राजनीतिक खेल में मीडिया पर सवाल

शोमा चौधरी
22 जुलाई की शाम 4:05 बजे भारतीय राजनीति एक सीढ़ी और नीचे उतर गई. एक लाख रुपये अपनी मेज़ की दराज में रखते बंगारू लक्ष्मण, बलात्कार और खून-खराबे का महिमामंडन करता बाबू बजरंगी, संसद में सवाल पूछने के लिए पैसे लेते 11 लोकसभा सांसद, सांसद निधि के इस्तेमाल में घालमेल करते सांसद, ये सब टीवी पर देखने के बाद लोगों ने संसद में नोटों की गड्डियां लहराते बीजेपी सांसदों को देखा. ये पैसे उन्हें कथित रूप से यूपीए सरकार के पक्ष में मतदान के लिए दिए गए थे.
विश्वासमत पर मतदान से काफी दिनों पहले से ही राजधानी में इस तरह के काले करारों पर चर्चाओं का बाज़ार गर्म था. मगर इसकी निंदा करने और इसे घृणास्पद बताने के बजाए, ज्यादातर राजनीतिज्ञ और मीडियाकर्मियों के बीच ये कीमत बढ़ जाने जैसी बातों को लेकर मज़ाक की वस्तु बना हुआ था. सब कुछ चलता है वाला माहौल था.
मगर संसद के बीचोंबीच हुई घटना ने सब कुछ बदल दिया और अब तरह-तरह के सवाल पूछे जाने लगे हैं. कहा जा रहा है कि विश्वास मत पर मत तो प्राप्त कर लिया गया मगर विश्वास खो दिया गया है. इस सब में एक विचित्र बात ये रही कि न्यूज़ चैनल सीएनएन आईबीएन—और मीडिया--की भूमिका चर्चाओं के केंद्र में आ गई है. जब बीजेपी के तीनों सांसद संसद में नोटों के बंडल लहराते हुए ये भी चिल्ला रहे थे कि सीएनएन आईबीएन के पास इस रिश्वत कांड के वीडियो साक्ष्य मौजूद हैं--ऐसा वे निराशा में कर रहे थे और जानकारों के मुताबिक उन्हें इसी बात के लिए दंडित किया जा सकता है. मगर यदि इन सब बातों को कुछ देर के लिए दरकिनार कर दिया जाए तो पूछा जा सकता है कि एक अति महत्वपूर्ण संसदीय मतदान के दौरान अगर किसी के पास सांसदों के एक समूह द्वारा दूसरे समूह को रिश्वत देने के प्रमाण हों तो इससे बड़ी लोकहित की खबर और क्या हो सकती है?
मगर कुछ समझ न आ सकने वाले कारणों के चलते सीएनएन आईबीएन ने इसे प्रसारित ही नहीं किया. जैसे ही मामला प्रकाश में आया टेप्स और इससे मिलने वाले सबूतों के अभाव में पहले की ही तरह मामले को नकारने और इसे खारिज करने का दौर शुरू हो गया. अमर सिंह ने एक तरह से युद्ध छेड़ दिया औऱ हमेशा चुप्पी धारे रखने वाले अहमद पटेल ने प्रतिज्ञा कर डाली कि अगर आरोप सिद्द हो जाते हैं तो वे सार्वजनिक जीवन से ही सन्यास ले लेंगे.
सीएनएन आईबीएन ने टेप्स को प्रसारित न करने का बचाव ये कह के किया कि चूंकि मामले में ‘संसद के सम्मानित सदस्य’ शामिल हैं इसलिए उसे अत्यधिक सावधानी बरतने और इसे और भी सत्यापित करने की आवश्कता है. लेकिन वरिष्ठ अधिवक्ता और समाजसेवी प्रशांत भूषण इससे संतुष्ट नहीं है. “बतौर पत्रकार टेप्स को दुनिया के सामने लाना उनका कर्तव्य था. उन्होंने वास्तव में गलती की है. शायद उन्हें किसी मतलब रखने वाले वकील की सलाह ने डरा दिया या फिर ऐसा उन्होंने किन्हीं दूसरी वजहों को ध्यान में रखते हुए किया”
दो पूर्व कानूनमंत्री राम जेठमलानी औऱ शांति भूषण भी मामले में इसी तरह की मज़बूत राय रखते हैं. भूषण कहते हैं, “इससे क्या लेना देना कि जांच पूरी नहीं हुई है. सबूतों को सामने न लाकर राजदीप अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं. चारों तरफ फैली हुई अफवाहों पर नज़र डालिए. अब जबकि मामला दुनिया के सामने है उन्हें साक्ष्यों को, ये कहते हुए कि वो अपूर्ण हैं, दुनिया के सामने लाना चाहिए. कम से कम दुनिया को पता तो चलेगा कि टेप्स में आखिर है क्या.”
