उदय केसरी
हाल के दशकों में हुए बेतहाशा भ्रष्टाचार से देश तो खोखला हुआ ही, सबसे अधिक जनता बेहाल हुई है| इसी बेहाली के मौके पर भ्रष्टाचार विरोधी सख्त जनलोकपाल कानून की अवधारणा के साथ ७४ वर्षीय अन्ना हजारे देश के सामने आए और देखते ही देखते पूरे देश की जनता की उम्मीद बन गए| अन्ना व्यक्तिगत तौर पर एक ईमानदार समाजसेवक रहे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार का विरोध करके सार्वजनिक तौर पर वे जननायक या बहुसंख्य जनता के पर्याय जैसे हो चुके हैं| अगस्त २०११ के अनशन के बाद से अन्ना महज रालेगण सिद्धि गांव के नहीं, बल्कि देशभर के गांवों व शहरों में नायक हो चुके हैं और वर्तमान में अन्ना का वास्तविक मायने यही है| लेकिन कांग्रेस नीत केंद्र की यूपीए सरकार को अगस्त से अब तक चार महीने गुजर जाने के बाद भी अन्ना का यह मायने समझ में नहीं आया है| उलटे इन चार महीनों के दौरान कांग्रेस के नेताओं और मंत्रियों ने पानी पी-पीकर अन्ना व टीम अन्ना को कोसा, उन्हें तोड़ने-फोड़ने और बदनाम करने की कोशिश की है, जिसे पूरे देश ने देखा है और उसके मायने भी लगाए हैं| इसलिए दिसंबर से जनता ने, अन्ना के रूप में फिर से सरकार को अपनी ताकत और अन्ना के मायने समझाने की कोशिश पुन: शुरू कर दी है| लेकिन, जब सिर पर सत्ता की मद सवार हो तो मतिभ्रम की आशंका सबसे अधिक होती है| शायद सरकार को मतिभ्रम हो चुका है और उसे अन्ना में देश की जनता नहीं, बल्कि विपक्षी राजनीतिक पार्टियां, भाजपा व आरएसएस दिख रही है| उसे तो यह भी परवाह नहीं कि देश के अन्ना को नाराज करके २०१४ में वह किस मुंह से उसी अन्ना से वोट मांगने जाएगी? वैसे, केंद्र सरकार ने अगस्त में अन्ना से किए उस वादे को खुद ही लगभग झूठ साबित कर दिया है, जिसमें संसद के शीतकालीन सत्र में सख्त लोकपाल बिल पारित कराने का वादा किया गया था| इस पर कभी स्टैंडिंग कमेटी की राय का ड्रामा, तो कभी ग्रुप सी व डी के कर्मचारियों और सीबीआई को परे रखने के विचार ने अंतत: लोकपाल को टीन के डब्बे वाली अवधारणा में परिणत कर दिया है| यानी इन चार महीनों के इंतजार के बाद भी अब तक अन्ना यानी देश की जनता को सरकार से सिर्फ धोखा ही मिला है| ऐसे में अन्ना के आंदोलन को तेज करने के सिवाय देश की जनता के पास, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का अन्य कोई विकल्प नहीं बचता| लेकिन इस बार की लड़ाई केंद्र सरकार को पहले से बहुत अधिक भारी पड़ेगी, यह तय है, क्योंकि कांग्रेस को शायद जयप्रकाश आंदोलन के अनुभव अब याद नहीं रहे हैं, वरना वह फिर वैसी ही भूल दोहराने की दिशा में नहीं बढ़ती| हालांकि दूसरी तरफ, देश की विपक्षी पार्टियों को शायद अन्ना के मायने की समझ आ गई है, तभी तो कल तक अन्ना को चुनाव लड़ के आने की सलाह देने वाले सांसद, ११ दिसंबर २०११ को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना के मंच पर सख्त लोकपाल की मांग को बुलंद करने की बातें करते नजर आए| हालांकि इसके ठीक बाद ही इस मुद्दे पर सरकार ने जब सर्वदलीय बैठक बुलाई तो उसमें कुछ विपक्षी पार्टियों की बातों में अंतर आ गया| यह अंतर साफ करता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का सहयोग उनकी राजनीति के नफे-नुकसान के आधार ही पर प्राप्त होगा, क्योंकि भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है, जिसके दाग से कौन सा दल अछूता है और कौन कब तक अछूता रहेगा, कहना मुश्किल है| मसलन, हाल ही में कर्नाटक में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा को भ्रष्टाचार के मामले में इस्तीफा देना पड़ा है| यही भाजपा केंद्र में प्रमुख विपक्षी दल है, जो कांग्रेस के खिलाफ अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को अपना समर्थन दे रही है| साफ है, अन्ना या जनता को भ्रष्टाचार की लड़ाई खुद अपने दम पर लड़नी होगी और इस बार अगस्त से कहीं अधिक बड़ा आंदोलन करके सरकार को अन्ना के मायने समझाना होगा| पिछली बार की लड़ाई में सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम पासे फेंकते नजर आ रहे थे, लेकिन इस बार ये दोनों शायद ही नजर आएं| वजह साफ है कि कांग्रेस की आलाकमान सोनिया गांधी की गैर-मौजूदगी में सिब्बल के दांव-पेंच को लगभग विफल माना गया और जहां तक चिदंबरम की बात है तो वे अभी खुद ही एक तरफ, महाभ्रष्टाचार २जी के घेरे में घिरते नजर आ रहे, तो दूसरी तरफ, अपने एक पुराने मुवक्किल को बचाने से संबंधित हितों के टकराव के एक नए मामले में भी उनका गला फंसता नजर आ रहा है| हां, इस बार कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी अवश्य पूरे फॉर्म में नजर आ रहे हैं और अन्ना के खिलाफ वह खुलकर बोलने भी लगे हैं, जो अन्ना के अगस्त के अनशन के दौरान काफी संयम बरते हुए थे| वैसे, यह करके वे खुद की छवि को ही क्षति पहुंचा रहे हैं, क्योंकि कांगे्रस की यूपीए सरकार के विरोध के बावजूद भी राहुल गांधी से जनता को सहयोग की उम्मीद रही है| लेकिन हाल के दिनों में उनके अन्ना विरोधी बयानों ने इस उम्मीद पर पानी फेरा है और शायद इसीलिए खुद अन्ना ने भी उन्हें संभलने का इशारा करते हुए अपने एक बयान में कहा कि कई लोगों का मानना है कि राहुल गांधी शीघ्र ही प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन यदि वह लोकपाल पर अपने वर्तमान विचारों को नहीं बदलते हैं तो यह देश के लिए खतरनाक होगा| जाहिर है राहुल गांधी समेत केंद्र सरकार को अन्ना के मायने समझना होगा
No comments:
Post a Comment