उदय केसरी
देश की राजनीति में देश कहीं पीछे छूटता जा रहा है। यह कोई नई बात नहीं है,
लेकिन जनता को बार-बार इसे याद कराना भी जरूरी है, क्योंकि जनता से जुड़े
मुद्दे अब सियासत के गलियारों में सत्ता और अहम के मुद्दों के आगे दम तोड़ने
लगे हैं। देश के नाम पर और जनता के वास्ते अनेक राजनीतिक दल मौजूद हैं,
लेकिन गौर करें तो लगभग पार्टियां पाइवेट लिमिटेड कंपनी जैसी या ऐसी
कंपनियों के लिए हो चुकी हैं।
उन्हें बस अपने नफे-नुकसान से मतलब है। भले ही उनके फैसलों से देश या जनता की उम्मीदें टूटती हों। भारतीय राजनीति की इसी बदली फितरत के कारण जनता में फैली निराशा ने पिछले एक-डेढ़ दशक में केंद्र की सत्ता में किसी दल को बहुमत नहीं दिया। निराष जनता ने क्षेत्रीय पार्टियों के कुछ कर गुजरने के वादों पर भरोसा किया। उन्हें आगे बढ़ाया, लेकिन आगे बढ़कर क्षेत्रीय दलों ने भी वहीं राह अख्तियार कर लिया, जिस पर बड़े चल रहे थे। बड़े दलों ने इस हालात में गठबंधन का रास्ता निकाल लिया और छोटे दलों को लॉलीपॉप बांटकर उनके प्रति जनता के भरोसों का सौदा करना प्रारंभ कर दिया। यूपीए और एनडीए इसी हालात में पैदा हुए। कहा गया देश में गठबंधन की सरकार बनना मजबूत भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक है। जनता ने इस मजबूती को पहले एनडीए सरकार के रूप में देखा, फिर पिछले आठ साल से यूपीए सरकार के रूप में देख रही है। फिर भी देश से महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की समस्याएं पर कोई लगाम नहीं लगा, बल्कि वे और भी विकराल होती र्गइं। वजह साफ है इस लोकतंत्र में जनादेश महज मजाक बनकर रह गया है, जिसे लेने भर तक जनता से वास्ता हो जैसे। इसके बाद तो जनादेश राजनीतिक दल की बपौती हो जाती है, जिसे वह चाहे जिस भाव बेचे/इस्तेमाल करे।
केंद्र में दूसरे टर्म की यूपीए सरकार का टर्म पूरा होने में अभी दो साल का वक्त बाकी है, लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियां इस साल की शुरुआत से ही शुरू हो चुकी है। यूपीए हो या एनडीए दोनों ही गठबंधनों में शामिल दलों के लिए आगामी लोकसभा चुनाव एक मिषन बन चुका है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि चुनाव की तैयारी गठबंधन के स्तर पर नहीं, पार्टी स्तर हो रही है, क्योंकि भारत की राजनीति में अब विचारधाराओं और आदर्शों को उसे मानने वालों के चित्रों तक ही सीमित रखा जाता है। उन चित्रों को तभी आगे किया जाता है, जब जनता से वोट मांगना हो। बाकी समय राजनीतिक दलों के लिए ‘मौकापरस्ती’ सबसे बड़ा धर्म और विचारधारा है और इसी की बुनियाद पर चुनाव से पहले गठबंधन टूटने-फूटने लगते हैं और चुनाव बाद जुड़ने और मजबूत होने लगते हैं। ऐसे में, यदि कोई दल गठबंधन धर्म की दुहाई देता हो-तो उसे महज जनता को भरमाने वाला ही माना जाना चाहिए। जैसा कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर ममता बनर्जी द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत तीन नामों की घोषणा करने के बाद कांग्रेस ने ममता पर गठबंधन धर्म की दुहाई देते हुए विश्वासघात करने का आरोप लगाया। तब ममता ने भी दो-टूक शब्दों में यूपीए से अलग होने में कोई एतराज नहीं होने की बात कह डाली। दूसरी तरफ ठीक ऐसी ही घटना एनडीए में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को लेकर घटी, जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में बिना नाम लिए यह साफ तौर पर कह दिया कि यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाती है तो जनता दल युनाइटेड एनडीए नहीं रहेगा। अब यूपीए और एनडीए में इन टूटफूट के संकेतों की वजहों को यदि मौकापरस्ती के चश्मे से देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि न ममता बनर्जी को राष्ट्रपति पद की गरीमा से कोई खास मतलब है और न ही नीतीश कुमार को धर्मनिरपेक्षता से कुछ लेना-देना है। मतलब सिर्फ आगामी चुनाव के संभावित निष्कर्षों के तहत अभी से ही कुछ तय रणनीतियों पर काम करने से है। ऐसी ही कुछ रणनीतियों के तहत समाजवादी पार्टी और दक्षिण की डीएमके भी यूपीए के साथ सामान दूरी बनाकर चल रही हैं।
