उदय केसरी
लाभ के लिए अनैतिक कार्य या कहें भ्रष्टाचार अब शायद जायज हो चुका है। समाज में भ्रष्टाचार करने को और भ्रष्टाचारियों को बुरा नहीं माना जाता, बशर्ते इस कृत्य को सीधे भ्रष्टाचार और करने वाले को भ्रष्टाचारी नहीं कहा जाए। जानते हैं, ऐसे लोगों में इतनी शर्म भी क्यों बाकी है, कि उन्हें भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारी कहने/कहलाने में बुरा लगता है? क्योंकि समाज में अब भी एक तपका है या कहें, गरीब, अशिक्षित, भोले-भाले लोग बचे हैं, जो ईमानदारी से परिश्रम करके अपने परिवार के लिए भरण-पोषण करते हैं। जो संस्कार और नैतिकता को अब भी सबसे उपर रखते हैं। बेशक, ईमान की खाने वाले लोगों में पढ़े-लिखे और नौकरीशुदा तथा राजनीतिक लोग भी हैं, लेकिन वे अल्पसंख्यक हैं, मगर उनकी इस बदले सामाजिक परिवेश में एक नहीं चलती। उन्हें अपने दफ्तर और अपनी पार्टी में एक कोना पकड़ कर नौकरी बचानी पड़ती है।
भारत के इस बदले सामाजिक परिवेश में भ्रष्टाचार का एक तरह से समाजिकरण हो चुका है। सरकारी नौकरी में नौजवान यह सोचकर भी जाने लगे हैं कि वहां उपरी कमाई की असीमित संभावनाएं हैं और साथ ही कामचोरी की पूरी गारंटी भी। इसी तरह, नेतागिरी में पावरफुल पद पाने की होड़ लगी है। एक बार मौका मिला कि फिर कैसे कोई गली का गुंडा मंत्री बन जाता है, यह आप कभी समझ नहीं पायेंगे। आप सोच रहे होंगे ये क्यों भ्रष्टाचार पर वही पुराना उपदेश दे रहा है, जिसे सुनते-सुनते लोगों के कान पक चुके हैं। इसमें क्या नई बात है? गांधी बाबा अब धरती पर नहीं रहे, वह तो नोटों में विराजमान हो चुके हैं, इसलिए लोगों की श्रद्धा अब नोट वाले गांधी बाबा में हो चुकी है।...पता नहीं गांधी बाबा की आत्मा ऐसे लोगों की श्रद्धा को कैसे स्वीकार करती होगी?
अब आप दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स-2010, मुंबई के आदर्श सोसाइटी अपार्टमेंट और 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस से जुड़े भ्रष्टाचारियों को क्या कहेंगे? ये तो पढ़े-लिखे, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले, तथाकथित सभ्रांत वर्ग के लोग हैं। इन लोगों के नाम तो न्यूज चैनल वालों ने आपको रटवा ही दिये ही होंगे। इसलिए आप उनके स्टैंडर्ड का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं। लेकिन आश्चर्य यह है कि इन लोगों को न्यूज चैनल वालों से काफी गुस्सा है, जिन्होंने कोर्ट में अपराध साबित होने से पहले इनके नाम सार्वजनिक कर दिये। यह भी कि इन लोगों का दावा है कि घोटाले में वे शामिल ही नहीं हैं। मसलन, सुरेश कलमाडी, अशोक चव्हाण, ए. राजा, जिनके हाथों से राजनीतिक मजबूरियों के कारण सत्ता छीन ली गई है, लेकिन सजा के तौर पर नहीं ‘नैतिकता’ के आधार पर।
लाभ के लिए अनैतिक कार्य या कहें भ्रष्टाचार अब शायद जायज हो चुका है। समाज में भ्रष्टाचार करने को और भ्रष्टाचारियों को बुरा नहीं माना जाता, बशर्ते इस कृत्य को सीधे भ्रष्टाचार और करने वाले को भ्रष्टाचारी नहीं कहा जाए। जानते हैं, ऐसे लोगों में इतनी शर्म भी क्यों बाकी है, कि उन्हें भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारी कहने/कहलाने में बुरा लगता है? क्योंकि समाज में अब भी एक तपका है या कहें, गरीब, अशिक्षित, भोले-भाले लोग बचे हैं, जो ईमानदारी से परिश्रम करके अपने परिवार के लिए भरण-पोषण करते हैं। जो संस्कार और नैतिकता को अब भी सबसे उपर रखते हैं। बेशक, ईमान की खाने वाले लोगों में पढ़े-लिखे और नौकरीशुदा तथा राजनीतिक लोग भी हैं, लेकिन वे अल्पसंख्यक हैं, मगर उनकी इस बदले सामाजिक परिवेश में एक नहीं चलती। उन्हें अपने दफ्तर और अपनी पार्टी में एक कोना पकड़ कर नौकरी बचानी पड़ती है।
भारत के इस बदले सामाजिक परिवेश में भ्रष्टाचार का एक तरह से समाजिकरण हो चुका है। सरकारी नौकरी में नौजवान यह सोचकर भी जाने लगे हैं कि वहां उपरी कमाई की असीमित संभावनाएं हैं और साथ ही कामचोरी की पूरी गारंटी भी। इसी तरह, नेतागिरी में पावरफुल पद पाने की होड़ लगी है। एक बार मौका मिला कि फिर कैसे कोई गली का गुंडा मंत्री बन जाता है, यह आप कभी समझ नहीं पायेंगे। आप सोच रहे होंगे ये क्यों भ्रष्टाचार पर वही पुराना उपदेश दे रहा है, जिसे सुनते-सुनते लोगों के कान पक चुके हैं। इसमें क्या नई बात है? गांधी बाबा अब धरती पर नहीं रहे, वह तो नोटों में विराजमान हो चुके हैं, इसलिए लोगों की श्रद्धा अब नोट वाले गांधी बाबा में हो चुकी है।...पता नहीं गांधी बाबा की आत्मा ऐसे लोगों की श्रद्धा को कैसे स्वीकार करती होगी?