मगर राजदीप गुस्से में इसका बचाव करते हुए कहते हैं, “कब क्या प्रसारित करना है इसपर संवैधानिक विशेषज्ञ और राजनीतिक दल मुझे कैसे आदेश दे सकते हैं? क्या उन्हें पता है कि टेप्स में क्या है? हमें सत्यता जांचने के लिए और भी समय की आवश्यकता थी और हम इसे प्रसारित करने के लिए तैयार नहीं थे?
शायद उनकी बात में दम हो. पिछले बड़े भंडाफोड़ों पर राजनीतिक व्यवस्था ने जैसा कहर ढ़ाया था, शायद उसने उनके मन में भय पैदा कर दिया हो. शायद एक बेहद महत्वपूर्ण स्टोरी के आधा-अधूरा होने को लेकर भी हिचक रही हो. लेकिन, जैसा कि उनके समुदाय के दूसरे सदस्य उन्हें बता सकते हैं कि अगर आपके पास एक गर्म आलू है तो इसे आपको, आपका हाथ जलाने से पहले छोड़ देना होता है.
इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता कहते हैं, “परेशानी ये है कि अब सब कुछ अनुमान के स्तर पर हो रहा है. एक पत्रकार के रूप में हम सरकार या सीबीआई या सरकारी वकील के लिए काम नहीं करते हैं. हमारी जवाबदेही जनता के प्रति होती है.”
पायोनियर के प्रधान संपादक चंदन मित्रा ज़्यादा सतर्क राय रखते हुए कहते हैं, “मेरे हिसाब से राजदीप ने मतदान से पहले टेप्स को न प्रसारित करके सही किया. ऐसा एक राजनीतिक दल की मदद करने जैसा होता जो कि इस मामले में बीजेपी होती. मगर इससे एक गलत प्रथा पड़ जाती. किसी दिन ये उसके खिलाफ भी जा सकता था, इसलिए, सिद्दांतत: उन्होंने सही किया”
कई लोग कह सकते हैं कि राजनीतिक गुणा भाग करना ईमानदार पत्रकारिता नहीं है औऱ स्टोरी को केवल इसकी योग्यता के आधार पर प्रकाशित किया जाना चाहिए. लेकिन फिलहाल समस्या ये है कि सीएनएन आईबीएन के पक्ष और विपक्ष में जो कुछ भी हो रहा है वो सब अंधेरे का हिस्सा है.
साभार: तहलका हिन्दी डॉट कॉम

मीडीया और भारतीय स्त्री

मनीषा कुलश्रेष्ठ
पिछले कुछ अरसे से भारतीय मीडीया में भारतीय स्त्री का अस्तित्व बहुत ही मुखर होकर उभरा है। चाहे वह कला व साहित्य हो, टेलेविजन हो या हिन्दी सिनेमा। हिन्दी साहित्य में यह बोल्डनेस साठ के दशक से आरंभ होकर आज मैत्रेयी पुष्पा के बहुचर्चित उपन्यास चाक और मृदुला गर्ग के कठगुलाब तक चली आ रही है। उस पर विशुध्द कला और साहित्य को तो मान लिया जाता है कि कुछ बुध्दीजीवी लोगों का क्षेत्र है। नैतिक-अनैतिक शील-अश्लील की बहस उनमें आपस में होकर खत्म हो जाती है। आम आदमी का क्या वास्ता?किन्तु टेलेविजन और सिनेमा?? जब तक दूरदर्शन विशुध्द भारतीय छवि में रहा, वहां स्त्री अपनी पूर्ण मर्यादा के साथ दिखाई जाती रही, और विवाहेतर सम्बंध से पुरूषों को ही जोडा जाता था, वह भी पूरे खलनायकी अन्दाज में और दर्शकों की पूरी सहानुभूति पत्नी के साथ होती थी।जैसे ही अन्य चैनलों का असर बढा और बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल की तर्ज पर शोभा डे और महेश भट्ट के स्वाभिमान जैसे कई धारावाहिक बने जिनमें विवाहेतर सम्बंधों को बहुत अधिक परोसा गया, ऐसे में दूरदर्शन भी पीछे न रहा।झडी लग गई ऐसे धारावाहिकों की और अब यह हाल है कि बहुत गरिष्ठ खाकर दर्शकों को जब उबकाई आई और ये धारावाहिक अब उबाने लगे तो ऐसे में आजकल एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी जैसे भारतीय संस्कृति से जुडे धारावाहिकों का सुपाच्य रूप फिर से लोकप्रिय हो गया।
