उदय केसरी
26/11 के बाद एक बार फिर मुंबई में 13/07 को हुआ आतंकी हमला देश के सुरक्षा तंत्र के लिए लानत ही है, लेकिन जब इसका एहसास इस तंत्र के मुखिया केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम तक को नहीं है, तो बाकियों को क्या होगा? वह तो यह कहते हुए अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हैं कि 26/11 के 31 महीने बाद मुंबई में पहली बार आतंकी किसी वारदात को अंजाम देने में सफल हो पाए हैं] तो क्या 31 महीनों बाद मुंबई की जनता ने अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी चिदंबरम से वापस ले ली थी?
सवाल कई हैं] जो मानवता के खिलाफ बम विस्फोट करते आतंकवादियों को रोक पाने या उन्हें सबक सिखाने में विफल भारतीय सुरक्षा तंत्र को कटघरे में खड़ा करते हैं, लेकिन असली मुद्दा इच्छाशक्ति और कर्तव्यों के प्रति वफादारी का है, जो शायद इस देश की शासन-सत्ता में बीती बात हो गई है। अब अपनी कमजोरियों, लापरवाहियों और अनियमितताओं को छुपाने के लिए एक जुमला निकल पड़ा है-सहनशीलता।
कोई भी हमारे घर में घुसकर हमें लहूलुहान कर जाता है और हम चंद जुमले उछालकर अपने-आप को ताकतवर साबित करने की कोशिश करने लगते हैं- लोगों ने बड़ी हिम्मत दिखाई, स्पिरिट ऑफ मुंबई, लोग बेखौफ होकर अपने-अपने काम पर निकले... बस बहुत हुआ यह झूठा जज्बा दिखाने का खेल। हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि हमारा नेतृत्व पूरी तरह कायर हो चुका है। हर हमले के बाद हमें आश्वासन मिलेंगे। शांति बनाए रखने की गुजारिश होगी। साक्ष्य जुटाए जाएंगे। जांच चलेगी। मृतकों-घायलों के जख्मों पर मुआवजे की मरहम लगा दी जाएगी। आतंकियों को कोसा जाएगा। पाकिस्तान को कोसा जाएगा। उसे घटना के साक्ष्य और आतंकियों की सूची सौंपी जाएगी। अमेरिका से दबाव डलवाने की कोशिश की जाएगी। शांति वार्ताएं थम जाएंगी। बयानबाजी होने लगेगी। पक्ष-विपक्ष आरोप और सफाई देते रहेंगे। मीडिया, लोगों के जज्बे को सलाम करता रहेगा।
तो इन सबके बीच हम क्या करें? देश की जनता क्या करे? फिर एक और हमले का इंतजार करें? फिर नए जख्म सहने के लिए खुद को तैयार करें? अगर देश में आतंकी हमले पहली बार होते, तो अलग बात थी, लेकिन हम हमेशा दहशतगर्दों के निशाने पर रहे हैं। इसके बावजूद भी हम इतने लापरवाह क्यों हैं? गृह मंत्रालय ने 4 जुलाई को अलर्ट जारी किया था कि लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा के आतंकी देश में आतंकवादी वारदात को अंजाम दे सकते हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) ने फरवरी में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकियों की बातचीत इंटरसेप्ट की थी, जिसमें जुलाई में इंडियन मुजाहिदीन द्वारा मुंबई पर हमले की बात कही जा रही थी। इस बातचीत में यह भी जिक्र था कि इंडियन मुजाहिदीन ने आतंकवादियों के दो नए समूहों को इस काम पर लगाया है, जिनका कोई पुराना रिकॉर्ड पुलिस के पास मौजूद नहीं है। महाराष्ट्र पुलिस के एटीएस ने भी हाल ही में इंडियन मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों- मुहम्मद मोबिन अब्दुल शकूर खान उर्फ इरफान और उसके चचेरे भाई अयूब राजा उर्फ अमीन शेख को मुंबई में हथियार सहित पकड़ा था। इन आतंकियों ने पुलिस को आगाह किया था कि मुंबई पर फिर हमला हो सकता है और आतंकवादियों का एक समूह यहां आतंक फैलाने का षड्यंत्र कर रहा है। लेकिन इन तमाम जानकारियों और आशंकाओं के बावजूद देश के सुरक्षा तंत्र ने कोई गंभीरता नहीं दिखाई। आखिरकार, आतंकी एक बार फिर अपने मकसद में कामयाब हो गए। क्या काम है एनआईए, सीबीआई, रॉ, एटीएस और खुफिया तंत्र का? देश के खिलाफ जंग छेड़ने वाले आतंकी कसाब को अभी तक हम फांसी नहीं दे पाए। संसद पर हमले का दोषी अफजल गुरू आज भी जिंदा है। १९९३ के मुंबई सीरियल बम कांड में 13 साल बाद कोर्ट का फैसला तो आया, लेकिन दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी, जहां अब भी इस केस पर सिर्फ सुनवाई चल रही है। 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मुहम्मद आरिफ के फांसी की सजा पर अभी तक सुनवाई जारी है। 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमलावरों को फांसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 2005 में दीपावली के मौके पर दिल्ली के बाजारों में हुई आतंकी घटना की सुनवाई अब भी चल रही है। 2006 में मुंबई लोकल ट्रेनों में विस्फोट करने वाले आतंकियों को अभी तक सजा नहीं मिल पाई है। यही रवैया इस बार भी दिखाई देगा। सालों तक जांच चलेगी। जांच पूरी होगी नहीं, और फिर एक हमला।
अगर हमारे देश के कानूनी प्रावधान इसकी वजह हैं, तो क्या ऐसे कानूनों में बदलाव नहीं किया जाना चाहिए? अफजल गुरू को फांसी देने में आखिर हमारी सरकार क्यों झिझकती रही है? हमारा नरम और लापरवाही भरा रवैया ही आतंकी हमलों की असल वजह है। हम सहते हैं और आतंकी, वार पर वार करते हैं। हम मुंहतोड़ जवाब नहीं देते और आतंकियों का हौसला बढ़ता जाता है। लेकिन अब बहुत हुआ, अब इस देश को झूठे आश्वासन नहीं चाहिए। अब देश एक और हमले का इंतजार नहीं कर सकता। आतंकी तो हमें कायर मान ही चुके हैं, तो क्या अब हम भी खुद को कायर मान लें?
हमने बार-बार सहनशीलता दिखाकर यह तो बता दिया कि हम शांति के पक्षधर हैं, लेकिन क्या अब हमें यह साबित नहीं करना चाहिए कि हम कायर नहीं है? क्यों हम बार-बार अपनी सेनाओं के हाथ बांध देते हैं? हाथ में सबूत है, परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो चुकी है और हमें जवाबी कार्रवाई का हक है, इसके बावजूद हम चुप क्यों बैठे हैं? हमें जवाब चाहिए, हमें जवाब चाहिए हमारी व्यवस्था से, जिसके हाथों हमने हमारा देश सौंप रखा है?
मासिक पत्रिका 'फ्लाइंग स्क्वाड' के अगस्त अंक में प्रकाशित।
No comments:
Post a Comment