उदय केसरी
दुनिया में यह कैसा उटपटांग समुदाय बनता जा रहा है। विकसित देशों में धनाड्यों के पास मौज-मस्ती व खेल के तरीके कम पड़ते रहते हैं। वे इसके नये-नये तरीके खोजते रहते हैं। कभी पानी के अंदर जाकर सुहागरात मनाना, तो कभी कीचड़ में साइकिल रेस खेलना। प्रतिदिन अखबारों व टीवी में ऐसी उटपटांग हरकतों वाली खबरें आती रहती हैं। ऐसा करने वाले गरीब-बेरोजगार या मेहनतकश लोग नहीं होते, बल्कि बाप-दादा व आवश्यकता से अधिक की कमाई पर ऐश करने वाले होते हैं। ऐसे शौक वालों की ही उत्पत्ति है यह समलैंगिक समुदाय। कैलिफोर्निया आदि दुनिया के कुछ हिस्सों में भले ही इस समुदाय को सामाजिक स्वीकृति मिल गई है, लेकिन अधिकतर देशों में इसे अस्वाभाविक व अप्राकृतिक ही माना जा रहा है।
दुनिया में यह कैसा उटपटांग समुदाय बनता जा रहा है। विकसित देशों में धनाड्यों के पास मौज-मस्ती व खेल के तरीके कम पड़ते रहते हैं। वे इसके नये-नये तरीके खोजते रहते हैं। कभी पानी के अंदर जाकर सुहागरात मनाना, तो कभी कीचड़ में साइकिल रेस खेलना। प्रतिदिन अखबारों व टीवी में ऐसी उटपटांग हरकतों वाली खबरें आती रहती हैं। ऐसा करने वाले गरीब-बेरोजगार या मेहनतकश लोग नहीं होते, बल्कि बाप-दादा व आवश्यकता से अधिक की कमाई पर ऐश करने वाले होते हैं। ऐसे शौक वालों की ही उत्पत्ति है यह समलैंगिक समुदाय। कैलिफोर्निया आदि दुनिया के कुछ हिस्सों में भले ही इस समुदाय को सामाजिक स्वीकृति मिल गई है, लेकिन अधिकतर देशों में इसे अस्वाभाविक व अप्राकृतिक ही माना जा रहा है।
लेकिन, आश्चर्य यह है कि दिनों-दिन इस समुदाय में लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। और तो और, यह समुदाय अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर वार्षिक गौरव दिवस मनाने लगा है। इन सबके बीच सबसे आश्चर्यजनक यह कि यह समुदाय अब भारत में उत्पन्न हो चुका है, जिसका गौरव परेड पिछले रविवार को दिल्ली में भी निकाली गई। परेड के जरिये समलैंगिक लोग सरकार से भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को खत्म करने की मांग कर रहे थे। इस धारा के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाता है। दिल्ली की परेड में शामिल समलैंगिकों के तख्तियों पर लिखा था-अंग्रेज चले गए...धारा 377 छोड़ गए। विदित है कि भारतीय दंड संहिता में कई सारी धाराएं अंग्रेजी हुकूमत के दौरान लागू दंड संहिता से हू-ब-हू ले ली गई हैं। 377 भी ऐसी ही एक धारा है। वैसे, सवाल यहां इस दंड प्रावधान को बनाने वालों का नहीं है। अंग्रेजी दंड संहिता से भारतीय दंड संहिता में लिये गए प्रावधानों में भारतीय समाज, संस्कृति, परंपरा व संस्कार को ध्यान में रखा गया था। इसके आधार पर भारत में आज भी यह धारा उतना ही प्रासंगिक है, जितना कल था। मगर ऐयाश और अप्राकृतिक यौन प्रवृति से ग्रसित लोगों की मांग पर सरकार इस धारा को खत्म करने पर कैसे विचार कर सकती हैं? आखिर इस समुदाय के लोगों की तादाद ही कितनी है। ऐसा यदि किया जाने लगा तो देखादेखी एक दिन एक और नया समुदाय खड़ा हो सकता है, जो धारा 376 को भी अमानवीय कहकर इसे खत्म करने की मांग करने लगेगा। ऐसे, बहशी लोगों की भी संख्या कम नहीं हैं।
समलैंगिक संबंधों को जायज ठहराने वाले और इस समुदाय के लोग समलैंगिकता को मानवाधिकार और व्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं तो क्या ये लोग यह बताएंगे कि भारत में इनकी कितनी आबादी है? जितनी भी होगी पर एक अरब में इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने के लायक ही होगी। फिर क्या उन्हें भारतीय समाज व संस्कृति की मान्यताएं मालूम हैं? उनके परिवार व पूरखों में किसी ने खुलेआम ऐसा काम किया? फिर भी यदि वे नई धारा बहाना चाहते हैं तो क्या वे भारतीय समाज से अलग रहना पसंद करेंगे? क्योंकि हमारे देश में जब संतान हद से ज्यादा शैतान हो जाए तो उसे घर से बाहर भी कर दिया जाता है।
यदि इन सवालों के जवाब ‘नहीं’ है, तो एक संस्कारवान व मूल्यवान भारत का नागरिक होने के नाते मैं ऐसे समुदाय को देश में पनपने के पक्ष में कभी मत नहीं दूंगा और मैं समझता हूं कि देश के बहुसंख्यक नागरिक भारत में इस समुदाय को कभी मान्यता नहीं देंगे।
भारत में ऐसे विकृत शौक और मानसिकता को बढ़ावा देने में बालीवुड की एक भूमिका है। इसे भी तत्काल रोकने की जरूरत है। अन्यथा, लीक से हटकर और कमाऊ फिल्म बनाने की होड़ में ‘फायर’, ‘दोस्ताना’ जैसी फिल्में समाज में विकृति पैदा करती रहेगी। वैसे, सच तो यह भी है कि बालीवुड में भी इस समुदाय के सदस्यों की कमी नहीं है, तभी तो सिनेमा बनाने वाले कभी-कभी अपने समाज पर आधारित फिल्मों में ऐसे चरित्रों को भी शामिल करते रहते हैं।
दूसरी भूमिका नवधनाड्य परिवारों की है, जिनके औलाद विदेशों में सुविधाओं के बीच पढ़ते-बढ़ते हैं। ऐसे औलाद विदेश जाकर भारतीय मान्यताओं को इसकदर भूल जाते हैं कि लौटने के बाद भी उन्हें वे मान्याताएं याद नहीं आतीं और आती भी तो उसे वे पिछड़े भारतीयों की मानसिकता कहकर खारिज कर देते हैं। परिणामस्वरूप उन जैसे के बीच ऐसे उटपटांग संबंध बनने लगते हैं। और जब उनके अजीब शौक पर सामाजिक, कानूनी मान्यताएं भारी पड़ने लगती है तो तब उन्हें ध्यान आता है कि यह तो उनकी स्वतंत्रता और मानवाधिकार का हनन है। पर उन्हें कभी यह अहसास नहीं होता कि उनके कृत्य भारतीय मूल्यों का हनन है। ऐसे लोगों के किसी भी स्तर के समुदाय को भारत में कभी मान्यता नहीं मिलनी चाहिए।