उदय केसरी
परमाणु मुद्दे को लेकर अमेरिका और ईरान के बीच तनाव का माहौल गहराने लगा है। वहीं इन दोनों के बीच इजराइल एक मासूम उत्प्रेरक की भूमिका निभाता प्रतीत हो रहा है। जाहिर है ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने की अपनी कुशलता का खुला प्रदर्शन करना अमेरिका को चुनौती जैसा लगा हो, तभी वह खाड़ी और पश्चिम एशिया के सभी देशों को ईरान से नाता तोड़ने का सुझाव देकर ध्रवीकरण को हवा दे रहा है। वैसे, ये हालात खुद नहीं बन रहे, बल्कि बनाए जा रहे हैं। खुफिया विभाग की बैंकॉक यूनिट की जो रिपोर्ट सामने आई है। उसके मुताबिक दिल्ली, बैंकॉक और जार्जिया के ब्लास्ट एक समान हैं। तीनों धमाकों में लो-इंटेंसिटी बम का प्रयोग किया गया। तीनों धमाकों की साजिश इजराइल या अमेरिका में ही रची गई और तीनों जगहों पर लोकल लोगों ने ही इसे अंजाम दिलाया। तीनों ब्लास्ट का मकसद किसी को मारने का नहीं था। जाहिर है, इस विस्फोट का मकसद तबाही फैलाना नहीं, बल्कि भारत और कुछ देशों के बीच मनमुटाव पैदा कर संबंधित देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करना था। यहीं नहीं, इन धमाकों के बाद तमाम एजेंसियों ने अभी छानबीन की शुरुआत ही की थी और वे हमले के बारे में कुछ कह पातीं, इससे पहले ही इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू ने हमलों के लिए ईरान और हिजबुल्लाह पर आरोप लगा दिया। हालांकि भारत ने इस मामले में ईरान को क्लीनचीट देकर यह साफ कर दिया है अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच जारी कूटनीतिक चालबाजियों के बीच भारत का रुख तटस्थ है और ईरान से भारत के रिश्ते पूर्ववत बने रहेंगे। वहीं हिजबुल्लाह ने भी स्पष्ट कर दिया कि इन धमाकों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ, इसके लिए इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद की भूमिका पर सवाल खड़ा होने लगा, क्योंकि वह पहले से ही इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ इस तरह के हथियार इस्तेमाल करता रहा है। फिलिस्तीन और दूसरे अरब देशों में इसके उदाहरण भी मिले हैं। सवाल है क्या वाकई ईरान के दावों में दम है कि खुद इजरायल ने ही ये धमाके अपनी सीक्रेट सर्विस मोसाद के जरिए करवाया है? यदि ऐसा है तो आने वाला समय एक बार फिर खाड़ी युद्ध का गवाह बन सकता है। करीब नौ साल पहले 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद इराकी आवाम की तबाही और अमेरिकी दादागिरी, दोनों से पूरी दुनिया वाकिफ है। ऐसे में, ईरान के साथ अमेरिका का तनाव गहराना गंभीर है। हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि हाल ही में अमेरिका और ईरान में चुनाव होने वाले हैं, वहीं पूर्व के इराक व अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले से अमेरिकी सरकार को अपने ही देश में समर्थन से अधिक विरोध ङोलने पड़े हैं और उसपर से अभी आर्थिक मंदी बोझ भी है। ऐसे में, में ईरान पर अमेरिकी हमले की आशंका कम से कम फिलहाल के कुछ महीनों में नहीं दिखती है। हालांकि युद्ध के मामले में ऐसे विश्लेषण तब धरे के धरे रहे जाते हैं, जब हितों का टकराव और आपसी महत्वाकांक्षा चरम पर पहुंच जाती है, मसलन, 2001 का अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला बहुत प्रत्याशित नहीं था। बहरहाल, इन तनावों के बीच भारत की तटस्थता एक बेहतर नीति है।
