बुरा तो ‘भ्रष्टाचार’शब्द है, इसे करने वाला नहीं!

उदय केसरी  
 लाभ के लिए अनैतिक कार्य या कहें भ्रष्टाचार अब शायद जायज हो चुका है। समाज में भ्रष्टाचार करने को और भ्रष्टाचारियों को बुरा नहीं माना जाता, बशर्ते इस कृत्‍य को सीधे भ्रष्टाचार और करने वाले को भ्रष्टाचारी नहीं कहा जाए। जानते हैं, ऐसे लोगों में इतनी शर्म भी क्यों बाकी है, कि उन्हें भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारी कहने/कहलाने में बुरा लगता है? क्योंकि समाज में अब भी एक तपका है या कहें, गरीब, अशिक्षित, भोले-भाले लोग बचे हैं, जो ईमानदारी से परिश्रम करके अपने परिवार के लिए भरण-पोषण करते हैं। जो संस्कार और नैतिकता को अब भी सबसे उपर रखते हैं। बेशक, ईमान की खाने वाले लोगों में पढ़े-लिखे और नौकरीशुदा तथा राजनीतिक लोग भी हैं, लेकिन वे अल्पसंख्यक हैं, मगर उनकी इस बदले सामाजिक परिवेश में एक नहीं चलती। उन्हें अपने दफ्तर और अपनी पार्टी में एक कोना पकड़ कर नौकरी बचानी पड़ती है।

भारत के इस बदले सामाजिक परिवेश में भ्रष्टाचार का एक तरह से समाजिकरण हो चुका है। सरकारी नौकरी में नौजवान यह सोचकर भी जाने लगे हैं कि वहां उपरी कमाई की असीमित संभावनाएं हैं और साथ ही कामचोरी की पूरी गारंटी भी। इसी तरह, नेतागिरी में पावरफुल पद पाने की होड़ लगी है। एक बार मौका मिला कि फिर कैसे कोई गली का गुंडा मंत्री बन जाता है, यह आप कभी समझ नहीं पायेंगे। आप सोच रहे होंगे ये क्यों भ्रष्टाचार पर वही पुराना उपदेश दे रहा है, जिसे सुनते-सुनते लोगों के कान पक चुके हैं। इसमें क्या नई बात है? गांधी बाबा अब धरती पर नहीं रहे, वह तो नोटों में विराजमान हो चुके हैं, इसलिए लोगों की श्रद्धा अब नोट वाले गांधी बाबा में हो चुकी है।...पता नहीं गांधी बाबा की आत्मा ऐसे लोगों की श्रद्धा को कैसे स्वीकार करती होगी?

अब आप दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स-2010, मुंबई के आदर्श सोसाइटी अपार्टमेंट और 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस से जुड़े भ्रष्टाचारियों को क्या कहेंगे? ये तो पढ़े-लिखे, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले, तथाकथित सभ्रांत वर्ग के लोग हैं। इन लोगों के नाम तो न्यूज चैनल वालों ने आपको रटवा ही दिये ही होंगे। इसलिए आप उनके स्टैंडर्ड का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं। लेकिन आश्‍चर्य यह है कि इन लोगों को न्यूज चैनल वालों से काफी गुस्सा है, जिन्होंने कोर्ट में अपराध साबित होने से पहले इनके नाम सार्वजनिक कर दिये। यह भी कि इन लोगों का दावा है कि घोटाले में वे शामिल ही नहीं हैं। मसलन, सुरेश कलमाडी, अशोक चव्हाण, ए. राजा, जिनके हाथों से राजनीतिक मजबूरियों के कारण सत्ता छीन ली गई है, लेकिन सजा के तौर पर नहीं ‘नैतिकता’ के आधार पर।

इस ‘नैतिकता’का मतलब क्या है? मेरे विचार में इसका मतलब होता है जनता की आंखों में धूल झोंकना। ताकि जब तक जनता अपनी आंखों को साफ कर फिर से देखने लायक बना ले, तब तक उसी नेता की वही ‘नैतिकता’किसी दूसरे पद पर बैठने के लिए ‘योग्यता’बन जाए। अब चाहें दूसरा पद पार्टी संगठन की ऊंची कुर्सी ही क्यों न हो। भ्रष्टाचार करने के लिए वहां तो खुली छूट होती है और फिर संसद या विधानसभा की कुर्सी तो है ही न....’नोट के लिए वोट’ का मौका तो अगले चुनाव तक कोई थोड़े छीन सकता है। इसी तरह, रसूखदार बड़े नौकरशाहों को भ्रष्टाचार का खुलासा या कोई गबन होने पर ‘कार्रवाई’ के नाम पर पहले तो ‘तबादला’कर दिया जाता है और यदि जनता उससे भी न मानी तो उसे ‘निलंबित’किया जाता है। सवाल फिर उठता है कि इस ‘तबादले’और ‘निलंबन’का मतलब क्या है? आप अपने दिमाग पर जोर डालकर याद करें कि हाल के वर्षों में आपने कभी ऐसी खबर पढ़ी है कि किसी आईएएस और आईपीएस या राज्य स्तरीय सिविल अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में नौकरी से निकाल कर जेल में डाल दिया गया। यदि होगा तो अपवाद स्वरूप ही। मसलन, रूचिका हत्याकांड में देख लें, 17 साल से अधिक वक्त बीत जाने के बाद भी उस पुलिस अधिकारी राठौर को जेल में नहीं डाला जा सका। बावजूद इसके कि यह मामला एक बच्ची के साथ छेड़छाड़ और उसके परिणामस्वरूप उस बच्ची की मौत का है। यही नहीं, मीडिया में इस मामले को लगातार उठाया जाता रहा है। और भी कई आईएएस और आईपीएस अधिकारी हैं, जो अपने पद की शक्ति का दुरूपयोग करने, रिश्‍वत लेने, आमदमी से अधिक दौलत जमा करने के मामले में आरोपी हैं, पर समय गुजरता जाता है और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। बल्कि वे तो बाद में राजनीतिक दल में शामिल हो जाते हैं, जहां उनकी बड़ी पूछ होती है।

अब आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि शीर्ष नेता व अधिकारी स्तर पर भ्रष्टाचार का आलम यह है, तो नीचले स्तर पर यानी कार्यकर्ता और कर्मचारी स्तर पर भ्रष्टाचार का रूप कैसा होगा। छोटे-बड़े हर काम के लिए ‘रिश्‍वत’लेना उस काम के लिए ‘फीस’लेने जैसा मान्य हो चुका है। और इससे छोटा हो या बड़ा, कोई भी सरकारी विभाग अछूता नहीं है।

शायद आपमें से कई के मन में अंततः यह सवाल उठे कि आखिर चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला कैसे बढ़ गया है?...उनके लिए मेरा जवाब है- क्योंकि हम केवल ‘भ्रष्टाचार’ शब्द को बुरा मानते हैं, भ्रष्टाचार करने वालों को नहीं।...यदि मानते तो...हमारे समाज और देश का यह हाल नहीं होता।

नफरत की आग में जलता देश

उदय केसरी  
एक तरफ, कश्‍मीर घाटी में आग लगी है। अलगावादी दल हुर्रियत और सत्‍तासीन नेशनल कांफ्रेंस अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं। घाटी के युवा भी पत्‍थरबाजी में रोज नये रिकार्ड बना रहे हैं। दशा ऐसी है कि केंद्र सरकार उहापोश की स्थिति में दिख रही है। दूसरी तरफ, अयोध्‍या में आग लगने की जबर्दस्‍त आशंका है। मंदिर-मस्जिद विवाद पर हाईकोर्ट का फैसला आने की तारीख 24 सितंबर तय है। आग की आशंका ऐसी की उत्‍तर प्रदेश सरकार केंद्र से इतनी बड़ी संख्‍या में सुरक्षा बलों की मांग कर रही है कि उसे पूरा करने में केंद्र असमर्थ है, क्‍योंकि दिल्‍ली में हाल में कॉमनवेल्‍थ गेम शुरू होने वाला है। इन दो राष्‍ट्रीय महासमस्‍याओं के बीच देश में त्‍योहारों का मौसम शुरू हो गया है।

अब आम भारतीय को समझ लेना चाहिए कि भारत में अमन चाहिए तो न तो नेता, न ही पुलिस और न ही सैन्‍य बल कुछ सकते हैं। ये सब कहीं न कहीं कठपुतली हो चुके हैं और इनमें से किसी की डोर सत्‍ता के स्‍वार्थी तत्‍वों के हाथों में, तो किसी की डोर धन के लालची लोगों के हाथों में है। यही नहीं हम-आप को भी ऐसे स्‍वार्थी तत्‍व कभी धर्म, तो कभी जाति और कभी क्षेत्र के नाम पर अपने इशारों पर नचाते रहते हैं और हम इनको समझे बगैर अपने ही लोगों के खिलाफ पत्‍थर उठा लेते हैं।