और हिन्दी सिनेमा! समानान्तर फिल्मों में कुछ पुरूषों के विवाहेतर संबंधों को जस्टीफाई करती अर्थ, ये नजदीकियां जैसी कुछ फिल्में आई थीं जो कि एक अलग सोसायटी का प्रतिनिधित्व करती थीं।
किन्तु अभी पिछले दो-चार सालों रीलीज्ड़ फिल्मों आस्था और अस्तित्व जैसी फिल्मों ने स्त्री की सेक्सुएलिटी पर बहुत ही गंभीर किस्म के प्रश्न उठाए हैं। यह प्रश्न चौंकाने वाले थे, क्योंकि इसमें विवाहेतर संबंध रखने वाली स्त्री शोभा डे के उपन्यासों की उच्च वर्ग की वुमेन लिब का नारा लगाती स्त्री नहीं थी, न निचले तबके की मजबूर स्त्री थी।यह तो भारतीय समाज का प्रतिनीधित्व करने वाले वर्ग मध्यमवर्ग की नितांत घरेलू, खासी पारम्परिक स्त्री और उसकी मायने न रखने वाली नारी की देह और इच्छाओं पर गंभीर प्रश्न उठा था। इस प्रश्न ने सबको सकते में डाल दिया था। पुरूष सोचता रहा क्या ये भी हमारी तरह सोच सकती हैं? स्त्री स्वयं हतप्रभ थी, क्या उसका भी घर-परिवार से अलग अस्तित्व हो सकता है? ये कैसे प्रश्न थे, जो आज तक तो उठे नहीं थे। इसे तो पश्चिमी सभ्यता का असर कह कर टाला नहीं जा सकता। क्या ये नए प्रश्न कुछ सोचने को मजबूर नहीं करते अगर साहित्य और मीडिया समाज का दर्पण हैं तो? साभार : हिंदीनेस्ट डॉट कॉम

हम भारतीय कब चेतेंगे!

आशीष गर्ग
मैं कई दिनों से यह सोच रहा हूं कि काश मैं भारत में न पैदा हुआ होता।
यह विचार मेरे मन में इसलिये आता है क्यों कि हम भारतवासी किस चीज पर गर्व कर सकते हैं। हमको बचपन से यह सिखाया जाता है कि हम लुटे पिटे हुये लोग हैं। पहले हमको तुर्कों ने पीटा फ़िर मुगलों ने और फिर अंग्रेजों ने और आज करोडों भारतीयों पर काले अंग्रेज दिखने में भारतीय पर आत्मा से अंग्रेजी मोह से ग्रस्तहृ राज कर रहे हैं जो कि बाहर से तो देखने में तो भूरे हैं लेकिन अंदर से एकदम अंग्रेज।
कहने को तो हमारे यहां लोकतंत्र है लेकिन न्यायालय का एक निर्णय सुनने के लिये पूरा जीवन भी कम पड ज़ाता है। हमको यह नहीं सिखाया गया कि हमारी सभ्यता 5000 हजार सालों से भी पुरानी है। हमारे यहां वेद उपनिषद पुराण ग़ीता महाभारत जैसे महान ग्रंथों की महानता एवं उनका आध्यात्म नहीं सिखाया जाता वरन् अंधविश्वासरत रूढियां सिखायी जाती हैं। हमारे यहां अपनी भाषा का सम्मान करना नहीं सिखाया जाता है बल्कि हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा में पढने वाले को पिछडा हुआ या बैकवर्ड समझा जाता है। हमको यह सिखाया जाता है कि शिवाजी, गुरू तेगबहादुर जी जैसे महावीर लोग लुटेरे थे। हमारा सबकुछ आक्रमणकारियों या हमलावरों की देन है चाहे वो भाषा हो या संस्कृति या और कुछ।