अब सवाल है कि इन दलों की रणनीति क्या है? इन दलों को स्पष्ट तौर पर अंदाजा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में जब उनका सामना जनता से होगा तो आधुनिक भारतीय राजनीति के वही-बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे सनातन मुद्दें फिर सामने होंगे। इन मुद्दों पर वे फिर सदा की तरह पानी पी पीकर आश्वासन देंगे, लेकिन केंद्र में सरकार तो किसी सबसे बड़ी पार्टी के नेतृत्व में ही बनेगी-अब वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कोई और। इसलिए यदि अभी से ही किसी गठबंधन में चिपके रहे तो एक तरफ, जहां लोकसभा में अपने सांसदों की संख्या बढ़ाने की चाह प्रभावित हो सकती है, तो दूसरी तरफ चुनाव बाद मंत्री पद समेत अन्य तरह की सौदेबाजी में नुकसान हो सकता है। लेकिन इस बार ऐसे दलों की रणनीति का तीसरा कोण भी है। वह कोण है तीसरे मोर्चे का। यूपीए और एनडीए से बिदक रहे राजनीतिक दलों को इसबार जनता के मूड में शायद कुछ ज्यादा ही परिवर्तन दिख रहा है। इस परिवर्तन का अंदाजा उन्हें अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी अनशनों में विशाल जनभागीदारी के कारण भी हुआ है। जनता की इस मूड के आगे ऐसे दल 2014 में कांग्रेस का पतन तो देख ही रहे हैं, लेकिन इसके साथ ही उन्हें भाजपा की उन्नति पर भी शक है, जबकि वे तीसरे मोर्चे के बनने या बनाने की महत्वाकांक्षा पूरी होने की उम्मीद कर रहे हैं। इसीलिए वे विकास और धर्मनिरपेक्षता का नारा अभी से बुलंद करके मिषन-2014 को फतह करना चाहते हैं, ताकि उनके सामने राजनीतिक लाभ के रास्ते पर न किसी विचाराधारा का अवरोध हो और न ही किसी गठबंधन धर्म का रोड़ा।
उन्हें बस अपने नफे-नुकसान से मतलब है। भले ही उनके फैसलों से देश या जनता की उम्मीदें टूटती हों। भारतीय राजनीति की इसी बदली फितरत के कारण जनता में फैली निराशा ने पिछले एक-डेढ़ दशक में केंद्र की सत्ता में किसी दल को बहुमत नहीं दिया। निराष जनता ने क्षेत्रीय पार्टियों के कुछ कर गुजरने के वादों पर भरोसा किया। उन्हें आगे बढ़ाया, लेकिन आगे बढ़कर क्षेत्रीय दलों ने भी वहीं राह अख्तियार कर लिया, जिस पर बड़े चल रहे थे। बड़े दलों ने इस हालात में गठबंधन का रास्ता निकाल लिया और छोटे दलों को लॉलीपॉप बांटकर उनके प्रति जनता के भरोसों का सौदा करना प्रारंभ कर दिया। यूपीए और एनडीए इसी हालात में पैदा हुए। कहा गया देश में गठबंधन की सरकार बनना मजबूत भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक है। जनता ने इस मजबूती को पहले एनडीए सरकार के रूप में देखा, फिर पिछले आठ साल से यूपीए सरकार के रूप में देख रही है। फिर भी देश से महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की समस्याएं पर कोई लगाम नहीं लगा, बल्कि वे और भी विकराल होती र्गइं। वजह साफ है इस लोकतंत्र में जनादेश महज मजाक बनकर रह गया है, जिसे लेने भर तक जनता से वास्ता हो जैसे। इसके बाद तो जनादेश राजनीतिक दल की बपौती हो जाती है, जिसे वह चाहे जिस भाव बेचे/इस्तेमाल करे।