परमाणु मुद्दे को लेकर अमेरिका और ईरान के बीच तनाव का माहौल गहराने लगा है। वहीं इन दोनों के बीच इजराइल एक मासूम उत्प्रेरक की भूमिका निभाता प्रतीत हो रहा है। जाहिर है ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने की अपनी कुशलता का खुला प्रदर्शन करना अमेरिका को चुनौती जैसा लगा हो, तभी वह खाड़ी और पश्चिम एशिया के सभी देशों को ईरान से नाता तोड़ने का सुझाव देकर ध्रवीकरण को हवा दे रहा है। वैसे, ये हालात खुद नहीं बन रहे, बल्कि बनाए जा रहे हैं। खुफिया विभाग की बैंकॉक यूनिट की जो रिपोर्ट सामने आई है। उसके मुताबिक दिल्ली, बैंकॉक और जार्जिया के ब्लास्ट एक समान हैं। तीनों धमाकों में लो-इंटेंसिटी बम का प्रयोग किया गया। तीनों धमाकों की साजिश इजराइल या अमेरिका में ही रची गई और तीनों जगहों पर लोकल लोगों ने ही इसे अंजाम दिलाया। तीनों ब्लास्ट का मकसद किसी को मारने का नहीं था। जाहिर है, इस विस्फोट का मकसद तबाही फैलाना नहीं, बल्कि भारत और कुछ देशों के बीच मनमुटाव पैदा कर संबंधित देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करना था। यहीं नहीं, इन धमाकों के बाद तमाम एजेंसियों ने अभी छानबीन की शुरुआत ही की थी और वे हमले के बारे में कुछ कह पातीं, इससे पहले ही इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू ने हमलों के लिए ईरान और हिजबुल्लाह पर आरोप लगा दिया। हालांकि भारत ने इस मामले में ईरान को क्लीनचीट देकर यह साफ कर दिया है अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच जारी कूटनीतिक चालबाजियों के बीच भारत का रुख तटस्थ है और ईरान से भारत के रिश्ते पूर्ववत बने रहेंगे। वहीं हिजबुल्लाह ने भी स्पष्ट कर दिया कि इन धमाकों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ, इसके लिए इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद की भूमिका पर सवाल खड़ा होने लगा, क्योंकि वह पहले से ही इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ इस तरह के हथियार इस्तेमाल करता रहा है। फिलिस्तीन और दूसरे अरब देशों में इसके उदाहरण भी मिले हैं। सवाल है क्या वाकई ईरान के दावों में दम है कि खुद इजरायल ने ही ये धमाके अपनी सीक्रेट सर्विस मोसाद के जरिए करवाया है? यदि ऐसा है तो आने वाला समय एक बार फिर खाड़ी युद्ध का गवाह बन सकता है। करीब नौ साल पहले 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद इराकी आवाम की तबाही और अमेरिकी दादागिरी, दोनों से पूरी दुनिया वाकिफ है। ऐसे में, ईरान के साथ अमेरिका का तनाव गहराना गंभीर है। हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि हाल ही में अमेरिका और ईरान में चुनाव होने वाले हैं, वहीं पूर्व के इराक व अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले से अमेरिकी सरकार को अपने ही देश में समर्थन से अधिक विरोध ङोलने पड़े हैं और उसपर से अभी आर्थिक मंदी बोझ भी है। ऐसे में, में ईरान पर अमेरिकी हमले की आशंका कम से कम फिलहाल के कुछ महीनों में नहीं दिखती है। हालांकि युद्ध के मामले में ऐसे विश्लेषण तब धरे के धरे रहे जाते हैं, जब हितों का टकराव और आपसी महत्वाकांक्षा चरम पर पहुंच जाती है, मसलन, 2001 का अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला बहुत प्रत्याशित नहीं था। बहरहाल, इन तनावों के बीच भारत की तटस्थता एक बेहतर नीति है।
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