हमारे घरों में अंग्रेजी में पारंगत होने पर बल दिया जाता है क्योंकि संस्कृत या हिन्दी या अन्य भारतीय भाषायें तो पुरातन और पिछडी हुई हैं। लोग अपने बच्चों को अंग्रजी स्कूल में दाखिला दिलाने के लिये हजारों लाखों कुर्बान करने को तैयार हैं। बच्चों को शायद वन्दे मातरम न आता हो लेकिन ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार जरूर आता होगा। जयशंकर प्रसाद के नाम का तो पता नहीं लेकिन सिडनी शेल्डन का नाम अवश्य पता रहता है। हम जो इतिहास पडते हैं वो अंग्रेजों या अंग्रजी विचारधारा के लोगों द्वारा लिखा गया है ज़ो कि हमारी संस्कृति हमारी सभ्यता हमारे आचार विचार हमारे धर्म को ठीक तरह से जानते तक नहीं हैं। ऐसे में हम कैसे सही बिना किसी द्वेष भावना के लिखा गये एवं सच्चाई से अवगत कराने वाले इतिहास की उम्मीद कर सकते हैं? क्या कारण है कि हम इनके द्वारा लिखे गये इतिहास को सच समझ लें। और यही कारण हो सकता है कि हम अपना इतिहास ठीक से न जानते हैं और न ही समझते हैं।
इतिहास एक ऐसी चीज है जो कि भावी पीढी क़े मन में अपनी संस्कृति का सम्मान उत्पन्न करता है जो कि हमसे छीन लिया गया है। हम हजारों लाखों की तादाद में सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनाते हैं और अपने को गर्व से सूचना क्षेत्र की महाशक्ति कहते हैं परन्तु आजतक हम अपनी भाषाओं में काम करने वाले सॉफ्टवेयर एवं कम्प्यूट्र नहीं बना पाये हैं। हमारा काम लगता है कि हम पैसा खर्च करके इन इंजीनियरों को बनायें और पश्चिमी देशों को उपलब्ध कराना है जिनमे से ज्यादातर भारत नहीं लौटना चाहते हैं।
पहले हमको अंग्रजों ने गुलाम किया अब हम अंग्रेजियत के गुलाम हैं। लगता है कि हमारा कोई अस्तित्व है ही नहीं। क्या हम इसीलिये आजाद हुये थे? पता नहीं हम भारतवासियों की आत्मा कब जागेगी? साभार : हिंदीनेस्ट डॉट कॉम

राजनीति का हम्माम और नंगे हुक्काम

संजय दुबे
तीनों राज्यों में जहां वामपंथियों की सरकारें हैं इनका कांग्रेस से सांप-छछूंदर वाला बैर है. मगर इसके बाद भी केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार अगर बनी और बन के पिछले चार सालों से चल रही है तो इसके पीछे वामदलों का इसको दिया हुआ जीवनदायी सहारा है. विचारधारा की कोई समानता नहीं, कोई स्थाई हित नहीं, साथ होकर भी जनता को समय-समय पर दूरी का एहसास कराने की मजबूरी होने के बाद भी कहा गया कि ऐसा सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बाहर रखने की वजह से किया नहीं जा रहा बल्कि करना पड़ रहा है. सारे देश को वामपंथियों का एहसानमंद होना चाहिए कि उन्होंने देश को कट्टरवादिता औऱ सांप्रदायिकता के राक्षसों का ग्रास होने से बचा लिया!
गठबंधन के पक्ष में एक तर्क ये भी था कि अगर कांग्रेस नीत गठबंधन पर वामपंथियों की लगाम रहेगी तो सरकार की नीतियां ज़्यादा जनोन्मुखी होंगीं और देश उदारवाद के नाम पर पूंजीवाद के चंगुल में फंसने से भी बचा रहेगा.
