फिल्म जगत के अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों को जीतकर खास चर्चे में आई फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ (Slumdog Millionaire) के नाम, कहानी व फिल्म डायरेक्टर को लेकर कई बार मन में कई सवाल खड़े हुए, पहले कुछ लिखना अच्छा नहीं लगा। सोचा, लोग कहेंगे-हम जैसों को तो कभी अच्छाई दिखती ही नहीं। दुनियाभर में भारतीय संगीतकार की जय की खुशी बांटने के बजाय, लगे बाल की खाल खींचने। इसलिए पहले मैं यहां बता दूं कि ए.आर. रहमान की जीत वाकई में गर्व की बात है अपने देश व देशवासियों के लिए।
लेकिन इस खुशी के मद में उन सवालों की अनदेखी नहीं की जा सकती है, जो हमारे देश व देशवासियों के सम्मान, मर्यादा, परंपरा व संस्कृति से जुड़े हों। सवाल हैं कि क्या पिछले 27 सालों के दौरान बॉलीवुड में स्लमडॉग मिलेनियर से बेहतर एक भी फिल्म नहीं बनी? यदि यह फिल्म विकास स्वरूप के उपन्यास ‘क्यू एंड ए’ पर आधारित है, तो उसका नाम ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ क्यों रखा गया, स्लमबॉय मिलेनियर क्यों नहीं? आखिर इस नाम में ‘डॉग’ शब्द क्यों है? स्लम (Slum) का हिन्दी अर्थ ‘झुग्गी बस्ती’ तो चलो ठीक है। तो क्या अंग्रेजी में झुग्गी बस्ती के बच्चों को डॉग यानी कुत्ता कहा जाता है?
सवाल यह भी है कि जिस फिल्म का डायरेक्टर व प्रोड्यूसर विदेशी (ब्रिटिश) हैं, उसे बॉलीवुड की फिल्म कैसे माना जाए? फिल्म जगत का यह सबसे बड़ा अवार्ड किसी भारतीय निर्माता-निर्देशक की फिल्म को क्यों नहीं मिलता? क्या अमेरिका या अन्य देशों में भारत से बड़ा दर्शक वर्ग है? चूंकि दुनिया में अकेले बॉलीवुड की फिल्मों में ही गानें व संगीत कहानी के हिस्से होते हैं, तो क्या इसीलिए ऑस्कर की जूरी को केवल हमारे गानें व संगीत ही पसंद आते हैं? ताकि आगे भी भारतीय गानों व संगीत को हायर करके विदेशी निर्माता-निर्देशक फिल्म बनाने का धंधा चमका सकें?
यदि ये सवाल बेवजह लगते हैं, तो जरा इन पर विचार करके देखें-ताजा ऑस्कर आवार्ड के 27 साल पहले 1982 में जिस फिल्म को इस बार की तरह ही ऑस्कर के आठ अवार्ड मिले, उसका नाम था ‘गांधी’। गांधी की जीवनी पर आधारित इस फिल्म के डायरेक्टर का नाम था-रिचर्ड एटेनबरोफ यानी विदेशी। इस फिल्म का निर्माता भी भारत का नहीं था। इसमें अमरीशपुरी समेत बस दो-तीन कलाकर बॉलीवुड के थे। इस तथ्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऑस्कर की जूरी को भारतीय निर्माता-निर्देशक कितने पसंद हैं? यदि शॉर्ट डाक्युमेंट्री फिल्म ‘स्माइल पिंकी’ को मिले ऑस्कर की भी बात करें, तो इसकी डायरेक्टर मेगान मिलान भी एक अमेरिकी महिला है।
अब जरा, देश व विदेश, खासकर अमेरिका में स्लमडॉग मिलेनियर के कारोबार पर नजर डालें- इस फिल्म को बनाने में कुल जमा लागत आई 51 करोड़ रुपये। वहीं इस फिल्म से अमेरिका में कमाई हुई पांच अरब रुपये, जबकि भारत में मात्र 30 करोड़ की कमाई हुई। अब विचार करके देखें कि भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म भारतीय दर्शकों को कितनी पसंद आई और अमेरिकन को कितनी। ऑस्कर के लिए नामितभर होकर रह गई फिल्म ‘लगान’ के सामने क्या आप स्लमडॉग मिलेनियर को पांच स्टार दे पायेंगे? यदि आप भी झुग्गी के बच्चों को कुत्ता कहते होंगे, तो जरूर यह फिल्म लगान से बेहतर लगेगी। पर, यदि नहीं, तो आखिर क्यों विदेशियों (खासकर ब्रिटिश व अमेरिकन) को लगान पसंद नहीं आई? कहीं इसलिए तो नहीं, कि उसमें भारत का दीन-हीन चेहरा नहीं था? कहीं इसलिए तो नहीं कि उस फिल्म की कथा, जो महज कोरी कल्पना नहीं थी, से उनका ऐतिहासिक इगो चोटिल होता था।...तो फिर महज कोरी व यथार्थ से कोसों दूर कल्पना पर बनी फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर क्यों पसंद आ गई? इसके गाने व संगीत क्यों भा गए। लगान के गानें व संगीत क्यों नहीं? इसमें भी तो एआर रहमान ने ही संगीत दिया था।