हम-आप को ऐसी बातें बहुत देर में समझ में आती हैं, जबकि आंखों के सामने स्‍वार्थी तत्‍व अपने खेल-खेलते रहते हैं। मसलन, बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाला है। राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव अपराधी सहाबुद्दीन के दरवाजे पर दस्‍तक देता है गठजोड़ करने के लिए। 17 सालों बाद अयोध्‍या विवाद पर समाधान की दिशा में अदालत का फैसला आने की घड़ी आते ही भाजपा और उसके सहयोगी संगठन विवाद को विवाद बनाये रखने की तैयारी में आग उगलना शुरू कर चुके हैं। उधर बाबरी मस्जिद एक्‍शन कमेटी भी फैसला के पक्ष में नहीं आने पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का मन बना चुकी है। यानी राम और अल्‍ला के नाम विवाद का कोई हल निकलना असंभव ही लगता है। हां, एक चीज तय है और वह है-एक बार फिर राम और अल्‍ला नाम की बदनामी। इनके नाम पर खून-खराबा, दहशतगर्दी, तोड़फोड़। ऐसे जख्‍म सह-सहकर धर्मस्‍थली अयोध्‍या का आजतक सही विकास नहीं हो सका है। कह सकते हैं अयोध्‍या की भी हालत कश्‍मीर घाटी की तरह ही है। जहां रहने वाले आम आदमी के दर्द को कोई समझना नहीं चाहता, बस सब अपनी राजनीति उनपर थोपकर उन्‍हें गुमराह करते रहते हैं।

कश्‍मीर घाटी में तैनात सैन्‍य बलों के विशेषाधिकार को वापस लेने की मांग वहां के युवा मुख्‍यमंत्री उमर अब्‍दुल्‍ला ने की है। जिसपर केंद्र सरकार आम राय बनाने की कोशिश में कैबिनेट की बैठक कर कोई राय नहीं बन सकी है अब इसके लिए सर्वद‍लीय बैठक की जाएगी। लेकिन कश्‍मीर समस्‍या का क्‍या यही हल है? सैन्‍य बलों के विशेषाधिकार वापस ले लिये जाने के बाद क्‍या उमर अब्‍दुल्‍ला इस बात की गारंटी लेंगे कि घाटी में आतंकवादियों की सक्रियता नहीं बढ़ेगी।...नहीं बिल्‍कुल नहीं। इसी तरह, अयोध्‍या में राममंदिर बनाने के लिए केंद्र सरकार यदि कानून बना दे तो क्‍या अयोध्‍या समेत पूरे देश में कोई दंगा-फसाद नहीं होगा, इसकी गारंटी भाजपा या विश्‍व हिन्‍दू परिषद लेगी? नहीं, बिल्‍कुल नहीं। तो फिर आप और हम खुद ही विचार करके देखें कि ऐसी मांगों के पीछे कितनी बड़ी स्‍वार्थ की राजनीति छिपी है।

सावधान ! धर्म के नाम पर किसी बहकावे में न आएं

उदय केसरी  
अयोध्‍या का मुद्दा फिर से हवा में तैरने लगा है। इसे हवा देने के लिए स्‍वार्थी पार्टी और संगठन तैयार हैं। इन पार्टियों और संगठनों को न राम की मर्यादा से मतलब है और न अल्‍ला की शांतिप्रियता से बस इन्‍हें सत्‍ता की कुर्सी से मतलब है, जो आपके वोटों से उन्‍हें प्राप्‍त होती है। इसलिए वे आपको आपके वोट के लिए एक बार फिर से राम या इस्‍लाम के नाम पर गुमराह करने की रणनीति बनाने में लगे हैं। ऐसे में आपको सर्तक और जागरूक रहने की बेहद जरूरत है। आपको यह ध्‍यान रखने की जरूरत है कि ईश्‍वर एक है और उसका कण-कण वास में है, धर्म, जाति और पंथ सब इंसानों के बनाये रास्‍ते हैं ईश्‍वर तक पहुंचने के लिए और समाज के सुप्रबंधन के लिए। आस्‍था नितांत निजी मामला है इसपर अपने दिल व दिमाम के सिवाय किसी अन्‍य पर विश्‍वास नहीं करना चाहिए। इसलिए रामजन्‍मभूमि मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद पर अपनी कोई राय बनाने से पहले इन तथ्‍यों को जान लें।-
विवाद के बारे में
• 1528 में विवादित राम जन्म भूमि पर मस्जिद बनाया गया था। कुछ हिन्दुओं का कहना था कि यहां भगवान राम का जन्म हुआ था।
• हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस जमीन को लेकर पहली बार 1853 में विवाद हुआ।
• 1859 में अंग्रेजों ने विवाद को ध्यान में रखते हुए पूजा व नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा।
• 1949 में अन्दर के हिस्से में भगवान राम की मूर्ति रखी गई। तनाव को बढ़ता देख सरकार ने इसके गेट में ताला लगा दिया।
• सन् 1986 में जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दिया। मुस्लिम समुदाय ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की।
• सन् 1989 में विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित स्थल से सटी जमीन पर राम मंदिर की मुहिम शुरू की।
• 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई।
परिणामस्वरूप देशव्यापी दंगों में करीब दो हजार लोगों की जानें गईं।
इस जांच के लिए इस घटना के दस दिन बाद 16 दिसम्बर 1992 को लिब्रहान आयोग गठित किया गया।
• लिब्रहान आयोग को 16 मार्च 1993 को यानि तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा गया था, लेकिन आयोग ने रिपोर्ट देने में 17 साल लगाए।
• पिछले 17 सालों में इस रिपोर्ट पर लगभग 8 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं।
• आयोग से जुड़े एक सीनियर वकील अनुपम गुप्ता के अनुसार 700 पन्नों के इस रिपोर्ट में यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह के नाम का उल्लेख 400 पन्नों में है, जबकि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की चर्चा 200 पन्नों पर की गई है।
रामजन्‍मभूमि अयोध्‍या के बारे में
• रामजन्मभूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएं तट पर बसा है। प्राचीन काल में इसे कौशल देश कहा जाता था।
• अयोध्या मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहां आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहां आदिनाथ सहित पांच र्तीथकरों का जन्म हुआ था।
• हिन्दुओं के मंदिरों के अलावा अयोध्या जैन मंदिरों के लिए भी खासा लोकप्रिय है। जैन धर्म के अनेक अनुयायी नियमित रूप से अयोध्या आते रहते हैं।
• अयोध्या में जहां जिस र्तीथकर का जन्म हुआ था, वहीं उस र्तीथकर का मंदिर बना हुआ है। इन मंदिरों को फैजाबाद के नवाब के खजांची केसरी सिंह ने बनवाया था।
• भारतवर्ष में कई राज्य थे जो अक्सर आपस में लड़ते रहते थे जिसका लाभ उठाकर बाबर ने भारत पर आक्रमण किया था और अपने विजयोल्लास के उपलक्ष्य में बाबरी मस्जिद बनवाया था।
• बाबरी मस्जिद मन्दिर तोड़कर बनी अथवा बिना तोड़े बनी, कोई ठोस प्रमाण नहीं है। कुछ विज्ञानी बाबरी मस्जिद के नीचे स्तूप का रहना बताते हैं जो बौद्ध धर्म का प्रतीक है।
• बौद्ध धर्मी अपना दावा नहीं ठोक पाये मगर हिन्दू धर्मी अपना दावा ठोक दिया कि बाबरी मस्जिद में ही राम ने जन्म लिया था।
• विवाद का आधार रामायण अथवा रामचरितमानस हुआ क्योंकि वाल्मीकि एवं तुलसीदास ने कथा के माध्यम से यह बतला दिया कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्म अयोध्या में हुआ था मगर इन कवियों ने एक निश्चय स्थान नहीं बता पाये थे मगर यही अनुमान स्वरूप राम की जन्मस्थली बाबरी मस्जिद के बीच निकल आयी।
हिन्‍दू धर्म के बारे में
• हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
• आर्यों की वैदिक सभ्‍यता से इस आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म लगभग १७०० ईसा पूर्व हुआ।
• हिन्‍दू धर्म के मूल तत्‍व हैं-ईश्वर एक नाम अनेक, ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है, ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें, हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर, हिन्दुओं में कोई एक पैगम्बर नहीं है, बल्कि अनेकों पैगंबर हैं, धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर बार-बार पैदा होते हैं, परोपकार पुण्य है दूसरों के कष्ट देना पाप है, जीवमात्र की सेवा ही परमात्मा की सेवा है, स्त्री आदरणीय है, सती का अर्थ पति के प्रति सत्यनिष्ठा है, हिन्दुत्व का वास हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में, पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता, हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी, आत्मा अजर-अमर है, सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र, हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं, हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है, हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है।
• माना जाता है कि राम का जन्म प्राचीन भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय का अनुमान सही से नही लगाया जा सका है, परन्तु विशेषज्ञों का मानना है कि राम ( भगवान विष्णु जी के अवतार माने जाते है )का जन्म तकरीबन आज से ९,००० वर्ष (७३२३ ईसा पूर्व) हुआ था।
इस्‍लाम धर्म के बारे में
• इस्लाम शब्द अरबी भाषा का शब्द है जिसका मूल शब्द सल्लमा है जिस की दो परिभाषाएं हैं (१) शान्ति (२) आत्मसमर्पण।
• इस्लाम एकेश्वरवाद को मानता है। इसके अनुयायियों का प्रमुख विश्वास है कि ईश्वर केवल एक है और पूरी सृष्टि में केवल वह ही महिमा (इबादत) के योग्य है।
• इस्लाम का उदय सातवीं सदी में अरब प्रायद्वीप में हुआ।
विवाद में शामिल राजनीतिक पार्टियां और संगठन
कुछ व्यक्ति, पार्टी व संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं और कुछ इसे धर्म निरपेक्ष राष्ट्र रखना चाहते हैं, पर कोई भी सत्‍ता की कुर्सी और निजी हितों से समझौता करके देशहित में और मानवता के हित में इस विवाद का हल नहीं निकालना चाहते, बस आग लगाकर अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं।
• कांग्रेस
• बाबरी मस्जिद एक्‍शन कमेटी
• विश्‍व हिन्‍दू परिषद
• राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ
• भारतीय जनता पार्टी
• बजरंग दल
विवाद सुलझाने की कोशिश
• 1859 में अंग्रेजों ने विवाद को ध्यान में रखते हुए पूजा व नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा।
• 1990 में देश के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बाबरी मस्जिद एक्‍शन कमेटी और विश्‍व हिन्‍दू परिषद को आमने सामने बिठाकर भैरो सिंह शेखावत और शरद पवार निगरानी में बातचीत से हल निकालने की प्रक्रिया शुरू की। कई दौर की बातचीत के बाद यह तय हुआ कि दोनों पक्ष अपने-अपने कागज और सबूत पेश करें। इसके बाद बाबरी मस्जिद एक्‍शन कमेटी ने तो अपने दस्‍तावेज पेश किये लेकिन विश्‍व हिन्‍दू परिषद ने दस्‍तावेज नहीं पेश किये। इस तरह यह बातचीत विफल रहा।
• अब यह मामला कोर्ट में है, जिसका फैसला इसी माह आने वाला है।
विवाद का दुष्‍प्ररिणाम
• बाबरी मस्जिद तोड़े दिये जाने के बाद यह विवाद काफी संवेदनशील हो गया। इसके कारण देश के कई शहरों और क्षेत्रों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे होने लगे। इसी लपेट में ईसाई धर्म एवं हिन्दू धर्म में कटुता बढ़ी। कई चर्चों को नष्ट कर डाला गया यह झगड़ा बढ़ते-बढ़ते आतंक में बदल गया है।
• 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई।
परिणामस्वरूप देशव्यापी दंगों में करीब दो हजार लोगों की जानें गईं।
ध्‍यान रहे
उपर्युक्‍त सभी तथ्‍यों को जानने के बाद आप विचार करें कि क्‍या हमारा धर्म, हमारी आस्‍था, हमारा ईश्‍वर महज एक मंदिर या मस्जिद का मोहताज है? क्‍या हमारे ईश्‍वर अपने मंदिर या मस्जिद के लिए हजारों लोगों की मौत को सही करार देंगे? नहीं न, तो इसके नाम पर लोगों को भड़काने वाले और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले राजनीतिक दल या संगठनों या कमेटी के लोगों को मुंहतोड़ जवाब देकर अपने असल धर्म का पूरी निष्‍ठा से निर्वाह करें।

