ऐसे उटपटांग समुदाय के लिए भारत में कोई जगह नहीं

उदय केसरी
दुनिया में यह कैसा उटपटांग समुदाय बनता जा रहा है। विकसित देशों में धनाड्यों के पास मौज-मस्ती व खेल के तरीके कम पड़ते रहते हैं। वे इसके नये-नये तरीके खोजते रहते हैं। कभी पानी के अंदर जाकर सुहागरात मनाना, तो कभी कीचड़ में साइकिल रेस खेलना। प्रतिदिन अखबारों व टीवी में ऐसी उटपटांग हरकतों वाली खबरें आती रहती हैं। ऐसा करने वाले गरीब-बेरोजगार या मेहनतकश लोग नहीं होते, बल्कि बाप-दादा व आवश्यकता से अधिक की कमाई पर ऐश करने वाले होते हैं। ऐसे शौक वालों की ही उत्पत्ति है यह समलैंगिक समुदाय। कैलिफोर्निया आदि दुनिया के कुछ हिस्सों में भले ही इस समुदाय को सामाजिक स्वीकृति मिल गई है, लेकिन अधिकतर देशों में इसे अस्वाभाविक व अप्राकृतिक ही माना जा रहा है।
लेकिन, आश्चर्य यह है कि दिनों-दिन इस समुदाय में लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। और तो और, यह समुदाय अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर वार्षिक गौरव दिवस मनाने लगा है। इन सबके बीच सबसे आश्चर्यजनक यह कि यह समुदाय अब भारत में उत्पन्न हो चुका है, जिसका गौरव परेड पिछले रविवार को दिल्ली में भी निकाली गई। परेड के जरिये समलैंगिक लोग सरकार से भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को खत्म करने की मांग कर रहे थे। इस धारा के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाता है। दिल्ली की परेड में शामिल समलैंगिकों के तख्तियों पर लिखा था-अंग्रेज चले गए...धारा 377 छोड़ गए। विदित है कि भारतीय दंड संहिता में कई सारी धाराएं अंग्रेजी हुकूमत के दौरान लागू दंड संहिता से हू-ब-हू ले ली गई हैं। 377 भी ऐसी ही एक धारा है। वैसे, सवाल यहां इस दंड प्रावधान को बनाने वालों का नहीं है। अंग्रेजी दंड संहिता से भारतीय दंड संहिता में लिये गए प्रावधानों में भारतीय समाज, संस्कृति, परंपरा व संस्कार को ध्यान में रखा गया था। इसके आधार पर भारत में आज भी यह धारा उतना ही प्रासंगिक है, जितना कल था। मगर ऐयाश और अप्राकृतिक यौन प्रवृति से ग्रसित लोगों की मांग पर सरकार इस धारा को खत्म करने पर कैसे विचार कर सकती हैं? आखिर इस समुदाय के लोगों की तादाद ही कितनी है। ऐसा यदि किया जाने लगा तो देखादेखी एक दिन एक और नया समुदाय खड़ा हो सकता है, जो धारा 376 को भी अमानवीय कहकर इसे खत्म करने की मांग करने लगेगा। ऐसे, बहशी लोगों की भी संख्या कम नहीं हैं।
समलैंगिक संबंधों को जायज ठहराने वाले और इस समुदाय के लोग समलैंगिकता को मानवाधिकार और व्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं तो क्या ये लोग यह बताएंगे कि भारत में इनकी कितनी आबादी है? जितनी भी होगी पर एक अरब में इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने के लायक ही होगी। फिर क्या उन्हें भारतीय समाज व संस्कृति की मान्यताएं मालूम हैं? उनके परिवार व पूरखों में किसी ने खुलेआम ऐसा काम किया? फिर भी यदि वे नई धारा बहाना चाहते हैं तो क्या वे भारतीय समाज से अलग रहना पसंद करेंगे? क्योंकि हमारे देश में जब संतान हद से ज्यादा शैतान हो जाए तो उसे घर से बाहर भी कर दिया जाता है।
यदि इन सवालों के जवाब ‘नहीं’ है, तो एक संस्कारवान व मूल्यवान भारत का नागरिक होने के नाते मैं ऐसे समुदाय को देश में पनपने के पक्ष में कभी मत नहीं दूंगा और मैं समझता हूं कि देश के बहुसंख्यक नागरिक भारत में इस समुदाय को कभी मान्यता नहीं देंगे।
भारत में ऐसे विकृत शौक और मानसिकता को बढ़ावा देने में बालीवुड की एक भूमिका है। इसे भी तत्काल रोकने की जरूरत है। अन्यथा, लीक से हटकर और कमाऊ फिल्म बनाने की होड़ में ‘फायर’, ‘दोस्ताना’ जैसी फिल्में समाज में विकृति पैदा करती रहेगी। वैसे, सच तो यह भी है कि बालीवुड में भी इस समुदाय के सदस्यों की कमी नहीं है, तभी तो सिनेमा बनाने वाले कभी-कभी अपने समाज पर आधारित फिल्मों में ऐसे चरित्रों को भी शामिल करते रहते हैं।
दूसरी भूमिका नवधनाड्य परिवारों की है, जिनके औलाद विदेशों में सुविधाओं के बीच पढ़ते-बढ़ते हैं। ऐसे औलाद विदेश जाकर भारतीय मान्यताओं को इसकदर भूल जाते हैं कि लौटने के बाद भी उन्हें वे मान्याताएं याद नहीं आतीं और आती भी तो उसे वे पिछड़े भारतीयों की मानसिकता कहकर खारिज कर देते हैं। परिणामस्वरूप उन जैसे के बीच ऐसे उटपटांग संबंध बनने लगते हैं। और जब उनके अजीब शौक पर सामाजिक, कानूनी मान्यताएं भारी पड़ने लगती है तो तब उन्हें ध्यान आता है कि यह तो उनकी स्वतंत्रता और मानवाधिकार का हनन है। पर उन्हें कभी यह अहसास नहीं होता कि उनके कृत्य भारतीय मूल्यों का हनन है। ऐसे लोगों के किसी भी स्तर के समुदाय को भारत में कभी मान्यता नहीं मिलनी चाहिए।

