उदय केसरी
गणतंत्र दिवस पर जहां देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली में भारत की आन-बान व शान की रक्षा करने वाली सेनाओं ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया, वहीं इससे ठीक एक दिन पहले देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में देश में एकता, समानता और बंधुत्व को तहस-नहस करने वाली राज ठाकरे की सेना ने भी अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। या कहें कि जहां देश में गणतंत्र दिवस का 61वां वर्षगांठ मनाया गया, वहीं एक दिन पूर्व मुंबई में ‘राज’तंत्र दिवस मनाया गया। इस बार गणतंत्र दिवस से पूर्व आतंकी वारदात की आशंका के मद्देनजर पूरे देश को हाईअलर्ट कर दिया गया था। चप्पे-चप्पे पर सेना व पुलिस बल के जवानों की नजर पैनी थी। यह सब देश में बाहर से संचालित आतंकियों के खिलाफ की गई सुरक्षा व्यवस्था थी। इसमें हमारा देश सफल भी रहा। बड़े शान से हमने गणतंत्र दिवस मनाया और आतंकियों के हर मंसूबे पर पानी फिर गया। लेकिन दूसरी तरफ देश के अंदर सक्रिय सफेदपोश गद्दारों से हम कब निपटेंगे, जो एकता, समानता और बंधुत्व को तहस-नहस करने पर तुले हैं। मुंबई के राज ठाकरे को क्या देश का एक सफेदपोश गद्दार कहना गलत होगा? जो मुंबई के गैर-मराठी भाषी टैक्सी ड्राइवरों को मराठी ककहरे की किताबें बांटते हुए खुलेआम यह धमकी देता है कि 40 दिनों के अंदर मराठी नहीं सीखे तो घर लौटने के लिए तैयार हो जाना। आखिर यह क्या है? यही नहीं इसके पक्ष में बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर चिपकाए गये हैं। यह क्या भारतीय गणतंत्र का खुलेआम उल्लंघन नहीं?
गणतंत्र दिवस पर जहां देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली में भारत की आन-बान व शान की रक्षा करने वाली सेनाओं ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया, वहीं इससे ठीक एक दिन पहले देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में देश में एकता, समानता और बंधुत्व को तहस-नहस करने वाली राज ठाकरे की सेना ने भी अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। या कहें कि जहां देश में गणतंत्र दिवस का 61वां वर्षगांठ मनाया गया, वहीं एक दिन पूर्व मुंबई में ‘राज’तंत्र दिवस मनाया गया। इस बार गणतंत्र दिवस से पूर्व आतंकी वारदात की आशंका के मद्देनजर पूरे देश को हाईअलर्ट कर दिया गया था। चप्पे-चप्पे पर सेना व पुलिस बल के जवानों की नजर पैनी थी। यह सब देश में बाहर से संचालित आतंकियों के खिलाफ की गई सुरक्षा व्यवस्था थी। इसमें हमारा देश सफल भी रहा। बड़े शान से हमने गणतंत्र दिवस मनाया और आतंकियों के हर मंसूबे पर पानी फिर गया। लेकिन दूसरी तरफ देश के अंदर सक्रिय सफेदपोश गद्दारों से हम कब निपटेंगे, जो एकता, समानता और बंधुत्व को तहस-नहस करने पर तुले हैं। मुंबई के राज ठाकरे को क्या देश का एक सफेदपोश गद्दार कहना गलत होगा? जो मुंबई के गैर-मराठी भाषी टैक्सी ड्राइवरों को मराठी ककहरे की किताबें बांटते हुए खुलेआम यह धमकी देता है कि 40 दिनों के अंदर मराठी नहीं सीखे तो घर लौटने के लिए तैयार हो जाना। आखिर यह क्या है? यही नहीं इसके पक्ष में बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर चिपकाए गये हैं। यह क्या भारतीय गणतंत्र का खुलेआम उल्लंघन नहीं?
राज ठाकरे को किस संविधान ने यह अधिकार दे दिया कि वह तय करें कि मुंबई में कौन रहेगा और कौन नहीं। सबसे बड़ी विडंबना तो यह कि कई दिनों से सोये हुए राज ठाकरे को यह मुद्दा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चौहान ने ही कुछ दिन पहले थाली में परोस कर दिया था, जब चौहान ने मुंबई के सभी टैक्सी ड्राइवरों के लिए मराठी बोलना, पढ़ना व लिखना अनिवार्य करने का बयान दिया था। हालांकि इस बयान पर उठे सवाल से डरकर चौहान ने दूसरे ही दिन यू-टर्न ले लिया। लेकिन राज ठाकरे को पका-पकाया मुद्दा मिल गया।
इस संदर्भ में एक और खबर देश में भाषाई भेदभाव को बढ़ावा देने वाली है। यह खबर गुजरात हाईकोर्ट के एक निर्णय से संबंधित है, जिसमें कहा गया कि हिन्दी देश की राष्ट्र भाषा नहीं है, इसलिए किसी कंपनी को बाध्य नहीं किया जा सकता है कि वे अपने उत्पादों के उपर विवरण हिन्दी में लिखे। सवाल है कि यदि देश के संविधान में हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं है तो क्या यह जानकारी हमें कोर्ट में पीआईएल दायर करने के बाद होगी? पहली कक्षा से लेकर बाद के कई कक्षाओं तक भारतीय छात्रों को राष्ट्र भाषा हिन्दी, हिन्दी के राष्ट्रीय कवि, राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पशु आदि की जानकारी दी जाती रही है। यदि हिन्दी राष्ट्र भाषा नहीं है तो इसे अब तक क्यों पढ़ाया जाता रहा है। दशकों से इतनी बड़ी भूल कैसे हो सकती है? जाहिर है ऐसी भूल नहीं हो सकती है, जो भाषा भारत देश का सहज स्वभाव हो, उसे संविधान में किस प्रकार से दर्जा मिला है, उसकी कानूनी व्याख्या से क्या अर्थ निकलता है, इसकी क्या परवाह करे कोई। हो सकता है कि गुजरात हाईकोर्ट की व्याख्या में यह सही हो, पर क्या हिन्दीभाषी पिता के वृद्ध हो जाने पर उसके अंग्रेजीदां पुत्र को पिताजी का दर्जा दे दिया जाता है? यदि न्यायपालिका महज अपने मुव्वकिल को जिताने के लिए चालाक वकीलों की तकनीकी दलीलों पर चलती है, तो यही समझा जाएगा कि न्यायपालिका को देश की राष्ट्रीय भावना से कोई सरोकार नहीं है।
ऐसी परिस्थिति में महज राजनीतिक लाभ और सत्तासुख के लिए जनता के बीच कभी भाषा, तो कभी जाति, कभी क्षेत्र और कभी धर्म को मुद्दा बनाकर देश की एकता, समानता और बंधुत्व को तहस-नहस करने वाले राज ठाकरे सरीखे नेताओं को बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। तब यह कहना गलत नहीं होगा कि देश को जितना खतरा बाहर के आतंकवादियों से है, उससे कहीं ज्यादा खतरा देश के भीतर के गद्दार सफेदपोशों से भी है। आतंकियों से तो फिर भी हम निपट लेंगे, पर राज ठाकरे सरीखे घर के आतंकी से कैसे निपटा जाए?