उदय केसरी
यह कैसा संयोग है कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिलने आई अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पर ममता की प्रकृति का साया पड़ गया। जैसे ममता बनर्जी आए दिन विभिन्न मुद्दों पर केंद्र सरकार पर धौंस जमाती रहती हैं, कुछ वैसे ही हिलेरी क्लिंटन ने भारत में ही भारत को से दो टूक कह दिया है कि ईरान से दूर रहो। वैसे अमेरिका यह दबाव भारत के अलावा चीन, यूरोपीय देशों और जापान पर भी बना रहा है कि ईरान से तेल आयात में कटौती करें। लेकिन भारत के बारे में हिलेरी के सुर ममता बनर्जी की तरह ही धौंस भरा प्रतीत हुआ, जब हिलेरी ने कहा ईरान के कुल तेल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 12 फीसदी है। सऊदी अरब के बाद ईरान भारत को तेल का निर्यात करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। यानी भारत जल्दी कटौती की ओर कदम बढ़ाए। यह भी कह दिया गया कि इराक और सऊदी अरब जैसे पेट्रोलियम उत्पादक देश भारत जैसे देशों की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। इस एकतरफा फरमान के पीछे अमेरिका का तर्क है कि इससे ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएगा। ज्ञात रहे कि अमेरिका इस बाबत इससे पहले मार्च में भी भारत और 11 अन्य देशों को नोटिस थमाकर धमकी दे चुका है कि ईरान से तेल आयात में कटौती नहीं करने पर उनपर वित्तीय प्रतिबंधों को कड़ा कर दिया जाएगा। उसी तरह जैसे ममता बनर्जी पेट्रोल के दाम बढ़ाए जाने पर केंद्र सरकार को धमकी दी थी। भलें ही संदर्भ अलग-अलग हों, पर कोलकाता में हिलेरी और ममता बनर्जी की शैली में, जो एक समानता दिखी, वह भारत सरकार पर अपनी मांग को लेकर धौंस जमाने जैसा ही कह सकते हैं।
खैर, ऐसे संयोग के बीच सवाल यह है कि आखिर भारत क्यों अमेरिकी धौंस में आकर ईरान से अपने पुराने रिश्ते तोड़ दे और तेल के आयात में कटौती करे? जबकि भारत में पहले से ही तेल की आपूर्ति और उसके आए दिन बढ़ते दाम को लेकर बवाल मचा रहता है। ऐसे में क्या एक पुराने आपूर्तिकर्ता देश से आयात कम करके दूसरे देशों से तेल खरीदने में नई व्यवस्था बनाने आदि का अतिरिक्त भार नहीं बढ़ेगा ? फिर सऊदी अरब को तेल निर्यात करने में कहीं कोई उपलब्धता की समस्या खड़ी हो गई तो? खासकर तब जब उसे ईरान से तेल लेने वाले 11 देशों को भी तेल निर्यात करना पड़ेगा। उससे भारत में पैदा होने वाले तेल के महासंकट से निपटने के लिए हमारी मदद कौन करेगा? यह तो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर बढ़ने जैसा खतरनाक कदम हो सकता है।
दरअसल, अमेरिका ये दबाव की राजनीति ईरान पर अपनी दादागिरी को इराक के माफिक स्थापित करने के लिए कर रहा है। अमेरिका ईरान से तेल आयात में काटौती का फरमान जारी कर ईरान के खिलाफ अप्रत्यक्ष रूप से ध्रुवीकरण को बढ़ावा देकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश में है। वैसे ही जैसे जैविक हथियार के नाम पर इराक के खिलाफ पहले विश्व समुदाय को भड़काया गया और फिर उसपर हमला बोल दिया गया। अमेरिका को हमेशा से तेल संपन्न इन देशों को अपने नियंत्रण में रखने की ख्वाहिश रही है। इराक के बाद अब बारी ईरान की है और बहाना परमाणु बम निर्माण का है। अमेरिका के इस अघोषित मंशा को ईरान और इजराइल के बीच लगातार तनातनी से भी बल मिलता है। इसमें वह इजराइल की ममद भी इसी कारण बढ़-चढ़कर करता रहा है। वैसे ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने के मुद्दे में अमेरिका को परमाणु अप्रसार संधि टूटने से ज्यादा खुद की मंशा पर पानी फिरने का डर है। यदि ईरान ऐसा करने में सफल हो गया तो उसपर इराक की तरह नियंत्रण पाना अमेरिका के लिए बड़ी दूर की कौड़ी हो सकती है। इस डर का अंदाजा पिछले दिनों की उस घटना से लग चुका है, जब ईरान ने परमाणु बम बनाने की अपनी कुशलता का खुला प्रदर्शन किया था और जिसे देख अमेरिका मानो बौखला उठा था। अमेरिका तभी से खाड़ी और पश्चिम एशिया के सभी देशों को ईरान से नाता तोड़ने का सुझाव देने लगा है। इस तरह वह ध्रवीकरण को हवा दे रहा है।