मीडिया के दांत दिखाने के कुछ, खाने के कुछ

उदय केसरी  
परिवर्तन संसार का नियम है। सत्‍य वचन है, पर कैसा परिवर्तन? अच्‍छा या बुरा? हममें से ज्‍यादातर लोगों में परिवर्तन को लेकर सैद्धांतिक सोच प्राय: एक जैसी होती है। यानी अच्‍छे परिवर्तन की। लेकिन क्‍या हममें से सभी व्‍यावहारिक सोच भी ऐसी ही होती है? नहीं न। यही तो दुनिया है और व्‍यावहारिक सोच की विविधता या कहें जटिलता, जो इस दुनिया के कमोबेश सभी क्षेत्रों में पाई जाती है। एक पुरानी कहावत है-हा‍थी के दांत दिखाने के कुछ, खाने के कुछ। दुनिया में परिवर्तन का मतलब भी कुछ ऐसा ही है। दिखाने के दांत सिद्धांत हैं तो खाने के दांत व्‍यावहारिकता है। दुनिया के लगभग तमाम क्षेत्रों में ऐसे परिवर्तन को सैद्धांतिक रूप में विकास कहा जाता है, भलें ही वह व्‍यावहारिक रूप में विनाश के बराबर हो, मगर इसे कहा नहीं जाता।...तो फिर इतना बड़ा मीडिया का क्षेत्र इस परिवर्तन से कैसे अछूता रह सकता है। बावजूद इसके कि यही मीडिया क्षेत्र दुनिया के अन्‍य सभी क्षेत्रों को सिद्धांतों के पाठ पढ़ाने का कारोबार करता है।

ध्‍यान रहे, यहां हम जिस मीडिया क्षेत्र की बात कर रहे हैं, उसमें दूर-संचार और मनोरंजन मीडिया को परे रखा गया है और इसमें केवल समाचार व विचार मीडिया में परिवर्तन की बातें शामिल हैं।...तो सवाल है कि इस मीडिया क्षेत्र में हो रहे नित-नये परिवर्तन कैसे हैं-अच्‍छे या बुरे? सैद्धांतिक रूप में आप और हम कह सकते हैं कि आजादी के बाद से लगातार मीडिया काफी सशक्‍त हो रहा है-धन के मामले में और संसाधन के मामले में भी। सबकुछ सुपरफास्‍ट हो चुका है। बासी तो जैसे कुछ रहा ही नहीं है। और अब तो न्‍यूज चैनल ही नहीं, अखबार भी ‘लाइव’ खबर देने लगे हैं! लेकिन हम किस सिद्धांत के आधार पर इस परिवर्तन को अच्‍छा बता रहे हैं? मीडिया ज्ञान देने वाली किताबों में तो किसी सिद्धांत को सर्वमान्‍यता हासिल ही नहीं है। किताबों में समाचार संकलन, लेखन, संपादन और प्रकाशन के सिद्धांत कमोबेश नये-नये रास्‍ते ही दिखाते हैं।...तो फिर सैद्धांतिक रूप में जिस परिवर्तन को ऊपर हम रेखांकित कर रहे हैं, वह क्‍या है? सच कहें तो यह हा‍थी के दिखाने के दांत हैं।

तो क्‍या इस परिवर्तन के पीछे की व्‍यावहारिकता या सच कुछ और है? जाहिर है, जब मीडिया किसी एक सर्वमान्‍य सिद्धांत पर चलता ही नहीं है, तो इस क्षेत्र के तमाम महा‍र‍थियों के सिद्धांत और व्‍यावहारिकता भी अलग-अलग होंगे। और यह भी जरूरी नहीं कि उनके सिद्धांतों और व्‍यावहारिकता में समानता हो। मसलन, इंडिया टीवी जैसे न्‍यूज चैनल के प्रमुख रजत शर्मा का एक टॉक-शो का नाम है ‘आप की अदालत’। सैद्धांतिक रूप में इस शो का पूरा स्‍वरूप अदालत जैसा है। इसमें कटघरा, मुजरिम, वकील, जज व तथा‍कथित जनता सब होते हैं और सवालों की फेहरिस्‍त के साथ स्‍वयं रजत शर्मा भी वकील के रूप में होते हैं। लेकिन इस दिखावटी अदालत की कार्यवाही या कहें व्‍यावहारिकता वास्‍तविक अदालत की कार्यवाही से पूर्णत: अलग होती है। यह तो फिल्‍मी अदालती कार्यवाही से भी मेल नहीं खाती। यहां मुजरिम की पैरवी करने वाला कोई वकील नहीं होता, तब भी सारे मुजरिम बाइज्‍जत बरी हो जाते हैं, क्‍योंकि इस अदालत में आने वाले सभी मुजरिम पैसे देकर बुलाये गए सेलिब्रिटी होते हैं।...इंडिया टीवी के सिद्धांत और व्‍यावहारिकता के बारे में यह तो सबसे सभ्‍य उदाहरण था। बाकी आप खुद ही देख सकते हैं। इसके बावजूद टीआरपी के मामले में यह अन्‍य अग्रणी न्‍यूज चैनलों से कम नहीं है। अब इसका मतलब यह नहीं कि अन्‍य न्‍यूज चैनलों के सिद्धांत और व्‍यावहारिकता में अंतर नहीं है। आजकल तो अन्‍य अग्रणी न्‍यूज चैनलों पर भी दुनिया के महाविनाश की घड़ी बड़ी तेजी से घुमाई जा रही है। बिना यह सोचे कि भारत की आधी से अधिक अनपढ़ जनता पर इसका क्‍या प्रभाव पड़ेगा।