केंद्र में दूसरे टर्म की यूपीए सरकार का टर्म पूरा होने में अभी दो साल का वक्त बाकी है, लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियां इस साल की शुरुआत से ही शुरू हो चुकी है। यूपीए हो या एनडीए दोनों ही गठबंधनों में शामिल दलों के लिए आगामी लोकसभा चुनाव एक मिषन बन चुका है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि चुनाव की तैयारी गठबंधन के स्तर पर नहीं, पार्टी स्तर हो रही है, क्योंकि भारत की राजनीति में अब विचारधाराओं और आदर्शों को उसे मानने वालों के चित्रों तक ही सीमित रखा जाता है। उन चित्रों को तभी आगे किया जाता है, जब जनता से वोट मांगना हो। बाकी समय राजनीतिक दलों के लिए ‘मौकापरस्ती’ सबसे बड़ा धर्म और विचारधारा है और इसी की बुनियाद पर चुनाव से पहले गठबंधन टूटने-फूटने लगते हैं और चुनाव बाद जुड़ने और मजबूत होने लगते हैं। ऐसे में, यदि कोई दल गठबंधन धर्म की दुहाई देता हो-तो उसे महज जनता को भरमाने वाला ही माना जाना चाहिए। जैसा कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर ममता बनर्जी द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत तीन नामों की घोषणा करने के बाद कांग्रेस ने ममता पर गठबंधन धर्म की दुहाई देते हुए विश्वासघात करने का आरोप लगाया। तब ममता ने भी दो-टूक शब्दों में यूपीए से अलग होने में कोई एतराज नहीं होने की बात कह डाली। दूसरी तरफ ठीक ऐसी ही घटना एनडीए में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को लेकर घटी, जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में बिना नाम लिए यह साफ तौर पर कह दिया कि यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाती है तो जनता दल युनाइटेड एनडीए नहीं रहेगा। अब यूपीए और एनडीए में इन टूटफूट के संकेतों की वजहों को यदि मौकापरस्ती के चश्मे से देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि न ममता बनर्जी को राष्ट्रपति पद की गरीमा से कोई खास मतलब है और न ही नीतीश कुमार को धर्मनिरपेक्षता से कुछ लेना-देना है। मतलब सिर्फ आगामी चुनाव के संभावित निष्कर्षों के तहत अभी से ही कुछ तय रणनीतियों पर काम करने से है। ऐसी ही कुछ रणनीतियों के तहत समाजवादी पार्टी और दक्षिण की डीएमके भी यूपीए के साथ सामान दूरी बनाकर चल रही हैं।
अब सवाल है कि इन दलों की रणनीति क्या है? इन दलों को स्पष्ट तौर पर अंदाजा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में जब उनका सामना जनता से होगा तो आधुनिक भारतीय राजनीति के वही-बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे सनातन मुद्दें फिर सामने होंगे। इन मुद्दों पर वे फिर सदा की तरह पानी पी पीकर आश्वासन देंगे, लेकिन केंद्र में सरकार तो किसी सबसे बड़ी पार्टी के नेतृत्व में ही बनेगी-अब वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कोई और। इसलिए यदि अभी से ही किसी गठबंधन में चिपके रहे तो एक तरफ, जहां लोकसभा में अपने सांसदों की संख्या बढ़ाने की चाह प्रभावित हो सकती है, तो दूसरी तरफ चुनाव बाद मंत्री पद समेत अन्य तरह की सौदेबाजी में नुकसान हो सकता है। लेकिन इस बार ऐसे दलों की रणनीति का तीसरा कोण भी है। वह कोण है तीसरे मोर्चे का। यूपीए और एनडीए से बिदक रहे राजनीतिक दलों को इसबार जनता के मूड में शायद कुछ ज्यादा ही परिवर्तन दिख रहा है। इस परिवर्तन का अंदाजा उन्हें अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी अनशनों में विशाल जनभागीदारी के कारण भी हुआ है। जनता की इस मूड के आगे ऐसे दल 2014 में कांग्रेस का पतन तो देख ही रहे हैं, लेकिन इसके साथ ही उन्हें भाजपा की उन्नति पर भी शक है, जबकि वे तीसरे मोर्चे के बनने या बनाने की महत्वाकांक्षा पूरी होने की उम्मीद कर रहे हैं। इसीलिए वे विकास और धर्मनिरपेक्षता का नारा अभी से बुलंद करके मिषन-2014 को फतह करना चाहते हैं, ताकि उनके सामने राजनीतिक लाभ के रास्ते पर न किसी विचाराधारा का अवरोध हो और न ही किसी गठबंधन धर्म का रोड़ा।
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