अब आप दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स-2010, मुंबई के आदर्श सोसाइटी अपार्टमेंट और 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस से जुड़े भ्रष्टाचारियों को क्या कहेंगे? ये तो पढ़े-लिखे, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले, तथाकथित सभ्रांत वर्ग के लोग हैं। इन लोगों के नाम तो न्यूज चैनल वालों ने आपको रटवा ही दिये ही होंगे। इसलिए आप उनके स्टैंडर्ड का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं। लेकिन आश्चर्य यह है कि इन लोगों को न्यूज चैनल वालों से काफी गुस्सा है, जिन्होंने कोर्ट में अपराध साबित होने से पहले इनके नाम सार्वजनिक कर दिये। यह भी कि इन लोगों का दावा है कि घोटाले में वे शामिल ही नहीं हैं। मसलन, सुरेश कलमाडी, अशोक चव्हाण, ए. राजा, जिनके हाथों से राजनीतिक मजबूरियों के कारण सत्ता छीन ली गई है, लेकिन सजा के तौर पर नहीं ‘नैतिकता’ के आधार पर।
इस ‘नैतिकता’का मतलब क्या है? मेरे विचार में इसका मतलब होता है जनता की आंखों में धूल झोंकना। ताकि जब तक जनता अपनी आंखों को साफ कर फिर से देखने लायक बना ले, तब तक उसी नेता की वही ‘नैतिकता’किसी दूसरे पद पर बैठने के लिए ‘योग्यता’बन जाए। अब चाहें दूसरा पद पार्टी संगठन की ऊंची कुर्सी ही क्यों न हो। भ्रष्टाचार करने के लिए वहां तो खुली छूट होती है और फिर संसद या विधानसभा की कुर्सी तो है ही न....’नोट के लिए वोट’ का मौका तो अगले चुनाव तक कोई थोड़े छीन सकता है। इसी तरह, रसूखदार बड़े नौकरशाहों को भ्रष्टाचार का खुलासा या कोई गबन होने पर ‘कार्रवाई’ के नाम पर पहले तो ‘तबादला’कर दिया जाता है और यदि जनता उससे भी न मानी तो उसे ‘निलंबित’किया जाता है। सवाल फिर उठता है कि इस ‘तबादले’और ‘निलंबन’का मतलब क्या है? आप अपने दिमाग पर जोर डालकर याद करें कि हाल के वर्षों में आपने कभी ऐसी खबर पढ़ी है कि किसी आईएएस और आईपीएस या राज्य स्तरीय सिविल अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में नौकरी से निकाल कर जेल में डाल दिया गया। यदि होगा तो अपवाद स्वरूप ही। मसलन, रूचिका हत्याकांड में देख लें, 17 साल से अधिक वक्त बीत जाने के बाद भी उस पुलिस अधिकारी राठौर को जेल में नहीं डाला जा सका। बावजूद इसके कि यह मामला एक बच्ची के साथ छेड़छाड़ और उसके परिणामस्वरूप उस बच्ची की मौत का है। यही नहीं, मीडिया में इस मामले को लगातार उठाया जाता रहा है। और भी कई आईएएस और आईपीएस अधिकारी हैं, जो अपने पद की शक्ति का दुरूपयोग करने, रिश्वत लेने, आमदमी से अधिक दौलत जमा करने के मामले में आरोपी हैं, पर समय गुजरता जाता है और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। बल्कि वे तो बाद में राजनीतिक दल में शामिल हो जाते हैं, जहां उनकी बड़ी पूछ होती है।
अब आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि शीर्ष नेता व अधिकारी स्तर पर भ्रष्टाचार का आलम यह है, तो नीचले स्तर पर यानी कार्यकर्ता और कर्मचारी स्तर पर भ्रष्टाचार का रूप कैसा होगा। छोटे-बड़े हर काम के लिए ‘रिश्वत’लेना उस काम के लिए ‘फीस’लेने जैसा मान्य हो चुका है। और इससे छोटा हो या बड़ा, कोई भी सरकारी विभाग अछूता नहीं है।
शायद आपमें से कई के मन में अंततः यह सवाल उठे कि आखिर चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला कैसे बढ़ गया है?...उनके लिए मेरा जवाब है- क्योंकि हम केवल ‘भ्रष्टाचार’ शब्द को बुरा मानते हैं, भ्रष्टाचार करने वालों को नहीं।...यदि मानते तो...हमारे समाज और देश का यह हाल नहीं होता।