उदय केसरी
टीम अन्ना ने फिर हुंकार भरी है। टीम अन्ना ने यूपीए सरकार के 14 कैबिनेट मंत्रियों के अलावा भ्रष्टाचार के आरोप से अबतक अछूता रहे प्रधानमंत्री पर भी पहली बार भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं। प्रधानमंत्री समेत 15 मंत्रियों के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं, उनके आधार तथ्यों के नामवार पुलिंदें भी तैयार किए गए हैं।
टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री को पत्र भेज कर इन मंत्रियों के खिलाफ एक स्वतंत्र विशेष जांच टीम गठित करने की भी मांग की है। साथ ही धमकी दी है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो 25 जुलाई से वे दिल्ली में बेमियादी भूख हड़ताल पर बैठेंगे। लेकिन इसी बीच, अन्ना और टीम के बीच मतभेद का सवाल फिर से खड़ा हो गया है, क्योंकि अन्ना हजारे ने एक बयान में कहा कि उन्हें इन आरोपों के बारे अबतब पूरी जानकारी नहीं है। हालांकि इस सवाल को टीम के सदस्य गंभीर नहीं मान रहे हैं। फिर भी चाहें टीम और अन्ना के बीच में मतभेद हो या नहीं हो, एक सवाल काफी गंभीर है-क्या जनता के बीच यह टीम अब भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना पिछले साल अगस्त में थी?
यह सवाल जोर पकड़ने लगा है, जिसका जवाब नकारात्मक में ज्यादा दिए जा रहे हैं। जवाबों में टीम अन्ना के अर्जुन अरविंद केजरीवाल को अतिमहत्वाकांक्षी बताया जा रहा है। वैसे, हिसार उपचुनाव में कांगेस प्रत्याशी के विरोध के बाद से ही टीम अन्ना पर पक्षपात, गलत फैसले और बड़बोलेपन के आरोप लगते रहे हैं। उस पर से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के जुबानी हमलों ने जैसे टीम अन्ना में काफी पेशोपेश की स्थिति पैदा कर दी थी। फिर भी टीम की प्रासंगिकता का सवाल इतना गंभीरता से नहीं उठा था, लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद से अब तक टीम अन्ना जिस तरह से लोकपाल को भूलकर लोकपाल बनाने वालों के खिलाफ बयान दे रही है, वह गैर-राजनीतिक होते हुए भी जनता में राजनीतिक नेताओं के आरोप-प्रति-आरोप वाले बयानों जैसे ही प्रतीत होने लगे हैं।
उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद जिस तरह से अन्ना और रामदेव के बीच संधि हुई, उससे भी जनता में यह संदेश गया कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में टीम अन्ना अब खुद को कमजोर महसूस कर रही है। फिर टीम और अन्ना के अलग-अलग सुर ने तो लोगों को यह सोचने पर मजबूर ही कर दिया कि शायद टीम अन्ना अपने ध्येय यानी लोकपाल से भटकने लगी है। यह भी कि वह इस लड़ाई को जनता बनाम सरकार से अधिक, टीम बनाम सरकार की मानने लगी है। यही नहीं, इस साल 25 मार्च को दिल्ली में एक दिन के अनशन के दौरान मनीष सिसोदिया के बयान ’चोर की दाड़ी में......’. पर संसद में जिस तरह से बवाल मचा था, वहीं से यह साफ होने लगा कि चंद लोगों की यह टीम भ्रष्ट नेताओं से जनता की तरह लड़ने की बजाय उनसे उन्हीं के अंदाज में लड़ने लगी है, जिससे बवाल तो खड़ा हो सकता है, जनता का मकसद पूरा नहीं किया जा सकता। परिवर्तन के लिए तो आंदोलन ही एक मात्र रास्ता है और वह भी सभ्य लोकतांत्रिक तरीके से। इसकी अपेक्षा गांधीवाद से प्रेरित टीम अन्ना से ज्यादा की जाती है।
फिर भी, इसमें कोई दो राय नहीं कि अन्ना के नेतृत्व में टीम अन्ना ने पिछले बरस देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो अलख जगाई, वह जेपी आंदोलन के बाद अपूर्व है, लेकिन सवाल यह भी है कि ऐसे महत्वपूर्ण आंदोलन की ताकत क्या केवल टीम अन्ना के कुछेक सदस्यों की महत्वाकांक्षा, नादानी या उनके बड़बोलेपन के कारण कमजोर हुई है? क्या इसमें भ्रष्ट राजनीतिक समुदाय की सोची-समझी साजिश नहीं है? इन दोनों सवालों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ जगी भारत की जनता को विचार करने के बाद कोई फैसला लेने की जरूरत है, क्योंकि फिलहाल, टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री समेत जिन 15 मंत्रियों पर जिस आत्मविश्वास के साथ आरोप लगाने का साहस दिखाया है, वह साधारण बात नहीं। एक साथ इतने कैबिनेट मंत्रियों को कठघरे में खड़े का साहस तो प्रमुख विपक्षी पार्टियां भी नहीं कर पाती। उसपर से जिस प्रधानमंत्री के खिलाफ हर बात पर आरोप लगाने वाले विपक्षी दलों के नेता भी चुप्पी साध लेते हैं, उनको आरोपों के घेरे में खड़ा करने की हिम्मत करना, छोटी बात नहीं है। इसलिए टीम अन्ना के साहस और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई को कई गलतियों के बावजूद प्रासंगिक बनाए रखना देशहित में जनता के लिए जरूरी है, क्योंकि यदि यह टीम अप्रासंगिक हुई, तो फिर पता नहीं कब भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता को जागरूक करने और लड़ने वाली कोई दूसरी टीम खड़ी हो पायेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
टीम अन्ना ने फिर हुंकार भरी है। टीम अन्ना ने यूपीए सरकार के 14 कैबिनेट मंत्रियों के अलावा भ्रष्टाचार के आरोप से अबतक अछूता रहे प्रधानमंत्री पर भी पहली बार भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं। प्रधानमंत्री समेत 15 मंत्रियों के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं, उनके आधार तथ्यों के नामवार पुलिंदें भी तैयार किए गए हैं।
टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री को पत्र भेज कर इन मंत्रियों के खिलाफ एक स्वतंत्र विशेष जांच टीम गठित करने की भी मांग की है। साथ ही धमकी दी है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो 25 जुलाई से वे दिल्ली में बेमियादी भूख हड़ताल पर बैठेंगे। लेकिन इसी बीच, अन्ना और टीम के बीच मतभेद का सवाल फिर से खड़ा हो गया है, क्योंकि अन्ना हजारे ने एक बयान में कहा कि उन्हें इन आरोपों के बारे अबतब पूरी जानकारी नहीं है। हालांकि इस सवाल को टीम के सदस्य गंभीर नहीं मान रहे हैं। फिर भी चाहें टीम और अन्ना के बीच में मतभेद हो या नहीं हो, एक सवाल काफी गंभीर है-क्या जनता के बीच यह टीम अब भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना पिछले साल अगस्त में थी?