सिद्धांत और व्‍यावहारिकता में फर्क रखने वाले मीडिया हाउसों में राष्‍ट्रीय व क्षेत्रीय न्‍यूज चैनल ही नहीं, अखबार भी शामिल हैं। मध्‍यप्रदेश की करीब पांच साल पुरानी एक घटना यहां उल्‍लेखनीय है- 2005 के अक्‍टूबर माह की 20 ता‍रीख को टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में देश भर के टीवी चैनलों ने अपने सारे कार्यक्रमों को दरकिनार कर चौसर के पासे फेंक कर लोगों का भविष्य बताने वाले मध्‍यप्रदेश के एक गांव सेहरा के 85 वर्षीय निवासी कुंजीलाल की आने वाली मौत का पलक-पांवडे बिछा कर 24 घंटे लाइव टेलीकास्ट किया। यही नहीं एक-दो दिन पहले से अखबारों ने भी मौत का काउंटडाउन छापना शुरू कर दिया था। लेकिन उसकी मौत नहीं हुई। वह कुंजीलाल अपनी ही मौत के लाइव टेलीकास्ट की घटना से आज भी इतना दुखी है कि मीडिया वालों से बात तक करना पसंद नहीं करता। इस घटना का उल्‍लेख यहां बहुचर्चित फिल्‍म ‘पीपली लाइव’ के कारण भी किया गया, ताकि आपको फिल्‍म की कहानी की सच्‍चाई का भी पता चले, अन्‍यथा इसकी जगह हाल की एक घटना- ‘राहुल ने डिंपी को मारा’ का पूरे दिन टेलीकास्‍ट किया जाना भी मीडिया के दो तरह के दांतों को स्‍पष्‍ट करने के लिए पर्याप्‍त है।
दरअसल, मीडिया क्षेत्र में परिवर्तन के बारे में हमारी और आपकी सोच की गलती है। हम अब भी मीडिया को आजादी और भारत में वैश्विक उदारवाद की नीति लागू होने के पहले वाली सोच और सिद्धांत के आधार पर देखते हैं, जब पत्रकार की छवि ईमानदार और समाज के पहरेदार की थी और उसकी भेष-भूसा बढ़ी दाड़ी, खद्दर का कुर्ता और झोले वाली होती थी। अब तो यह इतिहास हो चुका है और अतीत के गर्त में दफन हो चुकी है वह पत्रकारिता, जिसकी आग माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, धर्मवीर भारती जैसों के दिलों में जला करती थी। अब तो परिवर्तन का मतलब महज कारोबारी फायदा है। जैसे पत्रकारिता शब्‍द का स्‍थान अब एक छोटे शब्‍द मीडिया ने ले‍ लिया है, वैसे ही मीडिया के रूप में पत्रकारिता का ईमान भी छोटा हो गया है। इस मीडिया क्षेत्र में ‘सच’ के नाम पर अधूरे सच या कहें मतलबी सच का करोबार होता है। ‘इम्‍पैक्‍ट’ के नाम पर अपना कारोबारी प्रभाव दिखाया जाता है। इससे समाज पर पड़ने वाले इम्‍पैक्‍ट का ज्‍यादा ख्‍याल नहीं रखा जाता। आज के मीडिया हाउस तो अपने यहां काम करने वाले मीडियाकर्मियों और कर्मचारियों का तो ख्‍याल ही नहीं रख पाते तो वे क्‍या समाज और देश का ख्‍याल करेंगे। यह बताने की जरूरत नहीं की जितनी जातपात, भेदभाव, बटरबाजी, जैकवाद, शोषण अन्‍य क्षेत्रों में होता है, उसमें भी मीडिया क्षेत्र पीछे नहीं है।

अब ऐसे हालात में परिवर्तन के सिद्धांत और व्‍यावहारिकता का अंतर कब खत्‍म होगा...यह तो ईश्‍वर ही बता सकते हैं।

महंगाई के लिए विपक्ष भी जिम्‍मेदार

उदय केसरी  
बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि हम उस भारत के वासी है जहां की संस्‍कृति व परंपरा तो गौरवशाली है, पर राजनीति बड़ा दुखदाई है। महंगाई की मार से आम जनता त्राहिमाम है, पर देश की सरकार आंखें बंद कर रखी है। प्रधानमंत्री अर्थशास्‍त्री माने जाते हैं, पर वे इस नियमित महंगाई का अर्थ नहीं समझ पा रहे हैं। कृषि एवं खाद्य आपूर्ति मंत्री शरद पवार तो आंखें खोलना ही नहीं चाहते हैं। ज्‍यादा जगाने पर वह कह देते हैं-‘मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है’ तो कभी कहते हैं-‘मैं कोई ज्‍योतिषी नहीं हूं कि महंगाई कब थमेगी, यह बता दूं’ यानी इनके होने, न होने का कोई मतलब नहीं रह गया है। तो कौन हैं जनता के त्राहिमाम को सुनने व देखने वाला। क्‍या विपक्षी पार्टियां? काश, इस अंधी सरकार में विपक्ष की आंखों पर स्‍वार्थ और राजनीतिक लाभ का चश्‍मा नहीं लगा होता। तो महंगाई पर भाजपा का भारत बंद और महंगाई के विरोध में करोड़ों हस्‍ताक्षर वाले पत्रों को लेकर राष्‍ट्रपति की शरण में जाना शायद सार्थक होता।
इस महंगाई से गरीब व श्रमजीवी ही नहीं औसत अमीर भी परेशान हैं। गृह‍स्‍थी का बजट चिंताजनक स्‍तर तक बिगड़ चुका है। ऐसे में, परेशान जनता की आवाज उठाने और उन्‍हें महंगाई से राहत दिलाने के लिए हरसंभव कोशिश करने की जरूरत है, न कि केवल रा‍जनीति करने की। यदि महंगाई के खिलाफ भाजपा समेत अन्‍य बड़े विपक्षी पार्टियों का विरोध असल है तो वे इसके विरोध और इससे राहत देने की शुरूआत अपने घर, अपने प्रदेशों, जहां उनकी सरकारें हैं, वहां से क्‍यों नहीं करतीं। य‍दि केंद्र सरकार अंधी हो गई है तो क्‍या केवल केंद्र से जुबानी जंग करने से जनता को राहत मिल जाएगी। कम से कम जिन चीजों पर राज्‍य सरकारों का नियंत्रण है, उसमें तो महंगाई रोक सकती है। लेकिन ऐसी कोशिश विपक्षी दलों की सरकारों ने अपने राज्‍यों में नहीं की है। बल्कि वह तो पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने के बाद भी उस पर वैट दरों को भी बढ़ा रहे हैं। राज्‍यों में सड़ते अनाजों की परवाह नहीं है। राज्‍य से कृषि विकास पर घोटाले की ही बस खबरें आती हैं, विकास की नहीं। कालाबाजारियों, जमाखोरों को पार्टी कार्यकर्ता बना दिया गया है।...तो क्‍या महंगाई के इन कारकों की सफाई पहले अपने घर में ही नहीं करनी चाहिए? केवल जुबानी-बदजुबानी राजनीति या विरोध-प्रदर्शन करने से क्‍या कभी महंगाई जाएगी?
लेकिन इस सवाल पर हमारे देश की विपक्षी पार्टियां कभी सोचती ही नहीं, क्‍योंकि इसपर सोचना, वे अपने पैर पर खुद कुल्‍हाड़ी मारने के बराबर समझती हैं। अरे, भई जनता तो जनता होती है, वही केंद्र सरकार के लिए वोट देती है और वही राज्‍य सरकार के लिए भी।...और कौन सदा राज्‍य पर शासन करते रहना चाहता है, सभी दल तो केंद्र की सत्‍ता पर कब्‍जा जमाना चाहते हैं, ऐसे में यदि राज्‍य की जनता को राहत दे दिये तो उन्‍हें केंद्र के खिलाफ वोट डालने के लिए कैसे तैयार कर पायेंगे।...इसलिए केंद्र सरकार के नाम पर महंगाई और बढ़ा दो और जुबानी जंग भी ताकि जनता महंगाई की मार से मरने लगे। तभी तो केंद्र सरकार को गिराने का मौका मिलेगा।...ऐसी सोच के साथ अपने देश की विपक्षी पार्टियां राजनीति करने लगी हैं। यानी जनता की फिक्र न सरकार को है और न ही सरकार की नीतियों का हर दिन विरोध करने वाले विपक्ष को। सबको बस सत्‍ता की कुर्सी की चिंता है। पिछले दिनों एक खबर आई कि शिवसैनिकों ने पुणे में महंगाई का विरोध करने के दौरान एक दूध के टैंकर में भरे हजारों लीटर दूध पानी की तरह रोड पर बहा दिये। क्‍या ऐसे विरोध से महंगाई कम होगी या फिर और बढ़ेगी...यानी जनता की आवाज बनने का ढोंग करने वाली विपक्षी पार्टियों को जनता की परेशानी बढ़ाने में ही अपना राजनीतिक फायदा अधिक दिखता है।
तो फिर, देश की जनता महंगाई के जिम्‍मेदार केंद्र की सरकार और भ्रष्‍ट विपक्षी पार्टियों के बीच खुद को कैसे बचा पायेगी? यह सवाल अहम है। इस पर भारत की हमें निजी स्‍वार्थों से उपर उठकर सोचने की जरूरत है। जरूरत है महंगाई और महंगाई के पोषक सत्‍ता पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ के भ्रष्‍ट राजनीतिकों, अफसरों व दलालों को गैर राजनीतिक जनांदोलन के जरिये मार भगाने की।

