेन की खुमारी में डूबा अमेरिकी कुलीन वर्ग किया करता था जबकि पैरों के नीचे की जमीन बड़ी तेज़ी से दरकती जा रही है. ताजा आंकड़े बताते हैं कि पांच मुख्य राज्यों में गरीबी से बदहाल लोगों की संख्या बढ़ रही है. भारत के 30 फीसदी जिलों में घनघोर दरिद्रता से उठता नक्सलवाद बढ़ता रहा है. आखिर कब तक आकंठ पैसे में डूबे हुए और भूख से मर रहे लोग बगैर टकराव के साथ-साथ रह सकते हैं. सच्चाई ये है कि भारत को सिर्फ आर्थिक सुधारों की नहीं बल्कि राजनीतिक दूरदृष्टि की भी जरूरत है जिसका कहीं अता-पता नहीं. गुजरात के प्रति हमारी बेपरवाही बताती है कि दुनिया के इस सबसे जटिल लोकतंत्र के सामने अब तक की सबसे पेचीदा चुनौती मुंह बाए खड़ी है.
साभार : तहलका हिन्दी डॉट कॉम
चोरी का अभियुक्त है मुंबई पुलिस
मुंबई पुलिस अपराधियों को पकड़ने के साथ खुद भी चोरी का काम शुरू कर चुकी है। पुलिस पर बिजली चोरी का आरोप है। यह नायाब तरीका मुंबई में करीब 88 पुलिस चौकियों में वर्षों से आजमाया जा रहा है। एक चौकी तो ऐसी है कि 2001 से अब तक सिर्फ सात यूनिट ही खर्च कर पाई है।मुंबई पुलिस के मरीन ड्राइव ट्रैफिक पुलिस चौकी पर एक विज्ञापन बोर्ड 2001 से लगा है। इसमें 2001 से इलेक्ट्रिक सप्लाई दी जा रही है लेकिन तब से अब तक यह मीटर मात्र सात यूनिट ही बता रहा है। आई के चौगानी ने इस विज्ञापन बोर्ड को लेकर एक अपील बंबई हाईकोर्ट में डाली है। अपील में उन्होने कहा है कि करीब तीन-चार सप्ताह से मैं मरीन ड्राईव चौकी के मीटर को देख रहा हूं वह सात यूनिट ही है। जबकि यहां पर विज्ञापन बोर्ड दिन-रात रौशन रहता है। इसलिए मुझे शक है कि बिजली की यहां चोरी की जा रही है। चौगानी ने मुंबई के अन्य पुलिस चौकियों पर भी आरोप लगाया है कि शहर में कई पुलिस चौकियां अवैध रूप से स्ट्रीट लाइट और ट्रैफिक सिग्नल से बिजली की चोरी कर इस्तेमाल कर रही है।इस अपील के जवाब में बेस्ट के सहायक जेनरल मैनेजर अशोक वासुदेव ने कहा कि वह मीटर एक आउटडोर कंपनी के नाम पर लगाया गया था लेकिन इस अपील के बाद हमने मीटर बदल दिया है और पुराने मीटर को जांच के लिए भेज दिया गया है। यहीं नहींइसमें 88 पुलिस चौकियों की लंबी फेहरिस्त है जो कि बिजली की चोरी करते हैं। इनमें से 42 चौकियों के खिलाफ कदम उठाये गए हैं, इन चौकियों में अवैध रूप से बिजली का उपयोग किया जा रहा था और 16 चौकियां ऐसी थी जो कि बिना मीटर के बिजली का उपयोग रहीं थीं। साभार डेटलाइन इंडिया।
भारतीय लोकतंत्र की दशा व दिशा
'लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ-साथ तमाम मुश्किलें ही भारत को असाधारण लोकतंत्र बनाती हैं'
भारत में स्वतंत्रता के बाद 60 साल में राष्ट्रीय स्तर पर लोकतंत्र ख़ासा मज़बूत हुआ है, लेकिन गाँव-तहसील स्तर पर अलोकतांत्रिक व्यवहार और हिंसा भी नज़र आती है.