यही नहीं ईरान के खिलाफ देशों को बांटने के लिए अमेरिका अब कुचक्र भी रचने लगा है। हाल ही में दिल्ली में हुए स्टीकर बम धमाके पर खुफिया विभाग की बैंकॉक यूनिट की जो रिपोर्ट सामने आई। उसके मुताबिक दिल्ली, बैंकॉक और जार्जिया के ब्लास्ट एक समान थे। तीनों धमाकों में लो-इंटेंसिटी बम का प्रयोग किया गया। तीनों धमाकों की साजिश इजराइल या अमेरिका में ही रची गई और तीनों जगहों पर लोकल लोगों ने ही इसे अंजाम दिलाया। वहीं तीनों ब्लास्ट का मकसद किसी को मारने का नहीं था। जाहिर है, इस विस्फोट का मकसद तबाही फैलाना नहीं, बल्कि भारत और कुछ देशों के बीच मनमुटाव पैदा कर संबंधित देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करना था। यहीं नहीं, इन धमाकों के बाद तमाम एजेंसियों ने अभी छानबीन की शुरुआत ही की थी और वे हमले के बारे में कुछ कह पातीं, इससे पहले ही इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू ने हमलों के लिए ईरान और हिजबुल्लाह पर आरोप लगा दिया। हालांकि भारत ने इस मामले में ईरान को क्लीनचीट देकर यह साफ कर दिया कि अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच जारी कूटनीतिक चालबाजियों के बीच भारत का रुख तटस्थ है और ईरान से भारत के रिश्ते पूर्ववत बने रहेंगे। वहीं हिजबुल्लाह ने भी स्पष्ट कर दिया कि इन धमाकों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ, इसके लिए इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद की भूमिका पर सवाल खड़ा होने लगा, क्योंकि वह पहले से ही इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ इस तरह के हथियार इस्तेमाल करता रहा है। फिलीस्तिन और दूसरे अरब देशों में इसके उदाहरण भी मिले हैं।
ऐसे में ईरान को लेकर अमेरिका के असल मकसद को समझना मुश्किल नहीं है, लेकिन इस माहौल में भारत को बेहद सतर्कता से अपनी तटस्थता को बरकरार रखने की चुनौती होगी और इस चुनौती को पार पाना तभी संभव है, जब अमेरिका पर भरोसा और निर्भरता दोनों ही नापतौल कर किया जाए।
यह कैसा संयोग है कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिलने आई अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पर ममता की प्रकृति का साया पड़ गया। जैसे ममता बनर्जी आए दिन विभिन्न मुद्दों पर केंद्र सरकार पर धौंस जमाती रहती हैं, कुछ वैसे ही हिलेरी क्लिंटन ने भारत में ही भारत को से दो टूक कह दिया है कि ईरान से दूर रहो। वैसे अमेरिका यह दबाव भारत के अलावा चीन, यूरोपीय देशों और जापान पर भी बना रहा है कि ईरान से तेल आयात में कटौती करें। लेकिन भारत के बारे में हिलेरी के सुर ममता बनर्जी की तरह ही धौंस भरा प्रतीत हुआ, जब हिलेरी ने कहा ईरान के कुल तेल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 12 फीसदी है। सऊदी अरब के बाद ईरान भारत को तेल का निर्यात करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। यानी भारत जल्दी कटौती की ओर कदम बढ़ाए। यह भी कह दिया गया कि इराक और सऊदी अरब जैसे पेट्रोलियम उत्पादक देश भारत जैसे देशों की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। इस एकतरफा फरमान के पीछे अमेरिका का तर्क है कि इससे ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएगा। ज्ञात रहे कि अमेरिका इस बाबत इससे पहले मार्च में भी भारत और 11 अन्य देशों को नोटिस थमाकर धमकी दे चुका है कि ईरान से तेल आयात में कटौती नहीं करने पर उनपर वित्तीय प्रतिबंधों को कड़ा कर दिया जाएगा। उसी तरह जैसे ममता बनर्जी पेट्रोल के दाम बढ़ाए जाने पर केंद्र सरकार को धमकी दी थी। भलें ही संदर्भ अलग-अलग हों, पर कोलकाता में हिलेरी और ममता बनर्जी की शैली में, जो एक समानता दिखी, वह भारत सरकार पर अपनी मांग को लेकर धौंस जमाने जैसा ही कह सकते हैं।