कैसे हो गए हैं हम और हमारा देश

उदय केसरी  
 कैसा होता जा रहा है अपना देश और कैसे हो गए हैं अपने देश के लोग। भारत रूपी समाज में कोई ऐसा समूह नहीं बचा जहां भ्रष्टाचार ने अपने पैर नहीं जमा रखे हों। किसी भी वर्ग पर आंख मूंद कर विश्‍वास करना दूभर हो गया है। पहले तो राजनीति बदनाम हुई, फिर पुलिस प्रशासन। पर अब कार्यपालिका, न्यायपालिका, खेल-क्रिकेट, हॉकी, गैर सरकारी/राजनीतिक संगठन, यहां तक धार्मिक संगठन भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे हैं।...तो क्या भ्रष्टाचार का वर्चस्व चारों तरफ इसी तरह बढ़ता रहेगा ? और क्या एक दिन भ्रष्टाचार का, आचार पर पूरी तरह से अधिपत्य हो जाएगा? तब क्या भ्रष्ट होना योग्यता होगी और ईमानदार होना अयोग्यता? यानी एक पुराने गाने की वह पंक्ति- एक दिन ऐसा कलयुग आयेगा, हंस चुगेगा दाना-तिनका, कौआ मोती खायेगा-सार्थक हो जाएगी। हम सब भ्रष्टाचार के दलदल में धंसते चले जाएंगे और सब एक-दूसरे को ठगने-लूटने की फिराक में रहेंगे। धर्म के स्थान में अधर्म होगा और साधु-संतो के स्थान पर पाखंडी। किसी को दूसरे के लिए सोचने की जरूरत नहीं होगी। स्वार्थ सबसे बड़ी नैतिकता होगी। घर के बूढ़े-बुजुर्ग जब काम करने में असर्थ हो जाएंगे तो उन्हें मरने के लिए किसी विराने में छोड़ दिया जाएगा। रिश्‍ते बस नाम और स्वार्थ के लिए होंगे। अंधी वासना के आगे किसी तरह के रिश्‍ते कोई मायने नहीं रखेंगे। लोगों को पूरी आज़ादी होगी-किसी भी तरह के कुकर्म और भ्रष्टाचार करने की।....कितना अच्छा होगा न!, हम तो ऐसा ही चाहते हैं न!

क्या आप ऐसा नहीं चाहते। तो क्या आप केवल खुद ही भ्रष्ट बने रहना चाहते हैं और यह कि शेष लोग आपको ईमानदार समझते रहें। ताकि आपको अन्य लोगों से कोई खतरा नहीं हो। भले ही अन्य लोगों के हक मारने में आप उस्ताद हों।....चुप क्यों हो गए। बंधुवर कहने और आचारण में लाने में बहुत फर्क होता है। आप दूसरे से जिस आचरण की अपेक्षा रखते हैं, वहीं आचरण आप खुद करने से क्यों कतराते हैं। इसलिए कि इसमें भौतिक फायदा कम और मेहनत ज्यादा है। सादगी ज्यादा और ऐयाशी कम है। अब आपको लगेगा कि यह लेखक हमें उपदेश देने की कोशिश कर रहा है। यह खुद कितना ईमानदार है, जो सबसे ऐसे सवाल कर रहा है? यदि आपके मन में यह सवाल उठा तो बुरा न मानें-बल्कि खुद को किसी न किसी स्तर के भ्रष्टचार का समर्थक मान लें। यदि आप ऐसा नहीं कर पाते हैं तो निश्चित तौर पर समझ लें कि आपके अंदर भ्रष्टाचार का प्रवेश हो चुका है, जिसके दुष्प्रभाव से इस समाज कोई अन्य नहीं बचा सकता।

यानी, इसी तरह से हम भ्रष्टाचार के गुलाम होते जाएंगे और एक दिन हमारे समाज पर भ्रष्टाचार का राज होगा, और जो सबसे ज्यादा भ्रष्टाचारी होंगे वही इस समाज पर राज करेंगे।....वर्तमान में भ्रष्टाचार के प्रति भारत रूपी समाज के शासक, प्रशासक और जनता की जैसी प्रतिक्रिया है, उसे देखकर तो भ्रष्ट भारतीय समाज की कल्पना करना मुश्किल नहीं लगता।....

....तो क्या वाकई में हम ऐसा ही चाहते हैं ? प्रतिदिन के अखबार, न्यूज चैनलों के बुलेटिन भ्रष्टाचार की खबरों से जो भरे रहते हैं, उन्हें देखकर क्या आपको मजा आता है? अफसोस नहीं होता? यदि होता है तो क्यों नहीं इसका प्रतिकार करते हैं। कहेंगे आप अकेले क्या कर सकते हैं। आप खुद को तो भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकते हैं। कोई अनैतिकता, बेईमानी, कर्तव्यविमुखता छोटी नहीं होती है, उसी को छोड़कर आप भ्रष्टाचार का प्रतिकार कर सकते हैं। सच का दामन थाम कर हो सकता है, कुछ दिनों आपको थोड़ी दिक्कत हो, पर प्रतिकार इतना आसान नहीं होता, उसके लिए दिक्कत सहना ही पड़ेगा। ऐसा करना एक आंदोलन करने जैसा ही है। यदि ऐसा ज्यादातर लोग करने लगे तो कल्पना कीजिए क्या अपने समाज में भ्रष्टाचार का वर्चस्व कभी जम पायेगा....नहीं न। तो फिर आप किस दिशा में जाना चाहते हैं भ्रष्टाचार की ओर या आचार की ओर। समाज के ऐसे किसी नेता, कार्यकर्ता, प्रशासक, कर्मचारी, व्यापारी, एजेंट से कोई ऐसा काम नहीं करवाये, जिसके लिए वह भ्रष्ट तरीके अपनाता हो। घूस लेने व देने वालों का प्रतिकार करें। आपकी नजर में खराब नेताओं को किसी भी शर्त या लालच या डर में वोट नहीं दें।

क्या हम ऐसा कर सकते हैं? यह सवाल भी काफी महत्वपूर्ण है। पिछले साठ सालों की बेफिक्र जीवन ने हमारे दिल-दिमाग पर कई तरह की बुराइयों के परत जमा दिये हैं और वे हमारे लिए आम बात हो चुकी हैं। ऐसे में उन बुराइयों का प्रतिकार करना आसान नहीं है। ऐसे में, इसके दंश झेल रहे लोगों पर नजर डालें। लंबी लाइन में ईमानदारी से घंटों खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करने वाले उन साधारण आदमी को देखें, जिनकी बारी का हक मारकर आप अपनी पहुंच और पहचान के बल पर लाइन तोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। आप कहेंगे, यह सब नहीं करने से तो समय पर आपका कोई काम ही नहीं होगा, फिर तो आप समाज में पीछे रह जाएंगे।...तो क्या लाइन में खड़े लोग को आगे नहीं बढ़ना है?...यदि हां, तो थोड़ा कम आराम कीजिए।

आप अपने घर-परिवार के लिए इतनी मेहनत करते है, तो क्या उस समय में से दस-पांच मिनट दूसरे के लिए भी नहीं दे सकते। ऐसा करके देखिएगा, बदलाव आपके सामने दिखेगा और उससे जितनी खुशी और आनंद आपको मिलेंगे, उतना कार पर लांग ड्राइव लेने, यारों के साथ बियर की बोतले गटकने से भी नहीं होगा।

भाई साहब...यदि इंसानियत और मानवता का आनंद और भी आसानी से प्राप्त करना हो तो मेरा एक सुझाव चाहें तो मान सकते हैं-यह सुझाव मैं निजी अनुभव के आधार पर दे रहा हूं-मानना न मानना आपकी इच्छा पर निर्भर है, क्योंकि इंसानियत और मानवता का आनंद उठाने के रास्ते अनेक हैं, पर सबके मूल में एक ही परमात्मा है। क्योंकि सबका मालिक एक ही है। और मैं इस परम वाक्य के वक्ता और परमात्मा के प्रवक्ता, करूणा के अवतार बाबा साईनाथ की शरण में जाने और उनका अनुसरण करने की आपसे आग्रह करता हूं। भारत रूपी समाज को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए मुझे लगता है कि बाबा की भक्तिमार्ग को अपनाना सबसे सरल रास्ता है।

आखिर कब मैच्‍योर होगा झारखंड?