भारत एक बहुत ही असाधारण लोकतंत्र है जिसकी कुछ बहुत ही मज़बूत लोकतांत्रिक विशेषताएँ हैं और कुछ बहुत ही अलोकतांत्रिक विशेषताएँ भी हैं.
कुलमिलाकर देखा जाए तो लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ-साथ तमाम तरह की मुश्किलें ही आज़ाद भारत को एक असाधारण लोकतंत्र बनाती हैं.
भारतीयों ने लोकतांत्रित व्यवस्था में रहना पसंद किया है.
उपलब्धियाँ
उपलब्धियों की बात करें तो यही लोकतांत्रित ढाँचा है जिसने ‘सेफ़्टी वॉल्व’ का काम किया है और कभी-कभी असल मुद्दे भी सलुझाए हैं. नहीं तो भारत जैसा बड़ा और इतनी असमानताओं वाला देश भला अविभाजित कैसे रह सकता था?
भारत में लोकतांत्रिक परंपरा दूर-दूर तक फैल रही है और उसकी जड़ें और गहरी हो रही हैं. देखा गया है कि चुनावों में संपन्न वर्ग के मुकाबले, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग ज़्यादा बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं.
दूसरी ओर विकसित देशों में उपेक्षित वर्ग मतदान में ज़्यादा संख्या में भाग नहीं लेता क्योंकि उसे चुनाव में भाग लेने का कोई ख़ास मक़सद नज़र नहीं आता.
अब सवाल उठता है कि क्या अपनी स्थिति सुधारने के लिए सामाजिक या आर्थिक रूप से पिछड़ गए वर्ग की लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूरी आस्था है?
ये आस्था का सवाल कम है और असल बात ये है कि वे इस व्यवस्था को ज़रूरी मानते हैं लेकिन काफ़ी नहीं. उन्हें लगता है कि इससे उनकी मदद होती है और इसका इस्तेमाल करना चाहिए, फिर चाहे ये पर्याप्त न हो.
आज़ादी के बाद के 20-25 साल में मज़दूरों और किसानों के संघर्ष, यानी आर्थिक मुद्दो पर आंदोलन ज़रुर हुए थे. लेकिन इसके बाद सांस्कृतिक मुद्दों पर असंतोष, आर्थिक असंतोष से ज़्यादा देखा गया है.
विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक विकास के लिहाज़ से फ़र्क तो रहा है लेकिन जनांदोलन सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर रहे हैं. इसका ये मतलब नहीं है कि आर्थिक असंतोष रहा ही नहीं, लेकिन अब आर्थिक मुद्दों पर लोगों को एकजुट करना ख़ासा मुश्किल हो गया है.
अहम पड़ाव
पिछड़ों को आरक्षण देकर उनके अधिकार दिलाने का प्रयास लोकतंत्र का एक अहम पड़ाव रहा
भारतीय लोकतंत्र की असफलताओं की बात करें तो पिछले 15 साल में– 1990 के दशक से लेकर अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनिश्चितता बढ़ गई है.
यदि लोकतांत्रिक राजनीति के पाँच मुख्य पड़ावों की बात करें तो पहला, आपातकाल का लागू किया जाना और उतना ही महत्वपूर्ण, फिर उसका दोहराया न जाना था.
दूसरा था मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करना यानी पिछड़ों को और अधिकार दिलाने का प्रयास.
आज़ाद भारत के लोकतांत्रिक सफ़र का तीसरा मुख्य पड़ाव था बाबरी मस्जिद विध्वंस और चौथा था वर्ष 1998 के पोखरण धमाके जिनसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को बहुत सदमा पहुँचता.
पाँचवाँ मुख्य पड़ाव है वर्ष 2002 में गुजरात में गोधरा की घटना और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के सदस्यों की हत्याएँ, जिसके लिए ज़िम्मेदार अधिकतर लोगों को केवल क़ानूनी तौर पर ही नहीं बल्कि राजनीतिक तौर पर भी सज़ा नहीं मिली.
