'एक उम्मीद' कितना अच्छा ध्येय वाक्य है। सुनकर और सोचकर बांछें खिल जाती हैं और मन में मिश्री सी घुलने लगती है कि उम्मीद अब पूरी हुई कि तब। लेकिन इंसानी उम्मीदें हैं कि पूरी ही नहीं होतीं न पहली दुनिया (विकसित देश) में न दूसरी दुनिया (विकासशील देश) में। तीसरी दुनिया (अविकसित देश) में तो इसके पूरा होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। शायद इसीलिए जाने-माने शायर कैफी आज़मी ने लिखा था, 'इन्सां की ख्वाहिशों की कोई इंतेहा नहीं, दो गज जमीं भी चाहिए दो गज कफ़न के बाद।' लेकिन कैफी आज़मी ने जब लिखा था तब चौथी दुनिया (पत्रकारिता) का स्वरूप कुछ अलग था। इस दुनिया का हर बाशिंदा किसी न किसी मिशन में लगा रहता था। सो, उस समय इस दुनिया के लोगों की उम्मीदें भी अधूरी रह जाती थीं लेकिन अब तो चौथी दुनिया का पूरा मामला ही पूरी तरह 'प्रोफेशन' पर आ टिका है। लिहाजा, यहां हर शख्स अपनी दबी-कुचली उम्मीदों (इसे कुण्ठा पढ़ें) को पूरा करने में लगा है। सो, भैया अब हमारी (मेरी) भी उम्मीद या कहिए कि उम्मीदें इन दिनों ठाठें मार रही हैं। आखिर हम (मैं) भी इसी दुनिया के बाशिंदे हैं तो फिर हम पीछे क्यों रहें भला?
उम्मीद है, हम भी कि किसी दिन किसी अखबार या चैनल में खोजी पत्रकार के तौर पर स्थापित हो जाएं और कुछ विश्वसनीय-अविश्वसनीय से स्टिंग ऑपरेशन करके दाम कमा लें। जहां दाम न मिले वहां नाम मिलना तो तय है ही। किसी मीडिया संस्थान में भारी-भरकम से राजनीतिक सम्पादक टाइप के कुछ हो जाएं और जब भी चुनाव आएं तो अगले पांच साल के लिए अपने और अपने बीवी-बच्चों के खाने-खर्चे का इन्तजाम कर लें। आजकल वैसे भी राजनीतिक दलों और ज्यादातर मीडिया संस्थानों ने इस सत्य को तहे-दिल से स्वीकार कर लिया है कि चुनाव के दौरान राजनीतिक खबरों को छापने-रोकने के एवज में पैसों का आदान-प्रदान तो होना ही है।
हमें तो उम्मीद है कि किसी चैनल का सर्वेसर्वा बन जाएं, फिर चाहे वह कोई क्षेत्रीय या स्थानीय चैनल ही क्यों न हो। अब कोई पूछेगा कि इससे क्या फायदा? तो भैया इसके तो फायदे ही फायदे हैं। चैनल का कैमरा और डण्डा (माइक) तो ऐसी चुम्बक है जिसे देखते ही मुफ्त की दारू और लडक़ी का इन्तजाम यूं खिचा आता है मानो गुड़ से मक्खी! तो छककर भोगेंगे, ससुरी दोनों को। पैसे के इन्तजाम की तो चिन्ता ही मत करिए भैया! अपने चैनल में काम करने वाले लडक़े-लड़कियों से कह देंगे कि जाओ-कमाओ-खाओ और हमें भी खिलाओ। ज्यादा हुआ तो अपने चैनल की कुछ सन्दर सी लड़कियों को छोटे-छोटे कपडों में (कभी मौका लगा तो बिना कपड़ों के भी) मॉडलिंग रैम्प पर 'बिल्ली चाल' चलवा देंगे। जुगाड़ लग गई तो 'नैकेड न्यूज' टाइप का कोई कार्यक्रम शुरू करवा देंगे। पैसे अपने-आप बरस पड़ेंगे और देखने वालों को नयनसुख मिलेगा सो अलग।
हमें भैया, न्यायाधीश की भूमिका निभाने की भी उम्मीद है। लेकिन यह भी तभी हो सकता है, जब हम किसी ऊंचे पद पर पहुंच जाएं। फिर हम अपने हिसाब से खबरों को खबर सरीखा न दिखाकर फैसलों सरीखा दिखाया करेंगे। जिसे मर्जी आए उसे जहरीला कह देंगे और जिसको इच्छा हुई उसे साम्प्रदायिक करार देंगे। जिसका चाहेंगे उसका अच्छा ही अच्छा पक्ष दिखाएंगे और जिसका चाहेंगे सिर्फ बुरा ही बुरा। सबको बढ़-चढक़र बताएंगे कि जो हमने दिखाया-सुनाया या लिखा उसे पढऩे-देखने वाला प्रभावित हो रहा है और इससे एक ओपिनियन तैयार हो रही है। हालांकि ऐसा होता-वोता कुछ नहीं है, यह भी हमारे जैसे लोगों के अलावा ज्यादा कोई जाानता नहीं, तो चिन्ता कैसी?
पर पूरी सच्चाई और ईमान से कहूं तो हमारे अन्दर एक ज़मीर जैसी कोई चीज़ है चीख-चीखकर भगवान से मना रही है कि हमारी ये उम्मीदें कभी पूरी न हों। और हम भी ठण्डे दिमाग से सोचते हुए अपने ज़मीर की आवाज़ के साथ आवाज़ मिलाकर खुदा से कह रहे हैं....आमीन, आमीन, आमीन! शुम्मामीन
आलेख पढ़कर नाउम्मीदी हुई । अभी तक तो तीसरी दुनिया के देश सुने थे । पहली बार जाना कि लोकतंत्र का चौथा खंबा कहे जाने वाले पत्रकारिता के इतने दुर्दिन आ गये हैं कि वह चौथी दुनिया के नाम से जाना जा रहा है । मिशन से प्रोफ़ेशन में तब्दील हुए पेशे के नए नामकरण के लिये बधाई ।
ReplyDeleteआपके कहे मीडिया के हालत को पड़कर ह्रदय में काफी पीडा हुई ..आखिर में भी इस चोथी दुनिया से जुड़ने बाला ज हु मैं भी आपकी तरह भगवान् से दुआ करता हु की ऐसे विचार जिन्दगी में कभी न आये
ReplyDeletebhut sahee likha ahi, kaamnaaon ka koi ant nahee hai, ek poori hoti hai to kai jaag jaati hain
ReplyDeletekamal ka likha aaj k baad seedi baat jaroor pada karunga. sunilparbhakar111@gmail.com
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