उदय केसरी  
झारखंड की हालत देखकर बेहद दुख होता है। मानो, झारखंड किसी के द्वारा शापित हो कि वह कभी मैच्‍योर (समझदार) नहीं हो सकेगा। सदा यूं ही बचकानी राजनीति का शिकार होता रहेगा। यह भी कि चालाक और भ्रष्‍ट लोग सदा उसका दोहन करते रहेंगे। उसके दुश्‍मनों में अपने भी होंगे और पराये भी। यहां किसी राजनीतिक दल या गठबंधन की सरकार ज्‍यादा दिनों तक नहीं चल पायेगी। राज्‍य में सदा राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना रहेगा। यानी, इस भूखंड का कभी विकास नहीं हो सकेगा, बल्कि इसके अपने और परोये बस इसकी बोटियां नोंच-नोंच कर खाते रहेंगे। यहां निवास करने वाली आदिवासी व गैरआदिवासी जनता की आंखें विकास की आस में पथरा जाएंगी, पर उनकी आस शायद कभी पूरी हो पाए।

क्‍या आपको ऐसा महसूस नहीं होता? बिहार से अलग कर जब 2000 में झारखंड को पृथक राज्‍य का दर्जा मिला, उसी समय मध्‍यप्रदेश से अलग कर छत्‍तीसगढ़ और उत्‍तर प्रदेश से अलगकर उत्‍तराखंड को भी पृथक राज्‍य का दर्जा मिला। क्‍या अपने समान उम्र के छत्‍तीसगढ़ और उत्‍तराखंड की तुलना में झारखंड का विकास हो सका है?...नहीं न। तो फिर, वह कौन सी वजह है जो झारखंड के पोषण में बाधा बन खड़ी है? क्‍यों उसे मैच्‍योर नहीं होने दिया जा रहा है। साल की भी गिनती की जाए तो नौ-दस साल कम नहीं होते हैं, इतने समय में तो बच्‍चा चलने, उछलने व दौड़ने लगता और कम से कम इतना मैच्‍योर जरूर हो जाता है कि अपने-पराये को आसानी से पहचान ले। पर, क्‍यों झारखंड रूपी अबोध बालक का सामान्‍य विकास भी नहीं हो सका? आखिर इस अबोध बालके के जन्‍म पर माता-पिता होने का श्रेय लेने वाले पार्टी व नेता या पालन-पोषण करने की जिम्‍मेदारी लेने वाले लोगों के अपने बच्‍चे भी क्‍या ऐसे ही कुपोषण के शिकार हैं?

शायद इन सवालों को जनता की तरफ से झारखंड में निकलने वाले अखबारों और प्रसारित होने वाले न्‍यूज चैनलों को तब तक पूछना चाहिए, जबतक कि झारखंड के कुपोषण के लिए जिम्‍मेदार नेता और अधिकारी जनता के बीच नग्‍न खड़े होकर क्षमा की भीख मांगते नहीं दिखने लगे। मगर, क्‍या कभी ऐसा हो सकता है?...लोकतंत्र के सिद्धांतों में कहते हैं कि लोकतांत्रिक ‘विकास’ प्रक्रिया में विधायिका, कार्यपालिका और न्‍यायपालिका की तरह ही प्रेस यानी मीडिया की भी चौथे स्‍तम्‍भ के रूप में महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है। अब यदि इस सिद्धांत को उलट दें तो क्‍या होगा...लोकतांत्रिक ‘विनाश’ प्रक्रिया में विधायिका, कार्यपालिका और न्‍यायपालिका की तरह ही प्रेस यानी मीडिया की भी चौथे स्‍तम्‍भ के रूप में महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है। तात्‍पर्य यह कि झारखंड की मीडिया को इन मूलभूत प्रश्‍नों का बोध शुरू से है, पर जब नवनिर्मित राज्‍य के तीन स्‍तम्‍भ माल बटोरने में लगे हैं, तो वे क्‍यों उनसे बैर लेकर अपने अखबार और चैनल के व्‍यवसाय पर ग्रहण लगाए?

ऐसे में, झारखंड क्‍यों नहीं इम-मैच्‍योर राज्‍य होगा? फिर क्‍यों नहीं यहां मधु कोड़ा जैसे एक निर्दलीय विधायक जोड़-तोड़ की राजनीति कर मुख्‍यमंत्री बने? क्‍यों नहीं, वह एक-डेढ़ साल के भीतर 3000 करोड़ से ज्‍यादा रूपये का घोटाला करके डकार भी न ले? फिर क्‍यों नहीं इसके बाद भी उसकी पत्‍नी चुनाव जीते? फिर क्‍यों नहीं, झारखंड की स्‍थापना का श्रेय लेने में सबसे अव्‍वल और सांसद रिश्‍वतकांड के आरोपी दिशोम गुरू शिबू सोरेन जबदस्‍ती मुख्‍यमंत्री की कुर्सी हथिया ले और इसकी न्‍यूनतम योग्‍यता वाली परीक्षा यानी उपचुनाव भी हार जाए? और भी बहुत कुछ बुरा हो सकता है इस राज्‍य में जो यहां के लिए शायद आम बात होगी।

अब जब, इस राज्‍य को प्राप्‍त प्राकृतिक या नैसर्गिक संपदा पर नजर डालेंगे तो भी आपको आश्‍चर्य होगा। अपनी उम्र के छत्‍तीसगढ़ और उत्‍तराखंड के मुकाबले ऊपरवाले ने झारखंड को दिल खोल कर प्राकृतिक संपदाओं से संपन्‍न बनाया। यहां की धरती में खासकर खनिजों के मामले में क्‍या नहीं है- लौह अयस्‍क, कोयला, तांबा अयस्‍क, अबरक, बॉक्‍साइट, फायर क्‍ले, ग्रेफाइट, सिलिमनाइट, चूना पत्‍थर, यूरेनियम आदि। लेकिन नीचे वाले झारखंड के विधायकों ने सिवाय इसके दोहन के और कुछ भी नहीं किया। यह भी नहीं सोंचा कि यह माटी अपनी मां भी है।...आखिर इतने नीच लोगों के नेतृत्‍व में झारखंड की जनता कैसे जीती होगी...इसका अंदाजा स्‍वत: लगाया जा सकता है।

नक्‍सलवाद हो या आईपीएलवाद, दोनों ही खतरनाक

उदय केसरी  
इन दिनों देश में दो सबसे बड़े मुद्दे सुर्खियों में है। एक नक्‍सलवाद और दूसरा आईपीएलवाद । एक में, गरीबी और शोषण के कांधे पर बंदूक धरकर सरकार के विरूद्ध युद्ध किया जा रहा है। तो दूसरे में, क्रिकेट के प्रोत्‍साहन के नाम पर हजारों करोड़ का कारोबार किया जा रहा है। दोनों मुद्दे गंभीर रूप धारण कर चुके हैं- एक में, 76 सीआरपीएफ के जवानों पर हमला कर उन्‍हें मौत की नींद सुला दिया गया, तो दूसरे में, केंद्र के विदेश राज्‍य मंत्री शशि थरूर को अपना मंत्री पद छोड़ना पड़ा। इन दोनों मुद्दों पर मीडिया में पिछले दो-तीन हफ्तों से बहस जारी है। पर, इन दोनों बहसों में मत काफी बंटे हुए हैं। नक्‍सलवाद के मुद्दे पर जहां वामपंथी विचारधारा वाले लोग उसे गरीबी और शोषण के खिलाफ हक की लड़ाई बता रहे हैं, तो इस पंथ से इतर लोग इसे देशद्रोह करार दे रहे हैं। इसी तरह, आईपीएलवाद के मुद्दे पर जहां आईपीएल से परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जुड़े़ कॉरपोरेट जगत, बॉलीवुड, क्रिकेट और क्रिकेटमैनिया से ग्रसित लोग इसे मोदी का वरदान कह रह रहे हैं और मोदी के विरोध करने वालों को थरूर का पक्षधर बताकर विरोध को बदले की कार्रवाई कह रहे हैं, तो वहीं इससे इतर लोग आईपीएल को क्रिकेट के नाम पर अय्याशी और टैक्‍सचोरी का काला कारोबार बता रहे हैं।