मगर पिछले कुछ महीनों से वामपंथियों की जनहित के प्रति प्रतिबद्धता सिंगूर और नंदीग्राम जैसी जगहों की वजह से खुल कर लोगों के सामने आ रही है. चलिए हो सकता है वामपंथियों की निगाह में जनहित वही हो जो वो वहां पर कर रहे हैं या करना चाह रहे थे या चाह रहे हैं. मगर सांप्रदायिकता के नाम पर सत्ता से दूर रहते हुए भी उसके सभी लाभों का मज़ा लेने वाले वामपंथी खुद कितने धर्मनिरपेक्ष हैं पिछले कुछ दिनों में इसका भी पता चल चुका है. पहले तो तस्लीमा नसरीन के मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार का रुख जैसा था उसने राज्य सरकार की धर्मनिरपेक्षता के डंके बजाए. नंदीग्राम की घटना से बौखलाए मुसलमानों को मनाने के लिए सीपीएम ने तस्लीमा को बलि का बकरा बना दिया. अब सीपीएम पोलित ब्यूरो के सम्मानित सदस्य और इसके मज़दूर संगठन सीटू के महासचिव एम के पांधे के बयान ने रही सही कसर भी पूरी कर दी है.
पांधे ने अपने बयान में समाजवादी पार्टी को चेतावनी देते हुए कहा था कि उन्हें भारत-अमेरिकी परमाणु करार के मसले पर कांग्रेस का साथ देने से पहले अपने मुस्लिम वोट बैंक को ध्यान में रखना चाहिए. उनका कहना था कि समाजवादी पार्टी का ज़्यादातर प्रभाव मुसलमानों में है इसलिए परमाणु करार उसके लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकता है क्योंकि अधिकतर मुसलमान अमेरिका की वजह से इसके पक्ष में नहीं हैं.
सवाल ये उठता है कि क्या पांधे का ऐसा कहना उस समाजवादी पार्टी को सांप्रदायिकता का जामा पहनाना नहीं हो गया जिसकी गलबहियों से वामदलों को कभी कोई गुरेज नहीं रहा और जिन्हें हमेशा वे धर्मनिरपेक्षता की मिसाल बताते रहे हैं? क्या पांधे ये कहना चाहते थे कि भारतीय मुसलमान राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर कोई निर्णय लेते वक्त देश हित की बजाय किसी और ही बात पर ध्यान देते हैं?
देश के हित या अहित से जुड़े सवाल पर सवाल उठाना, उसके हानि-लाभ पर विचार कर उसका समर्थन या विरोध करना लोकतंत्र की एक बड़ी विशेषता ही नहीं बल्कि व्यवस्था भी है. मगर उसके पक्ष-विपक्ष में माहौल तैयार करने के लिए इस हद तक कुतर्क का सहारा लेना वामदलों के दोहरे चरित्र को ही उजागर करता है. एक देशहित से जुड़े मसले पर इसकी अच्छाई-बुराई के आधार पर समर्थन जुटाने के बजाय इसे हिंदू मुसलमान का मसला बनाना इस बात का द्योतक है कि राजनीति के हमाम में आज सभी नंगे हैं. न कोई धर्मनिरपेक्ष, न कोई सांप्रदायिक, न कोई वामपंथी न कोई दक्षिणपंथी, न कोई समाजवादी और न ही कोई पूंजीवादी...सत्ता का चरित्र अब किसी विचारधारा का गुलाम नहीं...देश की आज़ादी के साथ ही अब ये भी आज़ादखयाल बन चुका है. साभार: तहलका हिन्दी डॉट कॉम

भारत की आत्मा कहां रहती है?

