क्‍या आपका अखबार धोखेबाज नहीं?

उदय केसरी  
आज सुबह चाय के साथ अखबार के पन्‍ने उलटते ही जिन खबरों पर नजरें गईं, वे खबर नहीं थीं, बल्कि खबरों की शक्‍ल में विज्ञापन थे। वह भी एक नहीं अनेक। अखबार था दैनिक भास्‍कर, देश का सबसे तेज बढ़ता अखबार और जो अब डीबी कॉर्प यानी कारपोरेट कंपनी है, जिसका आईपीओ जारी होने वाला है। इन झूठी खबरों पर बात करने से पहले एक और बात बता दूं कि घर से निकलकर जब मैं ऑफिस पहुंचा, तो वहां पहुंचने वाले अखबार के भी एक से अधिक पन्‍ने ऐसी ही नकली खबरों से अटे हुए थे। अखबार था पत्रिका, जो राजस्‍थान पत्रिका समूह का अखबार है और हर बात पर दूसरों को पत्रकारिता की दुहाई देता रहता है। यही नहीं इस अखबार ने भोपाल में प्रकाशन शुरू करने के साथ ही भोपाल की आवाज उठाने का दावा किया और एक बड़ा समारोह आयोजित कर खबरों की शक्‍ल में विज्ञापन छापने का विरोध किया था।
खबर के रूप में विज्ञापनों को छापने की यह बात कोई नई नहीं है। सर्वाधिक प्रसार का दावा करने वाले दैनिक जागरण व अन्‍य नामी अखबार भी कमाई के इस धूर्त तरीके में शामिल हैं। फर्क बस इतना है कि कोई इन नकली खबरों के नीचे बारिक अक्षरों में फीचर लिखता है, तो कोई इम्‍पैक्‍ट फीचर, तो कोई Advt. । प्राय: ऐसी नकली खबरें चुनावों के वक्‍त ज्‍यादा नजर आती हैं। वैसे, अब विभिन्‍न उत्‍पादों की कंपनियां भी ऐसी नकली खबरें अपने उत्‍पाद के प्रचार के लिए छपवाने लगी हैं। इससे अखबारों को जहां वर्गसेंटीमीटर के भाव पैसे मिलते हैं, वहीं विज्ञापनदातों को अखबार की खबरों के प्रति पाठकों के भरोसा को आसानी से खरीदने का मौका। अब ऐसी नकली खबरों का कैसा प्रभाव पाठकों पर पड़ता होगा...इसकी फिकर न अखबार को है, न विज्ञापनदाताओं और न ही बुद्धिजीवी पत्रकारों को।

भोपाल में निकाय चुनाव चल रहा है। इसमें खड़े विभिन्‍न दलों के प्रत्‍याशियों के दौरे, जनसंपर्क, सभाओं की खबरें अखबारों में छप रही हैं, लेकिन कौन सी खबर विज्ञापन है और कौन सी अखबार के संवाददाताओं द्वारा कवर की हुई, समझना मुश्किल है। खासकर भोली-भाली जनता के लिए तो यह समझना बिल्‍कुल ही मुश्किल है कि ‘इम्‍पैक्‍ट फीचर’ या ‘फीचर’ का मतलब विज्ञापन होता है। जिस पार्टी का प्रत्‍याशी, जितना अधिक पैसा खर्च कर रहा है, उसकी खबरें उतनी बड़ी छप रही हैं। हर साइज की खबरें छपवाने का बाजार गर्म है। अब इन सबके बीच कोई पत्रकारिता की पवित्रता की बात करे, तो उसे तो पागल ही समझा जाएगा न! अरे अबला हो चुकी सच्‍ची प‍त्रकारिता से किसी को क्‍या मिलने वाला है! जब जनता/पाठकों के विश्‍वास के साथ नकली खबरों के जरिये खुलेआम की जा रही धोखाधड़ी पर किसी को एतराज नहीं, तो सच्‍ची प‍त्रकारिता की चिंता किसे होगी। सच्‍ची पत्रकारिता की हालत तो वैसी है, जैसे गांधी बाबा के विचारों की। जिनकी तस्‍वीर तो हर सरकारी दफ्तरों में लगी होती है, पर उसी के नीचे भ्रष्‍टाचार धड़ल्‍ले से फलता-फूलता रहता है।

9 comments:

  1. पूरे कुंए में ही भांग डली हुई है।

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  2. सामयिक पोस्ट लिखी है।यह एक कड़वा सच है।

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  3. हम तो बेइमानी करेगा..
    दुनिया से नहीं डरेगा..

    है अक्ल.. लगाले दम,
    जो करना है सो करेगा...

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  4. भाई आपकी बातों से सहमत सारे अखबारों का यही हाल है, यह मैं केवल आपकी पोस्‍ट पढकर नहीं कह रहा, बल्कि पत्रकार और एडिटर मित्रों के साथ उठने-बैठने से मिले अनुभव से कह रहा हूँ, अब हमारे हाथ में यह ब्लागिंग आई है इससे बहुत उम्‍मीदें जागी हैं आपको अच्‍छी पोस्‍ट प्रस्‍तुत करने पर बधाई

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  5. आपकी बातों से सहमत

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  6. अखबार अपने कब्र खुद खोद रहे हैं...इसी तरह इनके बारे में लिखते रहिये...वाकई में ब्लागिंग से बहुत उम्मीद जगी है...अलग जगाये ऱखिये

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  7. इसी वजह से अब अखबारों का असर खत्म हो रहा है. आज क्या कोई अखबार सरकार गीरा सकता है? लोगों का विश्वास ही नहीं है, इन पर.

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  8. hi, your article is a bitter truth. but running a newspaper is a business. dont u and others who are in this profession wish to have better salary? paisa to advertising se hi aata hai na. to ye sab karna padta hai. aapke blog par bhi advertisements hain iske paise aap bade shauk se lete honge. patrakarita to kab ki kothe pe baithi randi ho gayee aur patrakar or malik uske dalal ban baithe hain. ab kewal ik cheese ke hi shabd aur bhasha bhachi wo hai paise ki. paisa, paisa, more paisa....

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  9. article is so good sir . your view is right

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