उदय केसरी
देश को झकझोर देने वाले अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद अब देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में चुनावों का मौसम अपने चरम की ओर बढ़ रहा है| इस मौसम में राजनीतिक दलों के तमाम संकीर्ण समीकरणों के बावजूद जनता में एक मुद्दा काफी प्रभावी है| वह मुद्दा है भ्रष्टाचार, जिसके विरोध में अर्से बाद पुरजोर हवा चलने की उम्मीद है| यह देश के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, इन पांचों राज्यों के मद्देनजर भी लाजमी है| चाहे उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की मायावती सरकार हो या पंजाब में शिरोमणि अकाली दल व भाजपा गठबंधन की प्रकाश सिंह बादल की सरकार और उत्तराखंड में भाजपा की पहले पोखरियाल निशंक और फिलहाल भुवन चंद्र खंडूरी की सरकार हो या फिर गोवा व मणिपुर में कांग्रेस की दिगंबर कामत व इबोबी सिंह की सरकारें, इन पांचों राज्यों की सरकारों में किसी नाते यदि सबसे अधिक समानता है, तो वह है भ्रष्टाचार| कहने की जरूरत नहीं कि इन सभी राज्यों की जनता यदि गरीब, पिछड़ी और विकास से दूर है, तो उसकी सबसे बड़ी वजह इन सरकारों के संचालकों के बीच लहलहाती भ्रष्टाचार की पौध है| लेकिन हैरतअंगेज बात यह है कि इन राज्यों की ऐसी दुर्गति करने के बाद भी सभी प्रमुख दलों के सियासतदानों ने हमेशा की तरह इस बार भी चुनावी बिसात पर जाति, धर्म, समुदाय, आरक्षण और लालच के वही पुराने दांव चले हैं| जबकि सबसे अहम भ्रष्टाचार के मुद्दे को वे महज फैशन के चोले के तौर पर ओढ़कर चुनावी जुगाली कर रहे हैं, जिसमें पड़कर जनता हमेशा से ठगी जाती रही है| फिर भी, इस बार भ्रष्टाचार विरोधी पुरजोर हवा चलने की उम्मीद इसलिए की जा सकती है, क्योंकि इन चुनावों के दो-तीन महीनों के मौसम से ठीक पहले हमने अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के आठ महीने भी देखे हैं, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरा देश जाग उठा था| उम्मीद है कि चुनाव पूर्व के आठ महीनों में, जनता में इतनी प्रतिरोधी क्षमता जरूर पैदा हो गई होगी कि वे अपनी आंखों से नेताओं की चुनावी जुगाली के संक्रमण का मुकाबला कर सकें और अपने मत एवं विचार का सही इस्तेमाल करें| हालांकि यह भी कड़वा सच है कि इस आधुनिक युग में कई लोग तात्कालिक लाभ या लालच में पड़कर अपने विचारों से समझौता भी कर बैठते हैं| ऐसे लोगों के बीच उन तमाम लोगों को उसी तरह जाकर जागरूकता फैलाने की जरूरत है, जैसे टीम अन्ना के लोग कर रहे हैं| जाहिर है, बदलाव और विकास केवल उम्मीदों से नहीं हो सकता, सियासतदानों के लालच, आश्वासन और नकली मुद्दों को भी धीरज से समझना होगा| यह सब समझने के बाद यक्ष प्रश्न यह भी है कि आखिर किस पार्टी और उम्मीदवार को सही माना जाए? जबकि इन पांचों राज्यों की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां, वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो या बसपा या फिर अकाली दल, सभी की सरकारों में भ्रष्टाचार घटने के बजाय बेतहाशा बढ़ा है| यही नहीं, अपराध, गरीबी, भुखमरी और सामाजिक असमानता में जबर्दस्त इजाफा हुआ है| उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य में ६९.९ फीसदी आबादी गरीबी में जी रही है, तो पंजाब जैसे कृषि समृद्ध राज्य में अब भी २६.२ फीसदी, उत्तराखंड में ७७ फीसदी, गोवा में २१.७ और मणिपुर समेत पूर्वोत्तर में ५७.६ फीसदी जनता गरीबी में जीने को मजबूर है| वहीं इन राज्यों में हजारों करोड़ रुपयों के घोटाले सामने आए हैं| उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) घोटाला, पंजाब में जीपीएफ और गेहूं घोटाला, उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट घोटाला, गोवा और मणिपुर में खनन घोटाले इस बात के प्रमाण हैं कि चाहे कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पाटियां हों या फिर बसपा, सपा या अकाली दल जैसी क्षेत्रीय स्तर की पार्टियां, जनता के निवाले छीनकर काली कमाई करने में कोई पीछे नहीं है| ऐसे में, यदि आप यह सोचते हैं कि वोट देने से क्या बदलेगा तो यह शत-प्रतिशत गलत है| सही और व्यावहारिक राय यह है कि सभी दलों के उम्मीदवारों में से उसको वोट दें, जो तुलनात्मक दृष्टि से आपकी नजर में सबसे कम भ्रष्ट या खराब हो| इससे भले ही चुनाव बाद शीघ्रता से बदलाव नहीं आएगा, लेकिन भ्रष्टाचार को राजनीतिक शिष्टाचार बना कर रखने वाले नेताओं को करारा झटका जरूर लगेगा| इससे और कुछ नहीं तो बदलाव की शुरुआत अवश्य होगी और फिर अभी २०१४ का आम चुनाव भी तो आने वाला है| हमने यदि बिना किसी लालच में पड़े आने वाले चुनावों में समझदारी से वोट डाला, तो ऐसे नेताओं और उम्मीदवारों के पास, राजनीति से बाहर जाने के सिवाय कोई रास्ता या समीकरण या दांव नहीं बचेगा
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