रवीश कुमार
भारत की आत्मा अब गांवों में नहीं रहती है। पंद्रह साल पहले का सरकारी टेक्स्टबुक एलान करता था कि भारत की आत्मा गांवों में रहती है। जब भी गांव से शहर आता था लगता था कि गांव में आत्मा को अकेला छोड़ कर आ रहे हैं। शहर में आते ही लगता था यहां सब है मगर आत्मा नहीं क्योंकि आत्मा तो गांवों में रहती है। भूगोल का ज्ञान हुआ तो सोचने लगा कि भई अमेरिका या जापान की आत्मा कहां रहती होगी? क्या उधर की आत्मा भी गांव में रहती है या फिर सबर्ब या उपनगर में रहती है। जवाब किसी से नहीं मिलता। सवाल पूछता भी नहीं वरना लोग कहते बेवकूफ है। लिहाज़ा ख़ुद को बुद्धिमान कहलाते रहने के लिए ऐसे सवालों को ताक पर रख देता।
बिहार की राजधानी पटना से मोतिहारी ज़िला अपने गांव जाता था तो लगता था कि वहां आत्मा इंतज़ार कर रही होगी। टूटी सड़कें, बैलगाड़ियां, कभी न खड़े हो सकने वाले बिजली के खंभे आदि आदि। इन्हीं सब में आत्मा नहीं होती थी। ये तमाम समस्याएं आत्माओं के अभाव में बेजान पड़ी रहती थीं। आदमी चलते फिरते नज़र आते थे तो लगता था कि हां इन्हीं में है आत्मा। मगर शहर में भी तो आदमी चलते हैं। वहां आत्मा किधर रहती है। इतिहासकार भी तो बता रहा था कि बिहार बनने से सदियों पहले पाटलिपुत्र काल में पटना के आस पास गांव ही होंगे। जब गांव से शहर बना होगा तब क्या आत्माओं ने पटना छोड़ दिया होगा।
ख़ैर अच्छा हुआ मैंने इस सरकारी टेक्स्टबुक को दूसरी क्लास में नहीं पढ़ा। हमारे हिंदुस्तान में टेक्स्टबुक के साथ सबसे बड़ी ख़ूबी यही है। आपको एक साल के लिए ही झेलना पड़ता है। दूसरी क्लास में दूसरे टेक्स्टबुक आ जाते हैं। लेकिन ज़हन में गांवों में आत्मा के रहने का ख़्याल बना रहता था। अब तो यह कहा जा रहा है कि गांव से लोग शहर में आ रहे हैं। गांव के लोगों का काम आत्माओं से नहीं चल रहा। उन्हें कमाना है, खाना है और बच्चों को पढ़ाना है। इसके लिए आत्मा की विशेष ज़रूरत नहीं होती।
पिछले साल एक रिपोर्ट आई थी। कहा गया कि आज से २२ साल बाद यानी २०३० में भारत में शहर में रहने वालों की आबादी बढ़ जाएगी। इस समय कुल भारतीय आबादी का २८.४ फीसदी हिस्सा ही शहरों में रहता है। २२ साल बाद यह ४०.७६ फ़ीसदी हो जाएगा। यानी शहर बढ़ेंगे और गांव घटेंगे। दिल्ली के आस पास न जाने कितने गांवों को पांच साल के भीतर दफन होते देखा है। कई सारे गांवों को खत्म कर एनसीआर बन गया है। मुंबई भी आस पास के गांवों को निगलती जा रही है। शहर फैल रहे हैं और शहर में लोग आ रहे हैं। गांव के गांव खाली हो गए हैं। पुरानी सरकारी योजनाओं के तहत बनी सरकारी इमारतों में अब कोई नज़र नहीं आता। बीच बीच में आइडिया, वोडाफोन और एयरटेल के फोन की घंटी बजती रहती है। लगता है खंडहर होते गांवों में आत्माएं मिलकर कोई भुतहा नाच कर रही हैं। दिल्ली, मुंबई, सूरत और सतना से आवाज़ आती है। हैलो। हैलो। हां हां बोलो। घन्न घन्न आती आवाज़ सांय सांय की जगह ले रही है। गांव में बैठे बूढ़े मां बाप शहर गए बच्चों की आत्मा को फिक्स डिपोज़िट की तरह संभाल कर रखे होते हैं। उन्हें लगता है कि बेटा लौटेगा। कुछ दिन तक तो यह सिलसिला होली, दिवाली और छठ में चलता है। बाद में दिल्ली में पूर्वांचल समाज बन जाता है। कालोनी में गड्ढा खोद कर सूरज को अर्ध्य देने लगते हैं। यमुना नदी पर छठ से अनजान शीला दीक्षित छठ समारोह का औपचारिक उद्घाटन कर देती हैं। गांव वाली आत्मा इंतज़ार करती रहती है।
मुझे लगता है कि अब आत्माओं की सांवैधानिक जगह में बदलाव करने का वक्त आ गया है। सरकारी टेक्स्ट बुक को बदलना होगा। बोलना होगा कि भारत की आत्मा गांव से शहरों की तरफ बहुत तेज़ी से शिफ्ट हो रही है। गांवों में आत्माओं की संख्या में गिरावट देखी गई है। शहर में आत्माओं की संख्या बढ़ रही है। अब मुझे शहर में खालीपन नहीं लगता। गांव की याद नहीं आती। क्योंकि वहां रहने वाली आत्मा अब यहां आ गई है। अब उससे मिलने के लिए ट्रेन पकड़ कर नहीं जाना पड़ेगा।
साभार: तहलका हिन्दी डॉट कॉम