उदय केसरी
१६ अगस्त के बाद देश को यदि जागा हुआ माना जाए, तो अब जंग के वक्त देश मौन क्यों है? शायद, यही सवाल उस ७४ साल के युवा की उपाधि पा चुके अन्ना हजारे के मन में उठा होगा, जिसका कोई जवाब नहीं मिलने पर उन्होंने अनिश्चितकाल के लिए मौन धारण कर लिया| हालांकि खुद अन्ना ने मौन की वजह आत्मशांति और अपनी नासाज सेहत की जरूरत को बताया और १२ बार पहले भी ऐसा कर चुकने की बात कही| लेकिन क्या यह उन करोड़ों युवा भारतवासियों को झकझोरने वाली घटना नहीं लगी? जिनकी जुबान यह कहते नहीं थक रही थी- मैं अन्ना हूं्| देश की गलियां, जिनके नाम से गूंजने लगी थीं और सड़कों पर जन सैलाब उमड़ पड़ा था, उस शख्स को आखिर अपनी ही अभिव्यक्ति पर क्यों विराम लगाना पड़ा?
इस पर मेरा जवाब शायद कुछ लोगों को जज्बाती लगे, लेकिन साफ है कि अन्ना की अगस्त क्रांति से देश के सबसे अधिक युवा समेत करोड़ों लोगों की आंखें जरूर खुलीं, लेकिन वे खुद के भीतर जंग में चौतरफा हमलों के बीच अपने जज्बे को बरकरार रखने का अटूट साहस नहीं जगा पाए| जबकि हमारी इस कमजोरी से इस देश पर राज करने वाले चतुर-चालाक नेता बहुत पहले से वाकिफ रहे हैं| हमारे अंदर क्षण भर में पैदा होने वाले देशप्रेम के जज्बे से इस देश के नेता केवल तब ही डरते हैं, जब वक्त उनके चुनाव का होता है, जो एक लंबे अंतराल के बाद आता है और तब वे जनता के एकदम वफादार सेवक का चोला और व्यवहार धारण कर लेते हैं-हमारे क्षणिक जज्बे को धोखा देने और सत्ता में आने के बाद अपनी आंखें तरेरने के लिए|
अन्ना की अगस्त क्रांति में हम-आप ने यदि कुछ वक्त के लिए ही अन्ना होने के जज्बे से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई हो, तो हमारे अंदर के उस अन्ना का दमन केंद्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस के चालबाज सिपाही कैसे कर रहे हैं, यह क्या किसी से छुपा हुआ है? नहीं, तो फिर हम मौन क्यों हैं? क्या इस देश में अभिव्यक्ति इतनी खतरनाक हो गई है कि देश के एक जाने-माने वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को उनके चैंबर में घुसकर एक सिरफिरा युवा बुरी तरह से पीट देता है और गर्व से खुद को छद्म सेना का सिपाही बताता है| यही नहीं, इसके खिलाफ जब टीम अन्ना के कुछ समर्थक आवाज उठाते हैं तो उन्हें भी उतनी ही बेरहमी से पीटा जाता है| कश्मीर मसले पर प्रशांत भूषण ने अपनी जो निजी राय व्यक्त की, उनसे पहले क्या ऐसी राय दिल्ली में ही प्रसिद्ध लेखिका अरूंधती राय ने नहीं व्यक्त की थी? की थी और यही बात उन्होंने कश्मीर में भी कही थी, तब उनके बयान के खिलाफ किसी छद्म सेना के सिपाही का खून इसी तरह से क्यों नहीं खौला?
जाहिर है, यहां मकसद देश की ‘कथित’ अखंडता के खिलाफ बयान देने का नहीं है, बल्कि हमारे अंदर जागे अन्ना को दमन करने का है| यहां मैं अखंडता शब्द से पहले लिखे ‘कथित’ शब्द का मतलब स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह वह अखंडता है, जिसकी बात करने वाले खुद, इस धर्मनिरपेक्ष भारत भूमि में, सांप्रदायिक विचारों के खंडों में बंटे हुए हैं| जहां तक कश्मीर को देश से अलग होने की छूट देने का सवाल है तो प्रशांत भूषण की राय से मैं सहमत नहीं हूं, लेकिन मैं आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद, शिव सेना, बजरंग दल व कथित राम सेना, भगत सिंह क्रांति सेना समेत सांप्रदायिक मुस्लिम संगठनों, चरमपंथी सिमी, बब्बर खालसा, कट्टर ईसाई मिशनरी आदि के सांप्रदायिक विचारों से भी सहमत नहीं हूं, और मैं क्या इस देश की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था इससे सहमत नहीं है| तो क्या उनके खिलाफ तब तक कोई हिंसक कार्रवाई की जाती है, जब तक कि उनके कारनामों से देश में सुरक्षा-व्यवस्था का कोई भयंकर संकट पैदा नहीं हो जाता? नहीं ना, क्योंकि देश की इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था से हमें अहिंसक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी मिला हुआ है|
लेकिन इस अधिकार पर ही नहीं, २००५ में बने सूचना के अधिकार (आरटीआई) पर भी कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के नेताओं का नजरिया बदलने लगा है| कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के जरिये टीम अन्ना पर हो रहे लगातार हमलों के बीच सूचना आयुक्तों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा यह बयान दिया जाता है कि आरटीआई कानून के दायरे पर पुनर्विचार करने की जरूरत है| क्या इससे जाहिर नहीं होता कि टीम अन्ना और भ्रष्टाचार के खिलाफ हिसार समेत देशभर में जगे अनेक अन्नाओं से खार खाई कांग्रेस की सरकार बदले की कार्रवाई कर रही है? ऐसे में, यही सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में क्या वाकई सख्त लोकपाल बिल लाने और उसे पारित करवाने का वादा पूरा करेगी? विश्वास करना मुश्किल है| केंद्र सरकार तो अब लोकपाल कानून के लिए टीम अन्ना द्वारा की गई ऐतिहासिक पहल को भी जैसे मिटाने की फिराक में है और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के उस प्रस्ताव पर विचार होने लगा है कि लोकपाल को एक संवैधानिक संस्था बनाया जाए, जिसे बनाने की प्रक्रिया, कानून बनाने से कहीं अधिक मुश्किल है| यानी सरकार की मंशा कुछ और ही है, मगर हैरत यह है कि...टीम अन्ना पर चौतरफा हमलों के खिलाफ और अपने मौलिक अधिकारों के रक्षार्थ जंग के इस वक्त में देश मौन क्यों है?
मासिक पत्रिका 'फ्लाइंग स्क्वाड' के नवम्बर अंक में प्रकाशित|
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