मीडीया और भारतीय स्त्री

मनीषा कुलश्रेष्ठ
पिछले कुछ अरसे से भारतीय मीडीया में भारतीय स्त्री का अस्तित्व बहुत ही मुखर होकर उभरा है। चाहे वह कला व साहित्य हो, टेलेविजन हो या हिन्दी सिनेमा। हिन्दी साहित्य में यह बोल्डनेस साठ के दशक से आरंभ होकर आज मैत्रेयी पुष्पा के बहुचर्चित उपन्यास चाक और मृदुला गर्ग के कठगुलाब तक चली आ रही है। उस पर विशुध्द कला और साहित्य को तो मान लिया जाता है कि कुछ बुध्दीजीवी लोगों का क्षेत्र है। नैतिक-अनैतिक शील-अश्लील की बहस उनमें आपस में होकर खत्म हो जाती है। आम आदमी का क्या वास्ता?किन्तु टेलेविजन और सिनेमा?? जब तक दूरदर्शन विशुध्द भारतीय छवि में रहा, वहां स्त्री अपनी पूर्ण मर्यादा के साथ दिखाई जाती रही, और विवाहेतर सम्बंध से पुरूषों को ही जोडा जाता था, वह भी पूरे खलनायकी अन्दाज में और दर्शकों की पूरी सहानुभूति पत्नी के साथ होती थी।जैसे ही अन्य चैनलों का असर बढा और बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल की तर्ज पर शोभा डे और महेश भट्ट के स्वाभिमान जैसे कई धारावाहिक बने जिनमें विवाहेतर सम्बंधों को बहुत अधिक परोसा गया, ऐसे में दूरदर्शन भी पीछे न रहा।झडी लग गई ऐसे धारावाहिकों की और अब यह हाल है कि बहुत गरिष्ठ खाकर दर्शकों को जब उबकाई आई और ये धारावाहिक अब उबाने लगे तो ऐसे में आजकल एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी जैसे भारतीय संस्कृति से जुडे धारावाहिकों का सुपाच्य रूप फिर से लोकप्रिय हो गया।
और हिन्दी सिनेमा! समानान्तर फिल्मों में कुछ पुरूषों के विवाहेतर संबंधों को जस्टीफाई करती अर्थ, ये नजदीकियां जैसी कुछ फिल्में आई थीं जो कि एक अलग सोसायटी का प्रतिनिधित्व करती थीं।
किन्तु अभी पिछले दो-चार सालों रीलीज्ड़ फिल्मों आस्था और अस्तित्व जैसी फिल्मों ने स्त्री की सेक्सुएलिटी पर बहुत ही गंभीर किस्म के प्रश्न उठाए हैं। यह प्रश्न चौंकाने वाले थे, क्योंकि इसमें विवाहेतर संबंध रखने वाली स्त्री शोभा डे के उपन्यासों की उच्च वर्ग की वुमेन लिब का नारा लगाती स्त्री नहीं थी, न निचले तबके की मजबूर स्त्री थी।यह तो भारतीय समाज का प्रतिनीधित्व करने वाले वर्ग मध्यमवर्ग की नितांत घरेलू, खासी पारम्परिक स्त्री और उसकी मायने न रखने वाली नारी की देह और इच्छाओं पर गंभीर प्रश्न उठा था। इस प्रश्न ने सबको सकते में डाल दिया था। पुरूष सोचता रहा क्या ये भी हमारी तरह सोच सकती हैं? स्त्री स्वयं हतप्रभ थी, क्या उसका भी घर-परिवार से अलग अस्तित्व हो सकता है? ये कैसे प्रश्न थे, जो आज तक तो उठे नहीं थे। इसे तो पश्चिमी सभ्यता का असर कह कर टाला नहीं जा सकता। क्या ये नए प्रश्न कुछ सोचने को मजबूर नहीं करते अगर साहित्य और मीडिया समाज का दर्पण हैं तो? साभार : हिंदीनेस्ट डॉट कॉम

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