देश के आंतरिक मामलों में अमेरिकी दखल नाजायज

उदय केसरी
पहले भारत दौरे पर आये अमेरिका के विदेश उप मंत्री विलियम बनर्स ने कहा कि कश्मीरियों की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए भारत-पाकिस्तान शांति वार्ता फिर से शुरू होनी चाहिए। फिर एक खबर आई कि अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) की एक टीम जून-जुलाई में भारत का दौरा करने वाली है। यह अमेरिकी आयोग अपनी टीम की रिपोर्ट के आधार पर यह तय करेगा कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता के क्या हालात हैं। इन दो खबरों से ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका हमारे देश के आंतरिक मामलों में कुछ ज्यादा ही दखल देने की कोशिश कर रहा है? आखिर अमेरिका को यह अधिकार किसने दे दिया कि वह किसी भी देश के अंदर-बाहर के मामलों में हस्तक्षेप करे?

वैसे, अमेरिका के बारे में यह बात पूरा विश्व समझता है कि वह कोई भी हस्तक्षेप, विरोध या समर्थन अपने स्वार्थ को केंद्र में रखे बिना नहीं करता। कश्मीर और धार्मिक स्वतंत्रता के मामलों में अमेरिका का स्वार्थ विश्व पटल पर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में इकलौता नाम भारत की बढ़ती ख्याति की गति को कमजोर करना तथा पाकिस्तान का पक्ष लेकर उसे अपने दुश्मन नंबर एक ओसामा बिन लादेन और उसके संरक्षक तालिबान का सफाया करने के लिए इस्तेमाल करना हो सकता है। चाहें इसके लिए भारत में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से ऑंखें ही क्यों न मूंदनी पड़े। अभी मुंबई हमले के घाव भरे भी नहीं है और न ही इसके लिए दोषी आतंकियों को सबक सिखाया जा सका है , अमेरिका भारत को कश्मीर मुद्दे पर बातचीत शुरू करने की नसीहत देने लगा है। यानी भारत की संप्रभुता और अस्मिता पर आतंकियों के हमले, अमेरिका के टविन टावर पर हुए हमले के आगे कोई महत्व नहीं रखते हैं, जिसके बदले की आग सात साल बाद भी अमेरिका के सीने में धधक रही है।