यह सवाल जोर पकड़ने लगा है, जिसका जवाब नकारात्मक में ज्यादा दिए जा रहे हैं। जवाबों में टीम अन्ना के अर्जुन अरविंद केजरीवाल को अतिमहत्वाकांक्षी बताया जा रहा है। वैसे, हिसार उपचुनाव में कांगेस प्रत्याशी के विरोध के बाद से ही टीम अन्ना पर पक्षपात, गलत फैसले और बड़बोलेपन के आरोप लगते रहे हैं। उस पर से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के जुबानी हमलों ने जैसे टीम अन्ना में काफी पेशोपेश की स्थिति पैदा कर दी थी। फिर भी टीम की प्रासंगिकता का सवाल इतना गंभीरता से नहीं उठा था, लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद से अब तक टीम अन्ना जिस तरह से लोकपाल को भूलकर लोकपाल बनाने वालों के खिलाफ बयान दे रही है, वह गैर-राजनीतिक होते हुए भी जनता में राजनीतिक नेताओं के आरोप-प्रति-आरोप वाले बयानों जैसे ही प्रतीत होने लगे हैं।
उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद जिस तरह से अन्ना और रामदेव के बीच संधि हुई, उससे भी जनता में यह संदेश गया कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में टीम अन्ना अब खुद को कमजोर महसूस कर रही है। फिर टीम और अन्ना के अलग-अलग सुर ने तो लोगों को यह सोचने पर मजबूर ही कर दिया कि शायद टीम अन्ना अपने ध्येय यानी लोकपाल से भटकने लगी है। यह भी कि वह इस लड़ाई को जनता बनाम सरकार से अधिक, टीम बनाम सरकार की मानने लगी है। यही नहीं, इस साल 25 मार्च को दिल्ली में एक दिन के अनशन के दौरान मनीष सिसोदिया के बयान ’चोर की दाड़ी में......’. पर संसद में जिस तरह से बवाल मचा था, वहीं से यह साफ होने लगा कि चंद लोगों की यह टीम भ्रष्ट नेताओं से जनता की तरह लड़ने की बजाय उनसे उन्हीं के अंदाज में लड़ने लगी है, जिससे बवाल तो खड़ा हो सकता है, जनता का मकसद पूरा नहीं किया जा सकता। परिवर्तन के लिए तो आंदोलन ही एक मात्र रास्ता है और वह भी सभ्य लोकतांत्रिक तरीके से। इसकी अपेक्षा गांधीवाद से प्रेरित टीम अन्ना से ज्यादा की जाती है।
फिर भी, इसमें कोई दो राय नहीं कि अन्ना के नेतृत्व में टीम अन्ना ने पिछले बरस देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो अलख जगाई, वह जेपी आंदोलन के बाद अपूर्व है, लेकिन सवाल यह भी है कि ऐसे महत्वपूर्ण आंदोलन की ताकत क्या केवल टीम अन्ना के कुछेक सदस्यों की महत्वाकांक्षा, नादानी या उनके बड़बोलेपन के कारण कमजोर हुई है? क्या इसमें भ्रष्ट राजनीतिक समुदाय की सोची-समझी साजिश नहीं है? इन दोनों सवालों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ जगी भारत की जनता को विचार करने के बाद कोई फैसला लेने की जरूरत है, क्योंकि फिलहाल, टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री समेत जिन 15 मंत्रियों पर जिस आत्मविश्वास के साथ आरोप लगाने का साहस दिखाया है, वह साधारण बात नहीं। एक साथ इतने कैबिनेट मंत्रियों को कठघरे में खड़े का साहस तो प्रमुख विपक्षी पार्टियां भी नहीं कर पाती। उसपर से जिस प्रधानमंत्री के खिलाफ हर बात पर आरोप लगाने वाले विपक्षी दलों के नेता भी चुप्पी साध लेते हैं, उनको आरोपों के घेरे में खड़ा करने की हिम्मत करना, छोटी बात नहीं है। इसलिए टीम अन्ना के साहस और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई को कई गलतियों के बावजूद प्रासंगिक बनाए रखना देशहित में जनता के लिए जरूरी है, क्योंकि यदि यह टीम अप्रासंगिक हुई, तो फिर पता नहीं कब भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता को जागरूक करने और लड़ने वाली कोई दूसरी टीम खड़ी हो पायेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
A style to say truth
ReplyDeleteAbdul Rashid
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