-उदय केसरी
महात्मा गांधी ने आजादी के दशकों पहले जिस अमोघ हथियार की अभेद्यता को पहचाना लिया था, वह आज भी उतना ही अभेद्य है। वह हथियार है अहिंसक विरोध- अनशन और सविनय अवज्ञा। गांधी जी ने जब इस हथियार का इस्तेमाल बर्बर अंग्रेजों के खिलाफ करने का निर्णय लिया, तब उन्हें आजादी के दीवाने भारतीय नौजवानों का विरोध भी सहना पड़ा था। इसी कारण गांधी जी को 1920 का असहयोग आंदोलन बीच में वापस लेना पड़ा था। गरम दल यानी हिंसा को हथियार बनाने वाले भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु आदि ने चौरी-चौरा कांड को अंजाम देकर असहयोग आंदोलन के अनुशासन का उल्लंघन कर दिया था। लेकिन अंतत: उन आजादी के दीवानों को अहिंसा की अभेद्यता का अहसास हो गया था, तभी गिरफ्तार होने के बाद जेल में भगत सिंह के नेतृत्व में नौजवानों ने अंग्रेजों के खाने का बहिष्कार यानी अनशन कर दिया था। इस अनशन ने अंग्रेजों की चुलें हिला दी थीं।
गांधी जी का वह अमोघ अस्त्र आज भी अभेद्य है, जिसे साबित किया है अण्णा हजारे ने। जिस लोकपाल बिल की मांग लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने उठाई थी और जिसे 42 सालों तक उपेक्षित किया गया, उसी बिल की मांग को लेकर अण्णा के अनशन ने केंद्र की मनमोहन सरकार को महज चार दिनों में झुकने पर मजबूर कर दिया। इसे अनशन जैसे हथियार का चमत्कार ही कहें कि अण्णा के समर्थन में पूरा देश उमड़ पड़ा। लेकिन इतने सबूतों के बाद भी भारत में आज भी एक ऐसा वर्ग है, जिसे न कभी महात्मा गांधी पर विश्वास हुआ और न ही उनके अमोघ अस्त्र अहिंसा पर। उन्होंने हमेशा उनके विचारों को अपना मार्ग बनाया, जिनके विचार भारतीय परिवेश से उपजे ही नहीं थे। कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओत्से तुंग के विचारों को आखिर भारत में कैसे लागू किया जा सकता है, जो अपने देशों में ही मिटने की कगार पर हैं। इस वर्ग ने अहिंसा को हमेशा बुजदीली समझा और हिंसा और ताकत के बल पर परिवर्तन लाने की कोशिश की। क्या आज तक उन्हें इसमें कोई बड़ी सफलता हाथ लगी। लाल झंडे को सलाम करने वाले इस वर्ग से ही निकले हैं नक्सली, जिन्हें भारत की जनतांत्रिक व्यवस्था पर तनिक भी भरोसा नहीं है। नक्सलबाड़ी से पैदा हुए नक्सलवाद को आज दशकों हो गए हैं, क्या उन्हें कोई भी कामयाबी मिली? उलटे उनकी हिंसा की भेंट सबसे अधिक गरीब और मजलूमों को ही चढ़ना पड़ा है। नक्सलियों की हिंसक वारदातों से देश के कई राज्य लहूलुहान हैं, लेकिन क्या वे अपने घोषित मंसूबों पर सरकार को झुका पाए? यह तो बड़ी बात है, क्या वे जनता के बीच अपना विश्वास तक जगा पाए? कितना भी तर्क-वितर्क करके देख लें, इन सवालों का जवाब सदा नहीं ही होगा। क्रांति चंद सिरफिरों के बलवे से नहीं आती, जनता का भरोसा जीतकर उन्हें अपने साथ लाना होता है। और यह भरोसा न धन से और ना ही ताकत से खरीदा जा सकता है। इसे जीतने की खुद में योग्यता हासिल करनी होती है, जिसके बाद कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती, लोग स्वयं ही जुड़ते चले जाते हैं। जैसे अण्णा हजारे के पीछे पूरा देश उमड़ पड़ा।
नक्सलियों को यदि महात्मा गांधी जी के विचारों से इतना परहेज है, तो ट्यूनिशिया, म्रिस, सीरिया और लीबिया से ही सबक लें, जो गांधी जी को शायद कम ही जानते होंगे, पर भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ उनके विरोध का तरीका अहिंसा पर आधारित रहा है। अहिंसा का अस्त्र वहां की जनता को सालों से जड़ जमा रखे भ्रष्टतंत्र से छुटकारा दिलाने में कामयाब है। लेकिन आए दिन निर्दोषों के खून बहाने वाले नक्सलियों और उन्हें वैचारिक समर्थन देने वाले वामपंथियों को क्या कभी यह समझाया जा सकता है? कहते हैं कि जगाया उन्हें जा सकता है जो नींद में हों, उन्हें नहीं जो नींद में होने का नाटक करते हैं। गरीबों, दलितों और शोषितों के हक के वास्ते पुलिसवालों और उनके जंगली कानून को नहीं मानने वालों की बलि चढ़ाने वाले नक्सली अपने गलत मार्ग पर इतने आगे तक निकल आए हैं कि उनका वापस लौटना संभव नहीं दिखता, उसपर से अरुंधती राय जैसे कुछ मानवतावादियों का बौद्धिक आतंकवाद इसे कभी खत्म नहीं होने देगा। नक्सवाद इस देश और समाज के प्रर्वतक नहीं, अमन-चैन के दुश्मन हैं, जिससे छुटकारा पाना भी उतना ही जरूरी है, जितना भ्रष्टाचारियों से।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा हजारे की लड़ाई ने साफ तौर पर यह साबित कर दिया है कि जनताशक्ति के आगे सभी को नतमस्तक होना ही पड़ेगा। फिर चाहे सत्तासीन कितना ही ताकतवर क्यों न हो। छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश आदि राज्यों में जड़ जमाए रखने वाला नक्सलवाद भी नासूर हो चुका है। यह अब आंदोलन नहीं, अपराध हो चुका है। यह उतना ही घातक है, जितका आतंकवाद। आतंकवाद यदि देशद्रोह के समान है, तो निर्दोषों के खून बहाने वाले नक्सली इससे अलग कैसे हुए?