दरअसल, अमेरिका की आदत वैसे धनाड्य की तरह है, जो धन के बल पर पूरी दुनिया को अपना नौकर बनाना चाहता है और जिसे अपने अभिमान के आगे दूसरे के स्वाभिमान की कोई परवाह नहीं। अश्वेत होने के बावजूद अमेरिका का राष्ट्रपति निर्वाचित होकर इतिहास रचने वाले बराक ओबामा एक तरफ तो दुनिया के मुसलमानों को पटाने कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरह, उनके विदेश उप मंत्री विलियम बनर्स को कश्मीर की जनता की चिंता होने लगी है। इसका हल उन्हें भारत-पाक शांति वार्ता को आगे बढ़ाने में दिखता है। अमेरिका को कश्मीर में आतंकवाद की समस्या नहीं दिखती। उसे कश्मीर में सक्रिस आतंकी संगठनों के बारे में मालूम नहीं कि वे कहां से और कैसे संचालित हो रहे हैं? फिर भी यदि अमेरिकी नजर में भारत-पाक वार्ता से ही कश्मीर मुद्दे का हल निकल सकता है, तो यह भी साफ तौर पर जाहिर है कि कश्मीर में आतंकवाद की समस्या पाकिस्तान की देन है और ऐसे में वार्ता तभी संभव हो सकती है, जब पाकिस्तान अपने आतंकियों को पूरी तरह से निष्क्रिय करे।...जो पाकिस्तानी सरकार के बस की बात नहीं है, क्योंकि वहां सत्ता का केंद्र संसद ही नहीं, सेना और आईएसआई भी है। पाकिस्तानी शासन व्यवस्था की यह हास्यास्पद स्थिति अब गोपनीय नहीं रह गई है।

अमेरिका का दूसरा हस्तक्षेप भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का मूल्यांकन है। इसके लिए अमेरिकी टीम को भारत में सर्वे करने की अनुमति यूपीए से पहले किसी सरकार से नहीं मिली। पर, परमाणु करार के बाद भारत-अमेरिकी संबंधों में आई मधुरता का परिणाम है कि यूएससीआईआरएफ की टीम को भारत दौरे की अनुमति मिल गई। लेकिन इससे देश के हिन्दूवादी संगठनों को मिर्ची लग गई हैं, जबकि ईसाई संगठनों ने इसका स्वागत किया है। इस मुद्दे पर हिन्दूवादी और ईसाई दोनों ही संगठनों की प्रतिक्रिया क्या सही है? यदि केवल अमेरिकी टीम के आने की खबर पर ही एक उसका विरोध करे और दूसरा स्वागत, तो असमानता तो यहीं दिख जाती है। यानी दोनों धर्म के ठेकेदारों को इससे कोई मतलब नहीं कि अमेरिका दूसरे देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की जांच करने के नाम पर कैसे अपनी दादागिरी साबित कर रहा है, बल्कि आपसी भेदभाव की तुष्टी किस मुद्दे से होती है, केवल इससे मतलब है, ताकि उनकी धर्म की ठेकेदारी बदस्तूर चलती रहे।

खैर, यह स्मरणीय है कि अमेरिका के यूएससीआईआरएफ के कमिश्नारोँ की नियुक्ति अमेरिकी राष्ट्रपति करते हैं और दुनिया के देशों में मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता पर बनने वाली अमेरिकी नीति में इस आयोग की रिपोर्ट खासी मायने रखती है। यह आयोग हर साल रिपोर्ट जारी करता है और अमेरिकी विदेश विभाग इस आधार पर कार्रवाई करता है। इसी कमिशन की रिपोर्ट के आधार पर गुजरात के मुख्यमंत्री को 2005 में अमेरिका का वीजा नहीं मिला था। 2009 के लिए 1 मई को जारी रिपोर्ट में आयोग ने दुनिया के 13 देशों-जिनमें चीन, नॉर्थ कोरिया और पाकिस्तान शामिल हैं को कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न (सीपीसी)की कैटगरी में रखा है। कमिशन के संविधान के मुताबिक सीपीसी की श्रेणी में उन देशों को रखा जाता है जहां किसी खास धर्म या मत के अनुयायियों (मानने वालों) को हिंसा का शिकार बनाया गया हो । पिछले 10 सालों में कमिशन की यह सबसे विस्तृत रिपोर्ट है।