खैर, यह सब आप भी जानते होंगे। इन दोनों मुद्दों पर जो मुझे कहना उस पर आता हूं। पहले नक्‍सलवाद पर- इसके समर्थकों से मैं पूछना चाहूंगा कि भारत में सबसे बड़ी आबादी किन लोगों की है अमीरों या गरीबों की। गरीबों की न। और आपके मुताबिक नक्‍सली गरीबों के हक की लड़ाई लड़ते हैं, तो वे गरीबों का समर्थन प्राप्‍त कर केंद्र या राज्‍यों में खुद अपनी सरकार क्‍यों नहीं बना लेते? फिर जैसा परिवर्तन चाहे करके दिखा दें। क्‍या यह प्रयास जंगलों में गुमनाम जिंदगी बिताने और कायरों की तरह निहत्‍थे व लाचार ग्रामीणों पर भय की सरकार चलाने से ज्‍यादा मुश्किल है। नक्‍सली यदि कार्ल मार्क्‍स, माओत्‍से तुंग, लेनिन की विचारधारा पर चलने की बात करते हैं, तो यह उनका सबसे बड़ा झूठ है। क्‍योंकि इन ऐतिहासिक विचारकों ने परिवर्तन के लिए अपने समाज के निहत्‍थो, मजलूमों का खून बहाकर परिवर्तन की बात कभी नहीं की। और फिर मैं तो कहता हूं कि यदि इनके विचारों से परिवर्तन के ऐसे भाव निकलते भी हों, तो भी इनके विचारों की भारतीय समाज में कोई प्रासंगिकता नहीं है। क्‍योंकि इन तीनों विचारकों के विचार भारतीय समाज व सरकार की व्‍यवस्‍था को ध्‍यान में रखकर नहीं बने, न ही इन्‍होंने कभी विविधता के बावजूद एकता में बंधे भारतीय समाज को समझा। तो फिर इनके विचारों के आधार अपने देश में परिवर्तन की बात सरासर जबरदस्‍ती नहीं तो क्‍या है?

चलिए, नक्‍सलवाद के मुद्दे पर मेरे मन में और भी कई बातें हैं कहने को, पर आलेख की लंबाई और आपके पेसेंस को ध्‍यान में रखते हुए मैं अब दूसरे बड़े मुद्दे पर आता हूं। आईपीएलवाद- सबसे पहला सवाल है देश को आईपीएल की जरूरत है? अब तो राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट मैच साल भर होते रहते हैं, जिससे बीसीसीआई पहले ही मालामाल हो चुका है, तो फिर ऐसे क्रिकेट का क्‍या फायदा जिससे खिलाड़यों का न रिकार्ड बनता हो और न देश को जीत की ट्रॉफी मिलती है। यही नहीं, इससे तो असली क्रिकेट के लिए देश के खिलाडि़यों के पास स्‍टैमिना भी नहीं बचती। तो फिर आईपीएलवाद आखिर किसके लिए....यह सब है महज करोड़पति से अ‍रबपति और खरबपति बनने का अचूक धंधा। जिसमें नेता-अभिनेता-व्‍यापारी-खिलाड़ी-जुआरी-कालाबाजारी सबों का अंतर्गठजोड़ होता है और यह धंधा महज ढाई-तीन सालों में बढ़कर बीस हजार करोड़ का हो चुका है।

खैर आईपीएलवाद के बारे में यह सब तो आप भी जानते होंगे मैं इस पर कुछ बुनियादी सवाल करना चाहूंगा। यह कि एक तरफ सरकार हमसे रोज टीवी, रेडियो व अखबारों में प्रचार देकर यह निवेदन करती रहती है कि बिजली बचायें, इसके अनावश्‍यक और बेजा इस्‍तेमाल से बचें। तभी पूरे भारत में उजाला रह पायेगा। इस प्रचार को यदि आईपीएलवाद के संदर्भ में लें, तो क्‍या वे रात में हजारों-लाखों वाट बिजली खर्च कर देश को अंधकार की ओर नहीं ले जा रहा है? आखिर यह कैसा वाद या कहें धंधा है, जिसने महज ढाई-तीन साल में ललित मोदी को धनकुबेर बना दिया, जो इससे पहले शरद पवार के ‘यशमैन’ थे। एक और सवाल, जो शर्मनाक है, कि इस मुद्दे पर न्‍यूज चैनलों के मत भी क्‍यों बंटे हुए हैं? क्‍या इसलिए कि आईपीएल में रूपर्ट मड्रोक के बेटे का भी पैसा लगा है? या इसलिए कि आईपीएल मीडिया मैंनेजरों ने विज्ञापनों के एहसानों तले उन्‍हें दबा रखा है? यदि ऐसा नहीं तो कल जब ललित मोदी के बॉ‍डीगार्डों ने मुंबई एयरपोर्ट पर मीडिया वालों को खदेड़कर भगाया और गालीगलौज की, तो इस खबर को सभी न्‍यूज चैनलों ने प्रमुखता से क्‍यों नहीं दिखाया। क्‍या केवल जी न्‍यूज और इंडिया टीवी को ही मीडिया के अपमान पर विरोध करने की और मोदी का सच बाहर लाने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई है। शेष न्‍यूज चैनलों ने क्‍या आईपीएल की चूडिया पहन रखी है?

भारत के अमन-चैन के दो दुश्‍मन

उदय केसरी 
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और आजाद भारत में यह क्‍या हो रहा है? तानाशाह और फासिस्‍ट शिवसेना भारतीय सिनेमा के सुप्रसिद्ध कलाकर शाहरूख खान की अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का अपहरण करना चाहती है। सहिष्‍णुता की भारतीय संस्‍कृति को शर्मशार कर शाहरूख के उस बयान के लिए उनसे माफी मांगने की मांग की जा रही है, जो भारतीय सहिष्‍णुता को ही प्रदर्शित करता है। पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसी मां तुल्‍य भूमि है, जिसकी गोद में दुनिया के सभी धर्म, जाति, संप्रदाय, मान्‍यता व‍ विचार के लोगों को हमेशा इतना प्‍यार व दुलार मिला कि वे सब भारतीय रंग में रंगते चले गए। यह भारत की प्रकृति है, जिसे कभी बदला नहीं जा सकता। यदि बदलना संभव होता, तो यह देश बहुत पहले ही असंख्‍य टुकड़ों में बांट जाता। शिवसेना और महाराष्‍ट्र नवनिर्माण सेना से भी ताकतवर अलगावादियों ने कई बार ऐसी नाकाम कोशिशें की हैं, पर भारत के मौलिक स्‍वभाव और प्रकृति के आगे उन्‍हें अपना मुंह काला कर दुबकना या भागना पड़ा है।

जैसे बाघ की खाल पहन लेने से कोई बाघ नहीं हो जाता, उसी तरह गेरूआ वस्‍त्र धारण कर लेने से कोई हिन्‍दू धर्म का मसीहा नहीं बन जाता है। और फिर मसीहा बनने का जज्‍बा है तो कोई गरीबों का मसीहा बनके दिखाए। भारत में हिन्‍दू धर्म को न कभी मसीहा की जरूरत पड़ी और न आगे कभी पड़ेगी। क्‍योंकि यह एक मात्र ऐसा धर्म है, जो महज धर्म नहीं, भारतीयों की स्‍वाभाविक प्रकृति है, जिसमें असीम विनम्रता और सहिष्‍णुता है। यह मानव को कट्टर व निरंकुश नहीं, महान और महात्‍मा बनाता है। जिस शिव के नाम पर बाल ठाकरे ने अपनी सेना का नाम रखा है, क्‍या उस शिव की प्रकृति भी उन्‍हें नहीं मालूम? शिव तो इतने बड़े देव थे, जो मानव और दानवों में भी भेद नहीं करते थे। जो भी उन्‍हें त्‍याग और तपस्‍या से प्रसन्‍न करता, वह उन्‍हें मुंहमांगा वरदान दे देते थे। ऐसे महासहिष्‍णु शिव के नाम पर खुद को हिन्‍दू धर्म और मराठी मानुष का मसीहा बताने वाले बाल ठाकरे के शिव क्‍या इस प्रकृति के नहीं हैं?