खैर, ऐसे संयोग के बीच सवाल यह है कि आखिर भारत क्यों अमेरिकी धौंस में आकर ईरान से अपने पुराने रिश्ते तोड़ दे और तेल के आयात में कटौती करे? जबकि भारत में पहले से ही तेल की आपूर्ति और उसके आए दिन बढ़ते दाम को लेकर बवाल मचा रहता है। ऐसे में क्या एक पुराने आपूर्तिकर्ता देश से आयात कम करके दूसरे देशों से तेल खरीदने में नई व्यवस्था बनाने आदि का अतिरिक्त भार नहीं बढ़ेगा ? फिर सऊदी अरब को तेल निर्यात करने में कहीं कोई उपलब्धता की समस्या खड़ी हो गई तो? खासकर तब जब उसे ईरान से तेल लेने वाले 11 देशों को भी तेल निर्यात करना पड़ेगा। उससे भारत में पैदा होने वाले तेल के महासंकट से निपटने के लिए हमारी मदद कौन करेगा? यह तो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर बढ़ने जैसा खतरनाक कदम हो सकता है।
दरअसल, अमेरिका ये दबाव की राजनीति ईरान पर अपनी दादागिरी को इराक के माफिक स्थापित करने के लिए कर रहा है। अमेरिका ईरान से तेल आयात में काटौती का फरमान जारी कर ईरान के खिलाफ अप्रत्यक्ष रूप से ध्रुवीकरण को बढ़ावा देकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश में है। वैसे ही जैसे जैविक हथियार के नाम पर इराक के खिलाफ पहले विश्व समुदाय को भड़काया गया और फिर उसपर हमला बोल दिया गया। अमेरिका को हमेशा से तेल संपन्न इन देशों को अपने नियंत्रण में रखने की ख्वाहिश रही है। इराक के बाद अब बारी ईरान की है और बहाना परमाणु बम निर्माण का है। अमेरिका के इस अघोषित मंशा को ईरान और इजराइल के बीच लगातार तनातनी से भी बल मिलता है। इसमें वह इजराइल की ममद भी इसी कारण बढ़-चढ़कर करता रहा है। वैसे ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने के मुद्दे में अमेरिका को परमाणु अप्रसार संधि टूटने से ज्यादा खुद की मंशा पर पानी फिरने का डर है। यदि ईरान ऐसा करने में सफल हो गया तो उसपर इराक की तरह नियंत्रण पाना अमेरिका के लिए बड़ी दूर की कौड़ी हो सकती है। इस डर का अंदाजा पिछले दिनों की उस घटना से लग चुका है, जब ईरान ने परमाणु बम बनाने की अपनी कुशलता का खुला प्रदर्शन किया था और जिसे देख अमेरिका मानो बौखला उठा था। अमेरिका तभी से खाड़ी और पश्चिम एशिया के सभी देशों को ईरान से नाता तोड़ने का सुझाव देने लगा है। इस तरह वह ध्रवीकरण को हवा दे रहा है।
यही नहीं ईरान के खिलाफ देशों को बांटने के लिए अमेरिका अब कुचक्र भी रचने लगा है। हाल ही में दिल्ली में हुए स्टीकर बम धमाके पर खुफिया विभाग की बैंकॉक यूनिट की जो रिपोर्ट सामने आई। उसके मुताबिक दिल्ली, बैंकॉक और जार्जिया के ब्लास्ट एक समान थे। तीनों धमाकों में लो-इंटेंसिटी बम का प्रयोग किया गया। तीनों धमाकों की साजिश इजराइल या अमेरिका में ही रची गई और तीनों जगहों पर लोकल लोगों ने ही इसे अंजाम दिलाया। वहीं तीनों ब्लास्ट का मकसद किसी को मारने का नहीं था। जाहिर है, इस विस्फोट का मकसद तबाही फैलाना नहीं, बल्कि भारत और कुछ देशों के बीच मनमुटाव पैदा कर संबंधित देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करना था। यहीं नहीं, इन धमाकों के बाद तमाम एजेंसियों ने अभी छानबीन की शुरुआत ही की थी और वे हमले के बारे में कुछ कह पातीं, इससे पहले ही इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू ने हमलों के लिए ईरान और हिजबुल्लाह पर आरोप लगा दिया। हालांकि भारत ने इस मामले में ईरान को क्लीनचीट देकर यह साफ कर दिया कि अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच जारी कूटनीतिक चालबाजियों के बीच भारत का रुख तटस्थ है और ईरान से भारत के रिश्ते पूर्ववत बने रहेंगे। वहीं हिजबुल्लाह ने भी स्पष्ट कर दिया कि इन धमाकों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ, इसके लिए इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद की भूमिका पर सवाल खड़ा होने लगा, क्योंकि वह पहले से ही इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ इस तरह के हथियार इस्तेमाल करता रहा है। फिलीस्तिन और दूसरे अरब देशों में इसके उदाहरण भी मिले हैं।
ऐसे में ईरान को लेकर अमेरिका के असल मकसद को समझना मुश्किल नहीं है, लेकिन इस माहौल में भारत को बेहद सतर्कता से अपनी तटस्थता को बरकरार रखने की चुनौती होगी और इस चुनौती को पार पाना तभी संभव है, जब अमेरिका पर भरोसा और निर्भरता दोनों ही नापतौल कर किया जाए।
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