देश के आंतरिक मामलों में अमेरिकी दखल नाजायज

उदय केसरी
पहले भारत दौरे पर आये अमेरिका के विदेश उप मंत्री विलियम बनर्स ने कहा कि कश्मीरियों की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए भारत-पाकिस्तान शांति वार्ता फिर से शुरू होनी चाहिए। फिर एक खबर आई कि अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) की एक टीम जून-जुलाई में भारत का दौरा करने वाली है। यह अमेरिकी आयोग अपनी टीम की रिपोर्ट के आधार पर यह तय करेगा कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता के क्या हालात हैं। इन दो खबरों से ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका हमारे देश के आंतरिक मामलों में कुछ ज्यादा ही दखल देने की कोशिश कर रहा है? आखिर अमेरिका को यह अधिकार किसने दे दिया कि वह किसी भी देश के अंदर-बाहर के मामलों में हस्तक्षेप करे?

वैसे, अमेरिका के बारे में यह बात पूरा विश्व समझता है कि वह कोई भी हस्तक्षेप, विरोध या समर्थन अपने स्वार्थ को केंद्र में रखे बिना नहीं करता। कश्मीर और धार्मिक स्वतंत्रता के मामलों में अमेरिका का स्वार्थ विश्व पटल पर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में इकलौता नाम भारत की बढ़ती ख्याति की गति को कमजोर करना तथा पाकिस्तान का पक्ष लेकर उसे अपने दुश्मन नंबर एक ओसामा बिन लादेन और उसके संरक्षक तालिबान का सफाया करने के लिए इस्तेमाल करना हो सकता है। चाहें इसके लिए भारत में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से ऑंखें ही क्यों न मूंदनी पड़े। अभी मुंबई हमले के घाव भरे भी नहीं है और न ही इसके लिए दोषी आतंकियों को सबक सिखाया जा सका है , अमेरिका भारत को कश्मीर मुद्दे पर बातचीत शुरू करने की नसीहत देने लगा है। यानी भारत की संप्रभुता और अस्मिता पर आतंकियों के हमले, अमेरिका के टविन टावर पर हुए हमले के आगे कोई महत्व नहीं रखते हैं, जिसके बदले की आग सात साल बाद भी अमेरिका के सीने में धधक रही है।

दरअसल, अमेरिका की आदत वैसे धनाड्य की तरह है, जो धन के बल पर पूरी दुनिया को अपना नौकर बनाना चाहता है और जिसे अपने अभिमान के आगे दूसरे के स्वाभिमान की कोई परवाह नहीं। अश्वेत होने के बावजूद अमेरिका का राष्ट्रपति निर्वाचित होकर इतिहास रचने वाले बराक ओबामा एक तरफ तो दुनिया के मुसलमानों को पटाने कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरह, उनके विदेश उप मंत्री विलियम बनर्स को कश्मीर की जनता की चिंता होने लगी है। इसका हल उन्हें भारत-पाक शांति वार्ता को आगे बढ़ाने में दिखता है। अमेरिका को कश्मीर में आतंकवाद की समस्या नहीं दिखती। उसे कश्मीर में सक्रिस आतंकी संगठनों के बारे में मालूम नहीं कि वे कहां से और कैसे संचालित हो रहे हैं? फिर भी यदि अमेरिकी नजर में भारत-पाक वार्ता से ही कश्मीर मुद्दे का हल निकल सकता है, तो यह भी साफ तौर पर जाहिर है कि कश्मीर में आतंकवाद की समस्या पाकिस्तान की देन है और ऐसे में वार्ता तभी संभव हो सकती है, जब पाकिस्तान अपने आतंकियों को पूरी तरह से निष्क्रिय करे।...जो पाकिस्तानी सरकार के बस की बात नहीं है, क्योंकि वहां सत्ता का केंद्र संसद ही नहीं, सेना और आईएसआई भी है। पाकिस्तानी शासन व्यवस्था की यह हास्यास्पद स्थिति अब गोपनीय नहीं रह गई है।

अमेरिका का दूसरा हस्तक्षेप भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का मूल्यांकन है। इसके लिए अमेरिकी टीम को भारत में सर्वे करने की अनुमति यूपीए से पहले किसी सरकार से नहीं मिली। पर, परमाणु करार के बाद भारत-अमेरिकी संबंधों में आई मधुरता का परिणाम है कि यूएससीआईआरएफ की टीम को भारत दौरे की अनुमति मिल गई। लेकिन इससे देश के हिन्दूवादी संगठनों को मिर्ची लग गई हैं, जबकि ईसाई संगठनों ने इसका स्वागत किया है। इस मुद्दे पर हिन्दूवादी और ईसाई दोनों ही संगठनों की प्रतिक्रिया क्या सही है? यदि केवल अमेरिकी टीम के आने की खबर पर ही एक उसका विरोध करे और दूसरा स्वागत, तो असमानता तो यहीं दिख जाती है। यानी दोनों धर्म के ठेकेदारों को इससे कोई मतलब नहीं कि अमेरिका दूसरे देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की जांच करने के नाम पर कैसे अपनी दादागिरी साबित कर रहा है, बल्कि आपसी भेदभाव की तुष्टी किस मुद्दे से होती है, केवल इससे मतलब है, ताकि उनकी धर्म की ठेकेदारी बदस्तूर चलती रहे।

खैर, यह स्मरणीय है कि अमेरिका के यूएससीआईआरएफ के कमिश्नारोँ की नियुक्ति अमेरिकी राष्ट्रपति करते हैं और दुनिया के देशों में मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता पर बनने वाली अमेरिकी नीति में इस आयोग की रिपोर्ट खासी मायने रखती है। यह आयोग हर साल रिपोर्ट जारी करता है और अमेरिकी विदेश विभाग इस आधार पर कार्रवाई करता है। इसी कमिशन की रिपोर्ट के आधार पर गुजरात के मुख्यमंत्री को 2005 में अमेरिका का वीजा नहीं मिला था। 2009 के लिए 1 मई को जारी रिपोर्ट में आयोग ने दुनिया के 13 देशों-जिनमें चीन, नॉर्थ कोरिया और पाकिस्तान शामिल हैं को कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न (सीपीसी)की कैटगरी में रखा है। कमिशन के संविधान के मुताबिक सीपीसी की श्रेणी में उन देशों को रखा जाता है जहां किसी खास धर्म या मत के अनुयायियों (मानने वालों) को हिंसा का शिकार बनाया गया हो । पिछले 10 सालों में कमिशन की यह सबसे विस्तृत रिपोर्ट है।

2 comments:

  1. जब हम आपस मै लडेगे, ओर विदेशी को अपने सर पर बिठायेगे तो ...यह सब भी भुगतना पडेगा,

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  2. america ki yeh aadat new nahi hai yeh to bohut pahle se bharat ke pratee kar raha hai

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