जाहिर है कि बाल ठाकरे अपने कर्मों से न भारतीय प्रतीत होते हैं और न ही हिन्‍दू। तो फिर वह कौन हैं?... वह भारत के अमन-चैन के दुश्‍मन हैं। जिन्‍हें किसी भी तरह से बस सत्‍ता की ताकत चाहिए। वह सत्‍ता के पुजारी हैं और भय फैलाना उनका धर्म है। पिछले विधानसभा चुनाव में धूल चाटने के बाद से ठाकरे काफी अवसाद में हैं। इसलिए वह कभी शाहरूख खान को गद्दार कहते हैं, तो कभी राहुल गांधी को रोम पुत्र। क्‍या वह बता सकते हैं कि वे खुद क्‍या हैं?

दरअसल, इस सत्‍ता के पुजारी को तो सबसे बड़ी चोट उन्‍हीं के गिरोह से बगावत करने वाले सगे भतीजे राज ठाकरे ने दी, विधानसभा चुनाव में 13 सीट जीत कर। जिसने शिवसेना के विरूद्ध महाराष्‍ट्र नवनिर्माण सेना खड़ी कर ली, मगर उसने केवल नाम भर बदला, चरित्र शिवसेना वाला ही रखा। या कहें उससे भी कहीं अधिक अलगाववादी। जिसके लिए शायद महाराष्‍ट्र एक अलग राष्‍ट्र है, जहां भारत के किसी भी प्रांत के, खासकर यूपी और बिहार के लोगों के आने या बसने पर रोक है। साथ ही मराठी वहां की राष्‍ट्र भाषा है और अन्‍य कोई भी भाषा बर्दास्‍त नहीं। ऐसे में हो सकता है कि आप सोचें कि क्‍या राज ठाकरे का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है? तो ऐसा नहीं है, राज ठाकरे का मानसिक संतुलन ठीक है, वह तो यह सब केवल सत्‍ता की भूख शांत करने के लिए कर रहे हैं। मगर वह यह जरूर भूल गए हैं कि जिस दिन जनता का दिमाग फिरा, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। मराठी मानुष ही उन्‍हें बता देंगे कि महाराष्‍ट्र यदि यूपी-बिहार वालों का नहीं है, तो उनका भी नहीं है। यह सर्वविदित है कि राज या बाल ठाकरे का खानदान खुद महाराष्‍ट्र में बाहर (मध्‍यप्रदेश) से आकर बसा है।

यदि आप हमारे विचारों से इत्‍तेफाक रखते हैं तो आप सभी सुधी पाठकों से अनुरोध है कि अपने स्‍तर पर विचार व्‍यक्‍त कर बाल ठाकरे और राज ठाकरे का पुरजोर विरोध करें। चूंकि इन दोनों अलगाववादियों ने देश में, खासकर महाराष्‍ट्र में अमन-चैन को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और उनकी ये नापाक कोशिशें हदें पार करने लगी हैं। वैसे ही, जैसे सरहद पार कर आने वाले आतंकी।

गणतंत्र दिवस से पहले मना ‘राज’तंत्र दिवस

उदय केसरी  
गणतंत्र दिवस पर जहां देश की राजनीतिक राजधानी दिल्‍ली में भारत की आन-बान व शान की रक्षा करने वाली सेनाओं ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया, वहीं इससे ठीक एक दिन पहले देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में देश में एकता, समानता और बंधुत्‍व को तहस-नहस करने वाली राज ठाकरे की सेना ने भी अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। या कहें कि जहां देश में गणतंत्र दिवस का 61वां वर्षगांठ मनाया गया, वहीं एक दिन पूर्व मुंबई में ‘राज’तंत्र दिवस मनाया गया। इस बार गणतंत्र दिवस से पूर्व आतंकी वारदात की आशंका के मद्देनजर पूरे देश को हाईअलर्ट कर दिया गया था। चप्‍पे-चप्‍पे पर सेना व पुलिस बल के जवानों की नजर पैनी थी। यह सब देश में बाहर से संचालित आतंकियों के खिलाफ की गई सुरक्षा व्‍यवस्‍था थी। इसमें हमारा देश सफल भी रहा। बड़े शान से हमने गणतंत्र दिवस मनाया और आतंकियों के हर मंसूबे पर पानी फिर गया। लेकिन दूसरी तरफ देश के अंदर सक्रिय सफेदपोश गद्दारों से हम कब निपटेंगे, जो एकता, समानता और बंधुत्‍व को तहस-नहस करने पर तुले हैं। मुंबई के राज ठाकरे को क्‍या देश का एक सफेदपोश गद्दार कहना गलत होगा? जो मुंबई के गैर-मराठी भाषी टैक्‍सी ड्राइवरों को मराठी ककहरे की किताबें बांटते हुए खुलेआम यह धमकी देता है कि 40 दिनों के अंदर मराठी नहीं सीखे तो घर लौटने के लिए तैयार हो जाना। आखिर यह क्‍या है? यही नहीं इसके पक्ष में बड़े-बड़े बैनर-पोस्‍टर चिपकाए गये हैं। यह क्‍या भारतीय गणतंत्र का खुलेआम उल्‍लंघन नहीं?

राज ठाकरे को किस संविधान ने यह अधिकार दे दिया कि वह तय करें कि मुंबई में कौन रहेगा और कौन नहीं। सबसे बड़ी विडंबना तो यह कि कई दिनों से सोये हुए राज ठाकरे को यह मुद्दा महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री अशोक चौहान ने ही कुछ दिन पहले थाली में परोस कर दिया था, जब चौहान ने मुंबई के सभी टैक्‍सी ड्राइवरों के लिए मराठी बोलना, पढ़ना व लिखना अनिवार्य करने का बयान दिया था। हालांकि इस बयान पर उठे सवाल से डरकर चौहान ने दूसरे ही दिन यू-टर्न ले लिया। लेकिन राज ठाकरे को पका-पकाया मुद्दा मिल गया।

इस संदर्भ में एक और खबर देश में भाषाई भेदभाव को बढ़ावा देने वाली है। यह खबर गुजरात हाईकोर्ट के एक निर्णय से संबंधित है, जिसमें कहा गया कि हिन्‍दी देश की राष्‍ट्र भाषा नहीं है, इसलिए किसी कंपनी को बाध्‍य नहीं किया जा सकता है कि वे अपने उत्‍पादों के उपर विवरण हिन्‍दी में लिखे। सवाल है कि यदि देश के संविधान में हिन्‍दी को राष्‍ट्र भाषा का दर्जा प्राप्‍त नहीं है तो क्‍या यह जानकारी हमें कोर्ट में पीआईएल दायर करने के बाद होगी? पहली कक्षा से लेकर बाद के कई कक्षाओं तक भारतीय छात्रों को राष्‍ट्र भाषा‍ हिन्‍दी, हिन्‍दी के राष्‍ट्रीय कवि, राष्‍ट्रीय गान, राष्‍ट्रीय फूल, राष्‍ट्रीय पशु आदि की जानकारी दी जाती रही है। यदि हिन्‍दी राष्‍ट्र भाषा नहीं है तो इसे अब तक क्‍यों पढ़ाया जाता रहा है। दशकों से इतनी बड़ी भूल कैसे हो सकती है? जाहिर है ऐसी भूल नहीं हो सकती है, जो भाषा भारत देश का सहज स्‍वभाव हो, उसे संविधान में किस प्रकार से दर्जा मिला है, उसकी कानूनी व्‍याख्‍या से क्‍या अर्थ निकलता है, इसकी क्‍या परवाह करे कोई। हो सकता है कि गुजरात हाईकोर्ट की व्‍याख्‍या में यह सही हो, पर क्‍या हिन्‍दीभाषी पिता के वृद्ध हो जाने पर उसके अंग्रेजीदां पुत्र को पिताजी का दर्जा दे दिया जाता है? यदि न्‍यायपालिका महज अपने मुव्‍वकिल को जिताने के लिए चालाक वकीलों की तकनीकी दलीलों पर चलती है, तो यही समझा जाएगा कि न्‍यायपालिका को देश की राष्‍ट्रीय भावना से कोई सरोकार नहीं है।

ऐसी परिस्थिति में महज राजनीतिक लाभ और सत्‍तासुख के लिए जनता के बीच कभी भाषा, तो कभी जाति, कभी क्षेत्र और कभी धर्म को मुद्दा बनाकर देश की एकता, समानता और बंधुत्‍व को तहस-नहस करने वाले राज ठाकरे सरीखे नेताओं को बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। तब यह कहना गलत नहीं होगा कि देश को जितना खतरा बाहर के आतंकवादियों से है, उससे कहीं ज्‍यादा खतरा देश के भीतर के गद्दार सफेदपोशों से भी है। आतंकियों से तो फिर भी हम निपट लेंगे, पर राज ठाकरे सरीखे घर के आतंकी से कैसे निपटा जाए?