ये सब मुख्य पड़ाव है और इनमें हिंसा का पहलू भी रहा है. शायद मंडल आयोग सिफ़ारिशों को छोड़कर बाक़ी घटनाएँ लोकतंत्र के लिए नकारात्मक हैं.
'आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग स्थिति सुधारने में चुनावी व्यवस्था को ज़रूरी मानते हैं'
ये सब घटनाएँ इस बात का भी संकेत हैं कि भारत के उच्च वर्ग का किरदार किस तरह बदल रहा है. भारतीय लोकतंत्र असल में ‘आप पर कौन शासन करेगा,’ इसकी प्रतिस्पर्धा है.
ये उस लिहाज़ से लोगों के सशक्तिकरण की प्रक्रिया कम है. लेकिन राज्यों के स्तर पर लोगों के पास काफ़ी विकल्प हैं जो एक सकारात्मक बात है.
संसद में 28 अलग-अलग राजनीतिक दल हैं और पार्टियों की नीतियों में फ़र्क देंखे तो वह भी ख़ासा है. अमरीका या ब्रिटेन में तो लोगों के पास विकल्प सीमित हैं.
सक्रिय ताकतें
आज के भारतीय लोकतंत्र और भविष्य के भारत की रचना में कौन सी ताक़तों की मुख्य भूमिका है?
इस संदर्भ में सबसे पहली ताक़त है अनिश्चित और धीमी गति से लेकिन लगातार बढ़ रहा हिंदुत्व जिसका प्रभाव केवल चुनावों में ही नहीं, बल्कि समाजिक रिश्तों पर भी दिख रहा है.
दूसरी बड़ी ताक़त है पिछड़े वर्ग का अपने अधिकारों के लिए दबाव बनाना. तीसरी ताक़त है दलितों का अपने अधिकारों और सत्ता में भागीदारी के लिए सक्रिय होना.
चौथा प्रभाव है मुसलमानों का पारंपरिक नेतृत्व के साथ असंतुष्ट होना, महिलाओं के अधिकार और समुदाय के सदस्यों को शिक्षित करने और रोज़गार दिलाने का प्रश्न. इसके साथ ही यह समुदाय इस अहम सवाल का सामना कर रहा है कि ‘हम (मुसलमान) कहाँ जा रहे हैं?’
अन्य मुख्य पहलू हैं भारतीय राजनीतिक का क्षेत्रीयकरण और भारत के तथाकथित मध्य वर्ग का आगे बढ़ना– तथाकथित इसलिए क्योंकि ये मध्य वर्ग देश का लगभग 15-20 प्रतिशत उच्च और प्रभावशाली वर्ग है.
इन प्रभावों का मिश्रण और एक-दूसरे पर हावी होना वह पेचीदा तस्वीर पैदा करता है जिससे वर्तमान और भविष्य के भारत की रचना होगी.
क्षेत्रीय राजनीतिक दल आगे बढ़े हैं और राष्ट्रीय दलों को हाथ मिलाने के लिए मजबूर किया है
मज़बूत जड़ें क्यों
भारत में लोकतंत्र की जड़ें पड़ोसी देशों के मुक़ाबले में मज़बूत क्यों हैं?
इसका कोई एक मुख्य कारण नहीं है, इसके कई कारण हैं. आज़ादी के बाद के 20-25 साल में राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस का प्रभुत्व रहा. कई मायने में कांग्रेस आज़ादी से पहले ही इस ‘रोल’ के लिए तैयार थी और प्रशासकीय भूमिका निभा रही थी.
ये चाहे सतही तौर पर उस समय की भारतीय राजनीति का अलोकतांत्रिक पहलू प्रतीत हो, लेकिन उस समय कांग्रेस में कई धड़े थे जो अलग-अलग विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते थे.
जब कांग्रेस का प्रभुत्व ख़त्म हुआ तो पहले ये राज्यों में हुआ. वहाँ आपस में मुक़ाबला करती काफ़ी हद तक स्थिर, दो-पार्टी या तीन-पार्टियों की व्यवस्था कायम हुई. इसके बाद ही राष्ट्रीय स्तर पर कई पार्टियाँ सामने आईं.