आस्ट्रेलिया बनाम मुंबई और बाहरी छात्रों पर हमला

उदय केसरी
आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर नस्ली हमले से शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे नाराज हैं। उन्होंने इसके बदले में आईपीएल से आस्ट्रेलियाई टीम को बाहर करने और भारत में निवेश कर रही आस्ट्रेलियाई कंपनियों को चेताने की मांग की है। ठाकरे साहब का यह बयान कुछ हजम नहीं होता। जब मुंबई में किसी बिहारी छात्र को बाहरी होने के कारण बुरी तरह से पीटा जाता है। तब ठाकरे साहब इसके प्रायोजक अपने भतीजे राज ठाकरे के खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठाते हैं? क्या यह नस्ली हमला नहीं है? आस्ट्रेलिया में किसी भारतीय छात्र पर हमले से जो दर्द उस छात्र व उसके भारत में रहने वाले परिजनों को हो रहा है, क्या बिहार के छात्र व उसके परिजनों को नहीं होता?
होता है? मगर मुंबई में बाहरी छात्रों पर हमले के वक्त पार्टी का राजनीतिक स्वार्थ मानवीय संवेदना से ज्यादा अहम हो जाता है। वैसे, अभी तक इस मामले पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे की प्रतिक्रिया नहीं आई है। वह तो अपने चाचा जी के बयान में दो-चार और धमकी जोड़कर भारत में आस्ट्रेलियाई नागरिकों के प्रवेश पर प्रतिबंध की मांग कर सकते हैं। लेकिन सवाल है कि भाषावाद व क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली शिव सेना व मनसे को आस्ट्रेलिया के उपद्रवियों और अपने कार्यकर्ताओं में वैचारिक दृष्टि से क्या अंतर दिखता है?

पिछले कुछ दिनों से आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हमले की खबर पढ़कर मुझे तो बार-बार मुंबई में रेलवे की परीक्षा देने गए एक बिहारी छात्र के साथ बेरहमी से की गई मारपीट की घटना याद आती है। मन में यही सवाल उठता है कि आस्ट्रेलिया के उपद्रवी लोग मुंबई के मनसे कार्यकर्ताओं जैसी हरकत क्यों कर रहे हैं? कहीं राज ठाकरे राजनीति की पाठशाला लेने आस्ट्रेलिया तो नहीं चले गए! या फिर आस्ट्रेलिया के उपद्रवियों को हाल में मुंबई में बिहारी छात्रों के साथ मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा की गई मारपीट इतनी पसंद आ गई कि उसी राह पर चल पड़े।
अपने मुख पत्र सामना में बाल ठाकरे ने आईपीएल के मालिकों विजय माल्या, प्रीति जिंटा व शाहरूख खान को राष्ट्रवाद की नसीहत देते हुए कहा है कि उन्हें राष्ट्रवाद की खातिर आईपीएल से आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को निकाल देना चाहिए।...क्या यह दोहरी बात नहीं लगती? अपने देश में भेद-भाव हो तो कोई बात नहीं, गैर देश में तो बुरी बात।

दरअसल, मैं यह सब बातें कर आस्ट्रेलिया के उपद्रवियों को सही ठहराने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। यह तो सर्वथा गलत और संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है। जिन भारतीय छात्रों पर हमले हो रहे हैं, उनसे आस्ट्रेलियाई स्कूल, कालेजों व विष्वविद्यालयों को भारी आय भी होती है। और फिर यदि वहां की सरकार को भारतीय छात्रों के आने से कोई दिक्कत नही है ंतो वहां के उपद्रवियों को पहले अपनी सरकार से लड़ना चाहिए। वैसे, आस्ट्रेलियाई उपद्रवियों को यह समझ लेना चाहिए कि अपने घर-परिवार से दूर भारतीय छात्रों पर हमले करना कोई बहादुरी नहीं, कायरता है। यह बात वहां की सरकार को भी समझनी चाहिए कि ऐसी घटनाओं से दुनिया भर से पढ़ाई करने के लिए आस्ट्रेलिया आने वाले छात्रों व परिजनों के बीच उनके देश की छवि धूमिल हो रही है, जो इस मंदी के दौर में नुकसान की एक बड़ी वजह बन सकती है।
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सीधीबात पर प्रकाशित होने के दूसरे दिन यानी 10 जून 09 को हिन्दी दैनिक अमर उजाला, दिल्ली में साभार प्रकाशित यह लेख। इसकी कॉपी हमें भेजा ब्लॉगर साथी श्री रामकृष्ण डोंगरे ने ...धन्यवाद!