राष्ट्रीय स्तर पर दो ऐसी घटनाएँ हुईं जिन्होंने भारत की एकता को बल दिया- भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन और राष्ट्रीय चुनावों को प्रांतीय चुनावों से अलग करना.
भाषा के आधार पर राज्यों के बनने से शायद उर्दू को छोड़कर बाक़ी सभी भाषाओं का विकास हुआ और राज्यों में लोगों की पहचान मज़बूत हुई.
अगर भाषा के आधार पर राज्य न बनते तो काफ़ी मुश्किलें हो सकती थीं.
इसके अलावा, राष्ट्रीय चुनावों को राज्यों के चुनावों से अलग कर दिए जाने से क्षेत्रीय पार्टियों को बल मिला और राज्यों के लोगों को अपने मुद्दे उठाना और उनकी ओर ध्यान आकर्षित करना आसान हो गया। इससे आज़ाद भारत में लोकतंत्र मज़बूत हुआ।
राजनीतिक दल-दल मे कराह रही है राष्ट्रीयता
राजनीति का मतलब यदि राष्ट्र सेवा समझते है तो यह लगभग बीती बात हो चुकी है। अब तो यह सत्ता और शक्ति हथियाने का हथकंडा बन चुकी है। केन्द्र मे आजादी के बाद से ज्यादातर कान्ग्रेसिओं का शासन रहा और हर बार गरीब जनता को महंगाई के नए बोझ उठाने पड़े। विपक्ष जब मजबूत हुआ तो प्राय: इसी मुद्दे पर कांग्रेस की सरकार गिरीं। कभी जनता पार्टी, तो कभी जनता दल तो कभी भाजपा, वह भी गठबंधन का अवसरवादी फार्मूला अपनाकर सरकार बनती रहीं। लेकिन महंगाई कम नही हुई बल्कि बढती ही गई। पिछली बार इसी फार्मूला को अपनाकर कांग्रेस भी पुन: सत्ता हासिल कर ली। नतीजा आपके सामने है। अगले साल आम चुनाव होने है पर कांगेस को इसका भी डर नही। आम जरूरत की चीजो के दाम आसमान छू रहे है। गरीबों को फ़िर महंगाई की चक्की तले पिसा जा रहा है। जबकि दूसरी तरफ़ मोबाइल फ़ोन के दाम गिर रहे है। कॉल रेट लगभग मुफ्त होती जा रही है। आख़िर क्यों आपको खाने मे मोबाइल सेट परोस दिया जाए तो आपकी भूख मिट जायेगी। नहीं न, सचाई यह है कि सरकार की चिंता के दायरे मे गरीब जनता नही और न ही उनकी जरूरतें है, बल्कि धनी और पूंजीपति वर्ग है, जो सरकार की राजनितिक दल को चुनाव लड़ने के लिए अनाप- सनाप रुपये पहुंचाते है। और इसके बदले मे उन्हें मिलाती है गरीब के पसीने की कमaai lootane की chhoot।
क्या आपको नही लगता राजनीति से ईमानदारी का totoly break-up हो चुका है। और इस क्षेत्र मे dhurt, pakhandio की jamavat कुछ jyada ही tagdi हो चुकी है।
क्या !!!!!
आप देश और समाज के हर कोने में पनप रही गन्दी
देश और समाज के सांस्कृतिक मूल्य ढ़ह रहे हैं?
देश व शहर की मीडिया से आप खुश हैं?
मीडिया पूंजीपतियों का गुलाम बन गया है?
पुलिस और अपराधियों में कोई असमानता नहीं दिखती?
क्रांति और समाज सुधार के अर्थ बदल गए हैं?
भारत का लोकतंत्र भोगतंत्र में तब्दील हो रहा है ?
और भी है अनेक सवाल जो कभी-न -कभी आपके मन में
आप ग़लत सोच रहे हैं, एक चने के ठोकर से कम से कम
जहाँ ऐसे ही सुलगते सवालों पर लगेगी आपकी अदालत.
फिर देर किस बात की है-अपनी तस्वीर के साथ
जल्द ही आपके विचार इस ब्लॉग पर दिखने लगेंगे.